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नहीं है, आस्था नहीं है। मिट्टी के कण-कण में जीव । इलाज है कि स्व-आत्मतत्त्व को पहचानें। इसके लिए हैं, पर उन्हें देखने के लिए आस्था की आवश्यकता | भले ही सन्त नहीं बन सको, तो सन्तोषी अवश्य बनो।
सन्तोषी बनने के बाद अधिक उपासना की आवश्यकता __आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' महाकाव्य (पृ. ३५२) | नहीं रहती। की इन पंक्तियों के माध्यम से कहा, "संत-समागम की आपने बताया कि सही तत्त्व वही है, जो विक्षेप यही तो सार्थकता है। संसार का अन्त दिखने लगता है। से दूर रहता है। विक्षेप से युक्त तत्त्व भ्रान्तियुक्त रहता समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या है। अत: जीवन की वास्तविकता समझो और सही प्रवासी न बने / इसमें कोई नियम नहीं हैं। किन्तु वह सन्तोषी | बनो। निवासी या आवासी मत बनो। आपका परिचय बनता है।" इन पंक्तियों को सुन-समझकर व्यक्ति सन्त | कोई दूसरा दे या आप किसी का परिचय दें, यह ठीक बने या न बने, सन्तोषी जरूर बन जाएगा। जिससे भगवान् | नहीं है। स्वयं का प्रवचन स्वयं के लिए दें कि मैं यहाँ बना जा सकता है वह कौन सा तत्त्व है, यह जानने | से आया हूँ और यहाँ जाऊँगा। अकेला ही आया था भर की देर है, पर इसके लिए इशारा भी काफी है, और अकेला ही जाना है, पर बीच में क्या-क्या किया अन्यथा सारा का सारा भी कम पड़ सकता/जाता है। यह भूल जाते हैं।
शरीर और आत्मा के भेद को स्पष्ट करते हुए | घड़े का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि आचार्यश्री ने कहा कि भले ही शरीर का परिचय उम्र | मूकमाटी से बना कुम्भ कहता है कि "आग की नदी से हो सकता है, पर आत्मा का नहीं। आत्मा की तो को पार करके आया हूँ / अब कौन सी परीक्षा लेना कोई उम्र नहीं होती। 'एज' और 'इमेज' से रहित यह | चाहते हो।" प्रवासी हो, यात्रा के दौरान नदी पार करना आत्मतत्त्व है, जिसकी कोई न 'ड्रेस' है, न 'एड्रेस' है, तो घड़े का सहारा लो। वह तुम्हें डूबने नहीं देगा। है। आज जड तत्त्व से पूरा संसार प्रभावित है। इस लेकिन ध्यान रहे कि घडा खाली रहे. नहीं तो डब कारण पैसे का महत्त्व इतना बढ़ रहा है कि शेष सब | जाओगे। ज्ञानी वह घड़ा है जो यह नदी पार करा सकता असहाय नजर आ रहे, लेकिन आत्मतत्त्व को जाननेवाला | है, पर वह यदि खाली हो तो, अन्यथा यदि वह जड़त्त्व सन्तुष्ट हो जाता है। उसे संसार के किसी विकार से | से भरा है, तो अपने साथ शिष्य को भी ले डूबेगा। भय नहीं रहता। सन्तों के जीवन में ऐसा ही कुछ होता अन्त में प्रवचन के सारांशभत एक 'हाइक' प्रस्तुत करते है। उनका समागम पाकर सही पुरुषार्थ करने का प्रयत्न | हए उन्होंने कहा, 'खाल मिली थी/यही मिट्टी में मिली/ करना चाहिए।
खाली जाता हूँ।' समाज में बढ़ती भोग-विलासिता पर चिंता व्यक्त मूकमाटी-मीमांसा (तीन खण्ड), संपादक- डॉ. करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि भोग-विलासिताओं को प्रभाकर माचवे एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, प्रकाशकहम अच्छा कहते हैं, किन्तु अच्छा तो वह है, जो इन्हें | भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इन्स्टीट्युशनल एरिया, लोदी रोड, छोड़कर एकान्त पसन्द करता है। इसके लिए पूरी तरह | नई दिल्ली-३, मूल्य ४५०/-, प्रत्येक खण्ड, तीनों खण्ड 'मूकमाटी' पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। बहुत आसान | ११००/- पृष्ठ ६३७ प्रत्येक खण्ड में।
रामटेक (नागपुर, महाराष्ट्र) से प्राप्त
स्वभाव एक बार आचार्य महाराज जी ने बताया कि पाठ करते समय मात्र पाठ (शब्दों) की ओर दृष्टि जाने पर लीनता नहीं आती है, बल्कि लीनता तो अर्थ की ओर जाने पर आती है। शिष्य ने कहा- लेकिन आचार्यश्री अर्थ की ओर चले जाते हैं, तो पाठ भूल जाते हैं। आचार्यश्री ने कहा- भूलना तो स्वभाव है। "जैसे ज्ञान आत्मा का स्वभाव है वैसे ही भूलना मनुष्य का स्वभाव है।" मनुष्य तो भूल का पुतला है। दूसरे शिष्य ने कहा- भूलता तो पागल है। आचार्यश्री बोले- यह भी एक भूल है, दूसरे को पागल कहना। भूल तो मात्र भगवान् से नहीं होती, बाकी सभी से होती है। अन्त में उन्होंने कहा- अनावश्यक को भूलना सीखो तो आवश्यक स्मरण में रहेगा। मनोरंजन में नहीं. आत्मरंजन में रहना सीखो।
मुनिश्री कुंथुसागरकृत 'संस्मरण' से साभार 28 नवम्बर 2008 जिनभाषित -
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