Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2535 EEEEE भगवान् आदिनाथ श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र काकागंज, सागर (म.प्र.) मार्गशीर्ष, वि.सं. 2065 नवम्बर, 2008 quiefie 1-5 yerg Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी संगति वैसी मति • आचार्य श्री विद्यासागर जी माँ धरती का बेटी मिट्टी को सम्बोधन और यह भी देख! जैसी संगति मिलती है कितना खुला विषय है कि वैसी मति होती है उजली-उजली जल की धारा मति जैसी अग्रिम गति बादलों से झरती है मिलती जाती-- मिलती जाती-- धरा-धूल में आ धूमिल हो और यही हुआ है दल-दल में बदल जाती है। युगों-युगों से वही धारा यदि भवों-भवों से! नीम की जड़ों में जा मिलती इसलिए, जीवन का कटुता में ढलती है, आस्था से वास्ता होने पर सागर में जा गिरती रास्ता स्वयं शास्ता होकर लवणाकर कहलाती है सम्बोधित करता साधक को वही धारा, बेटा! साथी बन साथ देता है। विषधर मुख में जा आस्था के तारों पर ही विष-हाला में ढलती है, साधना की अंगुलियाँ सागरीय शुक्तिका में गिरती, चलती हैं साधक की, यदि स्वाति का काल हो, सार्थक जीवन में तब मुक्तिका बन कर स्वरातीत-सरगम झरती हैं! झिलमिलाती बेटा, समझी बात बेटा? वही जलीय सत्ता---! मूकमाटी (पृष्ठ ८-९) से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 नवम्बर 2008 वर्ष 7, अङ्क 11 मासिक जिनभाषित सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ काव्य : जैसी संगति, वैसी मति आ.पृ. 2 - कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 आ.पृ. 4 : आचार्य श्री विद्यासागर जी - मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ • मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ . सम्पादकीय : बारह तपों में स्वाध्याय सर्वश्रेष्ठ तप . लेख आ.पृ. 3 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर षडावश्यक आज क्यों आवश्यक? शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278| : मुनि श्री प्रणम्यसागर जी आदिकाल की याद दिलाती दीवाली :: उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप और उनकी महिमा 10 : पं० रतनलाल जी जैन, इन्दौर • भवनत्रिक देव जिनभक्तों का सम्मान करते हैं या उपकार? : पं० सुनीलकुमार शास्त्री • कर्म हमारे विधाता नहीं : सुमतचन्द्र दिवाकर शाकाहारियों को परोसा जा रहा है मांसाहार : प्रेषक-निर्मलकुमार पाटोदी, इन्दौर . कविताएँ • कर्म मथानी में सपनों को : मनोज जैन 'मधुर' • श्रमणपरम्परा में सम : सुमतचन्द्र दिवाकर जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा • ग्रन्थ समीक्षा : दिगम्बर जैन मुनि समाचार 13, 18, 20, 23, 25, 26-32 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 1100 रु. वार्षिक 150 रु. एक प्रति 15 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सम्पादकीय बारह तपों में स्वध्याय सर्वश्रेष्ठ तप ईसा की प्रथम शताब्दी में रचित भगवती - आराधना में आचार्य शिवार्य ने कहा हैबारसविहम्मि य तवे सब्धंतर बाहिरे कुसल । ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं ॥ १०६ ॥ अनुवाद -' -" सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट बारह प्रकार के बाह्य और अम्यन्तर तपों में स्वध्याय के समान और कोई तप न है, न होगा । " इसकी व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं - "कालत्रयेऽपि स्वाध्यायसदृशस्यान्यस्य तपसोऽभावः कथ्यते । अत्र चोद्यते - स्वाध्यायोऽपि तपो, अनशनाद्यपि तपो बुद्धेरविशेषात् कर्मतपन-सामर्थ्यस्याविशेषात् । किमुच्यते स्वाध्यायसदृशं तपो नेति ? कर्मनिर्जराहेतुत्वातिशयापेक्षया सदृशमन्यत्तपो नैवास्तीत्यभिप्रायः ।” (विजयोदयाटीका / भगवती - आराधना / गा. १०६) । अनुवाद -' " उक्त गाथा में तीनों कालों में स्वाध्याय के समान अन्य तप का अभाव बतलाया गया है । यहाँ शंका उत्पन्न होती है- स्वाध्याय भी तप है और अनशनादि भी तप हैं। दोनों में कर्मों को तपाने की शक्ति समान है, तब ऐसा क्यों कहा गया कि स्वध्याय के समान कोई और तप नहीं है? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं- सर्वाधिक कर्मनिर्जरा करने की अपेक्षा ऐसा कहा गया है। अर्थात् जितनी कर्मनिर्जरा स्वाध्याय से होती है, उतनी अन्य तप से नहीं होती ।' " इस आशय की पुष्टि शिवार्य ने भगवती - आराधना की उत्तर गाथाओं से की है। उन गाथाओं में शिवार्य ने स्वाध्याय करनेवाले को ज्ञानी शब्द से और स्वाध्याय न करनेवाले को अज्ञानी शब्द से अभिहित किया है। इसीलिए टीकाकार अपराजितसूरि उन गाथाओं को निम्नलिखित प्रस्तावनावाक्य के साथ प्रस्तुत किया है “प्रतिज्ञामात्रेण स्वाध्यायस्यान्यतपोभ्योऽतिशयितता न सिद्ध्यतीति मन्यमानं प्रति अतिशयसाधनायाहजं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतो छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज दु जिमिदस्स णाणिस्स ॥ १०८ ॥ मुहुत्तेण ॥ १०७ ॥ जा सोही । अनुवाद - " जो मानता है कि कहने मात्र से यह सिद्ध नहीं होता कि स्वाध्याय अन्य तपों से श्रेष्ठ है अर्थात् अन्य तपों की अपेक्षा स्वाध्याय से अधिक निर्जरा होती है, उसे प्रमाण देने के लिए उत्तर गाथाएँ कहते हैं " - " अज्ञानी ( स्वध्याय न करनेवाला) मनुष्य जिस कर्म को लाख करोड़ भवों में नष्ट करता है, उसे त्रिगुप्तियुक्त ज्ञानी ( स्वाध्यायरत) मनुष्य अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है।" (१०७) । 44 'अज्ञानी ( स्वाध्याय - विमुख) मनुष्य में दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवासों से जितनी विशुद्धि होती है, उससे कई गुणी विशुद्धि ज्ञानी ( स्वाध्यायरत ) जीव में भोजन करने (उपवास न करने) पर भी होती है ।" (१०८) । शिवार्य ने स्वाध्याय के अन्य तपों से अधिक निर्जराकारक होने का हेतु यह बतलाया है कि उसमें त्रिगुप्ति भावित (सिद्ध) होती है नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झायभावणाए य भाविदा होंति सव्वगुत्तीओ। गुत्तीहिं भाविदाहिं य मरणे आराधओ होदि॥ १०९॥ अनुवाद-"स्वाध्याय करने से सभी गुप्तियाँ सिद्ध होती हैं। गुप्तियों के सिद्ध होने से जीव मरते समय रत्नत्रयरूप परिणामों की आराधना में तत्पर होता है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं "मनोवाक्कायव्यापारा: कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावर्तते स्वाध्याये सति, ततो भाविता गुप्तयः। कृताभिमतादियोगत्रयनिरोधश्च रत्नत्रय एव घटते इति सुखसाध्यता। अनन्तकालाभ्यस्ताशुभयोगत्रयस्य कर्मोदयसहायस्य व्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनैव क्षमा कर्तुमिति भावः।" (विजयोदयाटीका / भगवतीआराधना /गा.१०९)। अनुवाद-"मन-वचन-काय के व्यापार कर्मास्रव के हेतु हैं। स्वाध्याय करते समय इन सब का निरोध हो जाता है, जिससे गुप्तियाँ निष्पन्न होती हैं। तीनों योगों का निरोध करनेवाला मुनि रत्नत्रय में ही संलग्न होता है, इस प्रकार रत्नत्रय की सुखपूर्वक सिद्धि होती है। जिन तीन अशुभ योगों का जीव ने अनन्तकाल से अभ्यास कर रखा है और कर्म का उदय जिसका सहायक है, उससे छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन है। स्वाध्यायकि की क्रिया ही उससे छुटकारा दिलाने में समर्थ है।" निम्नलिखित गाथा में भी शिवार्य ने स्वाध्याय के गुणों पर प्रकाश डाला है सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू॥ १०३॥ भगवती-आराधना। अनुवाद-"जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करता है, उसकी पाँचों इन्द्रियाँ विषयों से निवृत्त हो जाती हैं, तीनों गुप्तियाँ सधती हैं और मन एकाग्र हो जाता है।" टीकाकार अपराजित सूरि ने इस गाथा का अभिप्राय निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है"ज्ञानविनयेन समन्वितो भूत्वा यः स्वाध्यायं करोति 'तिगुत्तो य होदि' तिसृभिर्गुप्तिभिश्च भवति, शस्तरागाद्यनवलेपात. अनत-रूक्ष-परुष-कर्कशात्मस्तवन-परदषणादावव्यापतेः, हिंसादौ शरीरेणाप्रवृत्तेश्च---एकमुखान्तःकरणश्च भवति भिक्षुः स्वाध्याये रतः। एतदुक्तं भवति-ध्याने प्रवृत्तिमप्यासादयति। न ह्यकृतश्रतपरिचयस्य धर्मशक्लध्याने भवितुमर्हतः।" (विजयोदयाटीका/भग.आरा./गा. १०३)। अनुवाद-"जो साधु ज्ञानविनय से समान्वित होकर स्वाध्याय करता है, वह तीन गुप्तियों से युक्त हो जाता है, क्योंकि उस समय उसका मन अप्रशस्तरागादि-विकार से लिप्त नहीं होता, वह असत्य, रूक्ष, कठोर, कर्कश आदि वचन नहीं बोलता, आत्मप्रशंसा एवं परनिन्दा नहीं करता और शरीर से हिंसादि में प्रवृत्त नहीं होता। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय में रत भिक्ष का अन्त:करण एकमख (एकाग्र = एक विषय के चिन्तन में केन्द्रित) हो जाता है अर्थात् ध्यान में भी उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। जो श्रुत से परिचित नहीं हुआ है, उसको धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं होते।" शिवार्य भगवती-आराधना में आगे कहते हैं आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थयस्स॥ ११०॥ इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए अपराजित सूरि लिखते हैं "आत्मनः परस्य वा उद्धरणमुद्दिश्य व्यापृतः स्वाध्याये स्वकर्माण्यपि साधयति परेषामप्युपयुक्तानाम्। 'आणा' "श्रेयोऽर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्त्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः" (वरांगचरित / १ / १३) मनसोऽप्रश - नवम्बर 2008 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्याज्ञा सर्वविदा, सा परिपालिता भवतीति शेषः। --- वात्सल्यप्रभावना परेषामुपदेशकत्वे कृता भवति। --भक्तिश्च कृता भवति जिनवचने तदभ्यासात्।---श्रुतमपि रत्नत्रयनिरूपणे व्यापृतत्वात् तत्रस्थं भवति। ततोऽयं अर्थः-श्रुतस्य मोक्षमार्गस्य वा अव्युच्छित्तिरिति।" (विजयोदयाटीका/ भग.आरा./गा.११०)। अनुवाद-"अपने और दूसरों के उद्धार के उद्देश्य से जो स्वाध्याय में लगता है, वह अपने भी कर्मों का विनाश करता है और उसमें उपयुक्त दूसरों के भी कर्मों का। सर्वज्ञ की जो आज्ञा है कि कल्याण के इच्छुक जिनशासन के प्रेमी को नियम से धर्मोपदेश करना चाहिए, उसका भी पालन होता है। दूसरों को उपदेश करने पर वात्सल्य का प्रकाशन और प्रभावना होती है। जिनवचन के अभ्यास से जिनवचन में भक्ति प्रदर्शित होती है। दूसरों को उपदेश देने से मोक्षमार्ग अथवा श्रुतरूप तीर्थ का विच्छेद नहीं होता, तीर्थपरम्परा अक्षुण्ण रहती है। श्रुत भी रत्नत्रय का कथन करने के कारण तीर्थ है। अतः स्वाध्यायपूर्वक परोपदेश करने से श्रुत और मोक्षमार्ग सदा प्रवर्तित रहते हैं।" । ___इन गुणों के कारण स्वाध्यायतप सभी तपों में सर्वश्रेष्ठ है। रतनचन्द्र जैन कर्म मथानी में सपनों को मनोज जैन 'मधुर'. छोटी मोटी बातों में मत कट जाएगी रात, सबेरा धीरज खोयाकर निश्चित आयेगा अपने सुख की चाहत में मत जो जितनी मेहनत करता आँख भिगोया कर। फल उतना पाएगा काँटोंवाली डगर मिली है समय चुनोती देगा तुझको तुझे विरासत में आकर लड़ने की सुख की किरणें छिपी हुई हैं तभी मिलेंगी नई दिशायें तेरे आगत में आगे बढ़ने की देख यहाँ पर खाई पर्वत मन के धागे में आशा के सब हैं दर्दीले मोती पोया कर कदम कदम पर लोग मिलेंगे बीज वपन कर मन में साहस तुझको दर्दीले धीरज दृढता के कुण्ठओं का बोझ न अपने छट जाएँगे बादल मन से मन पर ढोयाकर संशय जड़ता के बेमानी की लाख दुहाई सब को सुख दे दुनिया आगे देंगे जगवाले पीछे घूमेगी। सुनने से पहले जड़ लेना मंजिल तेरे स्वयं चरण को कानों पर ताले आकर चूमेगी मुश्किल में दो चार मिलेंगे कर्म मथानी में सपनों को तुझको लाखों में रोज विलोयाकर तुझे दिखाई देगी करुणा उनकी आँखों में सी.एस.13, इन्दिरा कालोनी अपने दृग-जल से तू उनके बाग उमराव दूल्हा, भोपाल म.प्र. पग को धोयाकर 4 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडावश्यक आज क्यों आवश्यक? मुनि श्री प्रणम्यसागर जी आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य व्यक्ति जब-जब दुःखी होता है, तब उसके पीछे। आज की स्थिति में वे जैनी भाई बहुत कम बचे हैं एक ही कारण होता है कि उसे किसी से जो अपेक्षा | जो इन षट्कर्मों या षड् आवश्यकों का बखूबी पालन थी उसकी पूर्ति नहीं हुई। पर वस्तु की इच्छा होना मानव | करते हों। परिणाम! मानसिक तनाव, हृदयाघात, केन्सर, की सहज प्रकृति है। अपने दैनिक जीवन में प्रत्येक | ब्रेन हेमरेज, ट्यूमर, डायिबिटीज, मोटापा, हाई ब्लड प्रेशर, गृहस्थ पहले अनेक सपने सँजोता है, अनेक योजनायें | आदि अनेक प्रकार के शरीरिक और मानसिक रोगों को बनाता है, अनेक प्रकार की महत्त्वाकांक्षायें रखता है। आमंत्रण। उन सबकी पूर्ति कदापि भी नहीं हो सकती। जितनी | विज्ञान चाहे कितना ही तकनीकी विकास कर मन की हो जाती है, उससे उसकी इच्छा शक्ति बढ़ | ले, चाहे कितना ही आसमान में उड़ाने भर ले, चाहे जाती है और पुनः उससे अधिक और अधिक पाने की, | कितनी ही सुविधाएँ जुटा ले, चाहे जितना अन्तरिक्ष में संग्रह करने की वृत्ति बलवती बनी रहती है। परिणाम | आवास बना ले पर सुख की खोज में उसे लौटना होगा, अन्ततः सब कुछ करके भी, सब कुछ पाके भी, सब | अन्ततोगत्वा अपने में लौटना होगा, अपने में सन्तुष्ट होना कुछ होके भी सन्तुष्टि, शान्ति, सुख और आनन्द से | होगा और अपने तक ही सीमित। दूर ही महसूस करता है। इच्छापूर्ति होने पर जो हमने | जो लोग धर्म से डरते हैं या धर्म करने में हिचकते इन्जॉय (enjoy) किया, वह भी कुछ देर तक। ऐसा | हैं या जो धर्म में रुचि रखते हैं उन सबके लिये यह कुछ नहीं जो हमारी अपनी चीज हो, जिस पर हमारा | छह कार्य प्रतिदिन आवश्यक रूप से करने योग्य हैं। अधिकार हो, जो स्थायी हो। ऐसा क्यों होता है? क्या | सुखी जीवन बनाने के यह छह सूत्र हैं। आपने सोचा, अपने से पूछा या किसी से इन विचारों । प्रथम सूत्र है-स्तवन, स्तुति-अर्थात् अपने से को शेयर (share) किया? नहीं, तो आइये हम चलें | ज्यादा शक्तिमान्, स्वस्थ और निर्दोष व्यक्तित्व की ओर ज्यादा तर्क किये बिना ज्यादा कुछ सोचे बिना, एक ऐसे | दृष्टिपात। इस फार्मूले को आप अपनायें, क्योंकि चिन्ता रास्ते पर जो सच्चा सुखद और शाश्वत है। प्रत्येक मानवीय मस्तिष्क का एक रोग है। इस चिन्ता . तर्क और सोच के लिये मना इसलिये है कि से बचने के लिये उस चेतना को याद करें, जो सुपर इन उलझनों में, तो हम पहले ही उलझे हैं, इसलिये | है, जिससे बढ़ के कोई नहीं। चेतना, एक ऐसी शक्ति तर्क-वितर्क से कुछ सीखने में समय बरबाद न करके | का स्रोत है, जो सबके अन्तस में विद्यमान है। स्तुति हम चलते हैं, उस पथ पर जो अब तक अछूता है | करने से हम निराशा, विषाद, अवसाद और अनिद्रा जैसी या जिसको पाकर के भी हम, उसका समुचित उपयोग | स्थितियों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। जब हम परेशान न कर पाये। होते हैं, तो हमारी शक्ति का अपव्यय होने लगता है, ऋषि-महात्माओं ने जिस मार्ग को स्वयं अपनाया | उसे रोकें और उसे रोकने का सबसे आसान तरीका उसी पर चलने के लिये सदा गृहस्थों को भी प्रेरित | है पंचपरमेष्ठी की पूजा, स्तुति, उनके गुणों का आल्हादित किया है। कई मनीषियों का विचार है कि श्रावक के | होकर गान करना, भक्ति करना, जोर से स्तुति पढ़ना। षट्कर्म एक अर्वाचीन पद्धति है, प्राचीन परम्परा तो वही | एक-एक करके चौबीस तीर्थकरों का गुणगान, उनके है जो मुनियों की है। श्रावक भी मुनि की तरह षडावश्यकों | सहस्र नाम का उच्चारण आस्था और लगन के साथ का पालन करता था। पर धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ी, प्रभावना | अपने को उस महा चैतन्यवान्, शक्तिमान् सत्ता के प्रति में उतार-चढ़ाव आये तो श्रावक इन आवश्यकों से दूर | समर्पित कर देना। हम बिना आस्था के जी नहीं सकते। हो गया और आचार्यों ने सम-सामयिकता को ध्यान में | हम में से हर एक की कहीं न कहीं आस्था रहती रखते हुए देवपूजा आदि षट्कर्म का नियम बना दिया।। है। यह आस्था एक शक्ति है इस शक्ति को मोड़ दें -नवम्बर 2008 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस मूर्ति की तरफ जो शान्त है, जिसकी मुख मुद्रा। तीसरा सूत्र-प्रत्याख्यान- यानी प्रतिदिन अपने में अनेकों रहस्य छिपे हैं, जिसकी आँखें अब इस विश्व | दुर्गुणों का त्याग करना। हम पापों के पिण्ड हैं, हमारे की ओर देखने के लिये नहीं उठती हैं, जिसने सब अन्दर अनेक दुर्गुण हैं, हमने अनेक मूर्खतायें की है। कुछ कर लिया है, इसलिये हाथ पर हाथ रखे बैठा | So many Demerits I have. मेरे पास अनेक छोड़ने है, जिसे कहीं नहीं जाना है, जो स्थिर है, जिसमें काम | योग्य, त्यागने योग्य भाव हैं। उनके त्याग बिना हम कभी नहीं, वासना नहीं, चिन्ता नहीं, मान-अपमान का एहसास भी हीन भावों से अपनी आलोचनाओं से अपनी अव्यावनहीं, उस वीतराग, निर्विकार के चरणों में भक्ति आस्था हारिक प्रवृत्तियों से निजात नहीं पा सकते हैं। अत: अपने से भर जाना। किसी ने कहा है कि "आस्था उन शक्तियों दुर्गुणों का निष्पक्ष परीक्षण करें। आत्मनिरीक्षण करें। में से एक