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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2534
श्री महावीर स्वामी दि. जैन मन्दिर टिपटा, कोटा (राज.) में विराजमान भगवान् आदिनाथ की 800 वर्ष प्राचीन प्रतिमा
वैशाख, वि.सं. 2065
मई, 2008
www.fibordi5.org
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सत्य पर आक्रमण
महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी
मूकमाटी महाकाव्य की निम्नलिखित काव्यपंक्तियाँ विषयवासनाओं में लिप्त होने के दुष्परिणाम एवं उनके दमन के सुपरिणाम की अत्यन्त प्रभावशाली व्यंजना करती हैं।
सम्पादक
लोकख्याति तो यही है कि कामदेव का आयुध फूल होता है और महादेव का आयुध शूल। एक में पराग है सघन राग है जिसका फल संसार है
एक में विराग है अनघ त्याग है
जिसका फल भव-पार है। एक औरों का दम लेता है बदले में मद भर देता है, एक औरों में दम भर देता है तत्काल फिर निर्मद कर देता है।
दम सुख है, सुख का स्रोत मद दुःख है, सुख की मौत! तथापि यह कैसी विडम्बना है कि सब के मुख से फूलों की ही प्रशंसा होती है और शूलों की हिंसा! क्या यह
सत्य पर आक्रमण नहीं है? 'मूकमाटी' महाकाव्य (पृष्ठ 101-102) से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
मई 2008
वर्ष 7,
अङ्क5
मासिक जिनभाषित
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
पृष्ठ
काव्य : सत्य पर आक्रमण
आ.पृ.2
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
आ.पृ. 3
: आचार्य श्री विद्यासागर जी - मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ . सम्पादकीय : स्थापना के तीन साबुत चावल . प्रवचन
• ब्रह्मचर्य चेतन का भोग : आचार्य श्री विद्यासागर जी .लेख • मधु (शहद) भी मांसवत् अभक्ष्य ही है
: पं० अनन्तवल्ले शास्त्री • धर्ममाता चिरौंजाबाई जी का समाधिमरण
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत -प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
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क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी
(मे. आर.के.मार्बल)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282 002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428,2852278
• संसार-परिभ्रमण का कारण : शल्यत्रय
17 : आर्यिका श्री सशीलमती जी • साहू श्री नेमिचन्द्र पं० कुन्दनलाल जैन 20 • साधर्मी-विवाह-सम्बन्ध आगमोक्त
: डॉ० राजेन्द्रकुमार बंसल • सभी मंदिरों एवं तीर्थक्षेत्रों के ट्रस्टियों से विनम्र निवेदन : प्रा. सौ. लीलावती जैन
श्री सेवायतन : विमलकुमार सेठी • बिस्किट और दिग्भ्रमित ग्राहक
: अनुवादिका : सौ. लीलावती जैन .जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा समाचार
12, 27,31, 32
सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक
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लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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सम्पादकीय
स्थापना के तीन साबुत चावल
एक मन्दिर में मैं पूजा करने के लिए पहुँचा। वहाँ पहले से ही एक पन्द्रह-सोलह साल का लड़का पूजा कर रहा था। वह उस मन्दिर के पुजारी का बेटा था और पुजारी की अनुपस्थिति में प्रायः वही पूजा करने के लिए आया करता था। पढ़ाई-लिखाई में कमजोर होने के कारण उसने पाँचवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था। वह हथेली में पीताक्षत रखकर उनमें से तीन-तीन साबुत चावल चुनकर ठोने पर चढ़ाते हुए आवाहन, स्थापन, सान्निधीकरण कर रहा था। मैंने जब पूजा प्रारंभ की तब तीन-तीन साबुत चावल न चुनकर बहुत से चावल उठा-उठा कर ठोने पर चढ़ाते हुए आवाहन आदि करने लगा। तब उस पुजारी-पुत्र ने मुझे टोका और कहा कि आपको स्थापना करना भी नहीं आता। इतने सारे टूटे-फूटे चावलों में स्थापना नहीं की जाती। तीन-तीन साबुत चावल चुन-चुन कर ठोने पर स्थापित करना चाहिए। मैंने उससे पूछा-"ऐसा किस शास्त्र में लिखा है?". वह शास्त्र का नाम नहीं बतला सका, पर बोलासब लोग ऐसा ही करते हैं।
इतने में एक ब्रह्मचारी जी मंदिर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने मेरा प्रश्न सुन लिया था। पुजारी-पुत्र से किये गये प्रश्न का उत्तर देते हुए वे बोले-"सब चीजें शास्त्रों में नहीं मिलती। परम्परा भी कोई चीज होती है। ठोने पर चढाये गये चावल भगवान के प्रतीक होते हैं। वे भगवान की अतदाकार प्रतिमा हैं। भगवान् की अखण्ड प्रतिमा ही पूजनीय होती है, इसलिए चावल भी अखण्ड होने चाहिए। इसी कारण अखण्ड चावल चुन-चुन कर ठोने पर स्थापित किये जाते हैं। और चावलों की तीन संख्या रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र) का प्रतीक है, जिसकी साधना से आत्मा भगवान्-पद को प्राप्त होती है।"
मैंने उनसे प्रश्न किया-"जब पंचकल्याणक-विधि द्वारा शास्त्रोक्त-पद्धति से प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा सामने वेदी पर विराजमान है, तब चावलों में भगवान् की स्थापना करने की क्या आवश्यकता है? तथा जयधवला में कहा गया है
"अणंतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो।" (जयधवला/कसायपाहुड/ भाग १/गाथा १/अनुच्छेद ८७/पृ.१०२)। ___अनुवाद-"अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुखादि की अपेक्षा अनन्त जिन एकत्व को प्राप्त होते हैं, अत: एक जिन या जिनालय की वन्दना से सभी जिनों या जिनालयों की वन्दना हो जाती है।"
इसलिए जिन तीर्थंकरों की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ वेदी पर उपलब्ध नहीं हैं, उनकी पूजा भी उसी प्रतिमा के आश्रय से की जा सकती है, जो वेदी पर प्रतिष्ठित है, भले ही वह किसी भी तीर्थंकर की हो। अतः उनकी पूजा के लिए भी चावल आदि में उनकी स्थापना आवश्यक नहीं है। तब वह क्यों की जाती है?"
ब्रह्मचारी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। मैंने उन्हें आगे बतलाया कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में आचार्यों ने अतदाकार स्थापना (चावल आदि पदार्थों में भगवान् की स्थापना) का निषेध किया है। इसका सप्रमाण निरूपण वर्तमानयुग के आर्षमार्गी विद्वान् एवं अत्यन्त प्रामाणिक प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' के प्रतिष्ठाचार्य पुत्र एवं शिष्य ब्रह्मचारी जयकुमार जी 'निशान्त' ने पुष्पाञ्जलि (प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र 'पुष्प' अभिनन्दन ग्रन्थ) में किया है। वे लिखते हैं-"पुष्पों (पीताक्षतों) में भगवान् की स्थापना करने का निषेध अवश्य मिलता है
हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होदि कादव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो॥ ३८५॥
वसुनन्दि-श्रावकचार
2 मई 2008 जिनभाषित
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अर्थात् हुण्डावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव (अतदाकार) स्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है।" ('पुष्पाञ्जलि'/ खण्ड २/पृ. ८४)।
उक्त गाथा का अभिप्राय पं० सदासुखदास जी ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है-"इस काल में अन्यमतीनि (अन्यमतवालों) की अनेक स्थापना हो गयीं। तातें इस काल में तदाकार स्थापना की ही मुख्यता है। जो अतदाकार स्थापना की प्रधानता हो जाय, तो चाहे जी ही में या अन्यमतीनि की प्रतिमा में हू, अरहन्त की स्थापना का संकल्प करने लगि जायँ, तो मार्गभ्रष्ट हो जायँ।" (रत्नकरण्डश्रावकाचार /टीका/कारिका ११९)।
पं० सदासुखदास जी इसके पूर्व लिखते हैं-"बहुरि जो स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नांही करें, तो स्तवन-वंदना करने की योग्यता हू प्रतिमा के नाहीं रही। बहुरि जो पीततन्दुलनि की अतदाकार स्थापना ही पूज्य है, तो तिन पक्षपातिनि के धातु-पाषाण का तदाकार प्रतिबिम्ब स्थापन करना निरर्थक है तथा अकृत्रिम चैत्यालय के प्रतिबिम्ब अनादि-निधन स्थापन हैं, तिनमें हू पूज्यपना नाहीं रहा।" (र.क.श्रा./टीका / कारिका ११९)। . प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' तीन-तीन पुष्प गिनकर ठोने पर चढ़ाने को न केवल अनावश्यक
हैं, अपितु आहावन-स्थापन में बाधक भी मानते हैं। उनके विचारों को रखते हुए उनके पुत्र एवं शिष्य प्रतिष्ठाचार्य 'निशान्त' जी लिखते हैं
"आहावन, स्थापन एवं सन्निधीकरण में क्रमशः तीन-तीन पुष्प चढ़ाने का प्रयास करते-करते यह महत्त्वपूर्ण क्रिया पूर्ण करते हैं और अखण्ड पीले चावल सम्हारने-चढ़ाने में ही भगवान् के आवाहन, स्थापन एवं सन्निधीकरण का भाव चूक जाता है। उनसे निकटता प्राप्त करने का अवसर हाथ से निकल जाता है। हम उनके प्रति समर्पित होने का भाव जागृत ही नहीं कर पाते हैं और क्रिया पूर्ण हो जाती है।" (पुष्पाञ्जलि/खण्ड २/पृष्ठ ८४)।
'निशान्त' जी आगे लिखते हैं-"इसके बाद (आवाहन, स्थापना और सन्निधीकरण के पश्चात्) पूजा करने का संकल्प इस भावना के साथ करें कि हे भगवन्! जो विशुद्धि, कषायों की मन्दता एवं परिणामों की निर्मलता आपके सान्निध्य में हुई है, वह मेरे जीवन में बनी रहे। तत्पश्चात् ठोने पर संकल्पपुष्प क्षेपण करें। यहाँ किसी प्रकार की गिनती के व्यवधान में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि हम भगवान् की पूजा का संकल्प करके संकल्पपुष्प ठोने पर क्षेपण कर रहे हैं, भगवान् को नहीं (भगवान् को स्थापित नहीं कर रहे हैं)।" (पुष्पाञ्जलि / खण्ड २ / पृष्ठ ८६)।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि ठोने पर जो पुष्प चढ़ाये जाते हैं, उनमें भगवान् की स्थापना नहीं की जाती, बल्कि वे भगवान् की पूजा का संकल्प किये जाने के प्रतीक होते हैं। अत: गिन-गिन करके तीन एवं साबुत पुष्प (पीताक्षत) चढ़ाने की परम्परा शास्त्रसम्मत नहीं है।
ठोने पर चढ़ाये जानेवाले पुष्पों को भगवान् की प्रतिमा का प्रतीक मान लेने के कारण यह भी देखा जाता है कि विसर्जन के बाद उन पुष्पों (पीताक्षतों) को जल से धोकर जल को प्रतिमा के अभिषेकजल के समान मानते हुए गन्धोदक की तरह मस्तक पर चढ़ाया जाता है। कहीं-कहीं उन पुष्पों को अग्नि में जला दिया जाता है। इन प्रथाओं को भी श्रद्धेय पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' के विचारों को अभिव्यक्ति देनेवाले प्रतिष्ठाचार्य पं० 'निशान्त' जी ने आगमविरुद्ध बतलाया है। वे लिखते हैं
"पूजा समाप्ति पर पूजनकार्य का विसर्जन (समापन) भी पुष्पों के द्वारा ठोने पर किया जाता है। --- यहाँ भी पुष्पों की गिनती का कोई प्रमाण शास्त्रों में नहीं मिला है, अतः जितने पुष्प हाथ में आ जावें, उन्हें निम्न पद पढ़कर ठोने पर क्षेपण करना चाहिए
श्रद्धा से आराध्यपद पूजे शक्ति प्रमाण। पूजा-विसर्जन मैं करूँ, होय सतत कल्याण॥
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तत्पश्चात् ठोने के संकल्पपुष्पों को निर्माल्य की थाली में ही डाल देना चाहिए।" (पुष्पांजलि / खण्ड २ / पृष्ठ ८९ ) ।
उपर्युक्त बात पर जोर देते हुए 'निशान्त' जी पुनः लिखते हैं-" संकल्प के पुष्पों को भी निर्माल्य की थाली में क्षेपण कर दें। उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए।" (पुष्पांजलि / खण्ड २ / पृ. ९० ) ।
और चूँकि आवाहन आदि के समय ठोने पर चढ़ाये गये पुष्पों (पीले चावलों) में भगवान् की स्थापना नहीं की जाती, बल्कि वे पूजा करने के संकल्पपुष्प होते हैं, अतः उन्हें धोकर उस जल को अभिषेकजल के समान मस्तक पर चढ़ाना या आँखों में लगाना भी आगमविरुद्ध है। फलस्वरूप विसर्जन के बाद उनका निर्माल्य की थाली में क्षेपणा करना ही आगमसम्मत है।
जैन शास्त्रों में, जैन मात्र को अष्ट मूलगुण धारण करना अति आवश्यक कहा गया है। आ. अमृतचन्द्र ने तो पाँच उदम्बर फल तथा तीन मकार (मद्य, मांस एवं मधु) के त्यागी को ही जैनशास्त्र सुनने का अधिकारी कहा है। परन्तु वर्तमान में कुछ साधर्मी भाई स्वास्थ्यलाभ के लिये मधु लेने लगे हैं। वे मधु निर्मित दवाओं से भी परहेज नहीं करते। उनका कहना है कि आजकल मधु शुद्ध तरीकों से बनने लगा है। उनका यह कथन बिलकुल भ्रामक है। मधु तो मधुमक्खी की उगाल (वमन) है। इसको किसी भी तरह शुद्ध नहीं कहा जा सकता। इसकी एक बूँद में भी अनंत जीवों का घात होता है। अतः मधु को मांसवत् मानते हुये कभी प्रयोग नहीं करना चाहिये ।
मधु (शहद) भी मांसवत् अभक्ष्य ही है
जैन शास्त्रों में तो मधु को अभक्ष्य कहा ही है, परन्तु वैदिकग्रंथों में भी इसे सर्वथा अभक्ष्य कहा है। वैदिक ग्रंथों के कुछ प्रमाण इस प्रकार हैंसप्तग्रामेषु दग्धेषु यत्पापं जायते नृणाम् । तत्पापं जायते तेषां मधुबिन्द्वेककभक्षणात् ॥
(महाभारत)
सात गाँव के जलाने में जितना पाप, किसी मनुष्य को होता है, उतना ही पाप, शहद की एक बूँद के खाने से होता है ।
जीवाण्डैर्मधु संभूतं म्लेच्छोच्छिष्टं न संशयः । वर्जनीयं सदा श्रेष्ठैः परलोकाभिकांक्षिभिः ॥ (आरण्यक - पुराण)
4 मई 2008 जिनभाषित
रतनचन्द्र जैन
संकलन : पं० अनन्तवल्ले शास्त्री जो मक्खियाँ अण्डे देती हैं, उनसे ही शहद बनता है। शहद म्लेच्छों की जूठन है, इसमें सन्देह नहीं हैं। इसलिए श्रेष्ठ उत्तम पुरुषों को जो परलोक में सुख चाहते हैं, सदैव शहद छोड़ना चाहिए, अर्थात् कभी न खाना चाहिए।
मद्ये मांसे मधूनि च नवनीते तक्रतो बहिः । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते तद्वर्णास्तत्र जन्तवः ॥ (नागपुराण) मदिरा, मांस शहद और छाछ (मठा) से बाहर निकलते ही नवनीत ( लूनिया घी) में उसी वर्ण (रंग) के जीव जन्तु पैदा होते रहते और मरते रहते हैं । सप्तग्रामेषु यत्पापमग्निना भस्मसात्कृतम्। तत्पापं जायते जन्तोर्मधुबिन्द्वेकभक्षणात् ॥
(मनुस्मृति) सात गाँवों को आग लगाकर जला देने में जो पाप होता है, उतना पाप शहद की एक बूँद खाने से लग जाता है।
