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________________ 2 सम्पादकीय कालसर्पयोग-निवारणपूजा आगम की कसौटी पर कुछ समय पूर्व मेरी दृष्टि 'कालसर्पयोग निवारणपूजा' नामक एक लघुपुस्तिका पर पड़ी। इसके लेखक विधानाचार्य ब्र० विनोदसागर जी शास्त्री हैं और प्रकाशन ज्ञानामृतसाहित्यकेन्द्र, ज्ञानकुटी, सिद्धनगर जबलपुर ( म०प्र०) से हुआ है। प्रथम संस्करण ही प्रतीत होता है, किन्तु प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है । पुस्तिका की पृष्ठसंख्या मात्र ७८ है । उसकी कीमत ८० रुपये छपी है, किन्तु बाद में सील लगाकर कीमत तीस रूपये कर दी गई है। 'कालसर्पयोग' शब्द मैंने प्रथम बार पढ़ा- सुना था। जिनागम में इसका उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया । इसलिए मैं सोचता रहा कि 'कालसर्प' शब्द का क्या अर्थ है ? किन्तु पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर पूर्णकालसर्पयुक्त ग्रहचक्र के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के चित्र के दोनों ओर दो बड़े-बड़े सुन्दर और भयंकर नागों की तस्वीर देखकर अनुमान लगाया कि कालसर्प से तात्पर्य डसते ही मौत के घाट उतार देनेवाले अत्यन्त जहरीले नाग से है। फिर मैंने आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश उठाकर देखा तो पाया कि उसमें बिलकुल यही अर्थ लिखा है- 'काले और अत्यन्त विषैले साँप की जाति ।' अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि जन्मकुण्डली में उल्लिखित ग्रहयोग के माध्यम से यदि यह फलित होता है कि जातक (किसी मनुष्य) के जीवन में कभी कालसर्प द्वारा इसे जाने का योग है, तो उसे भगवान् नेमिनाथ ( राहुग्रह - अरिष्टनिवारक) और पार्श्वनाथ (केतुग्रह - अरिष्टनिवारक) की पूजा के द्वारा टाला जा सकता है। इसी पूजा को 'कालसर्पयोगनिवारणपूजा' नाम दिया गया है। मेरे मन में प्रश्न उठा कि यदि कालसर्पयोगवाला श्रावक नित्य जिनपूजा करता है, तो इससे ही उसका कालसर्पयोग टल जाना चाहिए, अलग से कालसर्पयोग निवारण की प्रार्थना करते हुए भगवान् नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की पूजा करने की क्या आवश्यकता ? नित्यपूजा के आरम्भ में कविवर नाथूरामकृत जो विनयपाठ पढ़ा जाता है, उसमें नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का नाम न लेकर तीर्थंकर - सामान्यवाची जिनेश्वर ( धन्य जिनेश्वरदेव ) शब्द से भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा गया है तुम पदपंकज पूजतैं विघनरोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरै विष निर्विषता थाय ॥ तात्पर्य यह कि किसी भी तीर्थंकर की पूजा की जाय, उससे सभी विघ्न, सभी रोग टल जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाता है और सर्पादि के द्वारा इसे जाने पर चढ़ा हुआ विष भी उतर जाता है। पंडित टोडरमल जी प्रत्येक तीर्थंकर के स्तवन-पूजन से लौकिक लाभ बतलाते हुए मोक्षमार्गप्रकाशक में लिखते हैं- " जो अरहंतादि विषै स्तवनादिरूप विशुद्धपरिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनि की साता आदि पुण्यप्रकृतिनि का बंध हो है । बहुरि जो वह परिणाम तीव्र होय तो पूर्वै असाता आदि पाप प्रकृति बँधी थी, तिनको भी मंद करै है अथवा नष्टकरि पुण्यप्रकृतिरूप परिणमावै है । बहुरि तिस पुण्य का उदय होतैं स्वयमेव इन्द्रियसुख की कारणभूत सामग्री मिलै है अर पाप का उदय दूर होते स्वयमेव दुःख की कारणभूत सामग्री दूर हो है ।" (मो. मा. प्र. / अधिकार १ / पृ.७) । नित्यपूजा-पीठिका जिनस्तवन का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति शाकिनी - भूत - पन्नगाः । विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ अर्थात् जिनेन्द्रदेव का स्तवन करने से विघ्नों का समूह नष्ट हो जाता है, शाकिनी, भूत और नाग शान्त हो जाते हैं तथा विष निर्विष हो जाता है। भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग भगवान् आदिनाथ की स्तुति का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं जुलाई 2009 जिनभाषित
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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