है जिनके द्वारा मनुष्य जीवित रहते हैं और प्रतिदिन एक बुरी आदत को नहीं करने का संकल्प इसके पूर्ण अभाव का अर्थ है धराशायी हो जाना।" | लेकर हम इस प्रत्याख्यान से अपना मनोबल बढ़ा सकते दूसरा सूत्र है- प्रार्थना, वन्दना अर्थात् बन्ध | हैं। यदि हम List बनाकर एक बुरे भाव या आदत ना- जब हम चौबीस तीर्थंकरों की थोड़ी थोड़ी स्तुति | को नोट करके निरीक्षण करेंगे तो देखेंगे हमारा विकास से सबके गुणों में एक जैसा पन ही देख लेते हैं, तो | हुआ है। लोगों ने मुझे पसन्द किया है और हम स्वयं मन होता है कि क्यों न हम एक ही महापुरुष का गुणगान | में संतुष्ट हैं। अतः प्रत्याख्यान मनोवैज्ञानिक ढंग से आत्मअच्छे ढंग से करें, बस इसी मनोवृत्ति का नाम है वन्दना। | उत्थान का सोपान है। एक ही तीर्थंकर/महापुरुष की चेतना में अपने को देखना, चतुर्थ सूत्र-प्रतिक्रमण / वैर कम- हमने कामउसी के स्तुति-सरोवर में स्नान करना और अपने को | क्रोध के वश होकर जो अतिक्रमण किया, अपने स्वरूप शुद्ध बना लेना अनेक द्वन्द्वों और उलझनों को जीते जागते | से बहुत दूर चला गया था, उस सब कायिक-वाचिकभूल जाना। यही जीवन का वह क्षण है, जब हम महसूस | मानसिक विकारों को प्रायश्चित्त करके अपने आप में कर सकते हैं कि हाँ, हमने आज जीवन जिया है। बाकी | आने का यह एक प्रक्रम है। आत्म आलोचना से, व्यर्थ का जीवन तो यूँ ही बिताया है। हर दिन हमें ऐसे ही | के अभिमान से उगी घास-फूस रूपी बुराइयों को हम जीना है ताकि चिन्ता की गठरी इकट्ठी होकर दिमाग | उसी दिन काट देते हैं, उस फसल को हम बढ़ने नहीं में ट्यूमर का रूप न ले ले। डॉ० कैरेल ने एक लेख | देते। मैं ही अपना मित्र हूँ और मैं ही अपना शत्रु हूँ। में कहा था- "प्रार्थना किसी के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का | अपनी बदकिस्मती का कारण भी मैं हूँ और अपने समुन्नत सबसे सशक्त रूप है। यह शक्ति उतनी ही वास्तविक | भाग्य का भी। अतः अपने में रहने के लिये लौटना है जितनी की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। एक डॉक्टर होने ही प्रतिक्रमण है। हमने विगत मैं जो छोटी छोटी बातों के नाते मैंने देखा कि सभी चिकित्साओं के असफल | पर बड़ी-बड़ी उलझनें बना लीं, मन में वैर-बुराई का हो जाने के बाद भी लोग प्रार्थना के शांत प्रयास द्वारा | ज़हर भर लिया वह सब भूल जाना ही सच्चा प्रतिक्रमण अपने दुःख और रोग से मुक्त हो गये। प्रार्थना रेडियम है। हमें सबको क्षमा करना है। क्षमा ही आत्मा का बल की तरह चमकदार, अपने आप उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा | बढ़ाती है। सबसे बड़ी हार उसी की है, जो दूसरे से है। प्रार्थना में इन्सान समस्त ऊर्जा के अनंत स्रोत के | वैर रखता है। जिसका किसी से वैरभाव नहीं वही जीवित संपर्क में आकर अपनी सीमित ऊर्जा को बढ़ा सकता | जीवन जीता है। मनोवैज्ञानिकों ने शोध करके इस तथ्य है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम अपने आपको को उजागर किया है कि न्यायालय में चलनेवाले उस अविनाशी शक्ति के साथ जोड़ लेते हैं, जो पूरे | पारिवारिक, सामाजिक मामलों में अधिकतर झगड़े भाईब्रह्मांड को चलाती है। जब भी हम दिल से प्रार्थना | भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र के बीच छोटी-छोटी बातों करते हुए ईश्वर को संबोधित करते हैं, हम अपनी आत्मा | से शुरू होते हैं। यदि उन छोटी-छोटी बातों को उसी और शरीर दोनों को बेहतर बना लेते हैं। ऐसा नहीं हो | समय भुला दिया जाय, माफ कर दिया जाये, तो कोर्ट सकता कि कोई भी आदमी या औरत एक पल के | कचहरी तक झगड़ा कभी न पहुँचे। महान् वह है, जो लिये भी प्रार्थना करे और उसे बेहतर परिणाम न मिले।" | बड़ी-बड़ी बातों को भी बहुत तुच्छ समझकर तनावमुक्त 6 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। जो लोग छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ | निर्दोष नहीं हो पाती है। अतः समता, साम्यभाव की . बनाने जैसी मानसिकता रखते हैं वे न केवल दूसरों का | प्राप्ति के लिये कायोत्सर्ग करना प्रतिदिन मानसिक दोषों समय बरबाद करते हैं, बल्कि अपने आपको भी कष्ट | का अतिसार करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। में बनाये रखते हैं। सही मायने में भावसहित प्रतिक्रमण | छठवाँसूत्र-सामायिक,अन्तः प्रज्ञा की परिचायककरना, मन को विशुद्ध, तरोताजा बनाने का सही | हे भगवन्! मेरे साथ अच्छा या बुरा जो भी होना था आध्यात्मिक तरीका है। पुरानी बातों को मन में रखे | वह अच्छा हआ। वह नियति थी। वह कर्म का और रहना और उस विद्वेष के ज़हर को समय पर न उगलने मात्र हमारे ही किये कर्म का फल है। मैं तैयार हँ आगामी की आदत Nurvous break down जैसे रोगों को जन्म | समय में भी उन कर्मों का फल भोगने को। जाग्रत रहकर देती है। दिल के तमाम रोगों पर रोक लगाने के लिये | | सुख और दुःख को हर्ष-विषाद रहित होकर मुझे अनुभव यह प्रतिक्रमण ही श्रेष्ठ तरीका है। करना है। देह को छोड़कर मुझे किसी का संवेदन नहीं ___पंचम सूत्र-कायोत्सर्ग यानी दूर है उपसर्ग- इसमें | है। देह रोगसहित है, तो भी मुझे पीड़ा से विचलित काय को छोड़कर मात्र श्वासोच्छ्वास पर मन को टिकाना | | नहीं कर सकती है। प्रत्येक कर्म का फल भोगने की होता है। श्वास हमारा सूक्ष्म प्राण है। जिस समय श्वास | | स्वीकृति ही सहज सामायिक है। आचार्य श्री गुणभद्र के आवागमन पर ध्यान दिया जाता है उस समय हम | जी कहते हैं कि रोग को दूर होने का कोई उपाय हो, प्राणमय हो जाते हैं। प्राण एक शक्ति है, जिससे हमारा | तो कर लो और कोई उपाय न बचा हो, तो समताजीवन संचालित होता है। सही मायने में जीवन का आनन्द | अनुद्वेग ही अन्तिम उपाय है। मैं इस उपाय को सहर्ष इसी प्रक्रिया में है। वे क्षण ही हमने जिये हैं, जो हमने | स्वीकार करता हूँ। नश्वर देह में रहकर भी अविनश्वर प्राणों के साथ जिये हैं। कायोत्सर्ग में प्राण-ऊर्जा का | आत्मा का संवेदन, उसकी प्राप्ति की लगन और अनुभव संचार शरीर के एक-एक अंग-उपांग के अन्तरङ्ग हिस्से | का आत्मिक आनन्द इस सामायिक में है। इसी प्रक्रिया तक होता है। मन एक नयी ऊर्जा से भर जाता है। | की पराकाष्ठा, ध्यान और समाधि है। योगासन में शवासन इसी कायोत्सर्ग का रूप है। महा इस प्रकार ये छह आवश्यक वर्तमान परिप्रेक्ष्य प्राणशक्ति को दीर्घ आयाम के साथ सूक्ष्म अति सूक्ष्म | में श्रमण या श्रावक के शारीरिक और मानसिक विकास बनानेवाला योगी इसी कायोत्सर्ग की प्रक्रिया से गुजरता | के लिये नितान्त आवश्यक हैं। मात्र शारीरिक स्वास्थ्य है। यह प्राणायाम का एक अंग है। प्रत्येक श्रमण, मुनि | ही सब कुछ नहीं होता है, जिसकी प्राप्ति के लिये आज के लिये दिन-रात में प्रत्येक आवश्यक क्रिया से पूर्व | का युग हर संभव प्रयत्न कर रहा है। शरीर को संचालित और पश्चात् कायोत्सर्ग नियामक है। प्रमादवश कहें या | करनेवाले शाश्वत तत्त्व आत्मा की ओर केन्द्रित करनेस्थिरता के अभाव के कारण कहें, इस प्रक्रिया का स्थान | वाली यह षड्-आवश्यकों की प्रक्रिया बहु आयामी है। बहुतायत में अब नव बार णमोकार मंत्र पढ़ने मात्र से | इस प्रक्रिया से चलनेवालों को शरीर और मन-वचन पूरा हो जाता है। इस क्रिया ने कायोत्सर्ग का महत्त्व | की स्वस्थता स्वतः प्राप्त होगी। अतः सभी चिन्ता, तनाव, कम कर दिया है। श्रमण या श्रावक यदि नौ बार णमोकार | दैहिक रोग और अस्थिरता के निवारण के लिये ये मंत्र को श्वासोच्छ्वास के आयाम के साथ पूर्ण करते | षडावश्यक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से बहुत महत्त्व के हैं या मात्र श्वासोच्छ्वास के साथ, तभी वे सही कायोत्सर्ग | है। आत्मशान्ति प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य होना चाहिये, का फल प्राप्त कर सकते हैं। आगम में इस कायोत्सर्ग | जो इच्छाओं पर विजय प्राप्त करके स्वयं में स्वयं के के बत्तीस दोषों का वर्णन है, जिनकी तरफ ध्यान श्रावक द्वारा ही प्राप्त होती है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैंतो दर, श्रमण भी नहीं रखते हैं। इस कायोत्सर्ग की 'स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः' अर्थात अपने दोषों के कमी से ही आगे आनेवाली आत्मिक प्रक्रिया, सामायिक, । दूर होने से ही आत्मशान्ति प्राप्त होती है। कलम शिखर तक पहुँचाती है, तीर्थों तक पहुँचाती है। कलम सत्य का धर्म पालती, ईश्वर तक पहुँचाती है। योगेन्द्र दिवकर, सतना म.प्र. नवम्बर 2008 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिकाल की याद दिलाती दीवाली उपाध्याय श्री निर्भयसागर जी कार्तिक माह के अमावस्या की काली रात अपने । का दीपमालिका जलाकर जल, चंदन, अक्षत आदि अष्ट अंदर दिव्य-ज्योति, दिव्य-प्रकाश, दिव्य-ज्ञान, दिव्य-ऊर्जा | द्रव्य से पूजा एवं लड्डू चढ़ाकर निर्वाण कल्याणक मनाया और वास्तविक सुख को आदिकाल से ही समाहित किये | जाता है। 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर स हुए है। प्रकाश को ज्ञान की प्रतिमूर्ति आदिकाल से माना | शासन नायक हैं, उन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तपस्या गया है। जलते हुए दीपक का प्रकाश जीवन और ज्ञान | करके केवल ज्ञान प्राप्त किया, फिर 30 वर्ष तक संसारिक का प्रतीक है, जब कि अंधकार अज्ञान और मौत का प्राणियों को अहिंसा धर्म का उपेदश दिया। कार्तिक कृष्ण प्रतीक है। दीपक जलाना जीवन में सुचिता, संघर्ष, त्रयोदशी को उपदेश देनेवाली धर्मसभा (समवशरण) को निर्भयता, स्वस्थ्यता, अर्थवृद्धि, परमार्थ सिद्धि आदि का | छोड़कर ध्यान-योग में लीन हो गये। इसी उपलक्ष्य में भी प्रतीक है, इसलिए दीपमालिका जलाकर आनंद मनाना धनतेरस मनाते हैं। फिर भगवान् महावीर स्वामी ने एक पर्व है जिसे दीवाली, दीपावली, दीपोत्सव व ज्योति- अमावस्या की प्रात:कालीन बेला में निर्वाण की प्राप्ति पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह दीपावली राष्ट्रीय | की। उस उपलक्ष्य में सोलह दीपक जलाकर अर्ध्य सहित पर्व नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय पर्व है क्योंकि यह नेपाल, | निर्वाण लड्डू चढ़ाकर दीपावली मनाई जाती है। श्रीलंका, मॉरिशस जैसे देशों में दीपावली के नाम से भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य गौतम मनाया जाता है। यूनान, ईरान, मलेशिया और अरब देशों | गणधर स्वामी ने उसी दिन केवलज्ञान की प्राप्ति की। में यह अलग-अलग समयों में ज्योति-पर्व के रूप में | उसी उपलक्ष्य में शाम को गणधर-स्वामी की पूजा करके मनाया जाता है, जबकि वर्मा, जापान और थाईलैण्ड जैसे | 8 या 16 दीपक जलाकर दीपावली मनाते हैं। आठ दीपक . देशों में तोरोनगाशी नाम से मनाया जाता है। भारतीय | आठ कर्मों का नाश एवं अनंत-ज्ञान, अनंत-सुख आदि संस्कृति के अनुसार यह एक अनादिकालीन पर्व है। 8 गुणों की प्राप्ति के प्रतीक में जलाते हैं। 16 प्रकार जैन धर्मानुसार दीपावली- युग के आदि में सूर्य- | की शुभ-भावना से धर्मतीर्थ के नायक तीर्थंकर बनते प्रकाश तो था, परन्तु अग्नि और दीपक का प्रकाश नहीं हैं, उसी के प्रतीक स्वरूप 16 दीपक जलाते हैं। प्रत्येक था, तब जैन धर्मानुसार प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी | दीपक में 4-4 ज्योति जलाई जाती हैं। जो अनंत-ज्ञान, ने पत्थर से पत्थर रगड़कर चिंगारी द्वारा अग्नि का | अनंत-दर्शन, अनंत-सुख, अनंत-शक्ति के प्रतीक होती आविष्कार कराकर भोजन पकाने एवं रात्रि में अंधकार | हैं। 16 दीपक में कुल 64 ज्योति जलती हैं, जो 64 से बचने के लिए दीपक जलाने की शिक्षा दी। (असि, प्रकार की ऋद्धियों के प्रतीक होते हैं। जिसकी परम्परा मसि. कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या की शिक्षा दी)| आज भी जैनसमाज में प्रवाहमान है। इस प्रकार आदमी ने अंधकार पर विजय प्राप्त की जिसे दीपावलीज्योति-पर्व के रूप में मनाया। अतः दीपावली हमें उस श्रीराम का अयोध्या आगमन- हिन्दू धर्म के आदिकाल की याद दिलाती है, जब मानव ने अग्नि | अनेक संप्रदाय हैं उनमें अनेक मान्यताएँ दीपावली से के दर्शन किये थे। परन्तु आज अलग-अलग धर्म एवं | जुड़ी हैं। जैसे एक मान्यतानुसार मर्यादा पुरुषोत्तम राम संप्रदायों से अनेकों घटनाएँ इस दीपावली पर्व से जुड़ी के 14 वर्ष वनवास के उपरान्त अयोध्या आगमन पर हुई हैं। जिसका स्वरूप प्राचीन काल में अलग था और लोगों ने दीप-मालिका जलाकर स्वागत किया। इसी वर्तमान में अलग है। परन्तु प्राचीन घटनाएँ आज भी | उपलक्ष्य में दीप जलाकर दीपावली मानते हैं। परन्तु महत्त्वपूर्ण हैं। | वाल्मीकि रामायण में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाण- जैनधर्म | है। के प्रर्वतक 24 तीर्थंकर हैं। उनके पंच-कल्याणक होते | नरकासुर का वध- दूसरी मान्यता अनुसार नरकासुर हैं, उनमें जब मोक्ष कल्याणक होता है, तब प्रत्येक तीर्थंकर | ने इस पृथ्वी पर आतंक फैला रखा था और उसने बल 8 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वक 16 हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था। नारायण । लिया। बाद में रानी को ज्ञात हुआ कि उसका हार लकड़हारे श्री कृष्ण ने उसका वध करके उसके आतंक से कन्याओं | के पास है। उस हार के माँगने पर लकड़हारिन ने कहा को मुक्त कराया। इसी खुशी में लोगों ने दीप जलाकर | कार्तिक माह की अमावस्या को राजमहल सहित पूरे मिठाइयाँ बाँटी जिसे आज भी प्रतिवर्ष दीपावली के रूप | नगर में अँधेरा रहेगा और मेरे घर दीप जलेगा इस शर्त में मनाते हैं। | पर मैं तुम्हें हार वापस देती हूँ। रानी ने इसे स्वीकार गोवर्धन पूजा- तीसरी मान्यता अनुसार इन्द्र के | कर लिया। कार्तिक की अमावस्या को उस लकड़हारे कहने पर ग्वालबालों ने इन्द्र की पूजा करने इन्द्रोज यज्ञ | के घर दीप जला, लक्ष्मी ने उसका आदर-सत्कार करने का निश्चय किया क्योंकि इन्द्र ने कहा कि इससे | स्वीकार किया और वहीं स्थायी रहने लगीं। अतिवृष्टि और अनावृष्टि से बचा जा सकता है। जब | भैरव एवं काली की पूजा- पाँचवीं मान्यता कृष्ण ने यह बात सुनी तो उन्होंने कहा- सुवृष्टि का | अनुसार जब कलयुग का प्रारंभ हुआ, तब काली ने कारण गोवर्धन पूजा है। अतः सभी इन्द्रोज पूजा छोड़कर | कलकी अवतार को मार करके समस्त क गोवर्धन पूजा करने लगे। इन्द्र को जब इस घटना की | करना चाहा। इसी उद्देश्य से वह राक्षसों जानकारी हुई, तब इन्द्र ने क्रोध में आकर प्रलयकारी | हुई आगे बढ़ रही थीं कि कलकी राक्षस अपना अंत वर्षा करने की आज्ञा मेघों को दे दी। कृष्ण ने अंगूठे | निकट जानकर देवों की शरण में पहुँचा, तब उन्होंने से गोवर्धन पर्वत उठाकर एवं सुदर्शन चक्र चलाकर उस | सलाह दी कि शंकर भगवान् के पास जाउ वर्षा से ब्रजवासियों की रक्षा की। इन्द्र ने कृष्ण को | समाधान हो जाएगा। भगवान् शंकर जी ने कहा तुम में विष्णु का अवतार मानकर क्षमा माँगी तब से गोवर्धन | से कोई एक मेरा रूप धारण करके रास्ते पर लेट जाओ। पूजा के रूप में दीवापली पर्व मनाया जाने लगा। | भैरव ने शिव का रूप धारण किया। जैसे ही काली दीप जलाकर लक्ष्मी पूजन- चौथी मान्यता है | का पैर उस पर पड़ा है वैसे ही मुख से जीभ बाहर कि अमावस्या की रात को दीप जलाकर लक्ष्मी पूजन | निकल आई और संहार रुक गया। उस समय 10 चांदी करने से लक्ष्मी उस घर में आकर स्थायी निवास करने | के सिक्के भैरव धारण किए हुए थे। इसी उपलक्ष्य में लगती है। इस मान्यता अनुसार एक कथा है कि एक | दीपावली मनाई जाने लगी। राजा की सात बेटियाँ थीं। राजा ने बेटियों से कहा कि | दीपदान- छठवीं मान्यता है कि भगवान् वामण तुम सब ये स्वीकारो कि तुम मेरे भाग्य का खाती हो। ने राजा बलि की धरती को तीन कदम में नापा था। इस बात को सुनकर छोटी बेटी ने इसे स्वीकार नहीं | जिससे मौत उसके सामने दिखने लगी थी। तब भगवान् किया और कहा मैं अपने भाग्य का खाती हूँ। तब उस | ने कहा जो व्यक्ति अमावस्या की प्रत्युष बेला में स्नान राजा ने क्रोध में आकर रास्ते से जा रहे लकडहारे से | करके दीप दान करता है, उसे यमराज यातना नही देता उसका तत्काल विवाह कर दिया। राजकुमारी अपने | और लक्ष्मी सदा सहायक होती हैं। लकड़हारे पति के साथ प्रसन्नतापूर्वक चली गई और | सातवीं मान्यता अनुसार प्राचीनकाल में कार्तिक पति से कहा कि तुम कभी खाली हाथ घर नहीं आना। | माह की अमावस्या को दीप जलाकर यात्रा करना शुभ लकड़हारे को एक दिन कुछ न मिला तो वह मरा हुआ | मानते थे। यात्रा करते समय नाविक के लिए लकड़ी साँप लेकर घर आ गया। राजकुमारी ने उसे छत पर | के ऊपर ऊँचे दीपक प्रकाश-स्तंभ का काम करते थे। डाल दिया। प्रात:काल रानी रत्नों से जड़ा सोने का हार | जिसके सहारे अंधेरे में भी वे अपने गन्तव्य तक पहुँचते उतारकर स्नान करने लगीं, उस समय एक गिद्ध उस | थे। हार को उठाकर लकड़हारे के घर के ऊपर से जा रहा (लेखक एम.एस.