यो ददाति मधु श्राद्धे मोहितो धर्मलिप्सया । स याति नरकं घोरं खादकैः सह लम्पटैः ॥
(महाभारत) जो मनुष्य धर्म की इच्छा से मोहित होकर श्राद्ध में किसी को मधु (शहद) खिलाता है, तो लंपटी खानेवालों के साथ वह घोर नरक में जाता 1
प्रशिक्षक, श्रमण संस्कृति संस्थान, सागानेर (जयपुर) राजस्थान
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ब्रह्मचर्य : चेतन का भोग
आचार्य श्री विद्यासागर जी ५ ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः सही-सही मायने में है- | जहाँ पर हैं, वहीं पर जीवन है, यह मैं भी मानता हूँ, चेतन का भोग। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं | लेकिन जिसे आप भोग समझते हैं, उसको मैं भोग नहीं है, भोग के साथ एकीकरण और रोग-निवृत्ति है। समझता, उसे तो मैं रोग समझता हूँ। आपके भोग का
जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति, चेतनद्रव्य होते | केन्द्र भौतिक सामग्री है और मेरे भोग की सामग्री बनेगीहुए भी जड़ माना जायेगा। जिस व्यक्ति के जीवन का | 'चैतन्यशक्ति'। लक्ष्य आत्मा नहीं है, वह गुलाम है। बोध की चरम विषयवासना मृत्यु का कारण है, मृत्यु दुःख है, सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। उस | दुःख का कूप है और ब्रह्मचर्य जीवन है, आनन्द है, बोध को ही शोध समझ लें, तो गलत है और आज | सुख का कूप है। आप सुख चाहते हैं, दुःख से निवृत्ति यही गलती हो रही है। शोध का अर्थ है- अनुभूति | चाहते हैं, तो चाहे आज अपनायें, चाहे कल अपनायें, होना।
| कभी भी अपनायें, किन्तु आपको अपनाना यही होगा। मणिमय मन हर निज अनुभव से झग-झग झग-झग करती है, | रोग की निवत्ति के लिए औषधपान परमावश्यक होता तमो-रजो अरु सतो गुणों के गण को क्षण में हरती है।। समय-समय पर समयसारमय चिन्मय निज ध्रुव मणिका को,
| है, बिना औषधपान के रोग ठीक नहीं हो सकेगा। नमता मम निर्मम मस्तक तज मृणमय जड़मय मणिका को॥
भगवान् महावीर ने जो चौथा सूत्र ब्रह्मचर्य का (निजामृतपान/९)
दिया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है, अपने में पूर्ण है। आज धर्मप्रेमी बन्धुओ! भगवान् महावीर ने जो सूत्र हमें |
तक जितने भी अनन्त सुख के भोक्ता बने हैं, उन सबने दिये हैं, उनमें पाँच सूत्र प्रमुख हैं, उनमें से चौथा सूत्र
इसका समादर किया है और जीवन में अपनाया है, अपने है ब्रह्मचर्य जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
जीवन में इसको स्थान दिया है, मुख्य सिंहासन पर पतित से पावन बनने का यह एक अवसर है।
विराजमान कराया है इसे, भोग-सामग्री को नहीं। ब्रह्मचर्य यदि हम इस सूत्र का आलम्बन लेते हैं, तो अपने आपको | पूज्य बना, किन्तु भोगसामग्री आज तक पूज्य नहीं बनी। पवित्र बना सकते हैं। ब्रह्मचर्य की व्याख्या आप लोगों हो, ब्रह्मचर्य पूज्य तो आपकी दृष्टि में भी बना, किन्त के लिए नई नहीं है, किन्तु पुरानी होते हुए भी उसमें पूजा तो भोग-सामग्री की हो रही है आप लोगों के द्वारा, नयेपन के दर्शन अवश्य मिलेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यह एक दयनीय बात है, दुःख की बात है। साहित्य अपनी परोन्मुखी उपयोगधारा को स्व की ओर मोडना या अन्य कोई दार्शनिक-साहित्य देखने से विदित होता बहिर्दृष्टि अन्तर्दृष्टि बन जाये, बाहरी पथ-अन्तर पथ बन | है कि आत्मा को सही-सही रास्ता तभी मिल सकता जाये। बहिर्जगत् शून्य हो जाये, अन्तर्जगत् का उद्घाटन | है, जब कि हम उस साहित्य का अध्ययन, मनन, चिन्तन हो जाये। यह ध्यान रहे कि ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः । व मन्थन कर। हम मात्र उसे सुनते है। सुनने से पहले सही-सही मायने में है- 'चेतन का भोग।' ब्रह्मचर्य का यह सोचना होगा कि हम क्यों सुन रहे हैं उसको? दवाई अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं, भोग के साथ एकीकरण और | लेने से पूर्व हम, यह निर्णय अवश्य करते हैं कि दवा रोगनिवृत्ति है। जिसको आप लोगों ने भोग समझ रखा
क्यों ली जाये? एक घण्टे यदि श्रवण करते हैं, तो मैं है वह है रोग का मूल और ब्रह्मचर्य है जीवन का एक
समझता हूँ कि इसके लिए कम से कम आठ घण्टे मात्र स्रोत।
चिन्तन-पनन-मन्थन आवश्यक है। मैं कैसे खिलाऊँ आप दस साल विगत प्राचीन बात है, एक विदेशी आया |
| लोगों को, कैसे पिलाऊँ आप लोगो को, क्योंकि आप था, कह रहा था कि ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना कठिन है, आप | लोगों की पाचन की ओर दृष्टि ही नहीं हैं, वह पचेगा इसे न अपनायें, क्योंकि आज के जितने भी वैज्ञानिक | नहीं तो दुबारा खिलाना ही बेकार चला जायेगा। उस हैं. उन सबने यह सिद्ध कर दिया है कि भोग के बिना खाये हुये अन्न को मात्र विष्ठा नहीं बनाना है. उसमें जीवन नहीं है। मैंने भी उन्हें यही समझाया कि भोग | से सार-भूत तत्त्व को अपनी जठराग्नि के माध्यम से
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पकड़ना है । जठराग्नि ही नहीं तो फिर क्या होगा ? संग्रहणी के रोगी को जैसे होता है कि ऊपर से डालते हैं, वह नीचे से वैसे ही निकल जाता है, उसी प्रकार आपकी स्थिति है, पर फिर भी कुछ गुंजाइश है, जठराग्नि कुछ उत्तेजित हो जाये और कुछ हजम हो जाये तो ठीक ही है।
उपयोग की धारा को बाहर से अन्दर की ओर लाना है, तभी ब्रह्मचर्यव्रत पालन हो सकता है, अथवा यूँ कहिये कि उपयोग की धारा जिस पदार्थ में अटक रही है, उस पदार्थ से वह स्थानान्तरित ( ट्रांसफर) हो जाये ओर गहराई तक उतरने लग जाये । चाहे अपनी आत्मा में चले जायें, चाहे दूसरे की आत्मा में चले जायें, पर उपयोग को खुराक मिलनी चाहिये 'आत्मतत्त्व' की, जड़ की नहीं, अपितु चैतन्य की ! जहाँ पर बहुत सारी निधियाँ हैं, बहुत सारी सम्पदा बिछी हुई है, वह सम्पदा उस उपभोग की खुराक बन सकती है, सहीसही मायने में वही खुराक है और इसके लिये हमारे आचार्यों ने ब्रह्मचर्यव्रत पर जोर दिया है, क्योंकि उस आत्मा को एक बार तृप्त करना है, जो अनादिकाल से तप्त है।
ब्रह्मचर्य का विरोधी कर्म है 'काम', इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करनी है। यह काम और कोई चीज नहीं है, ध्यान रखिये वही उपयोग है जो कि बहिर्वृत्ति को अपनाता जा रहा है, उसी का नाम है काम। वही उपयोग, जो कि भौतिक सामग्री में अटका हुआ है, वही काम है, महाकाम है, यह अग्नि अनादि काल से जला रही है उस आत्मा को । कामाग्नि बुझे और आत्मा शांत हो । उस कामाग्नि को बुझाने में दुनियाँ का कोई पदार्थ समर्थ नहीं है, बल्कि यह ध्यान रहे कि उस कामाग्नि को प्रदीप्त करने के लिए भौतिक सामग्री घासलेट तेल का काम करती है। आपको यह आग बुझानी है, या उद्दीप्त करनी है ? नहीं! नहीं ! बुझानी है, ये चारों ओर जो लपटें धधक रही हैं, उनमें से अपने को निकालना है और वहाँ पर पहुँचना है, जहाँ चारों ओर लहरें आ रही हैं शांति की, आनन्द की सुख की। हम यहाँ एक समय के लिये भी आनन्द की श्वास नहीं ले रहे हैं । ऐसे दीर्घ श्वास तो निकाल रहे हैं, जो कि दुःख के, परिश्रम के प्रतीक हैं, श्वास की गति अवरुद्ध नहीं है, चल रही है, अनाहत चल रही है, किन्तु आनन्द के 6 मई 2008 जिनभाषित
साथ नहीं, क्योंकि मृत्यु की स्मृति या मृत्यु का वार्तालाप भी सुनते ही हृदय की गति में परिवर्तन आ जाता है और विषय की, वासनाओं की जो लहर चल रही है उसमें आप रात-दिन आपादकण्ठ लीन हैं, उसी का परिणाम दुःख के साथ श्वास है, सुख के साथ नहीं।
इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करना है अर्थात् अपने बाहर की ओर जा रहे उपयोग को, जो कि भौतिक सामग्री में अटक रहा है, उसे आत्मा में लगाना है। आत्मा में नहीं लगा पाते, इसीलिये कामाग्नि धधक रही है।
काम पुरुषार्थ का उल्लेख मिलता है भारतीय साहित्य में । कई लोगों की इस काम पुरुषार्थ के बारे में यह दृष्टि रह सकती है कि काम - पुरुषार्थ का अर्थ भोग है । पर लौकिक नहीं, चैतन्य का सही-सही मायने में वह काम - पुरुषार्थ से ही मोक्ष - पुरुषार्थ में जा सकता है और जाने को कोई रास्ता ही नहीं, लेकिन कामपुरुषार्थ का अर्थ बाह्य वातावरण में घूमते रहना ही नहीं लेना चाहिये, काम-पुरुषार्थ का अर्थ ही है गहरे उतरना । काम+पुरुष+ अर्थ, इन तीन शब्दों के योग से 'काम-पुरुषार्थ' यह पद निष्पन्न हुआ है। काम- पुरुष - अर्थ, काम अर्थात् भोग, पुरुष अर्थात् प्रयोजन। पुरुष के लिए काम आवश्यक है, पुरुष के दर्शन के लिए नितान्त यह आवश्यक है, इसके बिना हम वहाँ पहुँच नहीं सकते। अर्थात् चैतन्यभोग के बिना हम आत्मा तक पहुँच नहीं सकते। पहुँचना वहीं पर है, पुरुष तक, पुरुष तक पहुँचने के लिये यह काम (चैतन्यभोग) सहायकं तत्त्व है। आप लोग पुरुष तक नहीं पहुँच पाते, पुरुष तक पहुँचनेवाले ही पुरुषार्थी होते हैं और भौतिक सामग्री में अटकने वाला गुलाम होता है। आप तो गुलाम हैं, आप मानो या ना मानो, क्योंकि जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य पुरुष ( आत्मा ) नहीं है, वह गुलाम तो है ही जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति चेतनद्रव्य होते हुये भी जड़ माना जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है और जो लक्ष्य से पतित हैं वे भटके हुए माने जायेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
काम - पुरुषार्थ को धीर-धीरे उन्नत करने के लिये यह भारतीय आचारसंहिता है, जो कि विवाह के ऊपर जोर देती है । कई लोगों की दृष्टि हो सकती है कि विवाह अर्थात् ब्रह्मचर्य को स्खलित करना, किन्तु नहीं, कथञ्चित् ब्रह्मचर्य के और निकट जाना है, यह शार्टकट है, घुमावदार रास्ता है वहाँ पर जाने के लिये क्योंकि
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विवाह की डोरी में बँधने के बाद वह आत्मा फिर चारों ओर से अपने आप को छुड़ा लेता है और उस डोरी के माध्यम से वह आत्मा तक पहुँचने का प्रयास करता है। कोई किसी बहाव को देश से देशान्तर ले जाना चाहता है, तो उसे रास्ता देना होगा, तभी वह बहाव वहाँ तक पहुँच पायेगा, अन्यथा वह मरुभूमि में समाप्त हो जायेगा । आप लोगों का उपयोग भी आज तक पुरुष तक इसलिये नहीं पहुँच रहा है कि इस तक बहने के लिए कोई रास्ता पास नहीं है और अनन्तों में वह जब वहने लग जाता है, तो वह उपयोग सूख जाता है, क्योंकि छद्मस्थों का उपयोग ही तो है । उस उपयोग के लिये, उस झरने के लिये कुछ रास्ता आवश्यक है, अनन्तों से वह रास्ता बंद हो जाता है, तो वह रास्ता सीधा हो जाता है, इसके लिये सही-सही रास्ता आवश्यक है और वही है काम, वही है असली विवाह, जिसके माध्यम से वह वहाँ तक जा सके। आपने विवाह के बारे में सोचा है कुछ आज तक ? जहाँ तक मैं समझता हूँ इस सभा में ऐसा कोई भी नहीं होगा, जो विवाह से परिचित न होगा, लेकिन विवाह के उपरान्त भी वह पुरुष (आत्मा) के पास गया नहीं, इसलिए विवाह केवल एक रूढ़िवाद रह गया है।
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विवाह का अर्थ काम-पुरुषार्थ है और यह आवश्यक है, किन्तु इस विवाह के दो रास्ते हैं एक गृहस्थाश्रम सम्बन्धी व दूसरा मुनि - आश्रम सम्बन्धी । आप लोगों ने उचित यही समझा कि गृहस्थाश्रम का विवाह ही अच्छा है । अनन्त भोगसामग्रियों से आपको मुक्ति मिलनी चाहिये थी, किन्तु नहीं मिल पाई। जिस समय विवाह - संस्कार होता है, उस समय उस उपयोगवान् आत्मा को संकल्प दिया जाता है, पंडित जी के माध्यम से कि अब तुम्हारे लिये संसार में जो स्त्रियाँ हैं, वे सब माँ, बहिन और पुत्री के समान हैं। आपके लिए एकमात्र रास्ता है, इसके मध्यम से चैतन्य तक पहुँचिये आप |
प्रयोगशाला में एक विज्ञान का विद्यार्थी जाता है, प्रयोग करना प्रारम्भ करता है, जिस पर प्रयोग किया गया है, उसकी दृष्टि उसी में गड़ जाती है और वह अपने आपको भूल जाता है, पास-पड़ौस को तो भूल ही जाता है, स्वयं को भी भूल जाता है। एकमात्र उपयोग काम करता है, तब वह विज्ञान का विद्यार्थी सफलता प्राप्त करता है, प्रयोग सिद्ध कर लेता है, प्रैक्टीकल के
। माध्यम से वह विश्वास को दृढ़ बना लेता है, ऐसी ही प्रयोगशाला है विवाह । विवाह का अर्थ है दो विज्ञान के विद्यार्थी पति और पत्नी । पत्नी के लिये प्रयोगशाला है पति और पति के लिये प्रयोगशाला है पत्नी, पत्नी का शरीर नहीं आत्मा ! यह ध्यान रहे कि वे ऊपर स्त्री व पुरुष हैं, पर अन्दर से दोनों पुरुष हैं (अर्थात् आत्मा हैं) स्त्रियाँ भी पुरुष के पास जा रही हैं और पुरुष भी पुरुष के पास जा रहे हैं। दोनों पुरुष हैं, पर ऊपर स्त्री पुरुष के वेद के भेद हैं, किन्तु वेद के भेद ही वहाँ पर अभेद के रूप में परिणत हो रहे हैं। अभेद की यात्रा प्रारम्भ रही है, यह है विवाह की पृष्ठभूमि! अभी तक आप लोगों ने विवाह तो किया होगा, पर पति सोचता है पत्नी मेरे लिये भोगसामग्री है, बस इतना ही समझकर ग्रन्थि बँध जाती है, विवाह हो जाता है, बंधन में बँध जाते हैं, इसलिये आनन्द नहीं आता । इसीलिये जैसे-जैसे भौतिक कायायें सूखने लगती हैं, बेल सूखने लगती है, समाप्तप्राय होने लग जाती है, तो दोनों एक दूसरे के लिये घृणा के पात्र बन जाते हैं। पति से पत्नी की नहीं बनती और पत्नी से पति की नहीं बनती और बस बीच में दीवार खिंच जाती है। वह तो लोकनाता है, जिसे निभाते चले जाते हैं, निभना नहीं निभाना पड़ता है, क्योंकि अग्नि के समक्ष संकल्प किया था ।
दो बैल थे, वे एक गाड़ी में जोत दिये गये । एक किसान गाड़ी को हाँकने लगा। एक बैल पूर्व की ओर जाता है, तो एक बैल पश्चिम की ओर, बस परेशानी हो जाती है। बैलों को तो पसीना आता ही है, किसान को भी पसीना आना प्रारम्भ हो जाता, वह सोचता है कि अब गाड़ी आगे नहीं चल पायेगी । यही स्थिति गृहस्थाश्रम की है। आप लोगों का रथ प्रायः ऐसा ही हो जाता है । पत्नी एक तरफ खींच रही है, तो पति दूसरी ओर, अन्दर का आत्मा सोच रहा है कि यह क्या मामला हो रहा है?
