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________________ 2 सम्पादकीय बारह तपों में स्वध्याय सर्वश्रेष्ठ तप ईसा की प्रथम शताब्दी में रचित भगवती - आराधना में आचार्य शिवार्य ने कहा हैबारसविहम्मि य तवे सब्धंतर बाहिरे कुसल । ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं ॥ १०६ ॥ अनुवाद -' -" सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट बारह प्रकार के बाह्य और अम्यन्तर तपों में स्वध्याय के समान और कोई तप न है, न होगा । " इसकी व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं - "कालत्रयेऽपि स्वाध्यायसदृशस्यान्यस्य तपसोऽभावः कथ्यते । अत्र चोद्यते - स्वाध्यायोऽपि तपो, अनशनाद्यपि तपो बुद्धेरविशेषात् कर्मतपन-सामर्थ्यस्याविशेषात् । किमुच्यते स्वाध्यायसदृशं तपो नेति ? कर्मनिर्जराहेतुत्वातिशयापेक्षया सदृशमन्यत्तपो नैवास्तीत्यभिप्रायः ।” (विजयोदयाटीका / भगवती - आराधना / गा. १०६) । अनुवाद -' " उक्त गाथा में तीनों कालों में स्वाध्याय के समान अन्य तप का अभाव बतलाया गया है । यहाँ शंका उत्पन्न होती है- स्वाध्याय भी तप है और अनशनादि भी तप हैं। दोनों में कर्मों को तपाने की शक्ति समान है, तब ऐसा क्यों कहा गया कि स्वध्याय के समान कोई और तप नहीं है? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं- सर्वाधिक कर्मनिर्जरा करने की अपेक्षा ऐसा कहा गया है। अर्थात् जितनी कर्मनिर्जरा स्वाध्याय से होती है, उतनी अन्य तप से नहीं होती ।' " इस आशय की पुष्टि शिवार्य ने भगवती - आराधना की उत्तर गाथाओं से की है। उन गाथाओं में शिवार्य ने स्वाध्याय करनेवाले को ज्ञानी शब्द से और स्वाध्याय न करनेवाले को अज्ञानी शब्द से अभिहित किया है। इसीलिए टीकाकार अपराजितसूरि उन गाथाओं को निम्नलिखित प्रस्तावनावाक्य के साथ प्रस्तुत किया है “प्रतिज्ञामात्रेण स्वाध्यायस्यान्यतपोभ्योऽतिशयितता न सिद्ध्यतीति मन्यमानं प्रति अतिशयसाधनायाहजं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतो छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं अण्णाणियस्स तत्तो बहुगुणदरिया होज्ज दु जिमिदस्स णाणिस्स ॥ १०८ ॥ मुहुत्तेण ॥ १०७ ॥ जा सोही । अनुवाद - " जो मानता है कि कहने मात्र से यह सिद्ध नहीं होता कि स्वाध्याय अन्य तपों से श्रेष्ठ है अर्थात् अन्य तपों की अपेक्षा स्वाध्याय से अधिक निर्जरा होती है, उसे प्रमाण देने के लिए उत्तर गाथाएँ कहते हैं " - " अज्ञानी ( स्वध्याय न करनेवाला) मनुष्य जिस कर्म को लाख करोड़ भवों में नष्ट करता है, उसे त्रिगुप्तियुक्त ज्ञानी ( स्वाध्यायरत) मनुष्य अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है।" (१०७) । 44 'अज्ञानी ( स्वाध्याय - विमुख) मनुष्य में दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवासों से जितनी विशुद्धि होती है, उससे कई गुणी विशुद्धि ज्ञानी ( स्वाध्यायरत ) जीव में भोजन करने (उपवास न करने) पर भी होती है ।" (१०८) । शिवार्य ने स्वाध्याय के अन्य तपों से अधिक निर्जराकारक होने का हेतु यह बतलाया है कि उसमें त्रिगुप्ति भावित (सिद्ध) होती है नवम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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