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________________ ग्रन्थ- समीक्षा श्रुताराधना ( २००८ ) पुस्तक का नाम - श्रुताराधना २००८ ( प्रवचन संकलन ) । प्रवचनकार- प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी । प्रकाशक - श्री कुण्डलपुर दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, कुण्डलपुर ( दमोह, म० प्र० ) । प्रकाशनवर्ष - २००९ ई० । प्रस्तुति- पं० ऋषभ शास्त्री, ईसरी बाजार । सम्पादक- पं० मूलचन्द लुहाड़िया एवं डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी । मूल्य- ३० रुपये । प्राप्तिस्थान- पं० मूलचन्द लुहाड़िया, जयपुर रोड, मदनगंज- किशनगढ़ (राज० ) ३०५८०१ । केवलज्ञान, धारावाहिक ज्ञान, नित्योद्घाटित ज्ञान और परमपारिणामिक-भाव के सम्बन्ध में आगमोक्त सूक्ष्म, गहन, गम्भीर चर्चा की गई है। दूसरे दिन के सत्रों में प्रवचनभक्ति, प्रशस्तराग, क्या सम्यक्त्व बंध का कारण है? क्या रत्नत्रय भी बंध का कारण है? सराग सम्यग्दर्शन, वीतराग सम्यग्दर्शन, शुद्धात्मानुभूति आदि से सम्बंधित धारणाएँ उद्बोधन का विषय रही हैं और शिविर के अन्तिम दिवस के सत्र में पूर्वाचार्यों के अवदानस्वरूप प्राप्त निर्दोष श्रुत को सही समझकर अध्ययन कर, फिर दूसरों के सामने समर्पित करने की प्रेरणा रूप उद्बोधन द्वारा श्रोताओं से अपने जीवन को सार्थक बनाने की अपेक्षा आचार्यश्री ने की है। सत्रों में श्रोताओं की शंकाओं के समाधान भी आचार्यश्री ने किये हैं। । सन् २००७ में कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र पर आयोजित प्रथम श्रुताराधना शिविर में भाग लेनेवाले तथा शिविर में दिए गए प० पू० आचार्यश्री के प्रवचनों की पुस्तक का स्वाध्याय करने वाले विद्वज्जन एवं स्वाध्यायशील भाई-बहिनों की यह तीब्र हार्दिक भावना थी कि सन् २००८ में भी ऐसा ही शिविर आयोजित हो । आचार्यश्री की कृपापूर्ण स्वीकृति से म० प्र०के सिलवानी नामक कस्बे में जून २००८ में शिविर का आयोजन किया गया। उसमें तीन दिन तक पाँच सत्रों में आचार्यश्री ने जो प्रवचन किये थे, उनका संकलन 'श्रुताराधना २००८' नाम से प्रकाशित किया गया है। आचार्यश्री के कतिपय वक्तव्यों का उल्लेख यहाँ प्रस्तुत है । 'अनुक्रम' के अवलोकन से भी पाठकों को इनकी विविधता की जानकारी हो जाएगी। १. हमारे नित्य स्वभाववाला यदि कोई ज्ञान है, तो उसे प्राप्त करने के लिए श्रुत की आराधना अनिवार्य है। दुनिया के पदार्थों को जानने के लिए हम श्रुत की आराधना नहीं कर रहे हैं। (पृ. २) आज जैनदर्शन की नयव्यवस्था की सर्वथा उपेक्षा कर व्रतसंयमाचरणशून्य शुष्क अध्यात्मचर्चाओं के माध्यम से 'श्रुत' की जो पक्षपातपूर्ण व्याख्या की जा रही है, निश्चित ही वह जिनवाणी- उपासकों के लिए अतीव चिन्ता का विषय है । 'देव, शास्त्र और गुरु' त्रयी में आज साक्षात् देव की अविद्यमानता में भव्य जीवों के समीचीन मार्गदर्शक श्रुतदेवता (शास्त्र) ही हैं, जिनके निर्देशन में अनगार और सागार सभी को मोक्षमार्ग पर चलने की सम्यक् प्रेरणा मिलती । यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज हमारे बीच पूर्ववर्ती दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत समीचीन सिद्धान्त एवं तत्त्वप्ररूपक ग्रन्थ श्रुत के रूप में विद्यमान हैं और अनेक दिगम्बर गुरुओं सहित सन्तशिरोमणि पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जैसे श्रुतसंरक्षक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। पूज्य आचार्यश्री आधुनिक प्रकाशनों और उनमें उपलब्ध सतही और असमीचीन व्याख्याओं व गलत अनुवादों से बहुत खिन्न हैं और शिविर के तीन दिनों में दिये गए उनके उद्बोधनों में यह पीड़ा स्पष्ट झलकती है। श्रुताराधना (२००८) का विवेच्य विषय २. श्रुतमनिन्द्रियस्य । अनिन्द्रिय मन होता है और उसका विषय श्रुत होता है। श्रुतज्ञान जब उत्पन्न होता है तो वह मतिपूर्वक ही होता है, लेकिन इन्द्रियविषयों से उत्पन्न नहीं होता है। इसे आप लोगों को पकड़कर चलना है । वह इन्द्रियों का विषय नहीं । (पृ. ७-८ ) ३. मति, श्रुत सम्यग्ज्ञान हैं, पर केवलज्ञान की किरण नहीं । (पृ. ८) ४. क्षायिक और क्षायोपशमिक को एक मान करके किरण होने की बात करना ठीक नहीं । (पृ. १० ) ५. क्षायिक ज्ञान परमपारिणामिकभाव नहीं होता प्रथम दो सत्रों में श्रुत, श्रुतज्ञान क्षायिकज्ञान, है, कुन्दकुन्द महाराज ने परम पारिणामिक का अर्थ लिखा 28 जुलाई 2009 जिनभाषित
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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