सी. तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद था, तब मरे हुए साँप को देखकर गिद्ध हार छोड़कर | उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित दिगम्बर जैनमुनि हैं।) साँप लेकर उड़ गया। राजकुमारी ने उसे उठाकर रख नवम्बर 2008 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध-परमेष्ठी का स्वरूप और उनकी महिमा पं० रतनलाल जी जैन, इन्दौर अनादिकाल से आज तक अनन्तानंत सिद्ध परमात्मा । परमेष्ट, परमानन्द, परमज्योति, अजर, अचर, अचल, हो गये, हो रहे हैं और होंगे। जिस प्रकार भट्ठी धमनी | अक्षय, अकृत, अकल, अकथ, अवेदी, अविकारी, असंगी, आदि कारणों की युक्तिपूर्वक योजना करने से किट्ट कालिमा | अरंगी, अभोगी, अयोगी, अरोगी, अभेदी, अखेदी, अविनाशी, आदि सब मैल निकल जाता है और शुद्ध सुवर्ण की | अक्रोधी, अमानी, अमायी, अलोभी, अरागी, अमोही, प्राप्ति हो जाती है, उसी प्रकार जो यह संसारी आत्मा | अगद, अगम, अजय, निर्मेद, निर्विकल्प, निराकार, निरंजन, ज्ञानावरणादि (घाति-अघाति) कर्मों से मलिन हो रहा है | निर्मल, निर्भय, निर्मम, निर्मोही, निर्लेप, निर्वधि, निर्विकार, उसे शुद्धोपयोग रूप भट्ठी में तपाकर जिसने घातिया- | निर्विघ्न, जगत्दयाल, जगत्प्रतिपाल, जगदाधर, जगत्केतु, अघातिया कर्मरूप कालिमा को निकाल कर, शुद्ध स्वरूप | जगदानन्द, जगदीश, जगन्नाथ, जगदीश्वर, जगद्गुरु, की प्राप्ति की है और जो लोकशिखर पर विराजमान | जगज्ज्योति, महाज्ञानी, महाध्यानी, महातेजस्वी, महानुभाव, हुआ है, जो सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व और अगुरुलघुत्व आदि | महापुरुष, महाप्रभु, महाबली, महात्मा, दीनबन्धु, दीनानाथ, गुणों से सहित है वह सिद्धात्मा है। दीनदयाल, दीनरक्षक, दीनवत्सल, ज्ञानसागर, ज्ञानगम्य, जो पूर्णरूप से अपने स्वरूप में स्थित है, कृतकृत्य | ज्ञानदीपक, ज्ञानवान्, गुणरत्नाकर, क्षमासागर, धर्मदिवाकर, हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और | अशरण-शरण, भवभयहरण, शिवसुखकरण, सत्वानुशरण, जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं उन्हें | कुमतिकुठार, पाप-विडार, ज्ञानप्रचार, शक्ति संचार, सिद्ध कहते हैं। पतितपावन, भक्तवत्सल, सच्चिदानन्द, सदानन्द, बुद्धानन्द, जिन्होंने सुदूर भूतकाल से बाँधे हुए आठ प्रकार | ज्ञानानन्द, निजानन्द, परमानन्द, सर्वज्ञान, सर्वदर्शनादि के कर्मों को शुक्लध्यान-रूप अग्नि के द्वारा नष्ट कर उत्तमोत्तम गुणांकृत सिद्ध परमेष्ठी हैं। दिया है अथवा सिद्ध-गति को प्राप्त कर लिया है और ___ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्रव्यसंग्रह में सिद्ध जो पुनर्जन्म से छूटकर पूर्णरूप से अपने को प्राप्त कर परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैंचुके हैं ऐसे सिद्धों को निरंतर नमस्कार है। णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। ये सिद्ध भगवंत अंजनसिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्ग- | लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता॥ (गा.१४) सिद्ध, माया-सिद्धादि से विलक्षण स्वात्मोपलब्धि-रूप जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, केवलज्ञानादि अनंतगुणों से युक्त हैं। कुन्दकुन्द स्वामी | सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर नियमसार में कहते हैं से कुछ कम हैं और उर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा। अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति॥ से युक्त हैं वे सिद्ध परमात्मा हैं और भी, (गा. ७२) णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा। जिन्होंने अष्टकर्मों के बन्धनों को नाश कर दिया पुरिसायारो अप्या सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो॥ है, जो आठ महागुणों से सहित हैं तथा लोकाग्र में स्थित (गा. ५१) नित्य और अविनाशी हैं वे सिद्ध हैं। तथा जन्म-मरण ___आठ कर्मों तथा पाँच शरीरों से रहित, लोक-अलोक से रहित, उत्कृष्ट, अष्टकर्मों से दूरवर्ती, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, को जानने व देखनेवाले, पुरुषाकार से लोक के शिखर सुख, वीर्य चार स्वभावधारी, क्षयरहित, अविनाशी तथा | | पर स्थित आत्मा सिद्ध-परमात्मा हैं, उनका ध्यान करो। छेदरहित-तत्त्व ही सिद्ध परमात्मा हैं। सिद्ध परमेष्ठी आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती गोम्मटसार अनन्तज्ञानी हैं, कृतकृत्य हैं, देवाधिदेव हैं, इन्द्र-चक्रवर्ती- | जीवकाण्ड में कहते हैंतीर्थंकर आदि समस्त महापुरुषों के द्वारा वंदनीय परमपुरुष, | अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। परमब्रह्म, परमदेव, परमेश्वर, परमकृपालु, परमदयालु | अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥ (गा.६८) 10 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से रहित हैं, अनन्त । ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त हुए, । सुखरूपी अमृत के अनुभव करनेवाले शान्तिमय हैं, | आठ गुणों से सम्पन्न अष्टम पृथ्वी (ईषत्प्राग्भार) अर्थात् मिथ्यादर्शनादि भावकर्मरूपी अञ्जन से रहित हैं, सम्यक्त्व, | मोक्षभूमि में स्थित और अपने कार्य को जिन्होंने समाप्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघु | कर दिया है उन अनुपम सिद्धों को मैं नित्य नमस्कार ये आठ गुणों से सहित हैं, कृतकृत्य हैं- अर्थात् जिन्हें | करता हूँ। कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है, लोक के अग्रभाग जिन्होंने ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण कर्म की में निवास करनेवाले हैं वे सिद्ध परमात्मा हैं। और भी, | नौ, वेदनीय कर्म की दो, मोहनीय कर्म की अट्ठाईस, जह कंचणग्गिगयं, मुंचइ किट्टेण कालियाए य। आयु कर्म की चार, नाम कर्म की तिरानवे, गोत्रकर्म तह कायबंधमुक्का, अकाइया झाणजोगेण॥ | की दो और अंतराय की पाँच इस प्रकार आठों कर्मों (गा.२०३) | की १४८ प्रकृतियों को नष्ट कर दिया है वे सिद्ध परमात्मा जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाए हुए सुवर्ण | होते हैं। उन सिद्धों ने जो सुख प्राप्त कर लिया वह में बाह्य किट्टिका और अभ्यन्तर कालिमा इन दोनों ही | अतिशय अर्थात् संसार अवस्था में प्राप्त सुखों से बहुत प्रकार के मल का बिल्कुल अभाव हो जाने पर, फिर | अधिक है, अव्याबाध बाधा से रहित है अर्थात् उस किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता उसी प्रकार | सुख की अनुभूति में कभी बाधा नहीं आती। अनन्त महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसंस्कृत एवम् सुतप्त आत्मा | है-उसका कभी अन्त नहीं होता, अनुपम है- उसकी में से एक बार शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य | तुलना संसार के किसी भी सुख से नहीं की जा सकती। काय और अन्तरंग मलकर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट | उत्कृष्ट है, इन्द्रिय विषयों से अतीत है। सिद्ध पद प्राप्त जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के करने से पहले ऐसा सख कभी प्राप्त नहीं हआ और लिए काय और कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं। प्राप्त हो जाने के बाद वह कभी छूटता नहीं, सदा बना आचार्य कन्दकन्दस्वामी नियमसार में कहते हैं- | रहता है। वे परमात्मा मैल से रहित हैं। शरीर से, इन्द्रियों णकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा। से रहित हैं। केवल ज्ञानमय हैं, विशुद्ध हैं, परमपद में लोयग्गठिदा णिच्चा, सिद्धा ते एरिसा होति॥ | स्थित हैं, परमजिन हैं, मोक्ष को देनेवाले हैं। वे अविनाशी (गा. ७२) | हैं, नित्य हैं, अचल हैं और आलम्बन रहित हैं। आगे परिपूर्णरूप से अन्तर्मुखाकार ध्यान और ध्येय के | गमन नहीं करते। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते विकल्प से रहित जो निश्चय परम शुक्लध्यान है उस | हैं किध्यान के बल से आठ कर्मों के बन्धसमूह को जिन्होंने | णिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्टा। नष्ट कर दिया है जो क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जतं॥ अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व (गा. १८३) और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों की पुष्टि से सन्तुष्ट निर्वाण (अवस्था) ही सिद्ध (अवस्था) है और हैं। तीन तत्त्व के स्वरूपों में विशिष्ट गुणों के आधारभूत | सिद्धावस्था ही निर्वाण है। अर्थात् निर्वाण और निर्वाणहोने से जो परम हैं अर्थात् बहिस्तत्त्व, अन्तस्तत्त्व और | | प्राप्त जीव में कोई भेद नहीं है। आत्मा कर्मों से मुक्त परमात्म तत्त्व स्वरूप हैं। तीन लोक के शिखर से ऊपर | होती है, वह मुक्त होते ही ऊपर लोक के अग्रभाग तक गति-हेतुरूप धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के | जाती है जहाँ न सांसारिक सुख, न दुख, न पीड़ा, न अग्रभाग (तनुवातवलय) में विराजमान हैं, व्यवहारनय | बाधा, न जन्म, न मरण, न कर्म है, न नोकर्म है, न से अभूतपूर्व पर्याय से प्रच्युत न होने से जो नित्य हैं, | चिन्ता है, न आर्त और रौद्रध्यान है तथा धर्म्यध्यान और अविनाशी हैं ऐसे वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी होते हैं। शुक्लध्यान भी नहीं है वही निर्वाण है। ___ 'सिद्धभक्ति' में कहा गया है आचार्यदेव गो. जीवकांड में गुणस्थानातीत सिद्धों अट्ठविहकम्ममुक्के अट्ठगुणड्ढे अणोवमे सिद्धे। | का वर्णन करते हैंअट्ठम पुढविणिविट्ठे णिट्ठियकज्जे य वंदिमों णिच्चं॥। सिद्धों का स्वरूप कथन करने से अन्यमतावलम्बी नवम्बर 2008 जिनभाषित || Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने-अपने मत के अनुसार ईश्वर को विभिन्न रूप। का त्याग करना कार्यकारी नहीं है। सम्पूर्ण परिग्रह का से मानते हैं, उन सबके मत का सर्वदा निराकरण हो | त्यागी ही मुक्त अवस्था को पा सकता है। जब दर्शनमोहनीय जाता है जैसे का तथा चारित्रमोह की अनन्तानबंधी चौकडी का सर्वथा १. सदाशिव मत के अनुयायी जीव को सदा कर्म | क्षय हो जाता है, तब क्षायिक ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट होता से रहित ही मानते हैं। उसके निराकरण के लिए उनसे | है। वही क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके कहा गया कि आठ कर्मों से रहित होने पर जीव सिद्ध | घातिया कर्मों को नाशकर केवलज्ञानी बनते हैं तथा अवस्था को प्राप्त होता है। अघातियाँ कर्मों को भी ध्यान की अग्नि में भस्म करके २. सांख्यमत में बन्ध, मोक्ष, सुख, दुख आदि | कंचन समान बन जाते हैं। जैसे स्फटिक मणि जहाँ से प्रकृति को होते हैं, आत्मा को नहीं-इसके निराकरण भी देखो वहीं से ही निर्मल, स्वच्छ, सुन्दर है इसी प्रकार को 'अनन्तसुख' स्वरूप विशेषण दिया है। | से सिद्धों का आत्मस्वरूप निष्कलंक होता है। प्रवचनसार ३. एक अन्य मत मुक्त जीव को लौटना मानता में भी क्षायिक अतीन्द्रिय ज्ञान की महिमा का कथन है। उसको दूषित करने के लिए निरंजन अर्थात् भावकों से रहित बताया, क्योंकि नवीन कर्मबन्ध न होने से संसार | अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं। में सिद्धात्मा का आगमन नहीं है। पलयं गयं च जाणादि तं णाणमदिंदियं भणियं ॥ ४१ ॥ ४. बौद्धों का मत है कि सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक | जो ज्ञान प्रदेशरहित परमाणु वगैरह को, प्रदेश सहित हैं। इस सिद्धान्त को दूषित करने के लिए कहा कि जीवादि द्रव्यों को, मूर्त और अमूर्त पदार्थों को तथा उनकी ईश्वर (सिद्ध) नित्य हैं, शाश्वत हैं, विनाश को प्राप्त | आगे होनेवाली और नष्ट हुई पर्यायों को जानता है उस नहीं होते हैं। ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहा है। उस ज्ञान की महिमा ५. नैयायिक तथा वैशेषिक मुक्त अवस्था में बुद्धि | का वर्णन नहीं हो सकता। पंडित द्यानतरायजी सिद्धपूजा आदि गुणों का विनाश मानते हैं, उनको समझाते हुए | में लिखते हैं "यमराज की चोट बचायक हो, अर्थात् आ. देव कहते हैं कि सिद्ध ज्ञानादि आठ गुणों से सहित | छद्मस्थों से नहीं जीतनेवाले काल (मृत्यु) को भी आपने हैं और ये गुण कभी अभाव को प्राप्त नहीं होते हैं। | जीत लिया। जब जन्म ही नहीं तो मृत्यु कहाँ से होगी। जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं, रचना | "तुम ध्येय महामुनि ध्यायक हो" अर्थात् हे सिद्ध परमेष्ठी करनेवाले मानते हैं उनसे कहा गया है कि ईश्वर तो भगवान्! आप ध्येय हैं, केन्द्र हैं, ध्रुव हैं, विषय हैं, कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, उन्हें कोई भी | इस कारण तपस्वी महामुनि सन्त आप का ध्यान करते कार्य करना शेष नहीं रहा है। हैं। 'जगजीवन के मन भायक हो' संसारी प्राणी जब ६. एक और मत है जिसके अनुसार-मुक्त जीव | दुखी होता है तब आपकी ही पुकार करता है। आपका हमेशा ऊपर ही गमन करता जाता है कभी जीव ठहरता | नाम स्मरण करने से ही असाता का रस सूखकर सातारूप ही नहीं। उन्हें भी गुरु बताते हैं कि जहाँ तक धर्मद्रव्य परिणत हो जाता है। प्रभु आप सबके मनभावन हो। का अस्तित्व है अर्थात् लोकाग्र तक ही जाते हैं, आगे | 'जय रिद्धि सुसिद्धि बढ़ायक हो' आप सुखकारक गमन नहीं करते हैं, वहीं स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार आत्मकल्याणक, भव्यों को मनवांछित सामग्री देनेवाले नीति एवं न्याय से अविरोध सिद्धों का स्वरूप बताया | हैं। सिद्ध-परमेष्ठी इतने पवित्र हैं कि उनके नामस्मरण गया है। मात्र से ही जन्मजन्मान्तर के पापकर्म तड़ातड़ टूट जाते भावप्राभृत में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि- है। एक जीव जिस भूमि से मुक्त होता है उस भूमि भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण। | के दर्शन से ही इतना सातिशय पुण्यबंध होता है कि इय भाविऊण उज्झसुगंधं अब्भंतरं धीरं॥(गा.४३)| उसका वर्णन नहीं कर सकते। कवि ने कहा है जो रागादि भावों से मुक्त है वही मुक्त है। किन्तु | कागज सब धरती करूँ, लेखनी सब बनराय। जो बन्धु बान्धव आदि से मुक्त है वह मुक्त नहीं है। सात समुद्र की मसि करूँ भु गुण लिखा न जाय॥ अर्थात् अभ्यन्तर परिग्रह के होते हुए मात्र बाह्य परिग्रह । सारी पृथ्वी का कागज बनाओ, सारे वृक्षों की 12 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलम बनाओ, सारे समुद्रों की स्याही बनाओ और सरस्वती । से महाराजा, उससे अधिक अर्द्धचक्रवर्ती, जघन्य भोगभूमि ` को प्रभुगुण लिखने के लिए बिठाओ, कागज, कलम, स्याही समाप्त हो जायेंगे लेकिन सिद्धों के सुख का, गुणों का वर्णन पूरा नहीं होगा । के जीव, मध्यम भोगभूमिवाले, उत्कृष्ट भोगभूमिवाले देव, इन्द्र १६ स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ पंचोत्तर वाले क्रमश: अधिक-अधिक सुखी हैं। उसमें भी सर्वार्थसिद्धिवाले देव अधिक सुखी हैं। सभी सर्वार्थसिद्धि वाले देवों के सुख को भी अनंत से गुणा करो तो भी सिद्धों के सुख की बराबरी नहीं हो सकती। क्योंकि वह अतीन्द्रिय, सहज, अव्याबाध, आत्मिक स्वाधीन हैं शेष सब इन्द्रियजन्य, क्षणिक विनाशी पराधीन सुखाभास ही हैं। ऐसे सुख को कैसे प्राप्त करें? कोई मजदूर कावटिका द्वारा निरन्तर बोझा ढोता है और उससे रहित होने पर सुखी होता है । ऐसे ही संसारी जीव काय की कावटिका से अनंत दुःखों के कारण कर्मरूपी बोझ को लेकर नाना गतियों में लिये लिये फिरता है। परिणामतः दुःखों को भोगता है । भीष्म पितामह जब युद्ध भूमि में मरणासन्न अवस्था में थे तब दो चारणऋद्धिधारी मुनीश्वर आते हैं, णमो सिद्धाणं' कहने को कहते जिसके प्रभाव से वे स्वर्ग में देव होते है। तीर्थंकर किसी के सामने झुकते नहीं हैं, लेकिन जब वैराग्य की धारा बहती है, दीक्षा के लिए उद्धत होते हैं उस समय " नमः सिद्धेभ्यः " कहकर सिद्ध भगवान् को साक्षी में रखकर ही दीक्षा लेते हैं। जैसे सूर्य उष्णता का और प्रकाश का उत्कृष्ट आधार है, समुद्र जल का उत्कृष्ट आधार है उसी प्रकार सिद्ध भगवान् आनन्द-सुख शान्ति के उत्कृष्ट आधार हैं। एक मुख में एक जीभ होती है, उससे कोई काम नहीं चल सकता इसीलिए एक मुख में अनन्त जीभ लगाओ, ऐसे अनन्त मुख बनाओं और उससे सिद्धों के एक समय के सुख का अनन्तवाँ भाग लो तो भी वर्णन नहीं होगा। तीन लोक तीन काल के पूरे शब्दों को एकत्रित करो, उसे भी अनंतानंत गुणा कर लो, इधर सिद्धों के एक समय के सुख का अनन्तवाँ भाग लो, वर्णन करने से पूरी शब्दराशि समाप्त हो जायेगी लेकिन सुख का वर्णन नहीं हो पायेगा, उसे तो मात्र केवली ही जान सकते हैं। क्योंकि शब्द सीमित हैं, और सीमित शब्द असीमित, अतीन्द्रिय सुख का वर्णन नहीं कर सकते । तिर्यंच से मनुष्य सुखी है। मनुष्यों से राजा, राजा नागपुर में पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव महाराष्ट्र की धरती पर प्रथम बार संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में बृहद पैमाने पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव का आयोजन तुलसीनगर नागपुर में दिनांक ३ दिसम्बर से ९ दिसम्बर तक नवनिर्मित भव्य जिनालय के प्रांगण 'विद्याधाम' में सम्पन्न होगा। आचार्य विद्यासागर जी एवं संघस्थ ३८ साधुओं का दिनांक १५ नवम्बर के पश्चात् नागपुर आगमन होगा। ऐसी जानकारी प्रचारप्रमुख 'महेन्द्र जैन रूपाली' एवं डॉ० संतोष मोदी ने दी है। ब्रह्मचारी श्री विनय भैया के मार्गदर्शन एवं दि. जैन परवारपुरा मंदिर ट्रस्ट के सान्निध्य में यह आयोजन सम्पन्न होगा । महेन्द्र जैन "रूपाली" मो. 