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________________ उदय ही सासादन - सम्यग्दृष्टिरूप पर्याय के उत्पाद का और प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का कारण है । इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि भव्यजीव की ये चार अवस्थायें हो सकती हैं, लेकिन होगी तो चार में से एक ही । इस प्रकार यह सारी व्यवस्था आगम से प्रमाणित और निर्दोषहेतु पूर्वक सिद्ध होती है। २. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि श्रमण उपशम श्रेणी पर आरोहण के लिए जब द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए तीन कारण करते हैं और सात प्रकृतियों का उपशम करते हैं, तो यहाँ भी अनिवृत्तिकरण औपशमिक भावरूप द्वितीयोपशम-सम्यग्दर्शन-पर्याय के उत्पाद का और क्षायोपशमिकभावरूप क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन पर्याय के व्यय का हेतु है । ३. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कर्मभूमि का मनुष्य जब केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोहनीय की क्षपणा करता है, अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि बनने के लिए तीन करण करता है, तो यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण परिणाम ही क्षायिक सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के उत्पाद का (जो की क्षायिक भाव है) और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का (जो क्षायोपशमिक भाव है ) कारण है । परस्परनिरपेक्ष उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाशपुष्प के समान अवस्तु हैं । टीप- यहाँ पर केवल सम्यग्दर्शन की विवक्षा से कथन है। सम्यग्दर्शन कथंचित्पर्याय भी है । कथंचित्गुण भी है। और कथंचित-भाव भी है । अनेकान्त और आगम से कोई बाधा नहीं। लौकिक उदाहरणों को भी देखिए - १. जो आटे के उत्पाद का कारण है, वही गेहूँ के व्यय का कारण है। रोटी, बाटी, पराठा की उत्पत्ति का कारण ही आटे के नाश का कारण है। व्यय का कारण है । ३. रोग की उत्पत्ति का अन्तरंग हेतु असातावेदनीय कर्म है । बहिरंग हेतु सर्दी, गर्मी, भोजन - पान यथायोग्य जो भी हो । असातावेदनीय कर्म ही निरोगतारूप पर्याय के विनाश का कारण है । विशेष- मोक्ष की प्राप्ति भी कर्मबन्धन से छूटने की अपेक्षा से है, तो सम्यग्दर्शन भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय की सापेक्षता से ही बनता है । अन्यथा नहीं बन सकता। इसलिए परमार्थतः सम्यग्दर्शन तो तीन ही प्रकार का है। बाकी आगम में वर्णित सम्यग्दर्शन को कर्मसापेक्ष सिद्ध करने के लिए निर्दोष हेतु उपलब्ध नहीं है। देखिए, स्वामी समन्तभद्रजी कृत आप्तमिमांसा ग्रन्थ श्लोक नं० ७८ वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आते वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ॥ अर्थ- वक्ता के आप्त न होने पर, हेतु के द्वारा जो साध्य होता है, वह हेतु साधित कहलाता है। वक्ता के आप्त होने पर, उसके वाक्य से जो साध्य होता है, वह आगमसाधित कहलाता है। स्वात्मोपलब्धि को चाहनेवाले भी आज एकान्त का आश्रय पाकर भ्रमित हो रहे हैं । दिगम्बर जैनाचार्यों के द्वारा रचित प्रामाणिक ग्रन्थों में कोई विरोध नहीं है । हम समझने का प्रयास करें। आप्तमिमांसा के इस श्लोक नं० ७५ का भी स्मरण रखें सिद्धं चेद्हेतुतः सर्वं न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं चेदागमात्सर्वं विरुद्धार्थमतान्यपि ॥ अर्थ- यदि हेतु से सब पदार्थों की सिद्धि होती है, तो प्रत्यक्ष आदि से पदार्थों का ज्ञान नहीं होना चाहिए । और यदि आगम से सब पदार्थों की सिद्धि होती है, तो २. कोयले के उत्पाद का कारण ही लकड़ी के । परस्परविरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक मत भी सिद्ध हो जायेंगे । प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास अमरकंटक में इस वर्ष (सन् २००९ ई० में) परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी का ससंघ चातुर्मास श्रीसर्वोदयतीर्थ अमरकंटक (जिला- शहडोल, म.प्र.) में हो रहा है। सहायता प्राप्ति श्री अजितकुमार जैन पैठण (महा.) की ओर से अपने पू० पिता जी की स्मृति में 'जिनभाषित' को २०१ रु० की सहायता प्राप्त हुई। धन्यवाद सहायता प्राप्ति गायत्री नगर - ए, जयपुर को गणित विषय में, सी.बी.एस.ई. चि० नेमीकुमार जैन सुपुत्र श्री रिखवचंद जैन, परीक्षा में १००% अंक प्राप्त हुये । कुल प्राप्तांक ९१.३३% रहे। बधाई । 'जिनभाषित' को आपकी ओर से ५०० रु० की सहायता प्राप्त हुई । धन्यवाद । जुलाई 2009 जिनभाषित 13
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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