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________________ ऐसे ही एक लेख में ये शब्द भी पढ़ने में आये 'ऐसे भव्य सम्यग्दृष्टि धरणेन्द्र एवं पद्मावती देव और देवी, समस्त तीर्थंकरों, आचार्यों, साधुओं एवं जिनशासन भक्तों पर सदा उपकार करते हैं।" यह प्रकरण अत्यन्त विचारणीय है । धरणेन्द्र के द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ का संकट दूर करना, उसके द्वारा भगवान् पर उपकार माना जाए या सेवा । क्या ये भवनत्रिक देव तीर्थंकरों या आचार्यों पर उपकार कर सकते हैं? कभी नहीं कर सकते। ये तो उनके किंकर हैं । उपर्युक्त आगमप्रमाणों से स्पष्ट है कि धरणेन्द्र, योग्य हैं इस प्रकरण में निम्नलिखित बातें हमेशा याद रखने पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि किसी भी जीव पर उपकार नहीं करते। स्वयं जीव का यदि सातावेदनीय का उदय हो, तब ही ये सहायता करते हुए देखे जाते हैं। इन देवी-देवताओं की पूजा-आरती तो महान् मिथ्यात्व का कारण है, अतः सांसारिक सुखों के लिए भी इनकी आराधना करना उचित नहीं । जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति तो सातिशय पुण्यबंध में कारण होती हुई, समस्त सांसारिक सुख को तो प्रदान करती ही है, परम्परा से मोक्षप्राप्ति में भी कारण है। हमको बड़े भाग्य से महान् दुर्लभ मनुष्य - पर्याय और दिगम्बर जैन - कुल में जन्म मिला है, हम सबको चाहिए कि उपर्युक्त भ्रमपूर्ण लेखों को पढ़कर भ्रमित न हों और जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति को ही परम उपादेय मानकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा, आरती, भक्ति से दूर रहें। यह भी ध्यान रखें कि यदि अपने सिर पर भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति रखी हुई पद्मावती देवी की मूर्ति है, तो वह भी पूजनीय नहीं है । इन मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा नहीं होती । भगवान् पार्श्वनाथ की पूजा के बहाने इनकी पूजा, आरती कभी न करें । इस लेख का आशय यह कदापि नहीं है कि धरणेन्द्र, पद्मावती आदि का अनादर, तिरस्कार, अवहेलना या अपमान किया जाए। ये कदाचित् सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं, अतः असंयतसम्यग्दृष्टि के साथ किया जानेवाला व्यवहार 'जय जिनेन्द्र' तक किया जा सकता है। सिकन्दरा, आगरा, उ.प्र. १. यदि भगवान् पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर करने के कारण हम धरणेन्द्र - पद्मावती की पूजा करते हैं, तो क्या समाधिगुप्त और त्रिगुप्त नामक मुनिराजों पर शेर के द्वारा आक्रमण करने पर एक सूकर के द्वारा मुनिराजों की रक्षा करने के कारण, उस सूकर को भी पूज्य नहीं मानना पड़ेगा ? २. कुछ मूर्तियों में भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों के नीचे जो धरणेन्द्र- पद्मावती दिखाये जाते हैं, वे इस बात के परिचायक हैं कि वे भगवान् के सेवक हैं। इस अंकन के कारण उनमें पूज्यता नहीं बनती। ३. इन देवी-देवताओं की पूजा कुछ भी फल नहीं देती है । बृहद्रव्य संग्रह गाथा ४१ की टीका में लिखा है कि 'जो जीव ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि वैभव के लिए रागद्वेष से आहत, आर्त्त और रौद्र परिणामवाले क्षेत्रपाल, चण्डिका आदि मिथ्या देवों की आराधना करते हैं, उसे देवमूढ़ता कहते हैं।' वे देव कुछ भी फल नहीं देते। ४. कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो, मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ॥ मोक्षपाहुड़ ९२ । अर्थ- जो सूर्य, चन्द्र, यक्ष आदि खोटे देवों की, खोटे धर्म व खोटे लिंग की वंदना नमस्कार या अभि Jain Education International । वादन, लज्जा, भय या गारव से करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है। श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस प्रकार कहा हैएवं पेच्छंतो विहु गह भूय-पिसाय- जोइणी - जक्खं । सरणं मण्णइ मूढो, सुगाढ - मिच्छत्त भावादो ॥ २७ ॥ अर्थ- ऐसा देखते हुए भी मूढ़ जीव प्रबल मिथ्यात्व प्रभाव से ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्ष को शरण मानता है। के कबीरवाणी दोष पराया देख करि चले हसन्त हसन्त । अपना याद न आवई, जाका आदि न अन्त ॥ तिनका कबहुँ न निंदिये पाँव तले जो होय | कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर धनेरी होय ॥ For Private & Personal Use Only नवम्बर 2008 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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