आप लोग आदर्श विवाह तो करना चाहते हैं दहेज से परहेज करने के लिए, किन्तु आदर्श विवाह के माध्यम से अपने जीवन को आदर्श नहीं बना पाये। इसलिए आपका वह आदर्श विवाह एकमात्र आर्थिक विकास के लिए कारण बन सकता है, किन्तु पारमार्थिक विकास के लिए नहीं बनता ।
आदर्श विवाह था राम और सीता का। दोनों ने
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किस प्रकार उस विवाह के माध्यम से, डोरी के माध्यम । भोग का (सांसारिकता का) अनुपालन नहीं, भोग में चैतन्य से, सम्बन्ध के माध्यम से, अपने जीवन को सफलीभूत | का सहारा लिया, उसके बिना वे चल नहीं सकते थे, बनाया। आपको याद रहे कि वह सीता भोगसामग्री थी| चलना अनिवार्य था, मंजिल तक पहुँचना था, इसलिए राम के लिए, राम भोगसामग्री थे. सीता के लिए। पर | साथी को अपनाया था, ध्यान रहे कि विवाह पद्धति का उनकी दृष्टि में अनन्त जो सामग्री बिछी थी चारों ओर | अर्थ मोक्ष-मार्ग में साथी बनाना है। विवाह का अर्थ एकान्त वह भोगसामग्री नहीं थी, उस प्रयोगशाला में जो कोई से संसारमार्ग की सामग्री नहीं है। भी पदार्थ इधर-उधर बिखरा हुआ है, विद्यार्थी को उनका विवाह तो पाश्चात्य शहरों में भी होते हैं, पर कोई ध्यान नहीं रहता, उसी प्रकार उन्हें बाहर की वस्तुओं| वहाँ के विवाह, विवाह नहीं कहलाते। वहाँ पर पहले से कोई मतलब नहीं था। उनकी यात्रा अनाहत चल | राग होता है, बाद में बन्धन होता है, यहाँ पहले बन्धन रही थी। इसी बीच हजारों स्त्रियों के साथ जानेवाला | होता है, पीछे राग होता है, और वह राग नहीं आत्मानुराग रावण, एक भूमिगोचरी सीता के ऊपर दृष्टिपात करता | प्रारम्भ हो जाता है। पहले संकल्प दिये जाते हैं, फिर है, किन्तु सीता की आत्मा के ऊपर दृष्टिपात नहीं करता, बाद में उनके साथ सम्बन्ध होता है, अन्यथा नहीं। इसका सीता की आत्मा तक उसकी दृष्टि नहीं पहुँचती, अपितु | अर्थ क्या? इसका अर्थ बहुत गूढ़ है। जब तक उनका गोरी-गोरी उस काया की माया में डूब जाता है और (राम व सीता का) सांसारिक गृहस्थधर्म चलता रहा, अपने जीवन को भी वह धो देता है। यह ध्यान रहे | तब तक उन्होंने एक-दूसरे के पूरक होने के नाते अपने कि उसकी दृष्टि सीता की आत्मा तक पहुँच जाती, जीवन को चलाया। अन्त में सीता कहती है कि हमने तो उसे अवश्य मार्ग मिल जाता, उसका जीवन सुधर | एम. ए. तो कर लिया, अब पी.एच.डी. करना है, स्वयं जाता। सीता की चर्या के माध्यम से राम का जीवन | का शोध करना है। शोध के लिए पर्याप्त बोध भी मिल सुधरा और राम के जीवन के माध्यम से, सीता का | चुका है। बोध की चरम सीमा हो चुकी है। बोध की जीवन सुधरा । वे एक दूसरे के पूरक थे। जैसे कि राह | चरम सीमा होने के उपरान्त ही, शोध हुआ करता है। में दो बुड्ढे परस्पर एक-दूसरे के सहयोग से चलते | एम. ए. का विद्याध्ययन शोध के लिए आवश्यक है, जाते हैं, गिरते नहीं हैं। इस प्रकार वे दोनों भी चले | उसके बिना शोध नहीं हो सकता, उस बोध को ही जा रहे थे। इधर-उधर उपयोग न भटके इसलिए दृढ़ | शोध समझ लें, तो गलत हो जायेगा, आज यही हो रहा निश्चय करके एक विषय में दो विद्यार्थी जटे हए थे,। है। शोध करना तो दूर रह जाता है, मात्र इतना ही पर्याप्त राम और सीता। ज्यों ही रावण बीच में आया, तो राम | समझ लेते हैं कि सोलहवीं कक्षा पास कर ली, तो हमने सोचते हैं कि इसके लिये यहाँ पर स्थान नहीं है, हमारे | बहुत कुछ कर लिया, पर वस्तुतः किया कुछ नहीं। जीवन के बीच में कोई नहीं आ सकता। कोई आता | शोध अब प्रारम्भ होगा, अपनी तरफ से अनुभूति अब है, तो वह व्यवधान सिद्ध होगा और उस व्यवधान को | प्रारम्भ होगी। अभी तक अनुभूति नहीं, मात्र गाइडैन्स हम सर्वप्रथम दूर करेंगे। जब तक यह रहेगा, तब तक | मिली है। एम. ए. का अर्थ है दूसरे को गाइडैन्स के हम दोनों का जीवन एक साथ चल नहीं सकता, फिर | माध्यम से अपने आप के बोध को समीचीन बनाना भी रावण आता है, तो राम को कुछ प्रबन्ध करना ही | और फिर इसके उपरान्त अनुभूति का अर्थ- अब किसी पड़ता है। रावण को मारने का इरादा नहीं किया राम | प्रकार की टेक्स्ट बुक नहीं है, कोई बन्धन नहीं है, ने, मात्र अपने प्रशस्त-मार्ग में आनेवाले व्यवधान को अब शोध करना है। हटाने का प्रयास किया और सीता के पास जाने का सीता के पास अब इतनी शक्ति आ चुकी थी प्रयास किया।
| कि वह राम से कहती है- अब मुझमें इतनी शक्ति आ सीता ने जिस संकल्प के साथ इस ओर कदम | चुकी है कि आपकी आवश्यकता नहीं है। अब तीन बढाया था, उसकी रक्षा करना, समर्थन करना, राम का लोक में जो कोई भी पदार्थ बिखरे परम धर्म था और राम का समर्थन करना सीता का किसी भी पदार्थ को निकाल कर आत्मा को चन सकती परम धर्म था। उन दोनों ने धर्म का अनुपालन किया।। हूँ और बोध का विषय बना सकती हूँ, जैसे कि सामान्य
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शोध छात्र पुस्तकालय में से अपने विषय प्रयोजन की| कि ठहरो, मैं भी आ जाऊँ? सीता पूछती है, कहाँ आ पुस्तक चुन लेता है। उसके माध्यम से मैं अपनी यात्रा | जाऊँ? तुम्हारे साथ! किसलिए? दोनों घर में रहें, बाद बढ़ा सकती हूँ। अब राम, तुम्हारी कोई आवश्यकता में मार्ग चुन लेंगे। सीता कहती है- अरे! अब घर में नहीं है। अब स्वावलम्बी जीवन आ गया। अब विवाह | रहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, मैं जब विद्यार्थी की डोरी को तोड़ना चाहती हूँ, ध्यान रखना पहले नहीं | थी, तब तक ठीक था, अब मैं विद्यार्थी से ऊपर उठ तोड़ी। वह कहती है अब मैं इस पाठशाला में नहीं चुकी हूँ। अब आपकी कोई आवश्यकता नहीं, आपको रहूँगी। ऊपर उठूगी और पंचमुष्टि केशलुंचन कर लेती ! धन्यवाद देती हूँ कि आपने एम.ए. तक मेरा साथ नहीं
गोध मात्र नहीं थे अतः वे प्रणिपात हो| छोडा, धन्यवाद बहत धन्यवाद। पर अब पैरों मे बहत गये उसके चरणों में। जिसने विषय चुन लिया, शोध | बल आ चुका है, आँखों को दृष्टि मिल चुकी है, अब छात्र बन गया, ऊपर उठ गया, वह अब विद्यार्थी नहीं।| मैं अनाहत जा सकती हूँ, अब कोई परवाह नहीं, राह छात्र तो इसलिए मान लिया जाता है कि अभी भी कुछ | मिल चुकी है। कर रहा है। अब वह स्नातक से भी ऊपर उठ चुका राम ने अग्नि परीक्षा के बाद कहा था कि चलो है, अब वह विद्यार्थी नहीं है, भले ही उसे विद्यार्थी | प्रिये, घर चलो। वह अग्नि परीक्षा ही सीता के लिए, कहो, पर वह अब मास्टर बन गया है। राम ने अभी | मैं समझता हूँ, स्नातक परीक्षा थी, वह उसमें सफल इतना साहस नहीं किया था, इसलिये उन्होंने सीता के | हो जाती है। वह राम से आगे निकल गई। राम ने बहुत चरणों में प्रणिपात किया और अपने आप को कमजोर | कहा अभी मत जाओ। सीता कहती है- तुम पीछे आ, महसूस करने लगे कि देखो यह एक अबला होकर जाओ, पर मैं अब नहीं रुक सकती। साथ रहने पर भी शोधछात्रा बन गई। अब यह विश्व में बिखरी चैतन्य-| बिखरे हुये विषय का संग्रह नहीं कर सकूँगी। इसलिए सत्ताओं के बारे में विचार करेगी, अध्ययन करेगी और | आप अपना विषय अपनायें और मैं अपना विषय अपनाती उनके पास पहुँचने का प्रयास करेगी। अब सीता को | हूँ। अब आप मेरी दृष्टि में राम नहीं हैं, आतमराम हैं। राम की आवश्यकता नहीं है।
इस प्रकार लिंग का विच्छेद करके, वेद का विच्छेद राम-राम, श्याम-श्याम, रटन्त से विश्राम। | करके वह अभेद यात्रा में चली गई, यह घड़ी उसकी रहे न काम से काम, तब मिले आतम राम॥ आत्मा की अपनी घड़ी थी। उसी दिन उसके लिए मोक्ष
सीता की दृष्टि में अब राम, राम न रहे, अब | पुरुषार्थ की भूमिका बन गई। यह कामपुरुषार्थ का ही दृष्टि में था आतमराम। प्रत्येक काया में छिपे हुये आतमराम | सुफल था कि वह मोक्ष-पुरुषार्थ में लीन थी अब वह को वह टटोलेगी, उन सब के साथ सम्बन्ध रखेगी, विश्व | मोक्षपुरुषार्थी थी, कामपुरुषार्थी नहीं। के साथ एक प्रकार से भोगयात्रा प्रारम्भ हो गई, लेकिन राम ने सोचा कि क्या मैं कमजोर हूँ? उन्हें अबला ध्यान रहे अब आतमराम के साथ भोग है, राम के साथ से शिक्षण मिल गया। वे भी शोधछात्र बन गये। सीता नहीं। राम उस काया का नाम था, आतमराम काया का| को मालूम न था कि ये मुझसे भी आगे बढ़ जायेंगे। नाम नहीं है। उस अन्तर्यामी चैतन्य सत्ता में न पुरुष | स्पर्धा ऐसी बातों में करनी चाहिए। आप लोग कमाने है, न स्त्री है, न नपुंसक है, न बुड्ढा है, न बालक में, भौतिक सामग्री जुटाने में स्पर्धा करते हैं, ये आविष्कार है, न जवान है, उसमें देव नहीं, नारकी नहीं, तिर्यंच | हुआ, ये परिष्कार हुआ, लेकिन अन्दर क्या आविष्कार नहीं, पशु नहीं, वह केवल आतमराम है। चारों ओर | हुआ, यह तो देखो, अपने आपके ऊपर डॉक्टरेट की आतमराम। वह सीता अकेली चल पड़ी। सीता की आत्मा | उपाधि तो प्राप्त कर लो। स्वयं पर नियन्त्रण नहीं है, कितने जबरदस्त बल को प्राप्त कर चुकी! अब वह | स्वयं के बारे में गहरा ज्ञान है, तो मैं समझता हूँ कि किसी की परवाह नहीं करती। अब वह अबला नहीं| भौतिक ज्ञान भी आपका सीमित है। मात्र दूसरे ने जो है, सबला है। उसके चरणों में अब राम प्रणिपात कर कुछ कहा उसी को नोट कर लिया, पढ़ लिया। अन्दर रहे हैं, इस समय वे निर्बल थे, और सीता सबला थी। ज्ञान के स्रोत हैं- वहाँ पर देखो, चिन्तन के माध्यम
वह ऊपर उठ चुकी थी। राम उससे कहते हैं | से देखो कितने-कितने खजाने भरे हुये हैं, वहाँ पर,
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घुसते चले जाओ, अनन्त सम्पदा भरी पड़ी है, वह । देशों में) विनाश। वह धारा इधर भी बहकर आ रही अनन्तकालीन सम्पदा लुप्त है, गुप्त है, आप सोये हुये | है। हैं, अतः वह सम्पदा नजर नहीं आ रही है।
राम और सीता ने विवाह को, काम-पुरुषार्थ को जब राम को सीता से प्रेरणा मिल जाती है, तब | अपनाया, उसे निभाया, उसी का फल मानता हूँ कि राम ने निश्चय कर लिया कि मुझे भी अब कॉलेज | राम तो मुक्ति का वरण कर चुके और स्वयं आनन्द की कोई आवश्यकता नहीं, अब तो मैं भी ऊपर उठ का अनुभव कर रहे हैं, और सीता सोलहवें स्वर्ग में जाऊँगी। आप लोगों का जीवन कॉलेज में ही व्यतीत | विराजमान है। वह भी गणधर परमेष्ठी बनेगी और हो जाता है। शिक्षण जब लेते हो, तब भी कॉलेज की | मुक्तिगामी होगी। हम इस कथा को सुनते मात्र हैं, इसकी आवश्यकता है और उसके उपरान्त अर्थ-प्रलोभन आपके| गहराई तक नहीं पहुँचते। ऊपर ऐसा हावी हो जाता है कि पुनः उस कॉलेज में| कामपुरुषार्थ का अर्थ है- काम सम्बन्ध, अर्थात् आप को नौकरी कर लेना पड़ती है। पहले विद्यार्थी पुरुष के लिए भोगचैतन्य का। आप पुरुष तक नहीं पहुँचते, के रूप में, अब विद्यार्थियों को पढ़ाने के रूप में, स्वयं| शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग में दंग रह जाते हैं, के लिये कुछ नहीं है। उसी कॉलेज में जन्म और उसी | बहिरंग में ही रह जाते हैं, अन्तरंग में नहीं उतरते। आत्मा कॉलेज में अन्त, यही मुश्किल है। डाक्टरेट कर ही| के साथ भोग करो, आत्मा के साथ मिलन करो, आत्मा नहीं पाते, एक बार स्वयं पर, दूसरों पर नहीं, अपने | के साथ सम्बन्ध करो।' - आप पर अध्ययन करो।
