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________________ अनन्तानन्त, परम प्रशस्त, सूक्ष्म तथा दूसरे मनुष्यों को कभी नहीं प्राप्त होने वाली नोकर्मवर्गणाएँ आती रहती हैं, जो शरीर को बल प्रदान करने में कारण बनी रहती हैं और आहार के बिना भी उनका परमौदारिक शरीर, कुछ कम एक करोड़ पूर्व तक बना रह सकता है, जैसे देवों का शरीर भी कवलाहार के बिना सागरों तक रहता है। ४. भूख की वेदना होना असातावेदनीय का कार्य है । परन्तु मोहनीय कर्म का उदय न होने से असातावेदनीय कर्म अपना फल देने में समर्थ नहीं होता है। ५. आहार तो इच्छापूर्वक ही होता है । केवली के लोभकषाय जन्य इच्छा नहीं होती अतः इच्छा के अभाव में आहार भी नहीं बन सकता । ६. यदि केवली के क्षुधादोष माना जायेगा, तो प्यास भी लगेगी, भोजन से राग भी होगा, भोजन न मिलने पर मरण भी होगा तथा द्वेष भी होगा, विषाद भी होगा और निद्रा भी आएगी। तब फिर १८ दोषों से रहित वीतरागी कैसे कहलायेंगे। फिर तो वे हमारे समान ही हो गए। ७. सामान्य मुनि भी मद्य-मांस आदि पदार्थ देख लेने पर भोजन नहीं करते हैं, अन्तराय कर देते हैं। तब फिर संसार भर के समस्त निषिद्ध पदार्थों को एक साथ देखनेवाले केवली प्रभु आहार कैसे ग्रहण करे सकेंगे? ८. केवली भगवान् के रत्नत्रय तथा ध्यान की पूर्णता है, केवलज्ञान भी प्राप्त हो चुका है। अतः अब वे किसलिए भोजन करेंगे ? ९. केवली के क्षुधादि ११ परीषह कहे गये हैं, परन्तु असातावेदनीय की उदीरणा न होने से वे उपचार मात्र हैं। मोहनीय कर्म का अभाव होने से वे अपना फल देने में असमर्थ हैं । असाता का मात्र अप्रकट सूक्ष्म उदय है, उदीरणा नहीं। १०. वैज्ञानिक दृष्टि यह भी जानने योग्य है कि छद्मस्थ जीवों के शरीर में अनन्त जीवराशि पाई जाती है, जो त्रस व स्थावर दोनों रूप है। वह जीवराशि प्रतिसमय शरीर का कुछ भी तत्व भक्षण करती रहती है, जिसके कारण शरीर में गिरावट आना अवश्यंभावी है उस क्षति की पूर्ति करने के लिए औदारिकशरीरी छद्मस्थ जीव कवलाहार ग्रहण करता है। अन्यथा उसके शरीर में गिरावट और मरण निश्चित है । केवली प्रभु के शरीर में कोई 26 जुलाई 2009 जिनभाषित भी अन्य जीव नहीं होता, अतः उनके औदारिक शरीर में किसी प्रकार की क्षति नहीं होती, अतः कवलाहार भी आवश्यक नहीं है । उपर्युक्त बिन्दुओं के अनुसार केवली प्रभु का शरीर बिना कवलाहार के भी संख्यात वर्षों तक बना रहता है, इस सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती है। प्रश्नकर्त्ता- सौ० शचिरानी, देहली जिज्ञासा- क्या राई और नमक मिलाकर खाना अभक्ष्य है? समाधान वर्तमान में राई और नमक मिलाकर खाने का प्रचार बहुत देखा जा रहा है। दक्षिण भारत में जो भी डोसा, इडली आदि खाये जाते हैं या दाल बगैरह में छोंक लगाया जाता है, उन सब में राई और नमक का मिश्रण पाया जाता है। इसके संबंध में किशनसिंह श्रावकचार में इसप्रकार कहा है राई लूण भेल जिहि मांहिं, करे राता मूरख खांहिं । राई लूण परै निरधार, उपजै जीव सिताव अपार ॥ ११२ ॥ राई लूण मिलो जो द्रव्य, ताहि सर्वथा तजिहै भव्य । अर्थ - राई और नमक जिसके अन्दर मिले हों उसका रायता बनाकर उसका रायता बनाकर मूर्ख लोग भक्षण करते हैं। जहाँ राई और नमक मिलाया जाता है, उसमें अपार जीवों की उत्पत्ति होती है। इसलिए जो भव्य जीव हैं वे राई और नमक मिलो हुईं जो भी वस्तुएँ हैं, उनका सर्वथा त्याग करते हैं। जिज्ञासा- क्या ध्यान के लिए आसन और देशकाल आदि का नियम नियत है, या किसी भी आसन से और कभी भी ध्यान किया जा सकता है? समाधान- महापुराण सर्ग - २१ के श्लोक नं० ६९ से ८३ तक उपर्यक्त विषय पर अच्छा विवेचन प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार है मुनियों को ध्यान के समय मुख्य रूप से सुखासन लगाना चाहिए। पर्यंकासन (पालथी लगाकर ) तथा कायोत्सर्ग (खड़े होकर) ये दो सुखासन हैं। जो मुनि ध्यान के समय ऊँचे-नीचे आसन से बैठता है उसके शरीर में अवश्य पीड़ा होने लगती है, शरीर में पीड़ा होने पर मन में पीड़ा होने लगती है और मन में पीड़ा होने से आकुलता उत्पन्न हो जाती है। आकुलता उत्पन्न होने पर कुछ भी ध्यान नहीं किया जा सकता। इसलिए ध्यान । के समय सुखासन लगाना चाहिए। चाहे तो वे बैठकर
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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