SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिज्ञासा - समाधान प्रश्नकर्त्ता - पं० आशीष शास्त्री, शाहगढ़ । जिज्ञासा- क्या एक साथ दो संस्थानों का उदय सम्भव है? समाधान- वर्तमान में हम देखते हैं कि एक ही व्यक्ति बौना भी दिखाई देता है और कुबड़ा भी । उसको देखकर मन में विचार होना स्वाभाविक है कि इसके वामन एवं कुब्जक इन दोनों संस्थानों का उदय दिखाई देता है । परन्तु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-१, पृष्ठ- ३९० ( क्र. ४) पर दिए गये, नामकर्म-उदयस्थान- प्ररूपणाओं में इसप्रकार कहा गया है- तीन शरीर ( औदारिक वैक्रियिक तथा आहारक), ६ संस्थान, प्रत्येक साधारण इन तीन समूहों की ११ प्रकृतियों में से प्रत्येक समूह की कोई १ - १ करके युगपत् तीन का ही उदय होता है।' अर्थात् एक जीव के एक समय में एक ही संस्थान का उदय होता है, दो का नहीं। ऐसा नियम है। जिज्ञासा- पुराण कितने प्रकार के होते हैं? समाधान- उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में श्री धवला १ / ११३ में इसप्रकार कहा गया है “जिनेन्द्र भगवान् ने जगत् में १२ प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है। वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंशों का वर्णन करते हैं। पहला अरिहन्त (तीर्थंकरों) का, दूसरा चक्रवर्तियों का, तीसरा विद्याधरों का, चौथा नारायणप्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चारणों का ( चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों का) छठा श्रमणों का वंश है। सातवाँ कुरुवंश, आठवाँ हरिवंश, नवाँ इक्ष्वाकु वंश, दसवाँ काश्यप वंश, ग्यारहवाँ वादियों का वंश और बारहवाँ नाथवंश । " प्रश्नकर्त्ता - कु. चन्द्रिका जैन, सहारनपुर। जिज्ञासा - विस्रसोपचय क्या होता है ? समाधान- विस्रसोपचय के सम्बन्ध में श्री धवला पु. १४, पृ. ४३० पर इस प्रकार कहा है- “प्रश्नविस्रसोपचय किसकी संज्ञा है ? उत्तर- पाँच शरीरों के परमाणु पुद्गलों के मध्य जो पुद्गल स्निग्ध आदि गुणों के कारण उन पाँच शरीरों के पुद्गलों में लगे हुए हैं, उनकी विस्रसोपचय संज्ञा है । उन विस्रसोपचयों के सम्बन्ध का पाँच शरीर के परमाणु पुद्गल-गत स्निग्ध आदि गुणरूप जो कारण हैं, उसकी भी विस्रसोपचय संज्ञा है, क्योंकि यहाँ कारण में कार्य का उपचार किया है। Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा श्री जीवकाण्ड गाथा - २४९ में इसप्रकार कहा हैजीवादतगुणा पडिपरमाणुम्हि विस्ससोपचया । जीवेण य समवेदा एक्केक्कं पडि समाणा हु ॥ गाथार्थ - (कर्म और नोकर्म के) प्रत्येक परमाणु पर जीवराशि से अनन्तगुणे विस्रसोपचय हैं, वे जीव के साथ समवेत हैं। एक-एक के प्रति समान हैं ॥ २४९ ॥ भावार्थ- कर्म तथा नोकर्म के जितने परमाणु जीव के प्रदेशों के साथ बद्ध हैं, उनमें से एक-एक परमाणु पर जीवराशि से अनन्तानन्त गुणे विस्त्रसोपचय रूप परमाणु जीवप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही रूप से (अगले समयों में, कर्म और नोकर्म रूप परिणमन के उम्मीदवार स्वरूप) स्थित हैं । ये परमाणु, आत्मापरिणाम की अपेक्षा न रखते हुए, अपने स्वभाव से ही, मिलते हैं। वे अनन्तानन्त परमाणु विस्रसोपचय कहलाते हैं। ये कर्म व नोकर्म रूप से परिणमन किए बिना उनके साथ स्निग्ध व रूक्ष गुण के द्वारा एक स्कन्ध रूप होकर रहते हैं । इन परमाणुओं के समूह को विस्त्रसोपचय कहा जाता है। जिस प्रदेश पर जो जीव स्थित है, वहाँ स्थित जो पुद्गल हैं, वे ही मिथ्यात्व आदि कारणों से, आत्मा के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं । जिज्ञासा- तीनों लोकों में स्थित समस्त परमाणु स्कन्ध बन चुके हैं, या कुछ परमाणु ऐसे भी हैं, जो आज तक स्कन्ध नहीं बने हैं ? समाधान- पुद्गल की स्वभावद्रव्यपर्याय परमाणु रूप है। श्री राजवार्तिक अध्याय - ५, सूत्र २५ की टीका में इसप्रकार कहा गया है- 'न चानादि परमाणुर्नाम कश्चिदस्ति ।' अर्थ- अनादिकाल से अब तक परमाणु की अवस्था में ही रहनेवाला कोई अणु नहीं है । इस प्रमाण से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी शुद्ध पुद्गल परमाणु नहीं है, जो अनादि से शुद्ध ही हो और आगे भी अनन्त काल तक शुद्ध रहेगा । परन्तु श्लोकवार्तिक के भाषा टीकाकार पं० माणिकचन्द्र जी कौन्देय न्यायाचार्य का मत इससे भिन्न है। उन्होंने तत्त्वार्थ- श्लोकवार्तिक भाग - २, पृ. १७३ पर भाषाटीका में इसप्रकार कहा है- 'अनन्तानन्त परमाणु ऐसे हैं, जो अभी तक स्कन्ध अवस्था में प्राप्त नहीं हुए हैं, वे अनादि से परमाणु रूप हैं।' For Private & Personal Use Only नवम्बर 2008 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy