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रहता है। जो लोग छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ | निर्दोष नहीं हो पाती है। अतः समता, साम्यभाव की . बनाने जैसी मानसिकता रखते हैं वे न केवल दूसरों का | प्राप्ति के लिये कायोत्सर्ग करना प्रतिदिन मानसिक दोषों
समय बरबाद करते हैं, बल्कि अपने आपको भी कष्ट | का अतिसार करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। में बनाये रखते हैं। सही मायने में भावसहित प्रतिक्रमण | छठवाँसूत्र-सामायिक,अन्तः प्रज्ञा की परिचायककरना, मन को विशुद्ध, तरोताजा बनाने का सही | हे भगवन्! मेरे साथ अच्छा या बुरा जो भी होना था आध्यात्मिक तरीका है। पुरानी बातों को मन में रखे | वह अच्छा हआ। वह नियति थी। वह कर्म का और रहना और उस विद्वेष के ज़हर को समय पर न उगलने मात्र हमारे ही किये कर्म का फल है। मैं तैयार हँ आगामी की आदत Nurvous break down जैसे रोगों को जन्म | समय में भी उन कर्मों का फल भोगने को। जाग्रत रहकर देती है। दिल के तमाम रोगों पर रोक लगाने के लिये | | सुख और दुःख को हर्ष-विषाद रहित होकर मुझे अनुभव यह प्रतिक्रमण ही श्रेष्ठ तरीका है।
करना है। देह को छोड़कर मुझे किसी का संवेदन नहीं ___पंचम सूत्र-कायोत्सर्ग यानी दूर है उपसर्ग- इसमें | है। देह रोगसहित है, तो भी मुझे पीड़ा से विचलित काय को छोड़कर मात्र श्वासोच्छ्वास पर मन को टिकाना | | नहीं कर सकती है। प्रत्येक कर्म का फल भोगने की होता है। श्वास हमारा सूक्ष्म प्राण है। जिस समय श्वास | | स्वीकृति ही सहज सामायिक है। आचार्य श्री गुणभद्र के आवागमन पर ध्यान दिया जाता है उस समय हम | जी कहते हैं कि रोग को दूर होने का कोई उपाय हो, प्राणमय हो जाते हैं। प्राण एक शक्ति है, जिससे हमारा | तो कर लो और कोई उपाय न बचा हो, तो समताजीवन संचालित होता है। सही मायने में जीवन का आनन्द | अनुद्वेग ही अन्तिम उपाय है। मैं इस उपाय को सहर्ष इसी प्रक्रिया में है। वे क्षण ही हमने जिये हैं, जो हमने | स्वीकार करता हूँ। नश्वर देह में रहकर भी अविनश्वर प्राणों के साथ जिये हैं। कायोत्सर्ग में प्राण-ऊर्जा का | आत्मा का संवेदन, उसकी प्राप्ति की लगन और अनुभव संचार शरीर के एक-एक अंग-उपांग के अन्तरङ्ग हिस्से | का आत्मिक आनन्द इस सामायिक में है। इसी प्रक्रिया तक होता है। मन एक नयी ऊर्जा से भर जाता है। | की पराकाष्ठा, ध्यान और समाधि है। योगासन में शवासन इसी कायोत्सर्ग का रूप है। महा इस प्रकार ये छह आवश्यक वर्तमान परिप्रेक्ष्य प्राणशक्ति को दीर्घ आयाम के साथ सूक्ष्म अति सूक्ष्म | में श्रमण या श्रावक के शारीरिक और मानसिक विकास बनानेवाला योगी इसी कायोत्सर्ग की प्रक्रिया से गुजरता | के लिये नितान्त आवश्यक हैं। मात्र शारीरिक स्वास्थ्य है। यह प्राणायाम का एक अंग है। प्रत्येक श्रमण, मुनि | ही सब कुछ नहीं होता है, जिसकी प्राप्ति के लिये आज के लिये दिन-रात में प्रत्येक आवश्यक क्रिया से पूर्व | का युग हर संभव प्रयत्न कर रहा है। शरीर को संचालित
और पश्चात् कायोत्सर्ग नियामक है। प्रमादवश कहें या | करनेवाले शाश्वत तत्त्व आत्मा की ओर केन्द्रित करनेस्थिरता के अभाव के कारण कहें, इस प्रक्रिया का स्थान | वाली यह षड्-आवश्यकों की प्रक्रिया बहु आयामी है। बहुतायत में अब नव बार णमोकार मंत्र पढ़ने मात्र से | इस प्रक्रिया से चलनेवालों को शरीर और मन-वचन पूरा हो जाता है। इस क्रिया ने कायोत्सर्ग का महत्त्व | की स्वस्थता स्वतः प्राप्त होगी। अतः सभी चिन्ता, तनाव, कम कर दिया है। श्रमण या श्रावक यदि नौ बार णमोकार | दैहिक रोग और अस्थिरता के निवारण के लिये ये मंत्र को श्वासोच्छ्वास के आयाम के साथ पूर्ण करते | षडावश्यक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से बहुत महत्त्व के हैं या मात्र श्वासोच्छ्वास के साथ, तभी वे सही कायोत्सर्ग | है। आत्मशान्ति प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य होना चाहिये, का फल प्राप्त कर सकते हैं। आगम में इस कायोत्सर्ग | जो इच्छाओं पर विजय प्राप्त करके स्वयं में स्वयं के के बत्तीस दोषों का वर्णन है, जिनकी तरफ ध्यान श्रावक द्वारा ही प्राप्त होती है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैंतो दर, श्रमण भी नहीं रखते हैं। इस कायोत्सर्ग की 'स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः' अर्थात अपने दोषों के कमी से ही आगे आनेवाली आत्मिक प्रक्रिया, सामायिक, । दूर होने से ही आत्मशान्ति प्राप्त होती है।
कलम शिखर तक पहुँचाती है, तीर्थों तक पहुँचाती है। कलम सत्य का धर्म पालती, ईश्वर तक पहुँचाती है।
योगेन्द्र दिवकर, सतना म.प्र.
नवम्बर 2008 जिनभाषित 7
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