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________________ सज्झायभावणाए य भाविदा होंति सव्वगुत्तीओ। गुत्तीहिं भाविदाहिं य मरणे आराधओ होदि॥ १०९॥ अनुवाद-"स्वाध्याय करने से सभी गुप्तियाँ सिद्ध होती हैं। गुप्तियों के सिद्ध होने से जीव मरते समय रत्नत्रयरूप परिणामों की आराधना में तत्पर होता है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं "मनोवाक्कायव्यापारा: कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावर्तते स्वाध्याये सति, ततो भाविता गुप्तयः। कृताभिमतादियोगत्रयनिरोधश्च रत्नत्रय एव घटते इति सुखसाध्यता। अनन्तकालाभ्यस्ताशुभयोगत्रयस्य कर्मोदयसहायस्य व्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनैव क्षमा कर्तुमिति भावः।" (विजयोदयाटीका / भगवतीआराधना /गा.१०९)। अनुवाद-"मन-वचन-काय के व्यापार कर्मास्रव के हेतु हैं। स्वाध्याय करते समय इन सब का निरोध हो जाता है, जिससे गुप्तियाँ निष्पन्न होती हैं। तीनों योगों का निरोध करनेवाला मुनि रत्नत्रय में ही संलग्न होता है, इस प्रकार रत्नत्रय की सुखपूर्वक सिद्धि होती है। जिन तीन अशुभ योगों का जीव ने अनन्तकाल से अभ्यास कर रखा है और कर्म का उदय जिसका सहायक है, उससे छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन है। स्वाध्यायकि की क्रिया ही उससे छुटकारा दिलाने में समर्थ है।" निम्नलिखित गाथा में भी शिवार्य ने स्वाध्याय के गुणों पर प्रकाश डाला है सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू॥ १०३॥ भगवती-आराधना। अनुवाद-"जो मुनि विनय से युक्त होकर स्वाध्याय करता है, उसकी पाँचों इन्द्रियाँ विषयों से निवृत्त हो जाती हैं, तीनों गुप्तियाँ सधती हैं और मन एकाग्र हो जाता है।" टीकाकार अपराजित सूरि ने इस गाथा का अभिप्राय निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है"ज्ञानविनयेन समन्वितो भूत्वा यः स्वाध्यायं करोति 'तिगुत्तो य होदि' तिसृभिर्गुप्तिभिश्च भवति, शस्तरागाद्यनवलेपात. अनत-रूक्ष-परुष-कर्कशात्मस्तवन-परदषणादावव्यापतेः, हिंसादौ शरीरेणाप्रवृत्तेश्च---एकमुखान्तःकरणश्च भवति भिक्षुः स्वाध्याये रतः। एतदुक्तं भवति-ध्याने प्रवृत्तिमप्यासादयति। न ह्यकृतश्रतपरिचयस्य धर्मशक्लध्याने भवितुमर्हतः।" (विजयोदयाटीका/भग.आरा./गा. १०३)। अनुवाद-"जो साधु ज्ञानविनय से समान्वित होकर स्वाध्याय करता है, वह तीन गुप्तियों से युक्त हो जाता है, क्योंकि उस समय उसका मन अप्रशस्तरागादि-विकार से लिप्त नहीं होता, वह असत्य, रूक्ष, कठोर, कर्कश आदि वचन नहीं बोलता, आत्मप्रशंसा एवं परनिन्दा नहीं करता और शरीर से हिंसादि में प्रवृत्त नहीं होता। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय में रत भिक्ष का अन्त:करण एकमख (एकाग्र = एक विषय के चिन्तन में केन्द्रित) हो जाता है अर्थात् ध्यान में भी उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। जो श्रुत से परिचित नहीं हुआ है, उसको धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं होते।" शिवार्य भगवती-आराधना में आगे कहते हैं आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थयस्स॥ ११०॥ इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए अपराजित सूरि लिखते हैं "आत्मनः परस्य वा उद्धरणमुद्दिश्य व्यापृतः स्वाध्याये स्वकर्माण्यपि साधयति परेषामप्युपयुक्तानाम्। 'आणा' "श्रेयोऽर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्त्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः" (वरांगचरित / १ / १३) मनसोऽप्रश - नवम्बर 2008 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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