अभी कुछ देर पूर्व यहाँ मेरा परिचय दिया, पर राम ने संकल्प ले लिया और दिगम्बरदीक्षा ले| वह मेरा परिचय कहाँ था, आत्मा का कहाँ था? मेरा ली। अब राम की दृष्टि में भी कोई सीता नहीं रही, परिचय देने वाला वही हो सकता है, जो मेरे अन्दर न कोई लक्ष्मण रहा। वे भी आतमराम में लीन हो गये। आ जाये, जहाँ मैं बैठा हूँ। सिंहासन पर नहीं, सिंहासन यह 'काम' (आत्मा के लिये चैतन्य का भोग, काम | पर तो शरीर बैठा है। आपकी दृष्टि वहीं तक जा सकती पुरुषार्थ) की ही देन थी। मोक्ष-पुरुषार्थ में भर्ती कराने | है, आपकी पहुँच भौतिक काया तक ही जा पाती है। का साहस कामपुरुषार्थ की ही देन है। वह कामपुरुषार्थ | मेरा सही परिचय है- मैं चैतन्यपुंज हूँ, जो इस भौतिक भारतीय परम्परा की अनुरूप हो, तो मोक्ष-पुरुषार्थ की शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर जो अज्ञान दशा में ओर दृष्टि जा सकती है, आपके कदम उस ओर उठ| अर्जित मल चिपक गया है उसको हटाने में रत हूँ, सकते हैं। जब दृष्टि नहीं जायेगी, तो कदम उठ नहीं| उद्यत हूँ, मैं चाहता हूँ कि मेरे ऊपर का कवच निकल पायेंगे। विवाह तो आप कर लेते हैं, किन्तु आपको अभी जाये और साक्षात्कार हो जाये इस आत्मा का, परमात्मा वह राह नहीं मिल पाई। भारत में पहले बन्धन है, फिर | का, अन्तरात्मा का। आपके पास कैमरे हैं फोटो उतारने राग है, वह राम-वीतराग बनने के लिए है। इसमें एक के, मेरे पास एक्सरे हैं। कैमरे के माध्यम से ऊपर की ही साथ सम्बन्ध रहा है। अनन्त के साथ नहीं, अनन्त | शक्ल ही आयेगी और एक्सरे के माध्यम से अन्तरंग के साथ तो बाद में, सर्वज्ञ होने पर। पहले सीमित विषय, | आयेगा, क्योंकि अन्तरंग को पकड़ने की शक्ति एक्सरे फिर अनन्त । जो प्रारम्भ से ही अनन्त में अधिक उलझता | में है और बाह्यरूप को पकड़ने की शक्ति कैमरे में है, उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं होता। | है। आप कैमरे के शौकीन हैं, मैं एक्सरे का शौकीन
आज पाश्चात्य समाज की स्थिति है कि एक हूँ। अपनी-अपनी अभिरुचि है। एक बार एक्सरे के शौकीन व्यक्ति दूसरे पर विश्वास नहीं करता, प्रेम नहीं करता, | बनकर देखो, एक बार बन जाओगे तो लक्ष्य तक पहुँच वात्सल्य नहीं करता। एक-दूसरे की सुरक्षा के भाव वहाँ जाओगे। मैं चाहता हूँ कि हम उस यन्त्र को पहचानें, पर नहीं हैं। भौतिक सम्पदा में सुरक्षा नहीं हुआ करती, | ग्रहण करें, उसके माध्यम से अन्दर जो तेजोमय आत्मा आत्मिक सम्पदा में ही सुरक्षा हुआ करती है। | अनादिकाल से बैठी है, विद्यमान है, वह पकड़ में आ
विवाह के पश्चात् यहाँ आपका (भारतीय | जाये, लेकिन ध्यान रखना एक्सरे की कीमत बहुत होती परम्परानुसार) विकास प्रारम्भ होता है और वहाँ (पाश्चात्य | है। प्रत्येक व्यक्ति गले में कैमरा लटका सकता है, पर
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एक्सरे यन्त्र नहीं। एक बार एक्सरे से आत्मा को पकड़। करेंगे, लेकिन हम नमस्कार करके भी अपना उद्देश्य लें, बस। कैमरे से उतारा गया ढाँचा बदल सकता है, यह नहीं बना पाते कि हमें भी उस शान्त लहर का शरीर बदल सकते हैं, पर एक्सरे से उतारी गई आत्मा | अनुभव करना है, वह शान्ति की अनुभूति अनन्तकाल नहीं बदल सकती। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है व्यर्थ | में नहीं हुई है, लेकिन ऐसी बात भी नहीं है कि हो में, हम लक्ष्य पर नहीं पहुंचे।
भी नहीं सकती, हो सकती है, लेकिन दृष्टि अन्दर जाये दिपे चाम चादर मणी हाड़ पीजरा देह।
तो। भीतर या सम जगत में और नहीं घिनगेह॥
कामपुरुषार्थ को आप मात्र भोग मत मानो, वह (बारह भावना/६) | भोगपुरुषों के लिए है, आत्मा के लिए है। वास्तविक आपके पास तो घिनावने पदार्थ पकड़ने की मशीन | भोग वही है, जो चैतन्य के साथ हुआ करता है। जब है, किन्तु सुगन्धित, जहाँ किसी प्रकार के घिनावने पदार्थ | सर्वज्ञ बन जाते हैं, उस समय अनन्तचैतन्य के साथ नहीं हैं, वह एक आत्मा है, वह हमें मिल सकती है, | मेल हो जाता है। उस मेल में कितनी अनुभूति, कितनी जब हमारी दृष्टि, अन्तर्दृष्टि हो जाये।
शान्ति मिलती होगी, यह वे ही कह सकते हैं, हम नहीं जब राम ने मुनिदीक्षा धारण कर ली, घोर तपस्या | कह सकते। मात्र कुछ बिन्दु हमें उसके मिल जाते हैं में लीन हो गये, तो इतनी अन्तर्दृष्टि बन चुकी थी कि | (ध्यान के समय) तो हम आनन्द-विभोर हो जाते हैं बाहर क्या हो रहा है? उन्हें पता ही नहीं। प्रतीन्द्र के | उस अनन्त-सिंधु में गोता मारनेवाले के सुख की कोई रूप में सीता का जीव सोचता है कि अरे! इन्होंने तो सीमा नहीं है. असीम है उसका सख, असीम है वह सीधा रास्ता अपना लिया, मुझे तो स्टेशन पर रुकना | शान्ति. असीम है वह आनन्द। वही आनन्द अपने को पड़ा। ये लक्ष्य तक पहुँचनेवाले हैं। सीता ने सोचा कि | मिले ऐसा पुरुषार्थ करना है। राम डिगते हैं कि नहीं, उसने डिगाने का प्रयास किया | मुनिराज भी निर्भोगी नहीं होते, वे भी भोगी होते पर राम डिगे नहीं। उन्हें फिर बाहरी पदार्थों ने प्रभावित | हैं. किन्त वे चैतन्य के भोक्ता बनते हैं, पाँच इन्द्रियों नहीं किया। इसी को कहते हैं ब्रह्मचर्य। अपनी आत्मा | के लिये यथोचित विषय देते हैं, किंतु रागपूर्वक नहीं, में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है।
भोग की दृष्टि से नहीं, अपितु योग की साधना की इस ब्रह्मचर्य के सामने विश्व का मस्तक नत- | दष्टि सेमस्तक हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस दिव्य- ले तप बढ़ावन हेतु नहीं, तन पोसते तज रसन को। तत्त्व के सामने सांसारिक कोई चीज मौलिकता नहीं रखती,
(छहढाला-छठी ढाल) उनका कोई मूल्य नहीं है। इसलिये मैं उस दिव्यब्रह्मचर्य | विषय और भोग (काम) मात्र संपोषण की दृष्टि धर्म की वन्दना करते हुए आप लोगों को यही कहूँगा | से माने गये हैं, किन्तु जब वह दृष्टि हट जाती है, कि आप लोग कैमरे को छोड़ दें और एक्सरे के पीछे | तो वे ही पदार्थ हमें मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना करने में लग जायें, अन्दर घुस जायें, कोई परवाह नहीं कि बाहर | कार्यकारी हो जाते हैं। मुनिराज के द्वारा इन्द्रियविषय (निद्रा क्या हो रहा है? बाहर कुछ भी नहीं होगा। अन्दर ही भोजन आदि) ग्रहण किये जाते हैं, पर वे विषय-पोषण जो होगा, उसे देखोगे तो बाहर कुछ घट भी जाये, तो | की दृष्टि से नहीं होते, मात्र शोषण नहीं रहता। पोषण उसका प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह सुरक्षित | व शोषण के बीच की धारा योगदृष्टि उनके पास रहती आत्मद्रव्य है। बाहर कुछ भी कर लो, आत्मा इस प्रकार | है, जिसमें शरीर के साथ सम्बन्ध छूटता भी नहीं है, का टैंक है कि जिसके ऊपर किसी भी प्रकार का गोला- | टूटता भी नहीं है और मात्र शरीर के साथ भी सम्बन्ध बारूद असर नहीं करता, वह अन्दर का व्यक्ति सुरक्षित नहीं रहता, किन्तु चैतन्य के साथ सम्बन्ध रहता है। मुनिराज रहता है, किन्तु वह बाहर आ जाये तो स्थिति बिगड़ | का शरीर के साथ संबंध चैतन्य-खुराक के साथ रहता जाती है। बाहर लू चलती है, पर अन्दर शान्ति की लहरें | चल रही हैं। उस अन्तरात्मा में लीन होनेवाले व्यक्ति | सवारी तभी आगे बढ़ेगी, जब उसमें पेट्रोल डालेंगे। के चरणों में कौन नहीं नत-मस्तक होगा? अवश्य नमस्कार | आप लोग भी इस काम-पुरुषार्थ के माध्यम से, मोक्ष
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पुरुषार्थ की ओर अनन्त सुख की उपलब्धि करें, यही । लिये मार्ग सुझाया। महान् अध्यात्मसाहित्य का सृजन किया कामना है।
और आज हमारे जैसे भौतिक चकाचौंध के युग में ___मुझे जो यह इस प्रकार ज्ञान की, साधना की | रहते हुये भी कुछ कदम उस ओर उठ रहे हैं, तो मैं थोड़ी सी ज्योति मिली है, वह पूर्वाचार्यों से (पूज्य गुरुवर | समझता हूँ कि बाह्य निमित्त से वे आचार्य कुन्दकुन्द श्री ज्ञानसागर जी महाराज से) मिली है। हम पूर्वाचार्यों | और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज आदि जो पूर्वाचार्य के उपकार को भुला नहीं सकते। वैषयिक दृष्टि को | हुये, उनका ऋण हम पर है और उनके प्रति हमारा भूलकर विवेकदृष्टि से इनके उपकारों को देखो, इनके | यही परम कर्त्तव्य है कि उस दिशा के माध्यम से अपनी द्वारा बताये कर्तव्यों की ओर अपना दृष्टिपात करो और | दिशा बदलें और दशा बदलें, अपने जीवन में उन्नति देखो, कि इनके संदेश किसलिए हैं? स्व-आत्म पुरुषार्थ | का मार्ग प्राप्त करें, सुख का भाजन बनें और इस परम्परा के साथ उनके उपदेश आप लोगों के उत्थान के लिए को अक्षुण्ण बनाये रखें, ताकि आगे आनेवाले प्राणियों हैं किन्तु उनका अपनी आत्मा में रमण स्वयं के कल्याण | के लिए भी यह उपलब्ध हो सके। आचार्य कुन्दकुन्द के लिये था। कोई भी व्यक्ति जब स्वहित चाहता है | की स्मृति के साथ मैं आज का वक्तव्य समाप्त करता और उसका हित हो जाता है, तो उसकी दृष्टि अवश्य | हूँदूसरे की ओर जाती है, इसमे कोई सन्देह नहीं। उन्होंने कुन्दकुन्द को नित न, हृदय कुन्द खिल जाय। सोचा कि ये भी मेरे जैसे दुःखी हैं, इनको भी रास्ता परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय। मिल जाये। आचार्यों को जब ऐसा विकल्प हुआ, तो
(दोहा-दोहन) उन्होंने उसके वशीभूत होकर प्राणियों के कल्याण के ।
'चरण आचरण की ओर' से साभार
पार्श्वनाथ विद्यापीठ निबन्ध प्रतियोगिता 2007-08
उद्देश्य- जैन समाज लम्बे समय से यह अनुभव। आयुवर्ग के आधार पर निबन्ध के लिए निर्धारित कर रहा है कि लोगों को जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति की | पृष्ठ संख्यायथार्थ जानकारी होनी चाहिए, क्योंकि जैनदर्शन में विश्वदर्शन | ___ 18 वर्ष तक- डबल स्पेस में फुलस्केप साइज में बनने की क्षमता है। इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए | टंकित (typed) पूरे चार पेज। 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ' नवयुवकों के बौद्धिक विकास एवं | 18 वर्ष के ऊपर- डबल स्पेस में फुलस्केप साइज जैनधर्म, दर्शन के प्रति उनकी जागरूकता को बनाये रखने | में टंकित (typed) पूरे आठ पेज। के लिए प्रतिवर्ष एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर पुरस्कार- निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित प्रतियोगी रहा है, जिससे कि लोगों में पठन-पाठन एवं शोध के प्रति को निम्नानुसार पुरस्कार देय होगारुचि पैदा हो एवं साथ ही विचारों का आदान-प्रदान हो 18 वर्ष तक के प्रतियोगी के लिये- प्रथम पुरस्कारसके। इस कड़ी में यह पाँचवीं निबन्ध प्रतियोगिता है।। 2500 रु., द्वितीय पुरस्कार-1500 रु., तृतीय पुरस्कार-1000 विषय : 'अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार'
निबन्ध के साथ प्रतिभागी की पासपोर्ट साइज फोटो, 18 वर्ष के ऊपर के प्रतियोगी के लिये-प्रथम पूरे पते सहित अपनी शैक्षिक योग्यता का विवरण एवं हाई| पुरस्कार-2500 रु.,द्वितीय पुरस्कार-1500 रु., तृतीय पुरस्कारस्कूल सर्टिफिकेट की फोटो प्रति (Xerox copy) भेजना | 1000 रु. अनिवार्य है।
प्रतियोगिता की भाषा- निबन्ध हिन्दी या अंग्रेजी निबन्ध भेजने का पता
दोनों भाषाओं में हो सकते हैं। संयोजक- निबन्ध प्रतियोगिता-2007-08, पार्श्वनाथ
अन्तिम तिथि- इस निबन्ध प्रतियोगिता के लिये विद्यापीठ आई.टी.आई.रोड, करौंदी, वाराणसी- 221005 | अ
| आलेख 30 दिसम्बर, 2008 तक भेजे जा सकते हैं। (उ.प्र.)
डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-5 (उ. प्र.)
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धर्ममाता चिरौंजाबाई जी का समाधिमरण
क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी बाईजी का स्वास्थ्य प्रतिदिन शिथिल होने लगा।। आ जाओ' या कोई ऐसी औषधी मिल जावे जिससे मैंने बाईजी से आग्रह किया कि आपकी अन्तर्व्यवस्था | मैं शीघ्र ही निरोग हो जाऊँ ऐसे शब्द उच्चारण नहीं जानने के लिये डॉक्टर से आपका फोटो (एक्सरा) उतरवा | किये। यदि कोई आता और पूछता कि 'बाईजी! कैसी लिया जावे। बाईजी ने स्वीकार नहीं किया। एक दिन | तबियत है?' तो बाईजी यही उत्तर देतीं कि 'यह पूछने मैं और वर्णी मोतीलालजी बैठे थे। बाईजी ने कहा 'भैया! | की अपेक्षा आपको जो पाठ आता हो सुनाओ, व्यर्थ बात मैं शिखरजी में प्रतिज्ञा कर आई हूँ कि कोई भी सचित | मत करो।' पदार्थ नहीं खाऊँगी। फल आदि चाहे सचित्त हों चाहे | एक दिन मैं एक वैद्य को लाया, जो अत्यन्त अचित्त हों, नहीं खाऊँगी। दवाई में कोई रस नहीं खाऊँगी। प्रसिद्ध था। वह बाईजी का हाथ देखकर बोला कि दवाई गेहूँ, दलिया, घी और नमक को छोड़कर कुछ न खाऊँगी। | खाने से रोग अच्छा हो सकता है।' बाईजी ने कहा
1. अजवाइन और हर्र छोडकर अन्य कछ | 'कब तक अच्छा होगा?' उसने कहा- 'यह हम नहीं न खाऊँगी।'
जानते।' बाईजी ने कहा-'तो महाराज जाइये और अपनी उसी समय उन्होंने शरीर पर जो आभूषण थे, | फीस ले जाइये, मुझे न कोई रोग है और न कोई उपचार उतार दिये, बाल कटवा दिये, एक बार भोजन और | चाहती हूँ। जो शरीर पाया वह अवश्य बीतेगा, पचहत्तर एक बार पानी पीने का नियम कर लिया। प्रात:काल | वर्ष की आयु बीत गई, अब तो अवश्य जावेगी। इसके मन्दिर जाना, वहाँ से आकर शास्त्र स्वाध्याय करना, पश्चात् | रखने की न इच्छा है और न हमारी राखी रह सकती दस बजे एक छटाक दलिया का भोजन करना, शाम है। जो चीज उत्पन्न होती हैं उसका नाश अवश्यम्भावी को चार बजे पानी पीना और दिन भर स्वाध्याय करना, | है। खेद इस बात का है कि यह नहीं मानता। कभी यही उनका कार्य था। यदि कोई अन्य कथा करता, | वैद्य को लाता है और कभी हकीम को। मैं औषधि तो वे उसे स्पष्ट आदेश देतीं कि बाहर चले जाओ। | का निषेध नहीं करती। मेरे नियम है कि औषध नहीं पन्द्रह दिन बाद, जब मंदिर जाने की शक्ति न रही, | | खाना। दो मास में पर्याय छूट जावेगी, इससे जहाँ तक तब हमने एक ठेला बनवा लिया, उसी में उनको मंदिर | बने परमात्मा का स्मरण कर लूँ, यही परलोक में साथ ले जाते थे। पन्द्रह दिन बाद वह भी छूट गया, कहने | जावेगा। जन्मभर इसका सहवास रहा। इसके सहवास लगीं कि हमें जाने में कष्ट होता है, अतः यहीं से | से तीर्थयात्राएँ की, व्रत तप किये, स्वाध्याय किया, धर्मपूजा कर लिया करेंगे। हम प्रात:काल मंदिर से अष्टद्रव्य | कार्यों में सहकारी जान इसकी रक्षा की। परन्तु अब लाते थे और बाईजी एक चौकी पर बैठे-बैठे पूजन | यह रहने की नहीं, अतः इससे न हमारा प्रेम है न पाठ करती थीं। मैं ९ बजे दलिया बनाता था और बाईजी दस बजे भोजन करती थीं। एक मास बाद आध छटाक महान् आत्मा है। अब आप भूलकर भी किसी वैद्य को भोजन रह गया, फिर भी उन की श्रवणशक्ति ज्यों की | न लाना, इनका शरीर एक मास में छूट जावेगा। मैंने त्यों थी।
ऐसा रोगी, आज तक नहीं देखा।' यह कह वैद्यराज चले श्वास रोग के कारण बाईजी लेट नहीं सकती | गये। उनके जाने के बाद बाईजी बोली कि 'तुम्हारी बुद्धि थीं. केवल एक तकिया के सहारे. चौबीस घण्टा बैठी | को क्या कहें? जो रुपया वैद्यराज को दिया. यदि उसी रहती थीं। कभी मैं, कभी मुलाबाई, कभी वर्णी मोतीलाल | का, अन्न मँगाकर गरीबों को बाँट देते तो, अच्छा होता। जी, कभी पं० दयाचन्द्रजी और कभी लोकमणि दाउ | अब वैद्य को न बुलाना।' शाहपुर निरन्तर बाईजी को धर्मशास्त्र सुनाते रहते थे।। | बाईजी का शरीर प्रतिदिन शिथिल होता गया। परन्तु बाईजी को कोई व्यग्रता न थी। उन्होंने कभी भी रोग | उनकी स्वाध्यायरुचि और ज्ञानलिप्सा कम नहीं हुई। एक वश 'हाय हाय' या 'हे प्रभो क्या करें' या 'जल्दी मरण | दिन बीना के श्रीनन्दनलाल जी आये और मुझसे मुकदमा
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सम्बन्धी बात करने लगे। बाईजी ने तपक कर कहा- | 'संसार में जहाँ संयोग है, वहाँ वियोग है। हमने तुम्हें 'भैया! यहाँ अदालत नहीं अथवा वकील का घर नहीं | चालीस वर्ष पुत्रवत् पाला है, यह तुम अ जो आप मुकदमा की बात कर रहे हो, कृपया बाहर हो। इतने दीर्घकाल में हमसे यदि किसी जाइये और मुझसे भी कहा कि बाहर जाकर बात कर हुआ हो, तो उसे क्षमा करना और बेटा! मैं क्षमा करती लो. यहाँ फालत बात मत करो।' ... इस तरह बाईजी हैं. अथवा क्या क्षमा करूँ. मैंने हृदय से कभी भी कष्ट की दिनचर्या व्यतीत होने लगी।
नहीं पहँचाया। अब मेरी अन्तिम यात्रा है, कोई शल्य बाईजी को निद्रा नहीं आती थी। केवल रात्रि के न रहे, इससे आज तुम्हें कष्ट दिया। यद्यपि मैं जानती दो बजे बाद कुछ आलस्य आता था। हम लोग रात- | हूँ कि तेरा हृदय इतना बलिष्ट नहीं कि इसका उत्तर दिन उनकी वैय्यावृत्य में लगे रहते थे। जब बाईजी की | कुछ देगा।' आयु का, एक मास शेष रहा, तब एक दिन श्री लम्पूलाल मैं सचमुच ही कुछ उत्तर न दे सका, रुदन करने जी घी वालों ने पूछा कि 'बाईजी! आपको कोई शल्य | लगा, हिलहिली आने लगी, बाईजीने कहा-'बेटा जाओ तो नहीं है।' बाईजी ने कहा- 'अब कोई शल्य नहीं। बाजार से फल लाओ' और ललिता से कहा कि 'भैया पर कुछ पहले एक शल्य अवश्य थी। वह यह कि | को पाँच रुपया दे दे, फल लावे। मुझे वहाँ से कहा बालक गणेशप्रसाद जिसे कि मैंने पुत्रवत् पाला है, यदि | कि 'जाओ', मैं ऊपर गया। मुलाबाई ने मुझे देखा मेरा अपने पास कुछ द्रव्य रख लेता तो, इसे कष्ट न उठाना | रुदन अवस्था देख नीचे गई। बाईजी ने कहा- 'मूला पड़ता। मैंने इसे समझाया भी बहुत, परन्तु इसे द्रव्यरक्षा | नाटकसमयसार सुनाओं।' वह सुनाने लगी। तीन या चार करने की बुद्धि नहीं। मैंने जब-जब इसे दिया, इसने छन्द सुनाने के बाद वह भी रुदन करने लगी। बाईजी पाँच या सात दिन में साफ कर दिया। मैंने आजन्म | ने कहा 'मुला'! ऊपर जाओं।' वह ऊपर चली गई। इसका निर्वाह किया। अब मेरा अन्त हो रहा है, इसकी | जब शान्तिबाई ने उसे रोते देखा तब वह भी बाईजी यह जाने, मुझे शल्य नहीं। मेरे पास जो कुछ था इसे | के पास गई बाईजी ने कहा 'शान्ति समाधिमरण सुनाओ।'
दे दिया। एक पैसा भी मैंने परिग्रह नहीं रक्खा। मैं आपको | वह भी एक दो मिनट बाद पाठ करती करती रोने लगी। ___ विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे मरने के बाद यह एक | मैं जब बाजार गया तब श्री सिंघई जी मिले। उन्होंने
दिन भी मेरी द्रव्य नहीं रख सकेगा, परन्तु अच्छे कार्य मेरा वदन मलीन देखा और पूछा कि 'बाईजी की तबियत में लगावेगा, असत् कार्य में नहीं।' श्री लम्पूलालजी ने | कैसी है? मैंने कहा- 'अच्छी है।' वे बाईजी के पास कहा कि 'फिर इनका निर्वाह कैसे होगा?' बाईजी ने | गये। बाईजी ने कहा- 'सिंघई भैया! अनुप्रेक्षा सुनाओ।' कहा कि 'अच्छी तरह होगा। जैसे मेरा इनके साथ कोई | वे अनुप्रेक्षा सुनाने लगे। परन्तु थोड़ी देर में सुनाना भूलकर जाति सम्बन्ध नहीं था, फिर भी मैंने इसे आजन्म पुत्रवत् रुदन करने लगे। इस प्रकार जो जो जावे वही रोने लगे। पाला, वैसे इसके निमित्त से अन्य कोई मिल जावेगा। तब बाईजी ने कहा- आप लोगों का साहस इतना दुर्बल इसकी पर्यायगत योग्यता बड़ी बलवती है।' बाईजी की है कि आप किसी की समाधि कराने के पात्र नहीं।' बात सनकर लम्प भैया हँस कर चले गये और उनके
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दम पकार बार्टली का माटय ॥
इस प्रकार बाईजी का साहस प्रतिदिन बढ़ता गया। बाद सिंघई जी भी आये। वे भी हँसकर चले गये। इसके बाद बाईजी ने केवल आधी छटाक दलिया का
एक दिन मैंने बाईजी से कहा-'बाईजी! यह आहार रक्खा और जो दूसरी बार पानी पीती थीं वह शांतिबाई प्राणपनसे आपकी वैय्यावृत्त्य करती है, इसे भी छोड़ दिया। सब ग्रन्थों का श्रवण छोड़कर केवल कुछ देना चाहिये।' बाईजी ने कहा- 'तुम्हारी जो इच्छा रत्नकरण्डश्रावकाचार में से सोलहकारण भावना, दशधा हो सो दे दो। मैं तो द्रव्य का त्याग कर चुकी हूँ।' | धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा और समाधिमरण का पाठ सुनने लगीं।
जब आयु में दस दिन रह गये तब बाईजी ने | जब आयु के दो दिन गये तब दलिया भी छोड़ दिया, मुझसे कहा- 'बेटा। एकान्त में कुछ कहना है।' मैं दो | केवल पानी रक्खा और जिस दिन आयु का अवसान बजे दिन को उनके पास जाकर बैठ गया और बोला- | होनेवाला था उस दिन जल भी छोड़ दिया। उस दिन बाईजी! मैं आ गया, क्या आज्ञा है?' बाईजी बोलीं- | उनका बोलना बन्द हो गया। मैं बाईजी की स्मृति देखने
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के लिये मन्दिर से पूजन का द्रव्य लाया और अर्घ बनाकर । बाहर आ गया और उपस्थित महाशयों से कहने लगा बाईजी को देने लगा। उन्होंने द्रव्य नहीं लिया और हाथ | कि 'बाईजी अच्छी हैं।' सब लोग हँसने लगे। का इशारा कर जल माँगा। उसने हस्त प्रक्षालन कर गन्धोदक मैं जब बाहर आया तब बाईजी ने मोतीलालजी की वन्दना की। मैं फिर अर्घ देने लगा तो फिर उन्होंने | से कहा कि 'अब हमको बैठा दो।' उन्होंने बाईजी को हाथ प्रक्षालन के लिये जल माँगा। पश्चात् हस्त प्रक्षालनकर |बैठा दिया। बाईजी ने दोनों हाथ जोड़े 'ओं सिद्धाय नमः' अर्घ चढाया। फिर हाथ धोकर बैठ गई और सिलेट कह कर प्राण त्याग दिये। वर्णीजी ने मुझे बुलाया- 'शीघ्र माँगी। मैंने सिलेट दे दी। उस पर उन्होंने लिखा कि | आओ।' मैंने कहा- 'अभी तो बाईजी से मेरी बातचीत 'तुम लोग आनन्द से भोजन करो।'
हुई। मैंने पूछा था- सिद्ध भगवान् का स्मरण है। उत्तर बाईजी तीन मास से लेट नहीं सकती थी। उस दिन पैर पसार कर सो गईं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। का उल्लङ्घन नहीं कर सकता था।' वर्णीजी ने कहा मैंने समझा कि आज बाईजी को आराम हो गया। अब कि 'आज्ञा देनेवाली बाईजी अब कहीं चलीं गईं?' क्या इनका स्वास्थ्य प्रतिदिन अच्छा होने लगेगा। इस खुशी | ऊपर गईं है? वर्णीजी बोले 'बड़े बुद्ध हो। अरे वह में उस दिन हमने सानन्द विशिष्ट भोजन किया। दो | तो समाधिमरण कर स्वर्ग सिधार गईं। जल्दी आओ उनका बजे पं० मोतीलालजी वर्णी से कहा कि 'बाईजी की | अन्तिम शव तो देखो कैसा निश्चल आसन लगाये बैठी तबियत अच्छी है, अतः घूमने के लिये जाता हूँ।' वर्णीजी हैं?' मैं अन्दर गया, सचमुच ही बाईजी का जीव निकल ने कहा कि 'तुम अत्यन्त मूढ़ हो। यह अच्छे के चिह्न गया था, सिर्फ शव बैठा था। देखकर अशरण भावना नहीं हैं, अवसर के चिह्न हैं।' मैंने कहा-'तुम बड़े धन्वन्तरि | का स्मरण हो आयाहो। मुझे तो यह आशा है कि अब बाईजी को आराम 'राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार। होगा।' वर्णीजी बोले-'तुम्हारा सा दुर्बोध आदमी मैंने नहीं मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार॥ देखा। देखो, हमारी बात मानो, आज कहीं मत जाओ।' दलबल देवी देवता मात पिता परिवार। मैंने कहा-आज तो इतने दिन बाद अवसर मिला है और मरती विरियाँ जीवको कोई न राखन हार॥ आज ही आप रोकते हैं।
उसी समय कार्तिकेय स्वामी के शब्दों पर स्मरण कुछ देर तक हम दोनों में ऐसा विवाद चलता | जा पहुँचारहा। अन्त में, मैं साढ़े तीन बजे जलपान कर ग्राम के
जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेड़ णियमेण बाहर चल गया। एक बाग में जाकर नाना विकल्प करने
परिणामसरूवेण विण य किं पि वि सासयं अत्थि।। लगा-'हे प्रभो! हमने जहाँ तक बनी बाईजी की सेवा
सीहम्मकये पडियं सारंग जह ण रक्खए को वि। की, परन्तु उन्हें आराम नहीं मिला। आज उनका स्वास्थ्य
तह मिच्चुणा वि गहियं जीवं पि ण रक्खए को वि॥' कुछ अच्छा मालूम होता है। यदि उनकी आयु पूर्ण हो जो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, उसका विनाश गई तो मुझे कुछ नहीं सूझता कि क्या करूँगा?' इन्हीं | नियम से होता है। पर्यायरूप कर कोई भी वस्तु शाश्वत विकल्पों में शाम हो गई, अतः सामायिक करके कटरा | नहीं है। सिंह के पैर के नीचे आये मृग की जैसे कोई के मन्दिर में चला गया। वहाँ पर शास्त्र प्रवचन होता | रक्षा नहीं कर सकता, उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा गृहीत था, अतः ९ बजे तक शास्त्र श्रवण करता रहा। साढ़े इस जीव की कोई रक्षा नहीं कर सकता। इसका तात्पर्य नौ बजे बाईजी के पास पहुँचा तो क्या देखता हूँ कि | यह है कि पर्याय जिस कारणकूट से होती है, उसके कोई तो समाधिमरण का पाठ पढ़ रहा है और कोई | अभाव में वह नहीं रह सकती। प्राणी के अन्दर एक 'राजा राणा छत्रपति' पढ़ रहा है। मैं एकदम भीतर गया | आयु प्राण है उसका अभाव होनेपर एक समय भी जीव
और बाईजी का हाथ पकड़ कर पूछने लगा-'बाईजी | नहीं रह सकता। अन्य की कथा छोड़ो, स्वर्ग के देवेन्द्र सिद्ध परमेष्ठी का स्मरण करो!' बाईजी बोलीं- भैया! | भी आयु का अवसर होने पर एक समयमात्र भी स्वर्ग कर रहे हैं, तुम बाहर जाओ।' मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। में ठहरने के लिए असमर्थ हैं। अथवा देवेन्द्रों की कथा कि अब तो बाईजी की तबियत अच्छी है। मैं सानन्द । छोड़ो, श्रीतीर्थंकर भी मनुष्यायु का अवसान होने पर एक
