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________________ हमारी सांस्कृतिक धरोहर : हमारी मातृभाषा गतवर्ष जैनागम के सर्वोच्च ग्रन्थ 'धवला' के लोकापर्ण-समारोह में जाने का अवसर मिला। पूज्य भट्टारक स्वामी चारुकीर्ति जी महाराज की प्रेरणा से 'धवला' का कन्नड़ भाषा में अनुवाद कर लगभग ३०-३५ भागों में प्रकाशन की योजना है। हमारे साथ के एक महानुभाव ने प्रश्न किया कि आज कन्नड़भाषी कितने हैं । उसमें भी प्राचीन कन्नड़ को जाननेवाले तो और भी कम हैं। फिर इसके अनुवाद और प्रकाशन का क्या औचित्य ? मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण है। भाषा हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है, जिसमें हमारी समाज और सभ्यता का दिल धड़कता है। शोलापुर से भी मराठी भाषा में 'धवला' का अनुवाद हो रहा है। जितना भी महत्त्वपूर्ण साहित्य है, उसका हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, ढुढारी आदि में विपुल मात्रा में अनुवाद हुआ है। और उसे बड़ी श्रद्धा और आस्था से पढ़ा जाता है। जरा विचार करें प्राकृत भाषा यदि समाप्त हो गयी होती, तो क्या जैनागम आज हमें उपलब्ध हो पाता ? वस्तुतः देखा जाये, तो किसी भी देश या समाज की भाषा मात्र संप्रेषणीयता एवं बोलचाल का माध्यम ही नहीं, अपितु उस देश, समाज, जाति या धर्म की अस्मिता, विरासत और संस्कृति की भी संरक्षक है। किसी भी भाषा या बोली का समाप्त होना मानों उसकी संस्कृति, विरासत या परम्पराओं का मृतप्राय हो जाना है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सदैव मातृभाषा पर बल दिया। उन्होंने सर्वोदय में लिखा- मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा भूल जाये, उसकी उपेक्षा करे, उस पर शर्मिंदा हो या यह अनुभव करे कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में उत्तम विचार प्रकट नहीं डॉ० ज्योति जैन आ गयी हैं। विशेषकर भारत की अनेक भाषायें लुप्त होने के कगार पर हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ से सम्बन्धित यूनेस्को ने समय-समय पर लुप्त होती भाषाओं पर चिंता प्रकट की है और कहा है कि 'विश्व की छह हजार भाषाओं में से (संयुक्त राष्ट्रसंघ में छह हजार भाषायें पंजीकृत हैं) तीन हजार भाषायें लुप्त होने के करीब हैं। इससे विश्व की अनेक संस्कृतियाँ, विविधतायें समाप्त हो जायेंगी । ' महात्मा गाँधी ने भी एक बार कहा था कि 'मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों तरफ दीवारें हों, खिडकियाँ बंद हों। मैं चाहता हूँ दुनिया भर की जितनी संस्कृतियाँ हों, मेरे आँगन में फले-फूलें, लेकिन मैं यह नहीं स्वीकार करूँगा कि कोई मेरे पाँवों को ही उखाड़ फेंके।' किसी भी देश या जाति को नष्ट करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता नहीं, अपितु उसकी भाषा नष्ट कर दो, वहाँ की संस्कृति स्वयमेव समाप्त हो जायेगी। यह भी एक विडम्बना है कि मातृभाषा का जो सपना भारत ने देखा था, वह सपना ही रह गया। आजादी के साथ हिन्दी एवं अन्य भाषायें सरकारी दस्तावेजों, आयोगों रिपोटों एवं कार्यक्रमों तक ही सिमट कर रह गयी हैं और हम सब लार्ड मैकाले की शिक्षापद्धति पर चलकर भारत और इंडिया दो भागों में बँटते चले जा रहे हैं। एक तरफ तो अँग्रेजीपना लिये ऊँचे लोगों, बड़े शहरों, मालदार, हाई-फाई लोगों का 'इंडिया' है, तो दूसरी तरफ स्वभाषाभाषी, ग्रामीण कस्बाई, मध्यमवर्गीय लोगों का 'भारत' है। किसी भी देश को सदैव गुलाम रखने का मूलमंत्र है कि उसके अभिजात वर्ग को अपनी भाषा रटा दो। लार्ड मैकाले ने शिक्षा के जो बीज बोये उसके फल हम सब देख रहे हैं। आज की शिक्षणपद्धति नयी पीढ़ी को दिशाहीन बना रही है, तथा परम्परा और संस्कृति से भी दूर कर रही है। अनेक शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिये । यदि हम ऐसा नहीं करते, तो यह बच्चों के प्रति मानसिक क्रूरता है। बच्चों को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण अनिवार्य न करना एक पीढ़ी को उसकी भाषा की जड़ों से काट देना है। नोबल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना था कि, जिस प्रकार कर सकता । आज चिंताजनक पहलू यह है कि इंटरनेट वैश्वीकरण के परिवेश में विश्व की अनेक भाषायें समाप्ति के कगार पर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग ढाई हजार भाषायें लुप्त हो गयी हैं। लगभग ५३८ भाषायें अंतिम साँस ले रही हैं, लगभग ५०२ भाषायें गंभीर संकट में हैं, लगभग ६३२ भाषायें संकटकालीन स्थिति से गुजर रही हैं और लगभग ६०७ भाषायें असुरक्षित श्रेणी में 22 जुलाई 2009 जिनभाषित
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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