9822061288 है, इस प्रकर सिद्धों का सुख अनुपम है, अलौकिक उसका वर्णन नहीं हो सकता। वे इतने पवित्र हैं कि उनके नाम लेने मात्र से ही जन्मजन्मान्तर के पाप कर्म दूर हो जाते हैं। जिन्हें सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति हो गई है ऐसे अनन्तसुख के धारी अनन्तानन्त सिद्ध- परमात्मा हो गये हैं, हो रहे हैं और होंगे, उनको मेरा मन-वचन-काय से, अत्यंत भक्तिभावना से, सबको एक साथ व प्रत्येक को अलग-अलग नमस्कार हो । 'वात्सल्यरत्नाकर' ( खण्ड २ ) से साभार पाठशाला शिक्षक दक्षता संवर्द्धन शिविर धर्मोदय परीक्षा बोर्ड, सागर द्वारा 21 सितम्बर से 28 दिसम्बर तक के प्रत्येक रविवार को पाठशाला के शिक्षकों को शिक्षण कला में दक्ष करने के लिए 'शिक्षक दक्षता संवर्द्धन शिविर' का आयोजन आसपास की 5-7 पाठशालाओं का समूह बनाकर दोपहर 11 बजे से 5 बजे तक किया जायेगा। इस शिविर में जो भी शिक्षक भाग लेना चाहें, वे निम्न नम्बर पर संपर्क कर तारीख तय करें । संपर्क सूत्र- ब्र० भरत जैन रजिस्ट्रार धर्मोदय परीक्षा बोर्ड, सागर मो. 9424951771 नवम्बर 2008 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवनत्रिक देव जिनभक्तों का सम्मान करते हैं या उपकार? ___पं. सुनीलकुमार शास्त्री विगत वर्षों में उपर्युक्त विषय पर बहुत से लेख । वज्रमय छत्र तानकर स्थित हो गयी। (देखें उत्तरपुराण एवं पस्तिकाएँ दृष्टिगोचर हुई हैं। शास्त्रीय प्रमाणों के | पर्व ७३/१३९-१४१) परन्तु 'प्राकृत विद्या' जनवरी-मार्च अनुसार तो यह भली प्रकार सिद्ध है कि जिनभक्तों पर | २००८ अंक के पृ. ६२ के अनुसार 'पद्मावती के मस्तक जब-जब कष्ट आए हैं, तब-तब चतुर्थ काल एवं पंचम पर विराजमान भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ १६वीं काल में भक्तों के द्वारा, जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति या स्मरण | शताब्दी ईसवी के आसपास पंथव्यामोह के कारण बनना करने पर, देवों ने उनके संकट दूर करके उनका सम्मान | प्रारम्भ हो गईं जो गलत निरूपण था।' इससे पूर्व एलोरा किया है। आदि में जितनी भी उपसर्गसहित धरणेन्द्र-पद्मावती की प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद | मूर्तियाँ मिलती हैं, वे उपर्युक्त उत्तर-पुराण के उद्धरण हैं। इन ग्रन्थों में एक भी उदाहरण ऐसा देखने को नहीं के अनुसार ही मिलती रहीं। यह गलत परम्परा भट्टारकों मिलता कि भक्तों ने भवनत्रिक देवों की पूजा-भक्ति की | के काल से प्रारंभ हुई। इसी प्रकार वर्तमान में पंथव्यामोहहो और देवों ने उन भक्तों पर उपकार करते हुए, उनका | पूर्वक भवनत्रिक देवों के उपकारों की जो चर्चा पढ़ने कष्ट दूर कर दिया हो। यद्यपि यह सत्य है, फिर भी में आती है, वह भी अर्थ का अनर्थ मात्र ही है, रंच जैनसमाज का एक वर्ग अभी भी भवनत्रिक देवों की | मात्र भी आगम सम्मत नहीं है। स्वाध्याय प्रेमियों को पूजा-अर्चना-आरती इस आशय से करता हुआ देखा | चाहिए कि वे ऐसे लेखों को आगम के उद्धरण से मिलाते जाता है कि ये भवनत्रिक देव हमको सांसारिक-सुख | हए पढ़ें। प्रदान कर हम पर उपकार कर दें। एक लेख पिछले दिनों ऐसा भी पढ़ने में आया ___ कई माह पूर्व पद्मावती के उपकार संबंधी लेख | है, जिसका आशय है कि राजकुमार नमि-विनमि पर कुछ पत्रिकाओं में पढ़ने को मिले। उन लेखों को जब | पद्मावती ने बड़ा उपकार किया। इस पूरे लेख में एक आगम के परिप्रेक्ष्य में देखा गया, तो उनको लेखक के भी स्थान पर किसी शास्त्रीय उद्धरण में पद्मावती का मन की नितान्त कल्पना रूप पाया गया। उन लेखों में नाम नहीं है, जबकि लेखक ने स्वेच्छा से लेख के शीर्षक शास्त्रीय उद्धरण तो दिये गए, परन्तु उन उद्धरणों में पद्मावती | में 'पद्मावती का उपकार' लिखा है। आश्चर्य तो यह का नाम (मूल ग्रंथ में) कहीं भी पढ़ने को नहीं मिला। | है कि नमि और विनमि तो भगवान् आदिनाथ के काल लेखक ने आग्रहग्रस्त होकर शास्त्रों में उल्लेख न होने | में हुए थे (अर्थात् आज से लगभग एक कोड़ाकोड़ी पर भी पद्मावती का नाम जोड़ दिया, क्योंकि उनको | सागर पूर्व) आदिपुराण के १८वें पर्व में इस प्रकरण पद्मावती का उपकार दिखाना था। जैनसमाज भोली है, | में धरणेन्द्र का नामोल्लेख तो है, उनकी पत्नी या पद्मावती वह तो मात्र इतना देखती है कि किसी आचार्य ने शास्त्रीय | का उल्लेख ही नहीं है। फिर इस लेख में पद्मावती उद्धरण देते हुए यदि कोई लेख लिखा है, तो वह प्रामाणिक | का नाम कहाँ से आ गया? दूसरे, धरणेन्द्र ने भी नमि ही होगा। वर्तमान में समाज में सारी गलत परम्पराएँ | और विनमि पर कोई उपकार नहीं किया, बल्कि उनको इसी आधार से विकसित होती चली जा रही हैं। १२वीं | राज्य दिलाकर, राज्याभिषेकपूर्वक सम्मान किया। ऐसे शताब्दी के बाद भट्टारककाल में भी भट्टारकों ने जैनसमाज भ्रमपूर्ण लेख को पढ़कर समाज गुमराह हो रहा है और को इसीलिए अज्ञानी बनाकर रखा ताकि समाज उनकी समझ रहा है कि पद्मावती देवी ने ही राजकुमार नमिगलत परम्पराओं का विरोध न कर सके। वास्तविकता | विनमि पर उपकार किया था। वह पद्मावती वही थीं, तो यह थी कि भगवान् पार्श्वनाथ पर जब कमठ के | जो आजकल भगवान् पार्श्वनाथ से संबंधित प्रचारित की जीव ने उपसर्ग किया, तब ७ दिन बाद धरणेन्द्र ने उनके | जाती हैं। अतः यदि उनकी हम पर भी कृपा हो जाए, ऊपर फणाओं का समूह आवृत किया और उसकी | तो वह हमारे ऊपर भी उपकार करेंगी, यह बिलकुल पत्नी, मुनिराज पार्श्वनाथ एवं धरणेन्द्र के फणों के ऊपर । गलत धारणा है। 14 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे ही एक लेख में ये शब्द भी पढ़ने में आये 'ऐसे भव्य सम्यग्दृष्टि धरणेन्द्र एवं पद्मावती देव और देवी, समस्त तीर्थंकरों, आचार्यों, साधुओं एवं जिनशासन भक्तों पर सदा उपकार करते हैं।" यह प्रकरण अत्यन्त विचारणीय है । धरणेन्द्र के द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ का संकट दूर करना, उसके द्वारा भगवान् पर उपकार माना जाए या सेवा । क्या ये भवनत्रिक देव तीर्थंकरों या आचार्यों पर उपकार कर सकते हैं? कभी नहीं कर सकते। ये तो उनके किंकर हैं । उपर्युक्त आगमप्रमाणों से स्पष्ट है कि धरणेन्द्र, योग्य हैं इस प्रकरण में निम्नलिखित बातें हमेशा याद रखने पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि किसी भी जीव पर उपकार नहीं करते। स्वयं जीव का यदि सातावेदनीय का उदय हो, तब ही ये सहायता करते हुए देखे जाते हैं। इन देवी-देवताओं की पूजा-आरती तो महान् मिथ्यात्व का कारण है, अतः सांसारिक सुखों के लिए भी इनकी आराधना करना उचित नहीं । जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति तो सातिशय पुण्यबंध में कारण होती हुई, समस्त सांसारिक सुख को तो प्रदान करती ही है, परम्परा से मोक्षप्राप्ति में भी कारण है। हमको बड़े भाग्य से महान् दुर्लभ मनुष्य - पर्याय और दिगम्बर जैन - कुल में जन्म मिला है, हम सबको चाहिए कि उपर्युक्त भ्रमपूर्ण लेखों को पढ़कर भ्रमित न हों और जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति को ही परम उपादेय मानकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा, आरती, भक्ति से दूर रहें। यह भी ध्यान रखें कि यदि अपने सिर पर भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति रखी हुई पद्मावती देवी की मूर्ति है, तो वह भी पूजनीय नहीं है । इन मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा नहीं होती । भगवान् पार्श्वनाथ की पूजा के बहाने इनकी पूजा, आरती कभी न करें । इस लेख का आशय यह कदापि नहीं है कि धरणेन्द्र, पद्मावती आदि का अनादर, तिरस्कार, अवहेलना या अपमान किया जाए। ये कदाचित् सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं, अतः असंयतसम्यग्दृष्टि के साथ किया जानेवाला व्यवहार 'जय जिनेन्द्र' तक किया जा सकता है। सिकन्दरा, आगरा, उ.प्र. १. यदि भगवान् पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर करने के कारण हम धरणेन्द्र - पद्मावती की पूजा करते हैं, तो क्या समाधिगुप्त और त्रिगुप्त नामक मुनिराजों पर शेर के द्वारा आक्रमण करने पर एक सूकर के द्वारा मुनिराजों की रक्षा करने के कारण, उस सूकर को भी पूज्य नहीं मानना पड़ेगा ? २. कुछ मूर्तियों में भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों के नीचे जो धरणेन्द्र- पद्मावती दिखाये जाते हैं, वे इस बात के परिचायक हैं कि वे भगवान् के सेवक हैं। इस अंकन के कारण उनमें पूज्यता नहीं बनती। ३. इन देवी-देवताओं की पूजा कुछ भी फल नहीं देती है । बृहद्रव्य संग्रह गाथा ४१ की टीका में लिखा है कि 'जो जीव ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि वैभव के लिए रागद्वेष से आहत, आर्त्त और रौद्र परिणामवाले क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्या देवों की आराधना करते हैं, उसे देवमूढ़ता कहते हैं।' वे देव कुछ भी फल नहीं देते। ४. कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो, मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ॥ मोक्षपाहुड़ ९२ । अर्थ- जो सूर्य, चन्द्र, यक्ष आदि खोटे देवों की, खोटे धर्म व खोटे लिंग की वंदना नमस्कार या अभि । वादन, लज्जा, भय या गारव से करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है। श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस प्रकार कहा हैएवं पेच्छंतो विहु गह भूय-पिसाय- जोइणी - जक्खं । सरणं मण्णइ मूढो, सुगाढ - मिच्छत्त भावादो ॥ २७ ॥ अर्थ- ऐसा देखते हुए भी मूढ़ जीव प्रबल मिथ्यात्व प्रभाव से ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्ष को शरण मानता है। के कबीरवाणी दोष पराया देख करि चले हसन्त हसन्त । अपना याद न आवई, जाका आदि न अन्त ॥ तिनका कबहुँ न निंदिये पाँव तले जो होय | कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर धनेरी होय ॥ नवम्बर 2008 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म हमारे विधाता नहीं सुमतचन्द्र दिवाकर अनादिकाल से जीव के साथ कर्म का बन्धन । सामान्यतः कथन सही है, परन्तु पुण्य और पाप बंधन सतत चला आ रहा है। यह 'केर' और 'बेर' की तरह में बहुत अन्तर है। पुण्य की परिभाषा है 'पुनाति पुण्यं', वैचित्र्यपूर्ण है। इसे यह अनन्तचतुष्टय का धनी आत्मा | जो आत्मा को ऊँचाइयों की ओर ले जाये उसे पुण्य सदैव से निर्वाह करता चला आ रहा है और भ्रमवश | कहते हैं। इसके विपरीत जो आत्मा को अधोगति की कर्मों को अपना विधाता मान बैठा है। दो भिन्न लक्षणोंवाले | ओर ले जाये उसे पाप कहते हैं। पुण्य आत्मसाधना द्रव्यों में इस प्रकार की मैत्री का क्या कारण है? जीवात्मा | की ऊचाइयाँ पाते हुए स्वयमेव छूटता जाता है, जब कि चैतन्यलक्षणवाला है, जब कि कर्म अचेतन हैं। आत्मा | पाप प्रयासपूर्वक छोड़ना होता है। पुण्य, बंध का कारण अरूपी है। कर्म स्पर्श, रूप, रस गंधवर्णमय पुद्गल द्रव्य | होने पर भी, मोक्ष मार्ग में सहायक है। के रूपान्तरण हैं। तिस पर भी ये जड़ कर्म चेतन को इस प्रकार रागद्वेषमोह की पृष्ठभूमि में भावकर्म, अनादि काल से भटका रहे हैं, ऐसी हमारी एकान्त मान्यता | द्रव्यकर्म तथा नोकर्मों का अर्जन चलता रहता है। इस है। इस प्रकार की मान्यता के कारण ही हम कर्मों को | | आगमन में विगत में बाँधे कर्मों की प्रबल भूमिका, आत्मा अपना विधाता मानते हैं। वस्तुतः कर्म हमारे विधाता | का वर्तमान का विपरीत पुरुषार्थ तथा कर्मबंध तथा कर्मफल नहीं, अपितु कर्मों के विधाता हम स्वयं हैं। हमारे सांसारिक | व्यवस्था की अज्ञानता है। यदि कर्मबंध के यथार्थ कारणों भटकाव में कर्मों की सीमाएँ हैं। यदि कर्म ही नियामक | का ज्ञान तथा आत्मशक्ति का सम्यक् भान हो जाये, तो होते, तो मुक्ति का मार्ग ही न निकलता। जैनदर्शन में | यह धारणा निर्मूल हो जायेगी कि कर्म हमारे विधाता नर से नारायण जीव स्वयं के पुरुषार्थ से बनता है।। हैं। इस जीव के संसारभ्रमण का कारण मूलतः इसके . प्रत्येक आत्मा में ऐसी सामर्थ्य है कि बाँधे हुए कर्मों | रागद्वेषपरिणाम हैं। हम पूजा में पढ़ते भी हैं किके फल देने की शक्ति आदि में परिवर्तन कर सकता | जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी। है। इस प्रक्रिया को जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त में अपकर्षण, | मैं रागद्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी॥ उत्कर्षण, संक्रमण, उदीरण आदि नामों से परिभाषित | यह मानना कि चेतन आत्मा को अचेतन कर्म किया गया है। कर्मबंध से प्रारम्भ कर उनसे मुक्ति अथवा | संसार-परिभ्रमण कराते हैं, मेरी अज्ञानता थी। अब समझ छुटकारे का पथ जैनागम के आलोक में उजागर करना पाया कि मेरे भटकाव का कारण राग-द्वेष के वशीभूत इस आलेख का मंगल मन्तव्य है। परपदार्थों की ओर मेरा झुकाव है। मैं सदैव विपरीत कर्म और कर्मबंध- मन वाणी और शरीर की पुरुषार्थ करता रहा। आत्मा का स्वरूप जैसा है उसे वैसा प्रवृत्ति से कर्म आकृष्ट होते हैं। आगम की भाषा में | ही न जानना-मानना उस से भिन्न जानना-मानना ही इसे योग कहते हैं। चेतना की विकारी तंरगों को अथवा उसका विपरीत पुरुषार्थ है। मानसिक विकारों को कषाय कहते हैं। चेतना में राग | मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। द्वेष रूप प्रदूषण अज्ञान अवस्था में सदैव उत्पन्न होता | मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥ रहता है। इस प्रकार योग से कर्म आते रहते हैं और मिथ्या श्रद्धा के वश शरीर और उससे सम्बन्धित कषायों का सहयोग पाकर निरन्तर बँधते रहते हैं। देह | समस्त संसार को आत्मवत् जानकर अनेक कामनाओं है, तब तक बंध है। शुभभाव और शुभक्रिया होगी तो | को जन्म दिया और उनकी पूर्ति हेतु अनेक पाप, हिंसा, पुण्य बँधेगा, अशुभभाव और अशुभक्रिया होगी तो पाप | झूठ, चोरी, कुशील सेवन करता हुआ कर्मों की खेती बँधेगा। यह स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर है कि शुभ | करता रहा और अपने विपरीत परिणमन को जड़ कर्म बाँधना है कि अशुभ। कतिपय लोग कहने लगते हैं | के माथे मड़ता रहा। राग-द्वेष कर भावकर्म अर्जित किये कि बंधन तो बंधन है, चाहे पुण्यरूप हो अथवा पापरूप।। तथा मन-वचन-काय की क्रियाओं से द्रव्यकर्म का कोष 16 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़ाया। जब पूर्व अर्जित कर्म पक कर फल देने लगते। प्रारब्ध- जो हमने भूतकाल में किया था, वही हैं, तो उनके खट्टे-मीठे स्वाद से प्रभावित जीव नये | संस्कार रूप हमारे वर्तमान में प्रारब्ध है। जो हमारा प्रारब्ध कर्मकोष का सृजन कर लेता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया | है, उसको भोगने की व्यवस्था ही कर्मफल-व्यवस्था है। अनादि से सतत चली आ रही है। तिस पर भी कर्म जैसा हम बोते हैं, वैसा ही काटना होता है। नीम बोकर विधाता नहीं, क्योंकि अनन्त जन्मों में बाँधे कर्मों को| किशमिश नहीं पायी जा सकती, यह सामान्य और सर्वमान्य मनिराज अपनी ध्यानाग्नि से जलाकर कुछ ही पलों में | सिद्धान्त है। गीता में कृष्ण ने भी इसी प्रकार की उद्घोषणा भस्म कर देते हैं। की है कि कर्मों के फल का निर्धारण ईश्वर या अन्य कर्मों का स्वरूप तथा प्रारब्ध- कर्मों से छुटकारा| कोई नहीं करता, अपितु स्वयं के द्वारा किये कृत्यों के पाने के लिये कर्मों के स्वरूप और उनके द्वारा फल | अनुसार ही फल प्राप्त होता है। कृत्यों का निर्णय भी देने की व्यवस्था को समझना आवश्यक है। बँधनेवाले | ईश्वर नहीं करतासभी कर्मों को मुख्य आठ नामों से जाना जाता है। अपने न कर्त्तव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः नाम के अनुरूप ही प्रत्येक कर्म का कार्य है। जैसे न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥५/१४॥ ज्ञानावरण हमारे आत्मा के ज्ञानगुण को, दर्शनावरण | कर्मों की फल देने में पराधीनता- उपर्युक्त सामान्य दर्शनगुण को, अन्तराय वीर्यगुण को आच्छादित कर देते | नियम के अन्तर्गत अनेक उदाहरण आगम में पढ़ने, सुनने हैं, मोहनीय कर्म इस प्रगट सीमित ज्ञान को विकृत करने | में आते हैं। कर्मों की तीव्रता के आवेग में श्री राम का कार्य करता है। इन चारों को घातिया कर्म भी कहा | जैसे महापुरुष क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वन-वन भटकते हुए जाता है, क्योंकि ये अपने नाम के अनुरूप हमारी ज्ञानादि | पेड़पौधों से सीता का पता पूछते हैं। पाण्डव से श्रेष्ठ आत्मिक शक्तियों का घात करते हैं। शेष चार अघातिया | पुरुष वनकंदराओं में छुपते दर-दर घूमते हुए समय व्यतीत कर्मों से शरीर का आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि मिलता | करते हैं। यह सब कर्म की उदयावस्था के चित्र हैं। है, ऊँच-नीच कुल मिलता है। सुखदुख का वेदन होता जब कर्म पक कर उदय को प्राप्त हो जाते हैं, तब है, आयु का नियमन होता है। इन्हें अपने-अपने कार्य | उनका फल भोगना ही होता है। समतापूर्वक भोगनेवाले के अनुरूप क्रमशः नाम गोत्र, वेदनीय तथा आयु कर्म | नये कर्मों के अर्जन से बच सकते हैं। हायतोबा करनेवाले कहा जाता है। नये कर्मों का सृजन-संग्रहण कर कर्मों की श्रृंखला सतत घातिया कर्मों को जीव के अनुजीवी गुणों को | बनाये रहते हैं। समतावान् पुराने कर्ज की तरह चुका प्रभावित करनेवाला भी कहते हैं। जीव के ज्ञानदर्शन आदि | कर उदय में आये कर्म को भोग कर उससे रीत जाते अनुजीवी गुण हैं। ये गुण जीव की शाश्वत निजी सम्पत्ति | हैं। जो कर्म अभी भी सत्ता में रहते हैं, उनमें परिवर्तन हैं। इन गुणों को घातिया कर्म सर्वथा नष्ट नहीं कर | किया जा सकता है। फल देने की शक्ति को घटाया पाते, परन्तु उनके प्रगटीकरण की शक्ति को सीमित कर | बढ़ाया जा सकता है। उनके फल देने के स्थितिकाल देते हैं। मोहनीय कर्म सब कर्मों का राजा कहा जाता | को घटाया बढ़ाया जा सकता है। असातावेदनीय कर्मको है। क्योंकि यह तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा कराता है। साता वेदनीय में रूपान्तरित कर भोगा जा सकता है। इष्टोपदेश में आचार्य पूज्यपाद ने मोहनीय कर्म की तुलना | क्रोध के उदय को लोभरूप में भोगते हुए देखा जाता मादक कोदों से करते हए कहा कि जैसे इस प्रकार | है। ग्राहक सौदा खरीदने के पश्चात् दुकानदार से कहता के कोदों को खाने से जीव हिताहित को भूलकर गाफिल | है कि सेठजी आपने हमें आज लूट लिया, ऐसा सुनकर हो जाता है, उसी प्रकार मोहकर्मरूपी मद्यपान से अपने | भी दूकानदार यह नहीं कहता कि अपना माल उधार शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं हो पाता। दे रहा हूँ, तुझे चाय पानी पिला रहा हूँ, तेरे बाप का मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि। क्या लूट लिया? क्योंकि नजर में बिके माल से मिलनेवाला मत्तः पुमान्पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः॥ मुनाफा दिखायी दे रहा है। क्रोध के उदय को लोभरूप | में भोगने का पुरुषार्थ करने की क्षमता जीव में है। मन नवम्बर 2008 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में क्रोध आने पर भी उसे दबाकर ग्राहक से हँसकर । भोगते हैं, रागद्वेषपूर्वक नहीं। इसलिये उनकी कर्मो की यही कहता है- भैया मेरी तो यही खेती है. फिर भी श्रंखला टटती जाती है। नवीन कर्मबन्ध नहीं होता। पराने आपको सबसे कम भाव लगाया है। इस परिवर्तन की | हर्षपूर्वक भोगते हुए समतावान् बने रहते हैं। आत्मानन्द प्रक्रिया को जैनागम के कर्मसिद्धान्त की भाषा में उत्कर्षण, | में जीते हुए त्रिकाल की चिन्ता, भय से मुक्त रहते हैं। अपकषर्ण, संक्रमण, उदीरणा आदि दश भागों में वाँटकर | कर्म उनके आगे अपने घुटने टेक देते हैं। ऐसे ही सन्तों समझाया गया है। को लक्ष्य कर आचार्य अमितगति ने योगसार ग्रंथ में कर्म से छुटकारा- सम्यक् पुरुषार्थ से हम कर्मों | उनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि वे सन्त धन्य हैं, से छुटकारा भी पा सकते हैं। कर्मों से मुक्ति का नाम जो भवबीजरूप मिथ्यादर्शन के अभाव में, कर्म भोगने ही मोक्ष है। अगणित जीवों ने अनादि कर्मों से स्वपुरुषार्थ | में द्वेषभाव न रखते हुए, कर्मों से छुटकारा पाकर, अपना द्वारा छुटकारा प्राप्त किया है, कर्मों की कृपा से नहीं। | कल्याण कर लेते हैंअस्तु कर्म विधाता नहीं, जीव स्वयं अपना विधाता है। नास्ति येषामयं तत्र भवबीज-वियोगतः। सन्त कर्मोदय में रागद्वेष से अप्रभावित रहने का, तेऽपि धन्या महात्मनः कल्याणफलभागिनः ।। २४०॥ आत्मा का पुरुषार्थ जाग्रत कर मोक्षमार्ग पा जाते हैं। कर्मसत्ता पुष्पराज कॉलोनी, में उनके भी हैं और उदय में भी आते हैं परन्तु वे | गली नं. २, सतना (म.प्र.) समता परिणाम बनाये रहते हैं। उन्हें वे द्रष्टा भाव से । श्रीमती सुशीला पाटनी 'श्राविका शिरोमणि' अलंकरण से अलंकृत अ.भा. श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र | की अध्यक्ष महिलाओं ने माल्यार्पण कर श्रीमती पाटनी नारेली-अजमेर (राज.) की पावन धरा पर अखिल | को सम्मानित किया। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला महासमिति का दिनांक श्रीमती शान्ता पाटनी धर्मपत्नी श्री सुरेशजी पाटनी 4-5 अक्टूबर 2008 को महासम्मेलन सम्पन्न हुआ। | आर.के. मार्वल परिवार ने अपने उद्गार प्रकट करते दिनांक 4 अक्टूबर को अजमेर किशनगढ़ हुए कहा कि ऐसी आदर्श जेठानी सभी को मिले। सम्भाग के आह्वान पर ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र में प्रथम | | सम्मान की श्रृंखला में श्रीमती शुचि धर्मपत्नी विनीत बार महासमिति का महाअधिवेशन किया गया। पाटनी पुत्रवधु श्रीमती सुशीला पाटनी ने कहा कि ऐसी इस महासम्मेलन में 20 सम्भागों की लगभग सरलस्वभावी सुसंस्कारित सास सभी को मिले। जो 1000 महिला सदस्यों ने इस अधिवेशन में सक्रिय | अपने मुदल व्यवहार से हम सब को एकता के सत्र भाग लिया। में बाँधे हुए हैं। प्रत्येक सम्भाग की अध्यक्ष एवं मंत्री आदि परम पूज्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधासागर जी ने स्टेज पर संकल्प किया कि समाजोत्थान हेतु परिवारों | महाराज ने विशाल जन समुदाय के समक्ष अत्यंत में चल रही कुरीतियों का बहिष्कार करेंगी। मार्मिक एवं महत्त्वपूर्ण रविवारीय प्रवचन में कहा कि श्रीमती सुशीला जी पाटनी धर्मपत्नी विश्वविख्यात | नारी ही अपने त्याग, सेवा, सद्व्यवहार से देश, समाज जैनगौरव श्री अशोक जी पाटनी, आर.के. मार्वल परिवार | | एवं परिवार में अलख जगा सकती है। आज के इस का इस शुभावसर पर अभिनन्दन किया गया। रजतपत्र | चकाचौंधपूर्ण भौतिकवाद के वातावरण में एकमात्र पर स्वर्णाक्षरों से अंकित अभिनन्दन पत्र का वाचन | महिला ही एक ऐसी कड़ी है जो स्वयं के संस्कारों श्रीमती डॉ. वन्दना जैन जयपुर ने किया। श्रीमती | से करुतियों एवं कसंस्कारों को बदल सकती है। अतएव सशीलाजी पाटनी को श्राविकाशिरोमणि के अलंकार | धार्मिक संस्कारों को बढ़ाने में अपने परिवार में अधिक से अलंकृत करते हुए उपस्थित जनसमुदाय ने अपने | से अधिक योगदान देने का संकल्प करें। आपको गौरवान्वित अनुभव किया। लगभग 20 सम्भागों । भीकमचंद पाटनी, सं. सचिव 18 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकाहारियों को परोसा जा रहा है मांसाहार, शाकाहारी पदार्थों में चरबी, अण्डे, मछली की मिलावट कैसी विडम्बना है यह....? बाजार में खाना और चटकारें उड़ाना आज फैशन हो गया है। लुभावनें विज्ञापन और चटपटे स्वाद के पीछे हमारी दीवानगी कहीं हमें शाकाहार से मांसाहार की, ले जार रही है। यह चिंतन-मनन आज सर्वाधिक जरूरी है, क्योंकि पैसों के लोभ और अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में भक्ष-अभक्ष्य का बिना ध्यान रखे देश के कई रेस्टोरेंट और भोजनालय शाकाहारी भोज में मांसाहारी वस्तुओं का प्रयोग कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, मुम्बई, दिल्ली तथा अन्य स्थानों पर पड़े पुलिस के छापे तथा फूड एण्ड ड्रग विभाग द्वारा सील की गई फैक्ट्रियों से कई होश उड़ानेवाले तथ्य उजागर हुए हैं। किस तरह चल रही है भारतीय बाजार में यह घुसपैठ और धर्मभ्रष्ट करने की मुहिम आइए जैनसमाचार दर्शन, पुने में प्रकाशित दिनांक १०.१०.०७ के प्रेरक लेख- शाकाहारियों को परोसा जा रहा है मांसाहार के माध्यम से ध्यान में लेते हैं ओर जैन होने के नाते संकल्प करते हैं कि हम बाजारों में चटकारे उड़ाने से बचेंगे तथा प्रत्येक वस्तु के उपयोग से पहले उस संदर्भ से अच्छे से तहकीकात, जानकारी, गवेषणा करेंगे तथा अपने धर्म-संस्कारों को जीवित रखने का प्रयास करेंगे। वस्तुतः बदलते इस दौर में आज हमें अपने खान-पान पर ध्यान देना एवं विचार करना सर्वाधिक आवश्यक है, क्योंकि जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। प्राणीमित्र नितेश नागौता, भवानीमण्डी नई दिल्ली। हाल ही में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, । अनेक फूड प्रॉडक्ट्स में विशेष कर बेकरी उत्पादन, मुंबई, दिल्ली तथा अन्य स्थानों पर पड़े पुलिस के | पेय पदार्थ आदि में इमल्सीफायर, स्टॅबिलायर्स कंडीशनर्स, छापे तथा फूड एण्ड ड्रग विभाग ने सील की गई अॅसिडीटी, रेग्युलेटर्स, प्रिझरवेटीव्हज, अँटीऑक्सहडंट, फैक्ट्रियों से कई होश उड़ानेवाले तथ्य उजागर किए | थिकनरर्स, जिलेटीन, स्विटनर्स, कलर्स, फ्लेवर्स आदि हैं। शादी में, होटलों में तथा कई सार्वजनिक उत्सवों | | शीर्षक मात्र दिएं जाते हैं। यूरोप में ई नंबर्स की सख्ती में हो रहे भोज में मांसाहार परोसा जा रहा है। शाकाहारी | के बाद भारत में भी इन उत्पादों पर नम्बर छापने लगे व्यक्ति अनजाने में खुले आम मांसाहार कर रहा है, | हैं, किन्तु वे पूरी तरह भ्रमित करनेवाले हैं। कंपनियाँ जिससे जैनसमाज में सनसनी फैल गई है। स्वाद के | इनमे मिश्रण के लिए आवश्यक पदार्थ यहाँ भारत से नाम पर धर्मभ्रष्टता के साथ कई बीमारियाँ घर कर | न खरीदकर विदेशों से सीधे आयात कर लेते हैं। तभी रही हैं। तो अनेक शाकाहारी, किन्तु प्रयुक्त लगभग सभी अंतर अहिंसाप्रेमी एवं शाकाहारियों की दशकों पुरानी | घटक मांसाहारी ही हैं। ऐसे में हरे निशान की आड़ माँग पर सकारात्मक निर्णय कर केन्द्र सरकार द्वारा | में केंद्र सरकार, अन्न-प्रक्रिया-मंत्रालय शाकाहारियों को पैकेज फूड प्रॉडक्ट पर शाकाहारी एवं मांसाहारी पदार्थ | मांसाहार सेवन कराने का घृणित एवं जघन्य कार्य करवा दर्शक हरा एवं लाल निशान लगाना कुछ वर्षों पूर्व | रहा हैं, यह पूरे देश के लिए लज्जा और शर्म का विषय अनिवार्य किया गया, किन्तु उसे सुकून अथवा | है। विश्व समुदाय के सन्मुख साख घटाने और प्रतिमा निश्चितता के बदले शाकाहारियों के लिए परेशानियाँ | मलीन करने जैसा मामला है। अधिक बढ़ गई। इस कानून का अमल कराने के फिटा ऑईल से विटामिन ए, मांस, अंडा, कोचेनिअल लिए जिम्मेदार अधिकारी-वर्ग रिश्वत खोरी की मोटी- | बीअल से प्राप्त रंग व्हेल के सिर से प्राप्त स्पर्म ऑईल, तगड़ी रकम के ऐवज में कानून की खामियों से रास्ता | सूअर, गाय, कुत्ता, बंदरों की हत्या से प्राप्त अॅनिमल निकालकर फूड कंपनियों को हरा निशान आवंटित | फैट इत्यादि पदार्थ खुले आम उक्त शीर्षकों के नाम कर राष्ट्र की आँखों में धूल झोंक रहे है। की आड़ में हरे निशानेवाले फूड प्रॉडक्ट्स में प्रयुक्त नवम्बर 2008 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो रहे हैं। जिसकी त्वरित एवं गहन जाँच होकर स्थिति । करा रहे हैं। रेडीमेड ग्रेवी में कई कंपनियाँ मांसाहार स्पष्ट होना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के तौर मॅग्गी | का मिश्रण करती हैं। कई पेस्ट में , मछली का तेल फूड प्रॉडक्ट्स, अॅपी फि, कोल्ड्रींक, बिटानिया मिल्क | मिश्रित हो रहा है, फिर भी हमारे जैनभाई अनजाने में बिक्कीज, मेरी गोल्ड, टायगर, गुड डे, पारले जी, मोनॅको, | मांसाहार मिश्रित खाना खा रहे हैं। रिलायन्स जैसी कम्पनी हाईड एन्ड सिक, च्युईंगम, बबल गम, पोलो मिन्ट, अनेक | मांसाहार के हजारों पदार्थ से युक्त नॉनवेज मॉल खोलने चॉकलेट्स, टूथपेस्ट, पिज्जा, बर्गर, चिप्स, वनस्पति घी, | जा रही है। अण्डे, मछली का प्रय बेकिंग पावडर, चायनीज डिशेस में प्रयुक्त अजीनोमोटो है। कई विदेशी कम्पनिओं द्वारा बच्चों के दध पावडर सॉस आदि जैसे अनेक पदार्थ हैं, जिसमें उपर्युक्त में में मर्गे का चिकन पावडर मिश्रित किया जा रहा है। से प्राणीजन्य पदार्थों से बने अॅडिक्टिव्हज् सरेआम मिलाए | भारत सरकार द्वारा वेज पदार्थों पर हरे रंग का तथा जाते हैं। | नॉनवेज पदार्थों पर लाल रंग का निशान लगाना बंधन विश्वसनीय स्रोतों से ज्ञात हुआ है। इसी संदर्भ कारक किया गया है। फिर भी सरेआम कानून की धज्जियाँ में गत दिनों २४ लोकसभा सांसदों द्वारा उठाए गए मुद्दों उड़ाई जा रही हैं। भ्रष्ट अफसरों की वजह से सरेआम की जाँच से क्या निष्कर्ष निकले, क्या कार्यवाई की मांसाहार, शाकाहारियों के पेट में जा रहा है। इंडिया गई और भविष्य के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं, | टी.वी., जी.टी.वी. तथा अन्य टी.वी. चैनलों पर आ रही इस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस एवं चर्चा की आवश्यकता | खबरें तथा पुलिस, फूड एण्ड ड्रग्ज विभाग द्वारा डाले है। देशी घी (गावराणी घी), बटर उत्पादक फैक्ट्रियों | गए छापों में उजागर हुई जानकारी से रोंगटे खड़े हो में फूड एण्ड ड्रग विभाग ने डाले छापों में कई तथ्य | रहे हैं। इस संदर्भ में सुशील टांटीया ने सरकार को उजागर किए हैं। बटर एवं देशी घी में गाय की एवं | निवेदन दिए हैं। पूणे में चंद्रजित विजयजी म.सा. ने सूअर की चर्बी मिलाई जाती है, जिससे चिकनाई बढ़ती | समाज को अपने व्याख्यान में कई बार आगाह किया है। वनस्पति घी में गाय की चरबी, छाछ तथा सेंट डालकर | है। गर्म किया जाता है और देशी घी (शुद्ध घी) के नाम | आज बाजार में मिल रहे ९० प्रतिशत बटर एवं पर बेचा जाता है। आज बाजार में उपलब्ध देशी घी | देशी घी मे मिलावट आ रही है। सफेद सूअर की चरबी, और बटर शुद्ध नहीं है। कई होटलों में नान, पराठा, | गाय की चरबी तो खुलेआम मिलाई जा रही है और कूलचा में चर्बी मिश्रित किया जाता है। चायनीज फूड | स्वाद के नाम पर आँख मूंदकर मांसाहार कर रहे हैं। में ९० प्रतिशत मांसाहार मिश्रित पदार्थ होते हैं। कुछ | शादियों में, धार्मिक कार्यक्रमों में तथा सार्वजनिक भोज दिनों पूर्व मॅकडोनाल्ड में बिक रहे बर्गर, पिज्जा, वडापाव | के नाम पर खुलेआम मांसाहार मिश्रित पदार्थों का उपयोग में गाय की चर्बी पाई गई जिससे शिवसेना ने मॅकडोनाल्ड , हो रहा है। फिर भी हम धर्मभ्रष्ट करनेवाले एवं पाप के कई शोरूम तोड़ डाले। के भागीदार बनानेवाले अन्न को ग्रहण कर रहे हैं। इस आज जैनसमाज में शादी, सगाई तथा म.सा. के | संदर्भ में पाठक अपनी प्रतिक्रिया जैनम् जयति शासनम् चातुर्मास तथा अन्य धार्मिक, सामाजिक कार्यक्रम में बड़े- | कार्यालय पर भेज सकते हैं। बड़े केटरर्स बुलाए जाते हैं। यही केटरर्स हमें मांसाहार | प्रेषक-निर्मलकुमार पाटोदी, इन्दौर 'जैनं जयति शासनम्' इन्दौर से साभार श्री सेवायतन होम्योपैथिक दवाखाने से हजारों लोग लाभान्वित पवित्र तीर्थ स्थल श्रीसम्मेद शिखर जी में स्व.। इसका संचालन संस्थान के मानद अध्यक्ष श्री श्री कन्हैयालाल जी सेठी (जशपुर नगर) की स्मृति | एम.पी. अजमेरा के मार्गदर्शन में भारत सरकार के में उनके सुपुत्र श्री प्रकाश चन्द्र सेठी राँची के सहयोग | प्रतिष्ठान भारत अल्युमिनीयम कम्पनी के सेवानिवृत्त से श्रीसेवायतन संस्थान मधबन द्वारा संचालित होम्योपैथिक | कार्यालय प्रबंधक डॉ० महेन्द्र कुमार जैन द्वारा सेवाभाव दवाखाने से हजारों लोग लाभान्वित हुए हैं। । से चिकित्सा कार्य किया जा रहा है। विमल सेठी 20 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा - समाधान प्रश्नकर्त्ता - पं० आशीष शास्त्री, शाहगढ़ । जिज्ञासा- क्या एक साथ दो संस्थानों का उदय सम्भव है? समाधान- वर्तमान में हम देखते हैं कि एक ही व्यक्ति बौना भी दिखाई देता है और कुबड़ा भी । उसको देखकर मन में विचार होना स्वाभाविक है कि इसके वामन एवं कुब्जक इन दोनों संस्थानों का उदय दिखाई देता है । परन्तु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-१, पृष्ठ- ३९० ( क्र. ४) पर दिए गये, नामकर्म-उदयस्थान- प्ररूपणाओं में इसप्रकार कहा गया है- तीन शरीर ( औदारिक वैक्रियिक तथा आहारक), ६ संस्थान, प्रत्येक साधारण इन तीन समूहों की ११ प्रकृतियों में से प्रत्येक समूह की कोई १ - १ करके युगपत् तीन का ही उदय होता है।' अर्थात् एक जीव के एक समय में एक ही संस्थान का उदय होता है, दो का नहीं। ऐसा नियम है। जिज्ञासा- पुराण कितने प्रकार के होते हैं? समाधान- उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में श्री धवला १ / ११३ में इसप्रकार कहा गया है “जिनेन्द्र भगवान् ने जगत् में १२ प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंशों का वर्णन करते हैं। पहला अरिहन्त (तीर्थंकरों) का, दूसरा चक्रवर्तियों का, तीसरा विद्याधरों का, चौथा नारायणप्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चारणों का ( चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों का) छठा श्रमणों का वंश है। सातवाँ कुरुवंश, आठवाँ हरिवंश, नवाँ इक्ष्वाकु वंश, दसवाँ काश्यप वंश, ग्यारहवाँ वादियों का वंश और बारहवाँ नाथवंश । " प्रश्नकर्त्ता - कु. चन्द्रिका जैन, सहारनपुर। जिज्ञासा - विस्रसोपचय क्या होता है ? समाधान- विस्रसोपचय के सम्बन्ध में श्री धवला पु. १४, पृ. ४३० पर इस प्रकार कहा है- “प्रश्नविस्रसोपचय किसकी संज्ञा है ? उत्तर- पाँच शरीरों के परमाणु पुद्गलों के मध्य जो पुद्गल स्निग्ध आदि गुणों के कारण उन पाँच शरीरों के पुद्गलों में लगे हुए हैं, उनकी विस्रसोपचय संज्ञा है । उन विस्रसोपचयों के सम्बन्ध का पाँच शरीर के परमाणु पुद्गल-गत स्निग्ध आदि गुणरूप जो कारण हैं, उसकी भी विस्रसोपचय संज्ञा है, क्योंकि यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है। पं. रतनलाल बैनाड़ा श्री जीवकाण्ड गाथा - २४९ में इसप्रकार कहा हैजीवादतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससोपचया । जीवेण य समवेदा एक्केक्कं पडि समाणा हु ॥ गाथार्थ - (कर्म और नोकर्म के) प्रत्येक परमाणु पर जीवराशि से अनन्तगुणे विस्रसोपचय हैं, वे जीव के साथ समवेत हैं। एक-एक के प्रति समान हैं ॥ २४९ ॥ भावार्थ- कर्म तथा नोकर्म के जितने परमाणु जीव के प्रदेशों के साथ बद्ध हैं, उनमें से एक-एक परमाणु पर जीवराशि से अनन्तानन्त गुणे विस्त्रसोपचय रूप परमाणु जीवप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही रूप से (अगले समयों में, कर्म और नोकर्म रूप परिणमन के उम्मीदवार स्वरूप) स्थित हैं । ये परमाणु, आत्मापरिणाम की अपेक्षा न रखते हुए, अपने स्वभाव से ही, मिलते हैं। वे अनन्तानन्त परमाणु विस्रसोपचय कहलाते हैं। ये कर्म व नोकर्म रूप से परिणमन किए बिना उनके साथ स्निग्ध व रूक्ष गुण के द्वारा एक स्कन्ध रूप होकर रहते हैं । इन परमाणुओं के समूह को विस्त्रसोपचय कहा जाता है। जिस प्रदेश पर जो जीव स्थित है, वहाँ स्थित जो पुद्गल हैं, वे ही मिथ्यात्व आदि कारणों से, आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं । जिज्ञासा- तीनों लोकों में स्थित समस्त परमाणु स्कन्ध बन चुके हैं, या कुछ परमाणु ऐसे भी हैं, जो आज तक स्कन्ध नहीं बने हैं ? समाधान- पुद्गल की स्वभावद्रव्यपर्याय परमाणु रूप है। श्री राजवार्तिक अध्याय - ५, सूत्र २५ की टीका में इसप्रकार कहा गया है- 'न चानादि परमाणुर्नाम कश्चिदस्ति ।' अर्थ- अनादिकाल से अब तक परमाणु की अवस्था में ही रहनेवाला कोई अणु नहीं है । इस प्रमाण से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी शुद्ध पुद्गल परमाणु नहीं है, जो अनादि से शुद्ध ही हो और आगे भी अनन्त काल तक शुद्ध रहेगा । परन्तु श्लोकवार्तिक के भाषा टीकाकार पं० माणिकचन्द्र जी कौन्देय न्यायाचार्य का मत इससे भिन्न है। उन्होंने तत्त्वार्थ- श्लोकवार्तिक भाग - २, पृ. १७३ पर भाषाटीका में इसप्रकार कहा है- 'अनन्तानन्त परमाणु ऐसे हैं, जो अभी तक स्कन्ध अवस्था में प्राप्त नहीं हुए हैं, वे अनादि से परमाणु रूप हैं।' नवम्बर 2008 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नकर्ता- राजीव जैन अमरपाटन। सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तेषां समालम्बनं, जिज्ञासा- विग्रहगति में पिछले भव की आयु तथा तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः साक्षाजिनः पूजितः॥१८॥ गति रहती है या अगले भव की? अर्थ- वर्तमान में इस कलिकाल में तीन लोक समाधान- मान लो कि किसी एक जीव ने जो | के पूज्य केवली भगवान् इस भरतक्षेत्र में साक्षात् नहीं मनुष्य था, मनुष्यपर्याय छोड़कर, अगली देवपर्याय पाने | हैं, तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली के लिये गमन किया तब, जब तक मनुष्य आयु तथा | भगवान् की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधारमनुष्य गति का उदय है, तब तक वह जीव, मनुष्य | स्तम्भ श्रेष्ठ रत्नत्रयधारी मुनि भी हैं। इसलिए इन मुनियों पर्याय को नहीं छोड़ता है। मनुष्य आयु के अन्तिम निषेक का पूजन तो सरस्वती का पूजन है तथा सरस्वती का उदय के उपरान्त ही वह जीव मनुष्य पर्याय छोड़कर | पूजन साक्षात् केवली भगवान् का पूजन है। विग्रहगति में प्रवेश करता है और विग्रहगति के प्रथम सागारधर्मामृत में पं० आशाधर जी ने इसप्रकार समय से ही देवगति एवं देवायु का उदय प्रारम्भ हो | कहा हैंजाता है। कर्मकाण्ड गाथा २८५ में इसप्रकार कहा गया | ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम्। _ न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः॥ ४४॥ गदि आणुआउउदओ सपदे भूपुण्णबादरे ताओ। भावार्थ- जो मानव भक्तिपूर्वक जिनवाणी की पूजा उच्चुदओ णरदेवे थीणतिगुदओ रे तिरिये॥ | करते हैं, वे निश्चय से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते ___ अर्थ- किसी भी विवक्षित भव के प्रथम समय हैं। क्योंकि गणधरदेव ने जिनवाणी और जिनेन्द्रदेव में में ही, उस विवक्षित भव के योग्य गति-आनुपूर्वी और कुछ भी अन्तर नहीं कहा है। अर्थात् जो श्रुत है वह आयु का उदय होता है। तथा 'सपदे' कहने से एक देव है, जो देव है वह श्रुत है। जीव के एक ही गति आनपूर्वी तथा आयु का उदय श्री श्रुतसागर सूरि द्वारा लिखित निम्न श्लोक में, युगपत होता है। बोधपाहुड़ गाथा १६ की टीका में इसप्रकार कहा गया इस प्रकार विग्रहगति के प्रथम समय से ही, प्राप्त होनेवाली अगली पर्याय सम्बन्धी गति व आयु का उदय ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरःसरः। मानना चाहिए। सूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः॥ जिज्ञासा- सच्चे देव-शास्त्र और गुरु में, किसको अर्थ- जो ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड में शिक्षा बड़ा मानना चाहिए या तीनों को समान मानना चाहिए? और दीक्षा में ऋषि, यति, मुनि और अनगार इन चार समाधान- उपर्युक्त प्रश्न का समाधान, विभिन्न | प्रकार के मुनियों के अग्रसर हैं तथा संसाररूपी समुद्र दृष्टियों से विभिन्न प्रकार का हो सकता है। जैसे कोई | से पार करने के लिये नौका के समान हैं, ऐसे आचार्य कहता है कि सबसे बड़े तो अरिहन्त देव ही हैं, क्योंकि परमेष्ठी देव के समान आराधना करने के योग्य हैं। यदि उनकी वाणी न खिरती, तो जिनवाणी का उद्गम | उपर्युक्त प्रमाणानुसार कथंचित् देव, शास्त्र और गुरु कैसे होता और यदि जिनवाणी का उद्गम न होता, तो | को समान भी कहा जा सकता है। मुनिराज, मुनि के योग्य आचरण का अध्ययन और पालन जिज्ञासा- नरकगति के उदय से नारक पर्याय कैसे करते। इसीलिए तो सभी जैनबन्धु सर्वप्रथम 'देव | मिलती है या नरकायु के उदय से मिलती है? शास्त्र-गुरु' पूजा नित्य प्रातःकाल करते हैं। इसमें भी । समाधान- श्री धवला पु. १०, पृष्ठ २३९ में इस इसी अपेक्षा से क्रम रखा गया है।। प्रकार कहा हैं- 'जिस्से गईए आउअं बद्धं तत्थेव अन्य दृष्टि के अनुसार तीनों को समान भी कहा | णिच्छएण उपज्जति त्ति।' गया है। जैसा कि पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका १/६८ में इस अर्थ- जिस गति की आयु बाँधी गई है, निश्चय प्रकार कहा है से वहाँ ही उत्पन्न होता है। संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि, यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि नरकगति के स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिकाः।। उदय एवं सत्व के कारण नरक पर्याय मिलती है, तो 22 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि हम मनुष्यों की नरकगति का प्रसंग आ जायेगा। जैसे नित्यनिगोदिया • के उदयावली में चारों गति का उदय रहता है, परन्तु | जीवों के भी त्रसकर्म की सत्ता विद्यमान रहती है, मनुष्य गति के अलावा अन्य तीन गति नामकर्म की| इसलिए उनकी भी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी।' प्रकृतियाँ संक्रमित होकर मनुष्यगति रूप उदय में आती अत: जिस आयु का उदय होता है, उसी के हैं। जहाँ तक नरक गति के सत्त्व का प्रश्न है. श्री अनुसार पर्याय मिलती है, ऐसा मानना ही आगमसम्मत धवला पु.१, पृष्ठ-३२४ पर इसप्रकार कहा गया है- | है। 'नरक गति का सत्त्व भी (सम्यग्दृष्टि के) नरक में 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, उत्पत्ति का कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि नरकगति आगरा (उ.प्र.) के सत्त्व के प्रति कोई विशेषता न होने से सभी पन्चेन्द्रियों बच्चे के जन्म दिन पर सेवायतन को सहयोग आन्ध्रप्रदेश श्री सेवायतन समन्वय समिति हैदराबाद के प्रमुख श्री सुनील पहाड़े ने बताया कि कुमार अनन्त जैन सुपुत्र श्री सुजीत जैन छाबड़ा एवं अंजू छाबड़ा के जन्म दिन पर पारसनाथ क्षेत्र में ग्राम उत्थान के लिए कार्यरत श्रीसेवायतन संस्थान को 5100/- रूपयों सहयोग-स्वरूप दिये हैं। आन्ध्रप्रदेश श्री सेवायतन समन्वय समिति द्वारा यह निर्णय लिया गया है कि मांगलिक अवसरों पर फिजूल खर्च न कर अपने पावन तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जी क्षेत्र के 14 ग्रामों के ग्रामीणों के दुख-दर्द को दूर करने के लिये हमें यथासंभव सहयोग करना चाहिए। यह उल्लेखनीय है कि सेवाभावी एवं उच्च विचारों से सुसंस्कृत मनीपुर जैनपरिवार फर्म शिवकरण केशरीमल के श्री धन कुमार जी जैन छाबड़ा श्रीसेवायतन संस्थान के परम संरक्षक बनकर सेवा कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं। श्री सुजीत जैन छाबड़ा सम्प्रति श्री धन कुमार जी के सुपुत्र हैं। विमल सेठी श्री आर० के० दिवाकर भोपाल सेवायतन से जडे श्री सेवायतन संस्थान, मुधबन पारसनाथ द्वारा चलाये जा रहे कतिपय ग्रामीण विकास एवं मानवसेवा के कार्यों को स्वयं ग्रामों में जाकर उन्हें देखकर उपजे सेवाभाव से प्रभावित होकर श्री दिवाकर, जो मध्यप्रदेश सरकार में पुलिस महानिर्देशक के पद पर कार्यरत रहे हैं, वे 51000/- की राशि देकर श्री सेवायतन के आजीवन सदस्य बने हैं। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि इस पावन तीर्थ की रक्षा के लिए श्री सेवायतन मील का पत्थर साबित होगा। उन्होंने श्री अजमेरा से कदम से कदम मिलाकर इन पुनीत कार्यों में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। श्री अजमेरा ने उन्हें मध्यप्रदेश श्री सेवायतन समिति के प्रमुख के रूप में सेवायें देने एवं मध्यप्रदेश में श्री सेवायतन संगठन को और अधिक व्यापक बनाने के लिए अनुरोध किया। श्री दिवाकर एवं उनकी धर्मपत्नी ने कहा कि ऐसा कार्य हमने 50 वर्ष पहले प्रारंभ किया होता, तो यहाँ की छटा कुछ और ही होती। श्री दिवाकर एवं उनके साथ भोपाल से पधारे अनेक लोगों ने गया में मुनि श्री प्रमाणसागर जी के दर्शन किये तथा आशीर्वाद लिया एवं आचार्य विद्यासागर जी के आशीर्वाद एवं मुनि श्री प्रमाणसागर जी की प्रेरणा से स्थापित श्री सेवायतन संस्थान के प्रति विशेष आदर सर्मपित किया। विमल सेठी प्रचार मंत्री श्रीसेवायतन मधुबन, पारसनाथ (गिरिडीह) -नवम्बर 2008 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-समीक्षा दिगम्बर जैन मुनि सुरेश जैन 'सरल' पुस्तक का नाम : दिगम्बर जैन मुनि। ग्रंथकर्ता-पू. मुनिश्री 108 समतासागर जी महाराज (गुरु : राष्ट्रसंत आचार्यप्रवर श्री 108 विद्यासागर जी महाराज)। प्रकाशक : श्री प्रेमचंद प्रमोदकुमार जैन, _ महावीर मार्ग, बड़ौत (बागपत) उ.प्र.। पृ. संख्या : 68। मूल्य - स्वाध्याय आज हमारा प्रगतिशील समाज स्वादिष्ट भोजन । राष्ट्रसंत, गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज आगम के प्रदाय करनेवाले अनेक होटलों के नाम जानता है, किन्तु | धरातल पर, सर्वोदयी भावना से अनुप्राणित हो जिनशासन उत्तम पाठन-सामग्री देनेवाले ग्रंथों के नहीं, जब नाम | की प्रभावना और अहिंसा तथा जीवदया की जादुई-बाँसुरी ही नहीं जानता तो पढ़ेगा क्या? प्रस्तुत पुस्तक एक नामवर | बजा रहे हैं। वे महावीरत्व के प्रमुख लोक चेतनावाही होटल से अधिक मायने रखती है और जो जिन्स (आयटम)| प्रतापी सैनिक हैं। हैं नूतन महावीर। प्रदाय करती है वे पाठक के मन और मस्तिष्क को दिगम्बरत्व और जैन मुनिचर्या पर समतासागर जी स्थायी महत्त्व की संतुष्टि देते हैं। | ने सरल भाषा में भ्रमनाशक 17 बिन्दुओं पर सुंदर चर्चा समाज जिन महान् दिगम्बर-भेष-धारी साधुओं के | की है जिसमें मुनि के विहार, प्रवास, केशलौंच, दिगम्बरत्व दर्शन करने अनेक कष्ट उठाकर जाता आता रहता है, | अपरिग्रह आदि पर प्रेरक सामग्री है। मुनियों के 28 मूलगुणों उनके विषय की अनेक जानकारियों से वह जीवन भर | का आगमोचित्त कथन, पहले संस्कृत में, फिर हिन्दी अछूता रहता है। ऐसे समर्पित धर्मज्ञों के लिए पू. मुनि | में प्रस्तत करते हए पाँच महाव्रतों. पाँच समितियों. पाँच समतासागर जी ने इस कृति के माध्यम से दिगम्बर- | इंद्रियों का निमंत्रण छः आवश्यक और सात विशेष गुणों मुनि के परिचय और चर्या को पारदर्शी बना दिया है। का वर्णन आत्मसात करने योग्य है। अन्यगणों का कथन पहले वे कथन करते हैं कि विभिन्न मतों में | करनेवाला स्थल (पृ. 34) बार-बार मननीय है। दिगम्बरत्व को भरपूर महत्त्व दिया गया है, चाहे ग्रंथराज मुनि की नग्नता का कारण जानने के लिए यह महाभारत देखें, चाहे वैराग्य शतक (भर्तृहरि), चाहे गुरुग्रंथ | पुस्तक आईना का कार्य करती है, फिर खड़े होकर साहिब और चाहे बाईबिल। सभी अपने अपने स्तर से | भोजन, केशलोंच का अभिप्राय, अस्नान, व्रत की वैज्ञानिकता, प्रतिसाद देते मिले हैं। मुनिवर ने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य | प्रासुक जल और प्रासुक भोजन पर प्रकाश डाला गया में भी दिगम्बर जैनमुनियों के प्रवास और विहार पर | है। दिगम्बर मुनि के उपकरणों का परिचय, आहारचर्या प्रकाश डाला है और स्पष्ट किया है कि मौर्य-सम्राटों, | का अनुशासन मुनिदीक्षा से पूर्व की जानेवाली साधना, सम्राट सिकंदर, बादशाह सेल्यूकस, सम्राट सम्पति, | दीक्षा की प्रक्रिया को शोधपरक दृष्टि से प्रस्तुत किया बादशाह आंगष्टस, सम्राट खारवेल, से लेकर प्रजा-सम्राट | गया है। दिगम्बर जैनसाधु की तीन श्रेणियों और प्रायश्चित महात्मागाँधी तक ने जैनसंतों के अस्तित्व को स्वीकार | विधि गुरु-शिष्य और श्रावक को पठनीय है। यह पुस्तक किया है और उनसे शिक्षायें ग्रहण की हैं। जैनधर्म में स्त्री-सन्यास का रहस्य खोलती है और उनके प.पू. समतासागर जी ने एक स्थल पर स्पष्ट किया निवास-प्रवास का ज्ञान भी कराती है। है कि सन् 1938 के आसपास भारत के दक्षिणी भू- ____ मुनि जीवन का चरम सल्लेखना-व्रत पर पूरा होना, भाग निजाम राज्य में दिगम्बरत्व पर बंदिश लगाने का | समाधि लेना और देह का अग्निसंस्कार करना भी संकलन प्रयास किया गया था, जिसे प.पू. आचार्य शांतिसागर | में जानने को मिलता है। जैनमुनि अपनी साधना से समाज जी महाराज की प्रेरणा से समाप्त किया गया था। और राष्ट्र को जो मौन योगदान देते हैं, वह किसने देखा? समतासागर जी लिखते हैं कि वर्तमान आचार्य, | पृ. 58 पर दर्शाया गया है। अंत के पन्ने पर मुनि की 24 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। दिनचर्या के रेखा-चित्र अबोले ही बहुत कुछ कह देते । भेंट किये हैं। उनके सार्थक लेखन की तरह उनके बोधगम्य प्रवचन भी सभ्य-समाज में चर्चा बनाये रहते हैं। सच, पुस्तक मात्र पठनीय नहीं है, संग्रहणीय भी है। वे दोनों जगह प्रवीण हैं। दोनों विधाओं का आचार्यत्व ऐसी पुस्तकें आड़े समय पर टार्च की तरह उपयोगी | उनके भीतर पाल्थी मारकर बैठा हुआ है। हमें दर्शन सिद्ध होती हैं। 13 जुलाई 62 को नहीं देवरी (म.प्र.) भी हो रहे हैं। वे धन्य हैं। उन्हें नमन है। में जन्मे गुरुदेव श्री समतासागर जी महाराज ने मात्र 46 405, गढ़ाफाटक, जबलपुर म.प्र. वर्ष की वय में अनेक सुंदर ग्रंथ लिखकर लोक को | गर्भपात के लिए माँ की अर्जी खारिज की बम्बई हाई कोर्ट ने मुम्बई ५ अगस्त- ३७ वर्ष पुराने कानून के बंधन से मुक्ति पाने के लिए एक अर्जी लेकर निकिता मेहता मुम्बई हाईकोर्ट की शरण में गई थी। उन्होंने बताया कि उनके गर्भ में बढ़ रही २४ हप्ते की सन्तान के हृदय में जटिल खराबी है। उसे जन्म के पहले ही गर्भपात के द्वारा समाप्त करने की अनुमति दी जाए, किन्तु निकिता की वह अर्जी अदालत ने खारिज कर दी है। हाईकोर्ट ने बताया कि निकिता की गर्भजात सन्तान अस्वाभाविक अवस्था में जन्म लेगी इस बात का प्रमाण आवेदन करनेवाले नहीं दे पाये। इसलिए गर्भपात की अनुमति नहीं मिल सकती। निकिता ने पति हर्ष मेहता और चिकित्सक निखिल दातार के साथ हाईकोर्ट में आवेदन किया था। इस निवेदन का आधार था चिकित्सा की रिपोर्ट। उन लोगों ने बताया था कि हृदय की खराबी लेकर ही शिशु जन्म लेगा। परन्तु उसके साथ ही एक और बात उन्होंने बताई थी कि जाँच के द्वारा जो तथ्य मिले हैं वे गर्भपात कराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। रिपोर्ट के इस अंश को गम्भीरता के साथ अदालत ने देखा है इतना ही नहीं, उसी अस्पताल के अन्य एक दल चिकित्साकों के द्वारा परीक्षण कराया गया था। उन्होंने बताया है कि हृदय में दोष लेकर शिशु के जन्म लेने की सम्भावना नहीं के बराबर है।' दूसरी तरफ निकिता के लिए सहानुभूति दिखाते हुए भी केन्द्रिय स्वास्थ्यमंत्री आनबूमणि रामदास ने गर्भपात सम्बन्धित कानून में संशोधन की सम्भावना को भी समाप्त कर दिया है। "वर्तमान" बाँगला दैनिक ५.८.०८ से साभार संकलन- सुशीलकाला, धुलियान, मुशीर्दाबाद, अनुवाद - ब्र. शान्तिकुमार जैन श्रमणपरम्परा में सम सुमतचन्द्र दिवाकर सम-समता, शम-शान्ति, श्रम में निहित तपस्या है, । पापों का प्रक्षालन स्वालम्बन, आत्मनिर्भरता और धर्म अहिंसा है। स्वाध्याय अहं विसर्जन बीज में, फूल, फल सम, जिनके जीवन की चर्या है सम में सभी समाते हैं। ज्ञान ध्यान तप में रत रहना सम धारण कर ही, श्रमण संत, ऐसी श्रमण साधना है। सम्यक् भाव बढ़ाते हैं। बाधाएँ आने पर भी भेद और अभेद का समन्वय समाधान है, समताभाव बनाये रहना, महावीर का स्याद्वाद मंत्र ऐसी श्रमण परम्परा है। जिसमें समता प्राणवान् है। पुष्पराज कॉलोनी गली नं.२, रत्नत्रय आराधन, थुति उच्चारण सतना (म.