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"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्'
का भावानुवाद
आचार्य श्री विद्यासागर जी
'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है, जिसमें भूत, भावित और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है, तैर रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से! व्यावहारिक भाषा में सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है: आना, जाना लगा हुआ है आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और है यानी चिर-सत् यही सत्य है यही तथ्य...!
इससे यह और फलित हुआ, कि देते हुए श्रय परस्पर मिले हैं ये सर्व-द्रव्य पय-शर्करा से घुले हैं शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से
छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से। फिर कौन किसको कब ग्रहण कर सकता है? फिर कौन किसका कब
हरण कर सकता है? अपना स्वामी आप है अपना कामी आप है फिर कौन किसका कब भरण कर सकता है?...
फिर भी, खेद है ग्रहण-संग्रहण का भाव होता है सो.... भवानुगामी पाप है। अधिक कथन से विराम, आज तक यह रहस्य खला कहाँ? जो 'है' वह सब सत् स्वभाव से ही सुधारता है स्व-पन...स्वपन....स्व-पन.... अब तो चेतें-विचारें अपनी ओर निहारें अपन....अपन....अपन।
यहाँ चल रही है केवल तपन..... तपन..... तपन....!
मूकमाटी (पृष्ठ १८४-१८६) से साभार