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कर्म हमारे विधाता नहीं
सुमतचन्द्र दिवाकर अनादिकाल से जीव के साथ कर्म का बन्धन । सामान्यतः कथन सही है, परन्तु पुण्य और पाप बंधन सतत चला आ रहा है। यह 'केर' और 'बेर' की तरह में बहुत अन्तर है। पुण्य की परिभाषा है 'पुनाति पुण्यं', वैचित्र्यपूर्ण है। इसे यह अनन्तचतुष्टय का धनी आत्मा | जो आत्मा को ऊँचाइयों की ओर ले जाये उसे पुण्य सदैव से निर्वाह करता चला आ रहा है और भ्रमवश | कहते हैं। इसके विपरीत जो आत्मा को अधोगति की कर्मों को अपना विधाता मान बैठा है। दो भिन्न लक्षणोंवाले | ओर ले जाये उसे पाप कहते हैं। पुण्य आत्मसाधना द्रव्यों में इस प्रकार की मैत्री का क्या कारण है? जीवात्मा | की ऊचाइयाँ पाते हुए स्वयमेव छूटता जाता है, जब कि चैतन्यलक्षणवाला है, जब कि कर्म अचेतन हैं। आत्मा | पाप प्रयासपूर्वक छोड़ना होता है। पुण्य, बंध का कारण अरूपी है। कर्म स्पर्श, रूप, रस गंधवर्णमय पुद्गल द्रव्य | होने पर भी, मोक्ष मार्ग में सहायक है। के रूपान्तरण हैं। तिस पर भी ये जड़ कर्म चेतन को इस प्रकार रागद्वेषमोह की पृष्ठभूमि में भावकर्म, अनादि काल से भटका रहे हैं, ऐसी हमारी एकान्त मान्यता | द्रव्यकर्म तथा नोकर्मों का अर्जन चलता रहता है। इस है। इस प्रकार की मान्यता के कारण ही हम कर्मों को | | आगमन में विगत में बाँधे कर्मों की प्रबल भूमिका, आत्मा अपना विधाता मानते हैं। वस्तुतः कर्म हमारे विधाता | का वर्तमान का विपरीत पुरुषार्थ तथा कर्मबंध तथा कर्मफल नहीं, अपितु कर्मों के विधाता हम स्वयं हैं। हमारे सांसारिक | व्यवस्था की अज्ञानता है। यदि कर्मबंध के यथार्थ कारणों भटकाव में कर्मों की सीमाएँ हैं। यदि कर्म ही नियामक | का ज्ञान तथा आत्मशक्ति का सम्यक् भान हो जाये, तो होते, तो मुक्ति का मार्ग ही न निकलता। जैनदर्शन में | यह धारणा निर्मूल हो जायेगी कि कर्म हमारे विधाता नर से नारायण जीव स्वयं के पुरुषार्थ से बनता है।। हैं। इस जीव के संसारभ्रमण का कारण मूलतः इसके . प्रत्येक आत्मा में ऐसी सामर्थ्य है कि बाँधे हुए कर्मों | रागद्वेषपरिणाम हैं। हम पूजा में पढ़ते भी हैं किके फल देने की शक्ति आदि में परिवर्तन कर सकता | जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी। है। इस प्रक्रिया को जैनदर्शन के कर्मसिद्धान्त में अपकर्षण, | मैं रागद्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी॥ उत्कर्षण, संक्रमण, उदीरण आदि नामों से परिभाषित | यह मानना कि चेतन आत्मा को अचेतन कर्म किया गया है। कर्मबंध से प्रारम्भ कर उनसे मुक्ति अथवा | संसार-परिभ्रमण कराते हैं, मेरी अज्ञानता थी। अब समझ छुटकारे का पथ जैनागम के आलोक में उजागर करना पाया कि मेरे भटकाव का कारण राग-द्वेष के वशीभूत इस आलेख का मंगल मन्तव्य है।
परपदार्थों की ओर मेरा झुकाव है। मैं सदैव विपरीत कर्म और कर्मबंध- मन वाणी और शरीर की पुरुषार्थ करता रहा। आत्मा का स्वरूप जैसा है उसे वैसा प्रवृत्ति से कर्म आकृष्ट होते हैं। आगम की भाषा में | ही न जानना-मानना उस से भिन्न जानना-मानना ही इसे योग कहते हैं। चेतना की विकारी तंरगों को अथवा उसका विपरीत पुरुषार्थ है। मानसिक विकारों को कषाय कहते हैं। चेतना में राग | मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। द्वेष रूप प्रदूषण अज्ञान अवस्था में सदैव उत्पन्न होता | मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥ रहता है। इस प्रकार योग से कर्म आते रहते हैं और मिथ्या श्रद्धा के वश शरीर और उससे सम्बन्धित कषायों का सहयोग पाकर निरन्तर बँधते रहते हैं। देह | समस्त संसार को आत्मवत् जानकर अनेक कामनाओं है, तब तक बंध है। शुभभाव और शुभक्रिया होगी तो | को जन्म दिया और उनकी पूर्ति हेतु अनेक पाप, हिंसा, पुण्य बँधेगा, अशुभभाव और अशुभक्रिया होगी तो पाप | झूठ, चोरी, कुशील सेवन करता हुआ कर्मों की खेती बँधेगा। यह स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर है कि शुभ | करता रहा और अपने विपरीत परिणमन को जड़ कर्म बाँधना है कि अशुभ। कतिपय लोग कहने लगते हैं | के माथे मड़ता रहा। राग-द्वेष कर भावकर्म अर्जित किये कि बंधन तो बंधन है, चाहे पुण्यरूप हो अथवा पापरूप।। तथा मन-वचन-काय की क्रियाओं से द्रव्यकर्म का कोष
16 नवम्बर 2008 जिनभाषित
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