प्र.) नवम्बर 2008 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार 'मूकमाटी-मीमांसा' समालोचना-संग्रह-ग्रन्थ का लोकार्पण सम्पन्न __अंधकार दूर करेगी मूकमाटी : जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, रामटेक (नागपुर । के करकमलों में समर्पित की। महाराष्ट्र), वर्षायोग हेतु चातुर्मासरत जैनाचार्य श्री आतंकवाद, आरक्षण एवं दलित समस्याओं के विद्यासागर जी महाराज के ओजस्वी प्रवचनों से विगत | समाधान तथा दहेजप्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के दिवस गुंजायमान हो गया। आचार्यप्रवर के साप्ताहिक | निर्मूलन एवं व्यक्तित्व-विकास की प्रक्रिया के निर्धारण प्रवचन से पहले एक गरिमामय एवं भावपूर्ण समारोह | हेतु आचार्यप्रवर विद्यासागर जी ने 'मूकमाटी' महाकाव्य में आचार्यश्री द्वारा लिखित कालजयी कृति 'मूकमाटी' | सृजित किया था। राष्ट्रभाषा में लिखित एवं सन् १९८८ महाकाव्य पर लिखित समालोचनात्मक आलेखों के संग्रह- | में भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित कालजयी ग्रन्थ 'मूकमाटी-मीमांसा' का लोकार्पण भव्यता के साथ कृति 'मूकमाटी' पर देश-विदेश के विख्यात समीक्षकों सम्पन्न हुआ। ने कृतिकार की मान्यताओं एवं काव्य के वैशिष्ट्य का आचार्यप्रवर एवं उनके संघस्थ ३७ तपस्वी मुनिजनों | अपने वैचारिक आलोक में आलोडन-विलोडन कर, उसे के सान्निध्य में रविवार, ५ अक्टूबर ०८ को सम्पन्न | आधुनिक भारतीय एवं हिन्दी काव्य साहित्य की अपूर्व हुए इस विमोचनसमारोह में देश भर से बड़ी संख्या में उपस्थित हुए समालोचकों, मनीषी विद्वानों एवं श्रद्धालुजनों प्रकाशित 'मूकमाटी महाकाव्य' के मराठी, अंग्रेजी, बाँग्ला, ने भी अपनी सहभागिता दर्ज कराई।। कन्नड़ तथा गुजराती में भी अनुवाद स्वरूप पाकर धर्म, मूकमाटी-मीमांसा के लोकार्पण समारोह के अवसर | दर्शन और अध्यात्म के सार के साथ ही साथ सामाजिक पर पहुँचे अनेक शुभकामना सन्देशों में राष्ट्रपति श्रीमती | परिप्रेक्ष्य में सम-सामयिक समस्याओं के निवारण हेतु प्रतिभा पाटिल, पूर्व उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत, जनमानस दिशाबोध भी प्राप्त कर रहा है। गृहमंत्री श्री शिवराज पाटिल एवं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष । कार्यक्रम की प्रस्तावना में 'मूकमाटी-मीमांसा' ग्रन्थ श्री राजनाथसिंह के सन्देश प्रमख थे। राष्ट्रपति श्रीमती के सम्पादक आचार्य राममर्ति त्रिपाठी । प्रतिभा पाटिल ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज कि 'मकमाटी' महाकाव्य संभवतः देश को धार्मिक सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बताते हुए कहा कि | ग्रन्थ होगा, जिस पर लगभग ३०० समीक्षकों के द्वारा उनकी धर्मसभाओं में धार्मिक मल्यों के साथ-साथ राष्टहित | समालोचनात्मक निबन्ध लिखे गए 3 का भी सन्देश होता है। इस अवसर पर प्राप्त शभकामना | साहित्यजगत को इन तीन खण्डों में समपलब सन्देशों का वाचन पत्रकार अभिनन्दन साँधेलीय पाटन | हैं। भारतीय ज्ञानपीठ (१८ इन्स्टीट्यूशनल एरिया लोदी ने किया। रोड, नई दिल्ली-११०००३) से तीन खण्डों में प्रकाशित समारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री | (प्रत्येक खण्ड में ६३७ पृष्ठीय सामग्री) हुए। इस ग्रन्थ ओमप्रकाश जैन (सूरत), विशिष्ट अतिथि श्री प्रमोद सिंघई | के सम्पादन के लिए पहले साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (कोयलावाले, नई दिल्ली) एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष | के सचिव डॉ. प्रभाकर माचवे, नई दिल्ली का चयन प्रभात जैन (कन्नौजवाले, मुंबई) से 'मूकमाटी मीमांसा' हुआ था। सम्पादन कार्य के ही दौरान अचानक उनके के तीनों खण्डों का क्रमशः विमोचन कराकर अतिथियों कालकवलित हो जाने पर इस कार्य हेतु मेरा चयन किया के साथ ही ग्रन्थ के संपादक आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी | जाना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है। आचार्यश्री एवं प्रबन्ध संपादकों सुरेश सरल (जबलपुर), सन्तोष | के 'मूकमाटी' सहित विपुल साहित्य पर देश के विभिन्न सिंघई (दमोह), नरेश दिवाकर, विधायक (सिवनी), विश्वविद्यालयों के अन्तर्गत अब तक ४ डी.लिट्, २२ सुभाष जैन (सागर) ने समुपस्थित समालोचकों के साथ | पी.एच.डी., ७ एम.फिल., २ एम.एड. तथा ६ एम.ए. लोकार्पित तीनों खण्डों की एक-एक प्रति आचार्यप्रवर | के शोध प्रबन्धों का लिखा जाना उसके लोकव्यापीकरण 26 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। का परिचायक है। डॉ० जगमोहन मिश्र, डॉ० घनश्याम व्यास, डॉ० (मिस) श्री त्रिपाठी ने कहा इस ग्रन्थ को साकार रूप | पी०सी० साल्वे, डॉ० कुसुम पटोरिया, राजेन्द्र पटोरिया, देने में मुनि श्री अभयसागर जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका | कृष्णकुमार चौबे आदि के अतिरिक्त डॉ० गुलाबचन्द्र जैन, है। उन्होंने पुस्तक के हर पृष्ठ को बारीकी से पढ़ा, (नई दिल्ली) पत्रकार सुश्री शोभना जैन (नई दिल्ली), जाँचा है। उनकी आस्था और निष्ठा से ही यह ग्रन्थ | अभिनन्दन साँधेलीय (पाटन), आनन्द सिंघई (जबलपुर), पूर्ण हो सका है। इस ग्रन्थ में सभी समीक्षकों ने बहुत | दिलीप जैन गुड्डा (सागर), अभिषेक जैन (जबलपुर), ही उत्तम रीति से अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। इत्यादि के विशिष्ट सहयोग के लिए आयोजन समिति परम्परा में सन्त, गुरु और आचार्यों से बड़ा कोई नहीं | ने सभी का भावभीना सम्मान किया। है। आचार्यप्रवर ने 'मूकमाटी' महाकाव्य में शास्त्रों की | लोकार्पण समारोह के अन्त में आज के महत्त्वपूर्ण सभी मान्यताओं को मण्डित करके लोक को दिया है। | उद्बोधन में आचार्यश्री विद्यासागर जी ने कहा कि हमने इसे सभी पढ़ें और हमारे आसपास जो अन्धकार है, भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर को ओढ़ रखा है और उसी उसे दूर करें। समय के इस अन्धकार को दूर करने | के फलस्वरूप अपने आपको विभाजित कर रखा है। की क्षमता इन संतों में ही है। काव्य का उद्देश्य सदा | हम एक अखण्ड तत्त्व को भूलकर अनेकों में विचारों लोक मंगल रहा है। इन्हीं उद्देश्यों को यह महाकाव्य | को बाँटते जा रहे हैं। दिव्य ज्ञान के माध्यम से सन्तों । सर्जना महान होती है और उसके अपने | ने इस रहस्य को समझा है। कोई भी संसार में छोटा त मानदण्ड होते हैं। किन्त सर्जनात्मक प्रतिभाएँ | बडा नहीं. किन्तु एक भी नहीं हैं, हैं तो अनेक, अनेक रूढ़ियों का पालन नहीं करतीं, अपितु नई परम्पराएँ बनाती रहेंगे, अनन्त रहेंगे, अजर रहेंगे, किन्तु इस विराटता का अनभव संकचित आँखों की दृष्टि से नहीं किया जा _प्रबन्ध-सम्पादकों की ओर से सुरेश सरल, पूर्व | सकता है। ये चर्मचक्षु हमें केवल चर्म दिखाएँगे, धर्म मानद जनसम्पर्क अधिकारी, आचार्य विद्यासागर शोध | नहीं। वहाँ तक केवल आस्था के मार्ग से ही पहुँच सकते संस्थान, जबलपुर ने 'मूकमाटी-मीमांसा' ग्रंथ-प्रकाशन की | हैं। उन्होंने कहा कि आस्था के लिए घण्टों की आवश्यकता दीर्घकालिक कार्य-योजना की अथ से इति तक पर प्रकाश | नहीं। जिस चीज को हम पहचान नहीं पा रहे हैं, वह डाला। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशन अधिकारी डॉ० | है अखण्ड तत्त्व। आँखे बन्द कर, अन्य इन्द्रियों को गुलाबचन्द जैन ने 'मूकमाटी' महाकाव्य के सम्बन्ध में | कुछ देर विश्राम देकर इस अखण्ड तत्त्व का अनुभव कहा कि इसमें आचार्यश्री ने लिखा है कि माटी मूक | हम कर सकते हैं। हमारी परेशानी यह है कि हम एकान्त है, पद दलित है और आज तक दबती चली आ रही | के समर्थक नहीं हैं और अनेकान्त से छूट नहीं पाते। है। यदि कुम्भकार उस की ध्रुव, सत्ता को पहचाने, तो । आपने कहा कि ज्ञान, विज्ञान और विवेक में बहुत वह कुम्भ बन जाती है। बाद में अग्नि में उसे तपाया | अन्तर है। भिन्न-भिन्न दो वस्तुओं का नीरक्षीर-विश्लेषण जाता है तब वह पैरों द्वारा कुचली गई माटी कुम्भ बन | करना विवेक है। विवेक के उपरान्त हमें रास्ता मिल कर हमारे सिर पर आ जाती है। जाता है। 'विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक, इस कार्यक्रम के संचालक इंजी. रवि जैन, नागपुर, | अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक।' ने 'मूकमाटी-मीमांसा' के सम्पादकद्वय डॉ. प्रभाकर माचवे यानी जब प्रकाश की ओर देखते हैं, तो सर्वत्र (मरणोपरांत), आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, सम्पादन-सहायक | प्रकाश नजर आता है, किन्तु ऊपर देखते हैं तो भिन्नत्रय-डॉ० आर० डी० मिश्र, डॉ० शकुन्तला चौरसिया, डॉ० भिन्न बल्ब दिखाई देते हैं। जीव अनेक होने पर भी सरला मिश्रा (सभी सागर), प्रबन्ध संपादक- सुरेश सरल, | वे एक इसलिए हैं कि प्रत्येक के पास एक जैसा ही संतोष सिंघई, नरेश दिवाकर (डी.एन.) सुभाष जैन | आत्म तत्त्व है। हम एक नहीं हैं, किन्तु एकसे हैं। अतः (खमरियावाले, सागर) के महती योगदान के लिए शाल, | हम भी प्रभु बन सकते हैं। हम भगवान् नहीं हैं, किंतु श्रीफल, सम्मानचिह्न आदि से सम्मानित किये जाने हेतु | भगवान् बन सकते हैं। इसके लिए बस प्रक्रिया अपना उनका आह्वान किया। समारोह में समुपस्थित समालोचक | ली जाय तो काम हो जाएँगा। पर हमें खुद पर ही विश्वास नवम्बर 2008 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है, आस्था नहीं है। मिट्टी के कण-कण में जीव । इलाज है कि स्व-आत्मतत्त्व को पहचानें। इसके लिए हैं, पर उन्हें देखने के लिए आस्था की आवश्यकता | भले ही सन्त नहीं बन सको, तो सन्तोषी अवश्य बनो। सन्तोषी बनने के बाद अधिक उपासना की आवश्यकता __आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' महाकाव्य (पृ. ३५२) | नहीं रहती। की इन पंक्तियों के माध्यम से कहा, "संत-समागम की आपने बताया कि सही तत्त्व वही है, जो विक्षेप यही तो सार्थकता है। संसार का अन्त दिखने लगता है। से दूर रहता है। विक्षेप से युक्त तत्त्व भ्रान्तियुक्त रहता समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या है। अत: जीवन की वास्तविकता समझो और सही प्रवासी न बने / इसमें कोई नियम नहीं हैं। किन्तु वह सन्तोषी | बनो। निवासी या आवासी मत बनो। आपका परिचय बनता है।" इन पंक्तियों को सुन-समझकर व्यक्ति सन्त | कोई दूसरा दे या आप किसी का परिचय दें, यह ठीक बने या न बने, सन्तोषी जरूर बन जाएगा। जिससे भगवान् | नहीं है। स्वयं का प्रवचन स्वयं के लिए दें कि मैं यहाँ बना जा सकता है वह कौन सा तत्त्व है, यह जानने | से आया हूँ और यहाँ जाऊँगा। अकेला ही आया था भर की देर है, पर इसके लिए इशारा भी काफी है, और अकेला ही जाना है, पर बीच में क्या-क्या किया अन्यथा सारा का सारा भी कम पड़ सकता/जाता है। यह भूल जाते हैं। शरीर और आत्मा के भेद को स्पष्ट करते हुए | घड़े का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि आचार्यश्री ने कहा कि भले ही शरीर का परिचय उम्र | मूकमाटी से बना कुम्भ कहता है कि "आग की नदी से हो सकता है, पर आत्मा का नहीं। आत्मा की तो को पार करके आया हूँ / अब कौन सी परीक्षा लेना कोई उम्र नहीं होती। 'एज' और 'इमेज' से रहित यह | चाहते हो।" प्रवासी हो, यात्रा के दौरान नदी पार करना आत्मतत्त्व है, जिसकी कोई न 'ड्रेस' है, न 'एड्रेस' है, तो घड़े का सहारा लो। वह तुम्हें डूबने नहीं देगा। है। आज जड तत्त्व से पूरा संसार प्रभावित है। इस लेकिन ध्यान रहे कि घडा खाली रहे. नहीं तो डब कारण पैसे का महत्त्व इतना बढ़ रहा है कि शेष सब | जाओगे। ज्ञानी वह घड़ा है जो यह नदी पार करा सकता असहाय नजर आ रहे, लेकिन आत्मतत्त्व को जाननेवाला | है, पर वह यदि खाली हो तो, अन्यथा यदि वह जड़त्त्व सन्तुष्ट हो जाता है। उसे संसार के किसी विकार से | से भरा है, तो अपने साथ शिष्य को भी ले डूबेगा। भय नहीं रहता। सन्तों के जीवन में ऐसा ही कुछ होता अन्त में प्रवचन के सारांशभत एक 'हाइक' प्रस्तुत करते है। उनका समागम पाकर सही पुरुषार्थ करने का प्रयत्न | हए उन्होंने कहा, 'खाल मिली थी/यही मिट्टी में मिली/ करना चाहिए। खाली जाता हूँ।' समाज में बढ़ती भोग-विलासिता पर चिंता व्यक्त मूकमाटी-मीमांसा (तीन खण्ड), संपादक- डॉ. करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि भोग-विलासिताओं को प्रभाकर माचवे एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, प्रकाशकहम अच्छा कहते हैं, किन्तु अच्छा तो वह है, जो इन्हें | भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इन्स्टीट्युशनल एरिया, लोदी रोड, छोड़कर एकान्त पसन्द करता है। इसके लिए पूरी तरह | नई दिल्ली-३, मूल्य ४५०/-, प्रत्येक खण्ड, तीनों खण्ड 'मूकमाटी' पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बहुत आसान | ११००/- पृष्ठ ६३७ प्रत्येक खण्ड में। रामटेक (नागपुर, महाराष्ट्र) से प्राप्त स्वभाव एक बार आचार्य महाराज जी ने बताया कि पाठ करते समय मात्र पाठ (शब्दों) की ओर दृष्टि जाने पर लीनता नहीं आती है, बल्कि लीनता तो अर्थ की ओर जाने पर आती है। शिष्य ने कहा- लेकिन आचार्यश्री अर्थ की ओर चले जाते हैं, तो पाठ भूल जाते हैं। आचार्यश्री ने कहा- भूलना तो स्वभाव है। "जैसे ज्ञान आत्मा का स्वभाव है वैसे ही भूलना मनुष्य का स्वभाव है।" मनुष्य तो भूल का पुतला है। दूसरे शिष्य ने कहा- भूलता तो पागल है। आचार्यश्री बोले- यह भी एक भूल है, दूसरे को पागल कहना। भूल तो मात्र भगवान् से नहीं होती, बाकी सभी से होती है। अन्त में उन्होंने कहा- अनावश्यक को भूलना सीखो तो आवश्यक स्मरण में रहेगा। मनोरंजन में नहीं. आत्मरंजन में रहना सीखो। मुनिश्री कुंथुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार 28 नवम्बर 2008 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यश्री विद्यानन्द जी महाराज के साथ कक्षा 10 वीं के कोई 200 मेघावी विद्यार्थियों का सान्निध्य में आत्मीय सम्मान किया गया। कक्षा 12वीं विज्ञान में स्पर्श सिंघई कानपुर ने 90% अंकों के साथ आई.आई.टी. जे.इई, कु. प्रणीता जैन को ऋषभदेव संगीत रत्न अवार्ड ए.आई.ईईई में चयनित होकर देश की मेरिट (छात्रवर्ग) जिनेन्द्र कला केन्द्र भीलवाड़ा द्वारा प्रतिभाओं को में प्रथम एवं कु. नेन्सी जैन दमोह (94%) अंकों के राष्टीय स्तर पर प्रकाश में लाने एवं प्रोत्साहित करने | | साथ (छात्रावर्ग) प्रथम पुरस्कृत हुई। इनके साथ ही इस की योजनान्तर्गत प्रारम्भ किये गये भगवान् ऋषभदेव संगीत कक्षा के कोई 60 छात्र-छात्राओं को भी सम्मानित किया रत्न अवार्ड का प्रथम पुष्प देहली में कु. प्रणीता जैन गया। कक्षा 12वीं कामर्स में राहुल जैन अम्बाला 95.20% को प्रदान किया गया जिसमें उसे सम्मान पट्ट व रुपया |. | एवं क नेन्सी नवलखा (90.22%) अंक एवं म.प्र. में 5100/- भेंट किया गया। पहली पोजीशन आल इण्डिया मेरिट में क्रमशः छात्र ऋषभ विहार देहली में आचार्यश्री विद्यानन्द जी एवं छात्रावर्ग में प्रथम स्थान पाकर सम्मानित हुए। इसके के सान्निध्य में दिनांक 8.10.08 को आयोजित इस विशिष्ट साथ ही कामर्स के कोई 90 मेधावी विद्यार्थियों का भी समारोह में राजस्थानी लोकचित्र शैली में प्रख्यात कलाकार सम्मान किया गया। उसी क्रम में 12वीं आर्ट्स के कोई पं० जोशी द्वारा श्री निहाल अजमेरा के मार्गदर्शन में चित्रित 20 विद्याथियों एवं विशिष्ट उपलब्धि-वाली प्रतिभाओं भगवान् ऋषभदेव की षट्कर्मों के उपदेश की फड़ पेन्टिंग को अतिथियों ने सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त जयपुर का लोकापार्ण भी सम्पन्न हुआ। कु. प्रणीता का 201 के मेघावी प्रतिभाओं को भी पृथक् से सम्मानित किया मंगल कलश का योग भवाई नृत्य बहुत प्रभावी रहा। गया। समारोह का संचालन कुन्दकुन्द भारती के ट्रस्टी | समाजसेवी एवं प्रमुख उद्योगपति श्री पी.एल. बैनाड़ा श्री सतीश जैन, आकाशवाणी ने किया एवं कला केन्द्र | ने मैत्री समूह एवं यंग जैन अवार्ड का परिचय दिया। - के सचिव श्री निहाल अजमेरा ने बताया कि अगले माह | मुख्य अतिथि श्री सुरेन्द्र हेगड़े कनार्टक ने यंग जैन अवार्ड संस्था द्वारा घोषित कु० वीणा अजमेरा व डॉ० ज्योति | के अनुशासित व्यवस्थित एवं भव्य आयोजन की खुले जैन को ऋषभदेव संगीत पद्म अवार्ड, रूपये 11000/ मन से प्रशंसा कर अपने यहाँ प्रोफेशनल कॉलेजों में व सम्मान पट्ट एवं श्रीमती डॉ० कुसुम शाह,डॉ० सुमन | 2| ऐसे अवार्डियों के लिए सीटें आरक्षित करने एवं हर सोनी को संगीत रत्न अवार्ड नारेली तीर्थधाम में प्रदान संभव सहायता देने की बात कही। कार्यक्रम का सरस किये जायेगे। संचालन डॉ. सुमति प्रकाश जैन व श्री राजेश बड़कुल निहाल अजमेरा, सचिव छतरपुर एवं श्रीमती आभा जैन जबलपुर ने किया। 8 वाँ यंग जैन अवार्ड 2008, पदमपुरा जयपुर दूसरे दिन के आयोजन के पहले सत्र में यंगजैन मैत्री समूह के तत्त्वावधान में मुनिश्री क्षमासागर | अवार्ड से पूर्व में सम्मानित हो चुकी प्रतिभाओं को दीक्षांत जी की प्रेरणा से 11 एवं 12 अक्टूबर 08 को धर्मस्थल समारोह में उपाधियाँ प्रदान की गईं। इस सत्र में डॉ० के सुरेन्द्र कुमार जी हेगड़े तथा डॉ० कुसुम पटोरिया | नलिन के. शास्त्री गया, ने 'मूल्य आधारित जीवन पद्धति' नागपुर के मुख्य आतिथ्य में उपाधि प्राप्त सीनियर | एवं डॉ. प्रतिभा जैन से.