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सेकेण्ड भी नहीं रह सकते। यह बात यद्यपि आबालवृद्ध । राजारामजी और मौजीलालजी की दुकान से चन्दन आ विदित है, फिर भी पर्याय के रखने के लिये मनुष्यों द्वारा बड़े-बड़े प्रयत्न किये जाते हैं। यह सब पर्यायबुद्धि का फल है। इसका भी मूलकारण वही है कि जो संसार बनाये हुए है। जिन्हें संसार मिटाना हो उन्हें इस पर विजय प्राप्त करना चाहिए ।
गया । श्रीयुत रामचरणलाल जी चौधरी भी आ गये। आपने भी कहा 'शीघ्रता करो।' हम लोगों ने १५ मिनट के बाद शव उठाया । उस समय रात्रि के दस बजे थे। बाईजी के स्वर्गवास का समाचार बिजली की तरह एकदम बाजार में फैल गया और श्मशान भूमि में पहुँचते पहुँचते बहुत बड़ी भीड़ हो गई ।
'हेअभावे णियमा णाणिस्स आसवणिरोहो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो ॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायइ णिरोहो । णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होई ॥'
संसार के कारण मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ये चार हैं। इनके अभाव में ज्ञानी जीव के आस्रव का अभाव होता है। जब आस्रवभाव का अभाव हो जाता है, तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव हो जाता है और जब कर्मों का अभाव जाता है, तब नोकर्म शरीर का भी अभाव हो जाता है एवं जब औदारिकादि शरीरों का अभाव हो जाता है तब संसार का अभाव हो जाता है... इस तरह यह प्रक्रिया अनादि से हो रही है और जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब यह प्रक्रिया अपने आप लुप्त हो जाती है, स्वाभाविक प्रक्रिया होने लगती है। पर्यायक्षणभंगुर संसार में भी है और मुक्ति में भी है।
बाईजी का शव देखकर मैं तो चित्रामका-सा पुतला हो गया। वर्णी जी ने कहा कि 'खड़े रहने का काम नहीं।' मैंने कहा - 'तो क्या रोने का काम है?' वर्णीजी बोले- 'तुमको तो चुहल सूझ रही है। अरे जल्दी करो और उनके शव का दाह आध घण्टे में कर दो, अन्यथा सम्मूर्छन त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी।' मैं तो किंकर्तव्य के ऊहापोह में पागल था, परन्तु वर्णीजी के आदेशानुसार शीघ्र ही बाईजी की अर्थी बनाने में व्यस्त हो गया। इतने में ही श्रीमान् पं० मुन्नालालजी, श्री होतीलाल जी, पं० मूलचन्द्रजी आदि आ गये और सबका यह मंसूबा हुआ कि विमान बनाया जावे। मैंने कहा कि 'विमान बनाने की आवश्यकता नहीं।' शव को शीघ्र ही श्मशान भूमि में ले जाना अच्छा है। कटरा में श्रीयुत सिंघई,
बाईजी का दाह संस्कार श्रीरामचरणलाल जी चौधरी के भाई ने किया । चिता धू-धू कर जलने लगी और आध घण्टे में शव जल कर खाक हो गया। मेरे चित्त में बहुत ही पश्चात्ताप हुआ । हृदय रोने को चाहता था, पर लोकलज्जा के कारण रो नहीं सकता था। जब वहाँ से सब लोग चलने को हुए, तब मैंने सब भाइयों से कहा कि - ' संसार में जो जन्मता है, उसका मरण अवश्य होता है। जिसका संयोग है उसका वियोग अवश्यंभावी है । मेरा बाईजी के साथ चालीस वर्ष से सम्बन्ध है। उन्होंने मुझे पुत्रवत् पाला । आज मेरी दशा माता विहीन पुत्रवत् हो गई है। किन्तु बाईजी के उपदेश के कारण मैं इतना दुःखी नहीं हूँ जितना कि पुत्र हो जाता उन्होंने मेरे लिये अपना सर्वस्व दे दिया। आज मैं जो कुछ उन्होंने मुझे दिया सबका त्याग करता हूँ और मेरा स्नेह बनारस विद्यालय से है, अतः कल ही बनारस भेज दूँगा। अब मैं उस द्रव्य में से पाव आना भी अपने खर्च में न लगाऊँगा।' श्री सिंघई कुन्दनलाल जी ने कहा कि 'अच्छा किया, चिन्ता की बात नहीं। मैं आपका हूँ। जो आपको आवश्यकता पड़े मेरे से पूरी करना । '
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इस तरह श्मशान से सरोवर पर आये । सब मनुष्यों ने स्नान कर अपने-अपने घर का मार्ग लिया। कई महाशय मुझे धर्मशाला में पहुँचा गये । यहाँ पर आते ही शान्ति, मुला और ललिता रुदन करने लगीं । पश्चात् शान्त हो गईं। मैं भी सो गया, परन्तु नींद नहीं आई, रह-रह कर बाईजी का स्मरण आने लगा ।
मेरी जीवन गाथा (भाग १ पृ. ४०७ - ४१६ ) से साभार
आपन को न सराहिये, पर निन्दिये नहि कोय । चढ़ना लम्बा
धौहरा, ना जानै क्या होय ॥ संत कबीर
अर्थ- अपने आपको कभी मत सराहो ( अपनी प्रसंशा मत करो) और दूसरों की निंदा मत करो। क्योंकि अभी तुम्हें आचरण रूपी लम्बे (ऊँचे ) मीनार पर चढ़ना है, न जाने क्या हो ( न जाने सफल हों कि नहीं) ।
16 मई 2008 जिनभाषित
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संसार परिभ्रमण का कारण शल्यत्रय
आर्यिका श्री सुशीलमती जी
(परम पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी की शिष्या) शल्य का स्वरूप- 'शृणाति हिनस्तीति शल्यम्' । शुद्धात्मभावना से उत्पन्न निरन्तर आनन्दरूप सुखामृतजल यह शल्य शब्द का निरुक्ति अर्थ है। जो प्राणी को पीड़ा | से अपने चित्त की शुद्धि न करते हुए बाहर में बगुले देता है वह शल्य है, ऐसी तत्त्वज्ञों ने शल्य शब्द की जैसे वेष को धारण कर लोगों को प्रसन्न करना मायाव्याख्या की है। जिस प्रकार शरीर में लगा हुआ या | शल्य कहलाती है। चुभा हुआ बाण या काँटा आदि प्राणी को दुःखी करता निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि और प्रतिकुंचन है, उसी प्रकार शल्य भी प्राणी को संसार-परिभ्रमण कराते | ये माया के पाँच प्रकार हैं। धन के विषय में अथवा हुए व्यथित करता है।
अन्य किसी कार्य के विषय में जिसकी अभिलाषा उत्पन्न शल्य के भेद- माया, मिथ्या और निदान के हुई है, ऐसे मुनष्य को फँसाने का, ठगने का चातुर्य भेद से शल्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भावशल्य | निकृति माया है। अच्छे परिणामों को छिपाकर धर्म के के भेद से दो प्रकार का भी शल्य होता है। मिथ्यादर्शन, | निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति उपधि माया है। माया और निदान ऐसे तीन शल्यों की जिनसे उत्पत्ति | धन के विषय में असत्य बोलना, किसी की धरोहर होती है ऐसे कारणभत कर्म को द्रव्यशल्य तथा इनके | का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा प्रशंसा उदय से जीव के माया, मिथ्या व निदानरूप परिणाम | करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक मूल्य की सदृश भावशल्य है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग के भेद से | वस्तुएँ आपस में मिलाना, तौल और माप के सेर, पसेरी चार भेद भावशल्य के तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र | आदि बाँटों का अथवा माप-तौल के अन्य साधनों को शल्य के भेद से द्रव्यशल्य तीन प्रकार का है। । कम-अधिक रखकर उनसे लेन-देन करना, असली
शंका, कांक्षा आदि सम्यग्दर्शन के शल्य हैं। अकाल | नकली पदार्थ परस्पर में मिलाना यह सब प्रणिधि माया में पढ़ना और अविनयादि करना ज्ञान के शल्य हैं। समिति | है। आलोचना करते समय अपने दोषों को छिपाना
और गुप्तियों में अनादर रहना चारित्रशल्य, असंयम में | प्रतिकुंचन माया है। परिणति योगशल्य है। दासादिक सचित द्रव्यशल्य, सुवर्णादि । इस प्रकार माया का भेद-प्रभेदों सहित स्वरूप पदार्थ अचित्त द्रव्यशल्य तथा ग्रामादि मिश्रशल्य हैं। इस | जानकर इसका परित्याग कर देना चाहिए। मायाचारी पुरुष प्रकार शल्य के भेद-प्रभेदों का वर्णन भगवती-आराधना | अन्य लोगों की वञ्चना करके मन में यह सोचता है में किया है। प्रस्तुत लेख में मुख्यतया माया, मिथ्या और | कि मैंने अमुक व्यक्ति को ठग लिया, किन्तु ऐसा सोचने निदान शल्य सविस्तार विवेच्य हैं अतः उद्देश्यानुसार उन्हीं | और करनेवाला आत्मवञ्चना करता है, स्वयं को ठगता का स्वरूप आगे वर्णित है।
है। मायाचारी व्यक्ति के मन-वचन-काय ऋजु नहीं होते। माया शल्य : स्वरूप- आत्मा का कुटिलभाव | वह मन से कुछ चिंतन करता है, वचनों से अन्य ही माया है, इसे निकति या वंचना भी कहते हैं। दसरों| अभिव्यक्त करता है तथा कार्य से कछ और ही चेष्टा को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किये | करता है। मायाचार करनेवालों का इहलोक और परलोक जाते हैं, वे माया हैं। यह बाँस की गँठीली जड़, मेंढे | दोनों ही पापमय होते हैं। शास्त्रों में अनेक दृष्टांत भरे का सींग, गोमूत्र की वक्र रेखा और अवलेखनी के समान | पडे हैं, जिनने भी मायाचार किया, जो मायाशल्य से चार प्रकार की होती है।
विद्ध थे, उनका इहलोक में तो अपमान हुआ ही, किन्तु राग के उदय से परस्त्री आदि में वाञ्छारूप तथा | परलोक भी दुःखों से भरा हुआ मिला। कौरवों ने पांडवों द्वेष से अन्य जीवों के मारने, बाँधने अथवा छेदने रूप | के साथ कितनी बार मायाचार किया, मात्र ऐश्वर्य के मेरे दुर्ध्यान को कोई नहीं जानता ऐसा मानकर निज- | लोभ में उनका प्राणान्त तक करने के लिए मायाजाल
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रचा, लाक्षा गृह में पांडवों को जलाने का षडयंत्र किया, । है । ये सब तो संसार के कारण हैं, किन्तु ये मुक्ति के
कारण हैं, ऐसा मानना तो प्रत्यक्ष विपर्यास है।
विनय - परमार्थ देव - शास्त्र - गुरु तथा दर्शन - ज्ञानचारित्र और तपरूप समीचीन आराधनाओं का, जिस प्रकार विनय किया जाता है, उसी प्रकार रागी, द्वेषी, संसारी पुरुषों का या अन्य मिथ्याधर्मों का तथा कुतप तपनेवाले पुरुषों का भी विनय करना, उनकी प्रशंसादि करना विनयमिथ्यात्व है।
किन्तु पुण्यशाली चरमशरीरी तथा सर्वार्थसिद्धि विमानों में उत्पन्न होनेवाले वे महात्मा पुरुष कैसे जल सकते थे? हाँ! कौरवों के कारण उनको १२ वर्ष तक, माता कुन्ती और अर्जुन-पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास के कष्ट पूर्वकर्मोदय होने से अवश्य भोगने पड़े । अन्त में मायावी कौरवों का पतन हुआ । इसी प्रकार रावण का दृष्टांत भी है। रावण सीता को मायाचार करके चुराया, परिजनों के समझाने पर भी, उसने सीता को वापस नहीं किया । युद्ध में विजय प्राप्त की राम ने, तथा रावण अपने परिजनों का (विभीषणादि का) शत्रु भी बना और अन्त में मरण को प्राप्त होकर श्वभ्र (नरक) गामी बना। यह माया शल्य महादोषों की खानि - स्वरूप है और आत्मा को दुर्गति का पात्र बनानेवाली है, अतः कल्याणेच्छु जनों को भविष्य में तिर्यंचयोनि के कारणभूत मायाचार का परित्याग करना चाहिए।
मिथ्यादर्शन शल्य - मिथ्यात्वकर्म के उदय से तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है, उस अश्रद्धान से भगवान् अर्हन्त परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान, तथा जीवादि तत्त्वों के स्वरूप में अश्रद्धान होता है, यही मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यात्व के प्रकार- मिथ्यादर्शन एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है । गृहीत - अगृहीत के भेद से दो प्रकार का भी है। इसके नैसर्गिक और परोपदेश की अपेक्षा भी दो भेद पाये जाते हैं। अथवा ३६३ मिथ्यामतवादियों की अपेक्षा इसके ३६३ भेद भी हैं । परमागम से अन्य भेद भी जान लेना चाहिए।
एकान्त- यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकान्तरूप अभिप्राय रखना, जगत के पदार्थ सत् ही हैं, असत् ही हैं, एक ही है, अनेक ही हैं, सावयव ही हैं, निरवयव ही हैं, नित्य ही हैं, अनित्य ही हैं इत्यादि एकान्त अभिनिवेश को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं ।
विपरीत- सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना, स्त्री को मुक्ति होती है, इस प्रकार मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है । विपरीत मिथ्यादृष्टि हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, राग-द्वेष, मोह और अज्ञान से ही मुक्ति होती है, ऐसे अभिनिवेश से युक्त होता
18 मई 2008 जिनभाषित
संशय- जिसमें तत्त्वों का निश्चय नहीं है, ऐसे संशयज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले श्रद्धान को संशयमिथ्यात्व कहते हैं । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं या नहीं, इस प्रकार संशय बना रहता है। जिसे पदार्थों के स्वरूप का निश्चय नहीं है, उसे 'जीवादि पदार्थों का स्वरूप ऐसा ही है' इस प्रकार का निश्चयात्मक श्रद्धान नहीं होता है । अर्थात् संशय मिथ्यादृष्टि को सर्वत्र सन्देह ही रहता है, वह निश्चय नहीं कर पाता ।
अज्ञान - नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञानमिथ्यात्व कहते हैं। अज्ञानमिथ्यादृष्टि 'पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश देता है। उसके मत में हितअहित का बिलकुल भी विवेचन नहीं है। वह अज्ञान से ही मोक्ष मानता है।
इस प्रकार मिथ्यादर्शन का स्वरूप, भेद-प्रभेद आदि को परमागम के अनुसार, भली-भाँति समझकर उसका परित्याग करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ भी अकल्याणकारी नहीं है।
