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________________ इत्याज्ञा सर्वविदा, सा परिपालिता भवतीति शेषः। --- वात्सल्यप्रभावना परेषामुपदेशकत्वे कृता भवति। --भक्तिश्च कृता भवति जिनवचने तदभ्यासात्।---श्रुतमपि रत्नत्रयनिरूपणे व्यापृतत्वात् तत्रस्थं भवति। ततोऽयं अर्थः-श्रुतस्य मोक्षमार्गस्य वा अव्युच्छित्तिरिति।" (विजयोदयाटीका/ भग.आरा./गा.११०)। अनुवाद-"अपने और दूसरों के उद्धार के उद्देश्य से जो स्वाध्याय में लगता है, वह अपने भी कर्मों का विनाश करता है और उसमें उपयुक्त दूसरों के भी कर्मों का। सर्वज्ञ की जो आज्ञा है कि कल्याण के इच्छुक जिनशासन के प्रेमी को नियम से धर्मोपदेश करना चाहिए, उसका भी पालन होता है। दूसरों को उपदेश करने पर वात्सल्य का प्रकाशन और प्रभावना होती है। जिनवचन के अभ्यास से जिनवचन में भक्ति प्रदर्शित होती है। दूसरों को उपदेश देने से मोक्षमार्ग अथवा श्रुतरूप तीर्थ का विच्छेद नहीं होता, तीर्थपरम्परा अक्षुण्ण रहती है। श्रुत भी रत्नत्रय का कथन करने के कारण तीर्थ है। अतः स्वाध्यायपूर्वक परोपदेश करने से श्रुत और मोक्षमार्ग सदा प्रवर्तित रहते हैं।" । ___इन गुणों के कारण स्वाध्यायतप सभी तपों में सर्वश्रेष्ठ है। रतनचन्द्र जैन कर्म मथानी में सपनों को मनोज जैन 'मधुर'. छोटी मोटी बातों में मत कट जाएगी रात, सबेरा धीरज खोयाकर निश्चित आयेगा अपने सुख की चाहत में मत जो जितनी मेहनत करता आँख भिगोया कर। फल उतना पाएगा काँटोंवाली डगर मिली है समय चुनोती देगा तुझको तुझे विरासत में आकर लड़ने की सुख की किरणें छिपी हुई हैं तभी मिलेंगी नई दिशायें तेरे आगत में आगे बढ़ने की देख यहाँ पर खाई पर्वत मन के धागे में आशा के सब हैं दर्दीले मोती पोया कर कदम कदम पर लोग मिलेंगे बीज वपन कर मन में साहस तुझको दर्दीले धीरज दृढता के कुण्ठओं का बोझ न अपने छट जाएँगे बादल मन से मन पर ढोयाकर संशय जड़ता के बेमानी की लाख दुहाई सब को सुख दे दुनिया आगे देंगे जगवाले पीछे घूमेगी। सुनने से पहले जड़ लेना मंजिल तेरे स्वयं चरण को कानों पर ताले आकर चूमेगी मुश्किल में दो चार मिलेंगे कर्म मथानी में सपनों को तुझको लाखों में रोज विलोयाकर तुझे दिखाई देगी करुणा उनकी आँखों में सी.एस.13, इन्दिरा कालोनी अपने दृग-जल से तू उनके बाग उमराव दूल्हा, भोपाल म.प्र. पग को धोयाकर 4 नवम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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