नि. विभागाध्यक्ष राजस्थान अवार्डियों का दीक्षांत समारोह हुआ एवं शिक्षा के क्षेत्र विश्वविद्यालय जयपुर ने 'जीवन में अहिंसा का महत्त्व' में सर्वोत्तम प्रदर्शन करनेवाली देशभर की कोई 500 | विषय पर सारगर्भित व्याख्यान दिया। मुनिश्री क्षमागार प्रतिभाओं का सम्मान भी। जी का संदेश श्री महावीर पाण्डया ने हिन्दी में एवं सर्वप्रथम कक्षा 10वीं एवं 12वीं की आल इण्डिया | श्री एस.एल.जैन ने अंग्रेजी में सुनाया, जिससे वातावरण मेरिट में रेंक पानेवाली तेजस्वी प्रतिभाओं को विशेष | भावुक हो उठा, क्योंकि यह पहला अवसर था जब इस रूप से ड्रेस कोड में सम्मानित किया गया। कक्षा 10वीं | समारोह के प्रणेता मुनि श्री क्षमासागर जी सशरीर इस में आल इण्डिया मेरिट में छात्रों में पहला स्थान पाने | भव्य कार्यक्रम में उपस्थित नहीं थे, तब भी पूरे समारोह वाले सुहास जैन बेंगलौर (97.90%) एवं छात्राओं में | में हर वक्त, हर पल, हर कहीं उनकी अमूर्त उपस्थिति अदिति एन. मुदहोल्कर नवी मुम्बई (95.60%) के साथ- | महसूस की जाती रही। मैत्री समूह का प्रत्येक सदस्य नवम्बर 2008 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे अदृश्य प्रेरणा व मनोबल पाकर प्रतिभाओं को। महाराष्ट्र आदि के जो छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण हेतु इन्दौर सम्मानित करने की उनकी परिकल्पना को साकार करने | आते हैं, उनको उचित एवं शुद्ध भोजन व्यवस्था, आवास में प्राणपन से जुटा रहा। कार्यक्रम का संचालन श्री राजेश | व्यवस्था एवं धार्मिक संस्कार देनेवाला कोई छात्रावास बड़कुल छतरपुर, श्रीमती आभा जैन जबलपुर एवं श्रीमती यहाँ नहीं था। अतः आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास समिति मोना सोगानी जयपुर ने किया। ने उपर्युक्त संस्थान में चल रहे छात्रावास को अपनी व्यवस्था ___ डॉ. सुमति प्रकाश जैन के अन्तर्गत लेते हुए एवं छात्रावास को आधुनिकतम सभी बेनीगंज छत्तरपुर (म.प्र.)| सविधाओं से ससज्जित करके. उच्च शिक्षा ग्रहण करने पुरस्कार समर्पण समारोह हेतु इन्दौर में रहनेवाले छात्रों के लिए छात्रावास दिनांक सराकोद्धारक संत उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी की। 1 सितम्बर 2008 से प्रारम्भ कर दिया है। वर्तमान में प्रेरणा से स्थापित श्रुत संवर्द्धन संस्थान द्वारा प्रवर्तित "श्रुत यहाँ 23 छात्र अध्ययनरत हैं। छात्रावास का शेष भाग भी नवम्बर तक सभी सुविधाओं से सुसज्जित हो जावेगा, संवर्द्धन-पुरस्कार एवं सराक पुरस्कार वर्ष 2007" का समर्पण समारोह तुकोगंज दिगम्बर जैनसमाज श्राविकाश्रम जिसमें 30 छात्रों हेतु स्थान सुरक्षित है। अतः 1 जनवरी ट्रस्ट एवं चातुर्मास समिति के संयुक्त तत्त्वावधान में सम्पन्न 2009 से हम 30 छात्रों को और प्रवेश दे सकेंगे। जो दिगम्बर जैन छात्र 12वीं कक्षा उर्तीण कर हुआ। जिसमें देश के पाँच मूर्धन्य विद्वानों को शाल, श्रीफल एवं सम्मान राशि भेंटकर सम्मानित किया गया | चुके हैं और जिनको इन्दौर में शिक्षा ग्रहण करनी हो, वे हैं वे धार्मिक संस्कारों सहित आवास एवं भोजन व्यवस्था 1. पं० श्री बालमुकुंद जी जैन शास्त्री, मुरैना | के लिए अपना आवेदन पत्र भेज सकते हैं। (म.प्र.)- आचार्य शांतिसागर छाणी पुरस्कार। प्रथम सत्र 2009 हेतु छात्रावास में प्रवेश के लिए सनत कुमार जैन, जयपुर (राज.)- आचार्य | 15 अक्टूबर से प्रवेश-पत्र आवंटित किये जा रहे हैं। सूर्यसागर स्मृति पुरस्कार।। शीघ्रातिशीघ्र आवेदन करनेवालों को प्राथमिकता दी जावेगी। 3. डॉ. विजय कुमार जैन, लखनऊ (उ.प्र.) सभी सूचनाओं के लिए सम्पर्क करेंआचार्य विमलसागर भिण्ड स्मृति पुरस्कार पं० भरत शास्त्री (संचालक छात्रावास) मो. 9406606591 4. डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी (उ.प्र.) आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास, जवेरीबाग, आचार्य सुमतिसागर स्मृति पुरस्कार। नसिया, इन्दौर (म.प्र.) 5. डॉ० कु. मालती जैन मैनपुरी (उ.प्र.)- मुनि | मुान | मुनि श्री प्रमाणसागर जी द्वारा रामायण-गीता वर्द्धमानसागर स्मृति पुरस्कार। ज्ञानवर्षा के माध्यम से गया नगर में अभूतपूर्व साथ ही सराक पुरस्कार दिल्ली के संस्कृति संस्थान को दिया गया। सराक क्षेत्र में विशिष्ट सेवाओं के लिए ___ धर्म प्रभावना उक्त संस्था के संरक्षक श्री अनिल जैन अध्यक्ष, श्री राकेश गया, 19 अक्ट्र.08 संत शिरोमणि प.पू. आचार्य जैन एवं महामंत्री राकेश जैन को सम्मानित किया गया। श्री 108 विद्यासागर जी महराज के परम प्रभावक शिष्य डॉ. सुशीला सालगिया प.पू. मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी के अध्यात्मपरक आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास इन्दौर म.प्र.. प्रभावी प्रवचनों से दिनांक 15 अक्टूबर 08 से 19 अक्टूबर 08 तक रामायण-गीता ज्ञान वर्षा के पंच-दिवसीय कार्यक्रम __ प्रवेश सूचना द्वारा गया नगर में जैनधर्म, दिगम्बर संत एवं जैनसमाज परम पूज्य 108 आ. श्री विद्यासागरजी महाराज की अभूत पूर्व धर्म प्रभावना हुई। की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से सर सेठ सरुपचन्द्रजी हुकुमचन्द्र गया नगर के इतिहास में पहली बार नगर के जी दिगम्बर जैन पारमार्थिक संस्था के अन्तर्गत आचार्य प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा गठित 'विश्वधर्म जागरण मंच' के ज्ञानसागर जी छात्रावास का शुभारंभ 1 सितम्बर से हो द्वारा सार्वजनिक स्तर पर अजैन मंच से स्थानीय गया चुका है। जिला स्कूल के विशाल मैदान में किसी जैनसंत का बहुत समय से देखा जा रहा था कि मध्यप्रदेश, | ", | प्रवचन हुआ। प्रवचन के प्रथम दिन दस हजार की संख्या 30 नवम्बर 2008 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जनसमुदाय मुनिश्री के प्रवचन के लिये एकत्रित हुई ।। पू. मुनिश्री के धारा प्रवाह अध्यात्मपरक प्रवचन से प्रभावित जनसमुदाय की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही चली गई एवं दिनांक 19 अक्टूबर 08 को समापन के अवसर पर पच्चीस हजार जनता का सैलाव पू. मुनिश्री के प्रवचन सुनने के लिए उमड़ पड़ा। पू. मुनिश्री ने रामायण एवं गीता के पात्रों एवं प्रसंगों का जैनधर्म के अनुरूप अध्यात्म परक प्रतीकात्मक प्रवचन प्रस्तुत किया जिसे सुनकर गया नगर की जनता भावविभोर एवं मुग्ध हो गयी । गया नगर के इतिहास में इसके पूर्व किसी भी संत के प्रवचन में इतनी भारी | दिनांक 19 अक्टूबर 08 को कार्यक्रम समापन का मुख्य आतिथ्य करते हुए बिहार सरकार के लोक स्वास्थ्य एवं अभियंत्रणा मंत्री श्री अश्विनी चौबे ने पू. मुनिश्री के प्रति बिहार प्रान्त की जनता एवं बिहार सरकार की ओर से कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए राजकीय सम्मान अर्पित किया एवं विश्वधर्म जागरण मंच द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के आयोजन की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि पू. मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के प्रभावी प्रवचन मानवीय चेतना के रूपान्तरण एवं विश्वशान्ति को साकार करने मे परम सहायक हैं। उन्होंने कहा कि पू. मुनिश्री के प्रवचन मगध की इस धरती पर हुए भगवान् महावीर की देशना का जीवन्त प्रतिबिम्ब हैं । संख्या में जनता कभी नहीं उमड़ी, प्रवचन सुनने पुरुषोंपूज्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी ने चातुर्मास के मध्य के अतिरिक्त भारी संख्या में महिलाएँ- स्कूली छात्रछात्राएँ एवं सेना के जवान भी पहुँचे। पू. मुनिश्री ने • प्रसंगवशात् व्यसनमुक्ति एवं धर्म की उपादेयता पर भी अत्यन्त प्रभावी प्रवचन किया । पू. मुनि श्री के इन प्रवचनों से गया नगर की जनता पर जैनधर्म एवं दिगम्बर जैनसंत की प्रभावना की अमिट छाप पड़ी है । पू. मुनि श्री की रोचक एवं धारा प्रवाह प्रवचन शैली एवं दिगम्बरत्व की कठिन चर्या गया नगर में आम चर्चा का विषय बन गई है। स्थानीय नागरिकों ने पू. मुनिश्री की तुलना साक्षात् परमात्मा से करते हुए अपनी श्रद्धा व्यक्त की। मुनिश्री के दर्शन एवं चरण-स्पर्श हेतु भारी संख्या में जनता उमड़ पड़ी। नियमित कक्षाओं के माध्यम से जैनतत्त्व विद्या के विभिन्न विषयों के साथ ही गुणस्थानों के स्वरूप की व्याख्या सरलतम रूप में पहले ही समझाई है। प्रस्तुत संगोष्ठी से जिज्ञासुओं को गुणस्थानों की शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचना समझने में काफी लाभ प्राप्त हुआ । त्रिदिवसीय संगोष्ठी के विभिन्न विषयों पर सम्पन्न आठ सत्रों में अट्ठाईस शोध आलेख विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किए गए। इस संगोष्ठी की विशेषता यह रही कि प्रत्येक विद्वानों को गुणस्थान पर उनके विषयों के शीर्षक के साथ ही उनके बिन्दु भी निर्धारित कर दिए गए थे। प्रत्येक सत्र के अन्त में पूज्य मुनिश्री ने अपने मांगलिक उद्बोधन के द्वारा प्रत्येक शोधालेख की जो समीक्षा प्रस्तुत की उससे जिज्ञाषु श्रोताओं एवं विद्वानों को भी अत्यधिक लाभ एवं अनेक नूतन दृष्टियाँ प्राप्त हुईं। में यह ज्ञातव्य है कि शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखरजी निर्मित हो रहे इन्हीं गुणस्थानों के रहस्य को सहज और सजीव रूप में समझने और इससे आत्मिक विकास करने की दृष्टि से विशाल एवं भव्य रूप में निर्मित हो रहे 'गुणायतन' की सार्थकता और आवश्यकता से भी समाज सुपरचित हुई। इस 'गुणायतन' में आधुनिक तकनीकि एवं वैज्ञानिक संशाधनों के माध्यम से गुणस्थानों को सरलता से समझने में काफी लाभ प्राप्त होगा। साथ ही सभी ने यह आवश्यकता भी महसूस की कि गुणस्थानों के अनेक अनछुए पक्षों पर शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक विवेचना हेतु विशाल स्तर पर विविध विद्याओं के विद्वानों की ऐसी अनेक संगोष्ठियों का आयोजन आवश्यक है। प्रस्तुत संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों की अध्यक्षता 'नवम्बर 2008 जिनभाषित 31 विमल कुमार सेठी, गया गुणस्थान विषयक राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी सम्पन्न गया (बिहार) दिनांक १२.१०.२००८ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में दिगम्बर जैनसमाज, गया (बिहार) की ओर से दिनांक 10 से 12 अक्टूबर 2008 तक आयोजित त्रिदिवसीय 'जैन तत्त्व विद्या और गुणस्थान' विषयक राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी अनेक उपलब्धियों के साथ सम्पन्न हुई। प्रस्तुत संगोष्ठी में करणानुयोग के गूढ़तम विषय 'गुणस्थान' के विभिन्न पक्षों पर देश के प्रतिष्ठित तीस विद्वानों ने अपने शोध आलेखों के माध्यम से जो विवेचना प्रस्तुत की उससे उपस्थित हजारों नेताओं ने लाभ उठाया और गुणस्थानों के रहस्य को समझा । यह ज्ञातव्य है कि . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० श्री मूलचन्द्र जी लुहाड़िया, डॉ. रमेशचन्द जैन, प्राचार्य । ग्रामीणों के लिये की जाय, ताकि पारसनाथ क्षेत्र के लोगों के जीवन में खुशहाली आवे एवं उनकी आमदनी बढ़े ताकि वे लोग अपना जीवन स्तर बढ़ा सकें । निहाल चन्द्र जैन, प्रो० ऋषभ प्रसाद जैन, डॉ० शीतल चन्द जी जैन, डॉ० शेखर चन्द जैन प्राचार्य, अभय कुमार जैन एवं जैन गजट के यशस्वी सम्पादक श्री कपूर चन्द जी पाटनी ने की। विभिन्न सत्रों का सफल संयोजन कार्य प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी, पं० सिद्धार्थ कुमार जैन, पं० महेश जैन, डॉ० सुरेन्द्र भारती, ब्र० धर्मेन्द्र जैन, डॉ० अशोक कुमार जैन, श्री अनूप चन्द्र जी, एवं ब्र० राकेश भैया ने किया। प्रस्ताव 2- श्रीसेवायतन के निर्माणाधीन भवन में कम से कम 8 कमरे आंध्रप्रदेश से बनाने का निर्णय लिया गया एक तल्ले में आठ कमरे ही हैं। अतः इस तले का नामकरण 'हैदराबाद ब्लॉक' रखा जाएगा। इसके निर्माण के लिए श्री मानिकचन्द चौधरी, श्री एस० पी० जैन, श्री राकेश जैन, श्री आनन्दीलाल बाकलीवाल एवं श्री उल्लासचन्द्र बाकलीवाल ने एक एक कमरे की स्वीकृति प्रदत्त की है जिसके लिए यह समिति उनको धन्यवाद ज्ञापति करती है। अन्य 3 कमरों की व्यवस्था की जा रही है। संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में इन विद्वानों के साथ ही ब्र० जिनेश भैया, डॉ० श्रेयांस सिंघई, प्रो० के. निलिन शास्त्री, प्रो. सुदीप जैन, ब्र. संजीव भैया, डॉ. कमलेश कुमार जैन जयपुर, ब्र. बहिन सुचिता जैन, डॉ. कमलेश कुमार जैन वाराणसी, पं० पंकज जैन, ब्र. अन्नु भैया, श्रीमती डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन, विकास जैन ने अपने शोधालेख प्रस्तुत किए। संगोष्ठी का संयोजन कार्य ब्र. राकेश जैन एवं प्रो. फूल चन्द्र जैन ने सफलता के साथ किया । देवेन्द्र कुमार जैन अजमेरा, गया आंध्रप्रदेश श्रीसेवायन समन्वय समिति, हैदराबाद हाल ही में हैदराबाद स्थित राजधानी होटल के सभागृह में श्रीसेवायतन के अध्यक्ष श्री एम० पी० अजमेरा की अध्यक्षता में आन्ध्रप्रदेश श्री सेवायतन समन्वय समिति की बैठक सम्पन्न हुई। बैठक में सर्वप्रथम श्री सेवायतन के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री एम० पी० अजमेरा ने श्री सेवायतन द्वारा ग्रामीण विकास एवं मानवसेवा के हितार्थ अनेकानेक कार्य, जो श्री सम्मेद शिखरजी मधुबन पंचायत के 14 ग्रामों में किए गए हैं अथवा किए जा रहे हैं, उनके संबंध में सभी सदस्यों को जानकारी दी। श्री सेवायतन की प्रदेश इकाई के गठन की आवश्यकता की विस्तृत जानकारी दी। प्रदेश ईकाई के अध्यक्ष श्री सुनील पहाड़े ने राज्य इकाई के सभी सदस्यों से अनुरोध किया कि अपने पावन पवित्र तीर्थ श्री सम्मेद शिखर जीके आसपास बसे 14 ग्रामों के विकास के लिए हमें अपने दायित्वों को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करना है तथा समाज के सभी लोगों का सहयोग लेना है। विचार विमर्शोपरान्त निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किए गए प्रस्ताव 1- निर्णय लिया गया कि आंध्रप्रदेश से कम से कम 151 गायों की व्यवस्था इन 14 ग्रामों के 32 नवम्बर 2008 जिनभाषित प्रस्ताव 3 - श्री सम्मेद शिखर जी क्षेत्र में अवस्थित 14 ग्रामों में से कम से कम 20 होनहार छात्रों का चयन कर उनकी सम्पूर्ण शिक्षा एवं पूर्ण व्यवस्था की जिम्मेदारी श्री सेवायतन लेगी एवं आंध्रप्रदेश समिति सहयोग करेगी। छात्रों के चयन के लिए श्री एम० पी० अजमेरा- श्रीसेवायतन के माननीय अध्यक्ष से अनुरोध किया गया। प्रस्ताव 4- आंध्रप्रदेश राज्य इकाई की महिला प्रमुख श्रीमती कांता पहाड़े ने कहा कि शीघ्र ही सम्मेद शिखरजी की यात्रा करने का कार्यक्रम बनाया जाएगा एवं 14 ग्रामों का भ्रमण कर मानवसेवा में योगदान दिया जाएगा एवं महिला मण्डल इस सेवा कार्य के कार्यों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। प्रस्ताव 5- बैठक में सभी सदस्यों ने प्रतिज्ञान लिया कि हम सब मिलकर विश्व विख्यात् तीर्थ स्थल क्षेत्र की पवित्रता बनाए रखने के लिए तथा 14 ग्रामों में रहनेवाले ग्रामीणों को सात्त्विक एवं आत्मनिर्भर करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। प्रस्ताव 6- निर्णय लिया गया कि समन्वय समिति के प्रदेश अध्यक्ष सुनील पहाड़े एक पत्र लिखकर समाज के सभी महानुभावों को अनुरोध पत्र भेजें कि मांगलिक अवसरों पर, यथा जन्मदिन, शादी अन्य अवसरों पर एक जन्म दिन, शादी या स्वर्ण, रजत जयंती एवं अन्य अवसरों पर श्रीसेवायतन संस्थान के लिए दान की राशि अवश्य घोषित करें । सुनील पहाड़े आन्ध्रप्रदेश श्रीसेवायतन समन्वय समिति हैदराबाद Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमासागर जी की कविताएँ अन्तर ये मन्दिर इसलिए कि हम आ सकें बाहर से अपने में भीतर ये मूर्तियाँ अनुपम सुन्दर इसलिए कि हम पा सकें कोई रूप अपने में अनुत्तर और श्रद्धा से झुक कर गलाते जाएँ अपना मान-मद पर्त-दर-पर्त निरन्तर ताकि कम होता जाए हमारे और प्रभु के बीच का अन्तर। रोज हम ये दीप धूप ये गंध मानो कह रही है हमारा ही है यह आत्म-सौरभ-अगंध ये गीत-गान वन्दना के छन्द मानो कह रहे हैं हमारा ही है यह आत्म-गान अमन्द ये प्रतिमा अपलक निष्पन्द मानो कह रही है हमारा ही है यह आत्म-दर्शन अनन्त रोज हम इनके करीब आयें और इन्हें अपने-में पायें पुलक उठे मनः प्राण। 'पगडंडी सूरज तक' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ सद्भावना की शुभ्र रश्मियाँ सन्त पुरुषों के अन्तस् जगत् में जब सद्भावना की शुद्ध शुभ्र रश्मियाँ प्रस्फुटित होती हैं, तब यही बहिर् जगत् में धर्म प्रभावना की धवल ज्योत्स्ना के रूप में शरद पूनम की चाँदनी सी छा जाती है, जिससे भविक जनों की हृदय की कुमुदनी खिल जाती है राई बराबर बुराई राई बराबर बुराई में ऐसी गहराई है जिसकी तराई से अमराई सी छा जाती है - और सम्यक्त्व की पराग बिखरती है प्रस्तुति : रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, _Jain Education Inte भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002(उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन।