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________________ अपने-अपने मत के अनुसार ईश्वर को विभिन्न रूप। का त्याग करना कार्यकारी नहीं है। सम्पूर्ण परिग्रह का से मानते हैं, उन सबके मत का सर्वदा निराकरण हो | त्यागी ही मुक्त अवस्था को पा सकता है। जब दर्शनमोहनीय जाता है जैसे का तथा चारित्रमोह की अनन्तानबंधी चौकडी का सर्वथा १. सदाशिव मत के अनुयायी जीव को सदा कर्म | क्षय हो जाता है, तब क्षायिक ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट होता से रहित ही मानते हैं। उसके निराकरण के लिए उनसे | है। वही क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके कहा गया कि आठ कर्मों से रहित होने पर जीव सिद्ध | घातिया कर्मों को नाशकर केवलज्ञानी बनते हैं तथा अवस्था को प्राप्त होता है। अघातियाँ कर्मों को भी ध्यान की अग्नि में भस्म करके २. सांख्यमत में बन्ध, मोक्ष, सुख, दुख आदि | कंचन समान बन जाते हैं। जैसे स्फटिक मणि जहाँ से प्रकृति को होते हैं, आत्मा को नहीं-इसके निराकरण भी देखो वहीं से ही निर्मल, स्वच्छ, सुन्दर है इसी प्रकार को 'अनन्तसुख' स्वरूप विशेषण दिया है। | से सिद्धों का आत्मस्वरूप निष्कलंक होता है। प्रवचनसार ३. एक अन्य मत मुक्त जीव को लौटना मानता में भी क्षायिक अतीन्द्रिय ज्ञान की महिमा का कथन है। उसको दूषित करने के लिए निरंजन अर्थात् भावकों से रहित बताया, क्योंकि नवीन कर्मबन्ध न होने से संसार | अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं। में सिद्धात्मा का आगमन नहीं है। पलयं गयं च जाणादि तं णाणमदिंदियं भणियं ॥ ४१ ॥ ४. बौद्धों का मत है कि सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक | जो ज्ञान प्रदेशरहित परमाणु वगैरह को, प्रदेश सहित हैं। इस सिद्धान्त को दूषित करने के लिए कहा कि जीवादि द्रव्यों को, मूर्त और अमूर्त पदार्थों को तथा उनकी ईश्वर (सिद्ध) नित्य हैं, शाश्वत हैं, विनाश को प्राप्त | आगे होनेवाली और नष्ट हुई पर्यायों को जानता है उस नहीं होते हैं। ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहा है। उस ज्ञान की महिमा ५. नैयायिक तथा वैशेषिक मुक्त अवस्था में बुद्धि | का वर्णन नहीं हो सकता। पंडित द्यानतरायजी सिद्धपूजा आदि गुणों का विनाश मानते हैं, उनको समझाते हुए | में लिखते हैं "यमराज की चोट बचायक हो, अर्थात् आ. देव कहते हैं कि सिद्ध ज्ञानादि आठ गुणों से सहित | छद्मस्थों से नहीं जीतनेवाले काल (मृत्यु) को भी आपने हैं और ये गुण कभी अभाव को प्राप्त नहीं होते हैं। | जीत लिया। जब जन्म ही नहीं तो मृत्यु कहाँ से होगी। जो ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं, रचना | "तुम ध्येय महामुनि ध्यायक हो" अर्थात् हे सिद्ध परमेष्ठी करनेवाले मानते हैं उनसे कहा गया है कि ईश्वर तो भगवान्! आप ध्येय हैं, केन्द्र हैं, ध्रुव हैं, विषय हैं, कृतकृत्य अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, उन्हें कोई भी | इस कारण तपस्वी महामुनि सन्त आप का ध्यान करते कार्य करना शेष नहीं रहा है। हैं। 'जगजीवन के मन भायक हो' संसारी प्राणी जब ६. एक और मत है जिसके अनुसार-मुक्त जीव | दुखी होता है तब आपकी ही पुकार करता है। आपका हमेशा ऊपर ही गमन करता जाता है कभी जीव ठहरता | नाम स्मरण करने से ही असाता का रस सूखकर सातारूप ही नहीं। उन्हें भी गुरु बताते हैं कि जहाँ तक धर्मद्रव्य परिणत हो जाता है। प्रभु आप सबके मनभावन हो। का अस्तित्व है अर्थात् लोकाग्र तक ही जाते हैं, आगे | 'जय रिद्धि सुसिद्धि बढ़ायक हो' आप सुखकारक गमन नहीं करते हैं, वहीं स्थित हो जाते हैं। इस प्रकार आत्मकल्याणक, भव्यों को मनवांछित सामग्री देनेवाले नीति एवं न्याय से अविरोध सिद्धों का स्वरूप बताया | हैं। सिद्ध-परमेष्ठी इतने पवित्र हैं कि उनके नामस्मरण गया है। मात्र से ही जन्मजन्मान्तर के पापकर्म तड़ातड़ टूट जाते भावप्राभृत में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि- है। एक जीव जिस भूमि से मुक्त होता है उस भूमि भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण। | के दर्शन से ही इतना सातिशय पुण्यबंध होता है कि इय भाविऊण उज्झसुगंधं अब्भंतरं धीरं॥(गा.४३)| उसका वर्णन नहीं कर सकते। कवि ने कहा है जो रागादि भावों से मुक्त है वही मुक्त है। किन्तु | कागज सब धरती करूँ, लेखनी सब बनराय। जो बन्धु बान्धव आदि से मुक्त है वह मुक्त नहीं है। सात समुद्र की मसि करूँ भु गुण लिखा न जाय॥ अर्थात् अभ्यन्तर परिग्रह के होते हुए मात्र बाह्य परिग्रह । सारी पृथ्वी का कागज बनाओ, सारे वृक्षों की 12 नवम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524333
Book TitleJinabhashita 2008 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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