निदानशल्य- भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण नियम से चित्त दिया जाता है, वह निदान है। अर्थात् भोगों की लालसा निदान है। निदान नाम का शल्य दुःखद होने से उसे भी गणधरादि महापुरुषों ने त्याज्य माना है ।
निदान के भेद- प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से निदान दो प्रकार का है। प्रशस्त निदान भी दो प्रकार का है। एक संसारमूलक और दूसरा मोक्ष में कारणभूत । अप्रशस्त निदान भी भोगकृत और मानकृत के भेद से दो प्रकार का है।
पुरुषत्व, वज्रवृषभनाराचादि उत्कृष्टसंहनन, वीर्यान्त
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रायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाला दृढ़परिणाम | पद, चक्रवर्तीपद आदि भोगों के लिए इच्छा करना आदि मोक्ष की साधनभूत सामग्री मुझे प्राप्त हो, मेरे दुःखों | भोगनिदान है। का नाश, कर्मों का क्षय हो, बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति | जिस प्रकार कोई कुष्ठरोगी कुष्ठरोग की नाशक हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र भगवान् के गुणों की प्राप्ति | रसायन को प्राप्तकर उसको जलाता है, उसी प्रकार निदान हो इत्यादि जो निदान-प्रार्थना है, ये प्रशस्त-निदान हैं और | करनेवाला मनुष्य सर्वदुःखों का नाश करने में समर्थ संयम मोक्ष की कारणभूत सामग्री की इसमें याचना की गई | का भोगक़त निदान से नाश करता है। जो प्राणी भोगों है। अथवा जिनधर्म की प्राप्ति होने के योग्य देश | की आसक्ति में अपना मन लगाता है उसे हितकर(आर्यक्षेत्र), योग्य स्थान, जहाँ वीतरागधर्म के आराधक | अहितकर का परिज्ञान नहीं होता। सर्पदंश से युक्त मनुष्य श्रावक रहते हैं और भाव-शुभपरिणाम, धनिक एवं बन्धु- | के समान वह मूर्छा, दाह और प्रलाप से सहित होता बांधवों से संयुक्त परिवार में उत्पन्न होने का निदान करना | है। भोगासक्ति के कारण वह उनकी पूर्ति के अभाव संसार सम्बन्धी प्रशस्त निदान है।
| में अपने आपको दुःखी अनुभव करता है और पूर्ति उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रशस्त निदानों में प्रथम | होने पर भोगों के प्रति तृष्णावृद्धि से भी दु:खी होता निदान मोक्ष की कारणभूत सामग्री का याचक होने से | है। सर्वथा त्याज्य नहीं है। अप्रशस्त निदान तो सर्वथा त्याज्य इस प्रकार तीनों ही प्रकार के शल्य जीव को ही हैं, निंद्य हैं और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश कराने में बाधक |
| कष्टदायक हैं। अतः अहिंसादि व्रतरूप सम्पत्ति के धारक हैं। क्रुद्ध होकर मरण-समय में शत्रुवधादि की इच्छा करना | भव्यजन हृदय में प्रविष्ट माया, मिथ्या व निदानरूप अप्रशस्तानदान है। अथवा मान के वशीभूत होकर उत्तम | शल्यत्रय का परित्याग करें। संसार परिभ्रमण के कारणभत मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य | इन तीनों शल्यों को पृथक् करके ही संयमधारणपूर्वक पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और | इस कलिकाल में भी स्वर्गगमन कर वहाँ से पुनः मनुष्य सुन्दरपना इत्यादि की प्रार्थना करना मानकृत अप्रशस्त | पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं। तथा मनुष्य पर्याय में निदान है। यद्यपि आचार्य गणधर और तीर्थंकर जैसे पदों | पुनः संयम धारण कर अनादिकालीन कर्मबन्ध से आत्मा की इच्छा की गई हो, तो भी मानकषाय से दूषित होने | को मुक्तकर शाश्वत सुख के स्थानभूत मोक्ष को प्राप्त से वह अप्रशस्त निदान ही है। देव-मनुष्यों में प्राप्त होने | कर सकते हैं। वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है।
'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दनग्रन्थ' श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपद, केशवपद, नारायण-प्रतिनारायण
से साभार
अन्तर्जगत किसी सज्जन ने आचार्य भगवन्त से कहा- आज पुनः देश भोग से योग की ओर लौट रहा है। आज जगह-जगह पर योगशिविर आयोजित किये जा रहे हैं। योगासन के माध्यम से लोगों को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी से बड़ी बीमारियों में भी लोगों को योगासन से लाभ मिल रहा है। आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले कि "योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय नहीं अंतर्जगत् है।" __योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को बाह्य जगत से हटाकर अंतर्जगत् की ओर ले आना। यह कितनी गम्भीर बात गुरुदेव के श्रीमुख से हम लोगों को उपलब्ध हुई, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतर्दृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है- योग के माध्यम से मन-वचन-काय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना।
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 30.08.2005) मुनिश्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार
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साहू श्री नेमिचन्द्र
पं० कुन्दनलाल जैन साहू नेमिचन्द्र अपने समय के बड़े धार्मिक, अति | जब वे शिकार खेलने गये तो दिल्ली के आस-पास धनिक एवं प्रतिष्ठित श्रेष्ठी थे। उन्हें देव, शास्त्र और | आकर उन्होंने देखा कि एक खरगोश उनके शिकारी गुरु पर असीम आस्था थी। उनके विषय में विस्तार | कुत्ते से जूझ रहा है और उसे दुःखी कर रहा है। से लिखने से पूर्व उन महाकवि का परिचय कराना | इसे देख राजा कल्हण बड़े विस्मित हुए और उन्होंने नितान्त आवश्यक है, जिनके कारण साहू नेमिचन्द्र की इसे वीर-भमि समझ वहाँ एक लोहे की कील्ली गाड यशोगाथा अमर हो गई और लोग उन्हें आज श्रद्धा से | दी और उस स्थान का नाम कील्ली अर्थात कल्हणपर स्मरण करते हैं।
| रख दिया। कई पीढियों बाद जब वहाँ किला बनवाने वे महाकवि थे, अपभ्रंश भाषा के श्रेष्ठ कवि की बात आई तो राजपुरोहित से भूमि-पूजन तथा स्थानविबुध श्रीधर। अपभ्रंश में रचना करनेवाले श्रीधर नाम | शुद्धि को कहा। राजपुरोहित ने पुनः उसी स्थान पर कील्ली के कई कवि हुए हैं। साहू नेमिचन्द्र के आग्रह, अनुनय- गाड़ी और कहा कि पाँच मुहूर्त तक इसे कोई न छेड़े। विनय और प्रार्थना पर अपभ्रंश में 'वड्ढमाण चरिउ' | जब तक यह कील्ली गडी रहेगी तोमर वंश अखण्ड की रचना करनेवाले कविश्रेष्ठ विबुध श्रीधर का समय | और चिरस्थायी बना रहेगा, इसे कोई भी परास्त न कर वि. सं. ११९० है।
सकेगा। इतनी भविष्यवाणी कर राजपुरोहित चले गये। कवि विबुध श्रीधर ने छह काव्यों की रचना राजपुरोहित के जाते ही राजा अनंगपाल द्वितीय की- (१) 'पासणाहचरिउ' जो नट्टल साहू की प्रार्थना | ने जिज्ञासावश वह कील्ली तुरन्त उखाड़ दी जिससे पर की, (२) 'वड्ढमाणचरिउ' जो साहू नेमिचन्द्र की | वहाँ रक्त की धारा बह निकली, कील्ली का अग्रभाग प्रार्थना पर की, (३) 'सुकुमालचरिउ' जो पीथे साहू | भी रक्तरंजित था। जब पुरोहित को पता चला तो, वह के पुत्र कुमर की प्रार्थना पर की, (४) 'भविसयत्तकहा' | बड़ा दुःखी हुआ और उसने कहा- हे राजन्, इस कील्ली जो सुपट्ट साहू की प्रार्थना पर की, (५) 'संति-जिणेसर-के ढीली होने से तुम्हारा राज्य भी ढीला हो जाएगा। चरित' और (६) 'चंदप्पहचरिउ'। इनमें से अन्तिम दोनों| तब से यह स्थान दिल्ली के नास से प्रसिद्ध हुआ। रचनाएँ अप्राप्य हैं, अतः उनके विषय में कुछ भी | बाद में यह दिल्ली नाम में परिवर्तित हुआ। विभिन्न नहीं कहा जा सकता। विभिन्न भण्डारों में ढूँढने से | कालों में दिल्ली को विभिन्न नामों से ख्याति मिली। ये दोनों ग्रन्थ मिल सकते हैं।
यथा- इन्द्रप्रस्थ, योगिनीपुर शाहजहानाबाद आदि-आदि कवि की उपर्युक्त रचनाएँ वि. सं. ११८९ से | लगभग १५-१६ नाम दिल्ली के इतिहास में विख्यात वि. सं. १२३० के मध्य की हैं। उन्होंने 'पासणाहचरिउ' | हैं। में दिल्ली का जो ऐतिहासिक वर्णन प्रस्तुत किया है, कवि विबुधश्रीधर, जब हरियाणा से चलकर दिल्ली वह तत्कालीन इतिहास का बहुमूल्य साक्ष्य एवं तथ्य | में अपने परम भक्त साहू अल्हण के घर ठहरे तो, है और सभी इतिहासकार इसे प्रामाणिक रूप में स्वीकार | उन्होंने बड़े आदर एवं भक्तिभाव से कवि का सत्कार करते हैं, जो सर्वथा निर्विवाद और सत्य है। कवि | किया। एक दिन साहू अल्हण ने तत्कालीन राजश्रेष्ठी हरियाणा के निवासी थे और अग्रवाल जैन थे। जब | प्रसिद्ध सार्थवाह साहू नट्टल की चर्चा की और उनसे वे यमुना पारकर दिल्ली आये, तब वहाँ अनंगपाल | भेंट करने को प्रेरित किया, पर कवि विबुध श्रीधर तोमर द्वितीय का राज्य था। दिल्ली को उस समय | ने सेठों के दुर्जन-भाव के कारण वहाँ जाने से इन्कार दिल्ली क्यों कहा जाता था, यहाँ इसकी थोड़ी-सी चर्चा | कर दिया। कर देना कुछ अप्रासंगिक न होगा।
तब अल्हण साहू ने कविवर को विश्वास दिलाया 'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार अनंगपाल के पूर्वज कि नट्टल साहू ऐसे सेठ नहीं हैं, वे बड़े धार्मिक और कल्हण राजा हस्तिनापुर में राज्य करते थे। एक बार | विद्वानों का आदर करनेवाले हैं। अतः आप एक बार
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तो अवश्य ही उनसे मिलिए। मैं आपके साथ रहूँगा। | एवं प्रतिष्ठा का पता लगता है। अल्हण साहू से इस तरह आश्वस्त हो कविवर नट्टल साहू नेमिचन्द्र धार्मिक, दयालु, परोपकारी थे और साहू से मिलने गये।
जिनभक्ति आदि गुणों से मंडित थे। प्रशस्ति में प्रयुक्त नट्टल साहू को जब कविवर के शुभागमन का | 'न्यायान्वेषण तत्परः' तथा बन्दिदत्तोतुचन्द्रः' जैसे विशेषणों पता चला, तो वे स्वयं उनकी अगवानी के लिए दलबल- से ज्ञात होता है कि साहू नेमिचन्द्र राज-सम्मानित पदाधिकारी सहित नंगे पाँव पैदल यात्रा करके आये और उन्हें बड़े | थे, और न्याय-विभाग में संबंधित दण्डाधिकारी के पद भक्ति-भाव से आदरसहित घर ले आये। श्रद्धासहित | पर आसीन थे। साहू नेमिचन्द्र अपने समय के प्रतिष्ठित उनका सत्कार किया, प्रतिदिन उनसे शास्त्र-प्रवचन सुना। व्यापारी थे, तथा उनका व्यापारिक संबंध राज्य से बाहर उनके व्यक्तित्व, विद्वत्ता एवं प्रतिभा से प्रभावित हो | विदेशों से भी था। लगता है वे अपने समय के बड़े नट्टल साहू ने कविवर से पार्श्वप्रभु का चरित्र सुनने | भारी सार्थवाह भी रहे हों, जिनके जहाज, यहाँ का माल की हार्दिक अभिलाषा प्रकट की। कविवर ने उनके | | विदेशों में ले जाते और वहाँ का माल यहाँ लाते थे। अनुरोध पर 'पासणाहचरिउ' की रचना की। कविवर साहू नेमिचन्द्र ज्योतिषशास्त्र एवं खगोलविद्या में के कहने, पर नल साह ने महरौली के पास भगवान् | भी निष्णात एवं पारंगत थे। साहू नेमिचन्द्र प्रतिष्ठित आदिनाथ का जिनालय निर्माण कराया, जिसके ध्वंसावशेष राज-सम्मानित अधिकारी थे, वे सज्जनों की प्रशंसा करते अभी भी कुतुबमीनार के आस-पास के खण्डहरों में तथा दुष्टों को दण्ड देते थे। वे साधुस्वभावी थे। इतनी यत्र-तत्र देखने को मिल जाते हैं।
अधिक भोग-सम्पदा को भोगते हुए भी, वे संसार से कवि विबुधश्रीधर का जन्म वि.सं. ११५४ के | सदा विरक्त रहते थे, गुणीजनों का सम्मान करते थे, आस-पास माना जाता है। वे लगभग ७६ वर्ष की आयु | जिनमंदिर में मुनिजनों से समताभावपूर्वक धर्म-चर्चा सुना तक साहित्य-रचना करते रहे। इनके पिता का नाम करते थे, समता-भाव धारण करते हुए बारह अनुप्रेक्षाओं गोल्हपा था, माता का नाम बील्हा। इसके अतिरिक्त का चिन्तन करते थे, स्वयं स्वाध्याय-प्रेमी और विद्वज्जनानरागी कवि के विषय में कोई और अधिक जानकारी नहीं | थे, शंकादिक दोषों से रहित दस धर्मों का पालन करते मिलती है। कवि ने वोदाउव (बदायूँ) निवासी जैसवाल थे और मिथ्यात्व का नाश करते थे। वे अपने कुलकुलोत्पन्न श्री नरवर और उनकी पत्नी सोमइ (सुमति) | कमल के लिए सूर्य के समान थे, तथा कुलकीर्ति को के पुत्र साहू नेमिचन्द्र के अनुरोध और प्रार्थना पर | बढ़ानेवाले थे, आगम-सम्मत पर-मतों की बातों को भी वड्ढमाणचरिउ की रचना की थी।
मानते थे। वे संवेगादिक गुणों से अलंकृत थे तथा प्रतिदिन कवि ने अपने ग्रन्थ वड्ढमाणचरिउ की प्रत्येक | जिनार्चन किया करते थे। इस तरह साहू नेमिचन्द्र अनेक संधि के अन्त में साहू नेमिचन्द्र की प्रशंसा में एक- | मानवीय एवं धार्मिक गुणों से सम्पन्न थे, इसीलिए कवि एक संस्कृत श्लोक लिखा है, इस प्रकार साहू नेमिचन्द्र | विबुधश्रीधर ने साहू नेमिचन्द्र की प्रशंसा में नौ श्लोकों की इन श्लोकों द्वारा एक अच्छी-खासी प्रशस्ति बन | की प्रशस्ति लिखी और उनके अनुरोध पर कवि ने जाती है।
'वड्ढमाणचरिउ' रचा। ऐसे गुणानुरागी श्रेष्ठी को शतसाह नेमिचन्द्र की पत्नी का नाम वाणी था। इनके | शत नमन है। रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र नाम के तीन पुत्र थे।
जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व कवि के प्रशंसात्मक श्लोकों से साहू नेमिचन्द्र के गुणों ।
(भाग १) से साभार
दिगम्बरत्व
श्रुत की मेंहदी दिगम्बरत्व के निकट न पहुँचे
श्रुत की मेंहदी रची हुई है, जब अपूर्व विद्वान।
विद्वानों के कर कमलों में। तो कैसे बन सकता है वह
समयसार के सुमन खिल रहे, वीतराग भगवान॥
निःस्पृहता के गमलों में। योगेन्द्र दिवाकर, सतना (म.प्र.)
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साधर्मी-विवाह-सम्बन्ध आगमोक्त
डॉ० राजेन्द्रकुमार 'बंसल '
आचार्य पद्मनन्दि के ‘पद्मनंदि पंचविंशतिका' के । वाले धर्मचन्द्र नाम के जैन युवक ने अंग्रेज युवती से निम्न श्लोक में कलिकाल में श्रावक का महत्त्व दर्शाया शादी की। उसका पिता उच्च पद पर था और लड़की गया हैने जैनधर्म स्वीकार लिया था। समाज ने देवदर्शन का घोर विरोध किया। पं. श्री देवकीनन्दन जी ने साहस पूर्वक मंदिरजी के द्वार खुलवाकर नव-युगल को मंदिर में प्रवेश कराया और मंच से उन्हें मंगल आशीर्वाद भी दिया । (स्मृतिग्रंथ - पृ.77)
संप्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः । धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ॥ 6/6 अर्थ - इस कलिकाल में जिनालय, मुनि, धर्म और दान, इन सबका मूल कारण श्रावक है। श्रावक न हो तो इनमें से, कोई भी रक्षित नहीं रह सकता। इन सब की स्थिति तभी तक है, जब तक श्रावक और श्राविकाओं में धार्मिक प्रेम है ।
गृहस्थ जीवन का आधार विवाह है। विवाह सम्बन्ध किनके मध्य हो, इसका निर्धारण आगम के, आलोक में, सुनिश्चित सामाजिक परम्पराओं द्वारा होता है। ये परम्पराएँ देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार अपने मूल सिद्धान्त को कायम रखते हुए बदलती रहती हैं। विवाहपद्धति आदि में भी तद्नुसार परिवर्तन होता रहता है। जैन समाज में विवाह सम्बन्धों की आगमिक व्यवस्था पर प्रकाश डालना इस आलेख का उद्देश्य है ।
समाज में दो विचारधाराएँ प्रवहमान हैं। महासभा के अनुसार अपनी-अपनी जाति में ही विवाह सम्बन्ध होना चाहिए। इसे सजातीय विवाहप्रथा कहते हैं। और विधवाविवाह नहीं होना चाहिए। परिषद् के अनुसार, अंतर्जातीय और विधवा विवाह करना समाज के हित में है, अतः उसको करना चाहिए ।
विद्वत्परिषद के खुरई अधिवेशन में पं. देवकीनन्दन जी सिद्धांतशास्त्री स्मृतिग्रंथ उपहार में मिला था, उसका अध्ययन कर रहा था । बहुत ही रोचक और प्रेरक ग्रंथ है। तत्कालीन समाजिक चिंतन का दर्पण भी है। पं. जी सा. निःस्पृही, निरभिमानी, स्वाभिमानी, आगमवेत्ता, समाजसुधारक, शिक्षा-विद्, समस्या निवारक और साहसी वृत्ति के थे । व्याख्यान वाचस्पति के नाम से प्रसिद्ध थे । स्मृतिग्रंथ के दो प्रसङ्ग प्रस्तुत हैं
1. सन् 1937-38 में परवारसभा अधिवेशन जबलपुर में आयोजित था। पं. जी सा. सभापति थे, गजरथविरोधी वातावरण था । विस्फोटक स्थिति थी। पं. जी सा. ने समाधान निकाला। वहाँ फेरी द्वारा कपड़ा बेचने । 22 मई 2008 जिनभाषित
2. दिनाङ्क 9 - 10 नवम्बर 1933 को ब्यावरा (राज.) में शास्त्री परिषद् का अधिवेशन था। वहाँ परम पू. आचार्य शांतिसागर जी (दक्षिण) और आ. शांतिसागर जी (छाणी) दोनों विराजमान थे । शास्त्री परिषद् के सभापति श्री सेठराव जी सखाराम दोशी थे । वे श्री पं. मक्खनलाल जी आदि विद्वानों के सहयोग से 'अंतर्जातीय विवाह शास्त्रानुकूल नहीं है, यह शास्त्रविरुद्ध है'- यह प्रस्ताव पास कराना चाहते थे । इसका चक्रव्यूह रचा गया। श्री पं. देवकीनन्दन जी को कारंजा से बुलाया गया। पं. जी अंतर्जातीय विवाह को आगम विरुद्ध नहीं मानते थे। वहाँ पं. जी के साथ, पं. श्री धन्नालाल जी के साथ गरमा-गरमी भी हुई। रात्रि में विषयसमिति में दर्दनाक दृश्य उपस्थित हुआ। पं. जी को दबाने का बहुत प्रयास किया गया। उन्होंने कहा कि विदर्भ में गंगेरवाल जैन जाति के 100-200 सगोत्री घर हैं। उन्होंने कहा कि सगोत्री शादी की अपेक्षा साधर्मी बंधुओं में परस्पर विवाह करना अधिक अच्छा है। इससे जैनजातियाँ बनी रहेंगी।
दूसरे दिन शास्त्रार्थ हेतु प्रतिपक्षियों ने बहुत प्रयास किया। पं. अजितकुमार शास्त्री और पं. शोभाचंद जी भारिल्ल ने पं. जी का सहयोग करने को कहा, किन्तु पं. देवकीनन्दन जी ने विश्वासपूर्ण शब्दों में कहा- 'मुझे और शास्त्रों के प्रमाणों की कोई आवश्यकता नहीं है, मेरा सागारधर्मामृत इस के लिए काफी है।' पं. जी सा. ने पू. आचार्य श्री को भी सचेत किया- 'महाराज ! मुझे शास्त्रार्थ के लिए सभा में खड़ा मत करिए । सभा जीतना मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल है।'
दो दिन तक पूरा प्रयत्न करके शास्त्रार्थ टाला ही गया। चर्चा मात्र में गर्मी पूरी वह गयी । 'भाव्यवश्यं भवेदेव' होनहार हो कर होती ही है। स्वयं सभापति दोशी जी
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के पुरुषार्थी सुपुत्र श्री अरविंद भाई का अंतर्जातीय विवाह | वाणिज्य और शिल्प का ज्ञान कराया। धर्म, अर्थ, काम हुआ और शास्त्रार्थ के लिए अगुवा बनाए गए पं. जी | पुरुषार्थ और बाद में मोक्ष का मार्ग बताया। वर्णमाला सा. की विचारधारा को प्रश्नचिन्हित कर दिया। अभी | और अङ्क विद्या की शिक्षा दी। त्रिवर्ण समाज व्यवस्था भी सजातीय विवाह के समर्थन-कर्ताओं के घर में | में उन्होंने राज्य शासन एवं प्रजा-समाज की व्यवस्था अंतर्जातीय और विजातीय लडकियाँ विवाहित होकर घर | के नियम बनाए। आपने वर्ण व्यवस्था की सुरक्षा हेत की शोभा बढ़ा रही हैं। विचित्र विरोधाभास है आगमज्ञ | विवाह के नियम बनाए। एवं समाजसुधारकों के जीवन में। (स्मृतिग्रंथ, पृ. 98/99) | वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत विवाह व्यवस्था का वर्णन
सागारधर्मामृत : उक्त प्रकरण पढ़कर सागारधर्मामृत | सोलहवें पर्व के श्लोक 247 में है, जो इस प्रकार हैपढने की प्रेरणा हुई। उसके एकादश अध्याय (द्वितीय शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगमः। अध्याय) का श्लोक इस प्रकार है
वहेत् स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः॥ आधानादिक्रियामन्त्र-व्रताद्यच्छेदवाञ्छया ।
(16-247) प्रदेयानि सधर्मेभ्यः कन्यादीनि यथोचितम्॥ 57॥ अर्थ- शूद्र, शूद्र कन्या के साथ ही विवाह करे,
अर्थ- गर्भाधान आदि क्रियाएँ उन क्रियाओं संबंधी | वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कन्या से विवाह नहीं मंत्र अथवा पंच नमस्कार मंत्र और मद्य आदि के त्यागरूप | कर सकता। वैश्य, वैश्य कन्या और शूद्र कन्या के साथ व्रतों को सदा बनाए रखने की इच्छा से यथायोग्य कन्या विवाह करे। क्षत्रिय, क्षत्रिय कन्या, वैश्य कन्या और शूद्र आदि साधर्मी को देना चाहिए। विशेषार्थ में लिखा है | कन्या के साथ विवाह करे तथा ब्राह्मण, ब्राह्मण कन्या कि यदि लड़की अजैन कुल में जाती है तो उसके | के साथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देश में वह व्रत, नियम, देव-पूजा, पात्रदान सब छूट जाते हैं। इस | क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्याओं के साथ भी विवाह तरह से धर्म ही छूट जाता है। यदि अपने समान न | कर सकता है। । मिले तो मध्यम पात्र को भी देने का विधान है, किन्तु |
(आदि पुराण, भाग-1, पृ. 368) विधर्मी या अधर्मी को देने का विधान नहीं किया है।
धवला के अनुसार एकेन्द्रियादि पाँच जातियाँ होती श्लोक 58 में कन्यादान की विधि और उसका | हैं और अतीत जातिरूप स्थान भी है। (धवला 2/1फल दिया है। विशेषार्थ में लिखा है कि भारत में विवाहिता
| 1/412/4)। यह प्रस्तुत प्रकरण से असम्बद्ध है। को केवल पत्नी नहीं कहते, धर्मपत्नी कहते हैं क्योंकि
आचार्य कल्प पं. आशाधरजी कृत सागारधर्मामृत वह पति के धर्म की भी सहचारिणी होती है। पत्नी
एवं आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण की समाजव्यवस्था के योग्य होने पर ही, पति का भी योगक्षेम चलता है | से यह स्पष्ट है कि वर्षों की स्थिति के अनुसार साधर्मी और धर्मसाधन होता है।
| बन्धुओं के मध्य शादी-विवाह करना मान्य है। इसका श्लोक 59 में कहा है कि सत्कन्या देनेवाले पिता | फलित परिणाम यह है कि वैश्य साधर्मी वैश्य और को अपने साधर्मी का उपकार करने से महान् पुण्य बंध
साधर्मी शूद्र कन्या के साथ भी विवाह कर सकता है। होता है। विवाहसंबंध विभिन्न गोत्रवाले साधर्मी बन्धुओं ऐसी स्थिति में साधर्मी जैन उपजातियों के मध्य विवाहमें होता है। यदि लड़की जन्मजात जैन नहीं है तो, उसको | संस्कार होना सहज-सामान्य है. इसमें आगमिक बाधा महापुराण के 38-39 पर्यों में वर्णित विधि से जैनधर्म
नहीं है। विधर्मी वैश्य एवं सगोत्री-सहधर्मी के मध्य विवाह में दीक्षित करके विवाह करना चाहिए। यही शास्त्र की | सम्बन्ध वर्जित है। पं. आशाधर जी ने यह अवश्य निर्देश आज्ञा है। साधर्मी अर्थात् अंतर्जातीय विवाह मान्य है, | दिया है कि कन्या निर्दोष हो, वर कलीन और सुशील आगमोक्त है। सजातीय संबंध न मिले तो अंतर्जातीय | हो। कहा है- कुल, शील, सनाथता, विद्या, धन, शरीर साधर्मी विवाह आगमोक्त है।
और आयु इन सात गुणों की परीक्षा करके ही कन्या आदिपराण-भाग 1: आदिब्रह्मा भ. ऋषभदेव | देनी चाहिए। प्रथम कल को स्थान दिया है। अकलीन ने प्रजाजनों के हितार्थ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की | को कन्या कभी भी नहीं देना चाहिए। स्थापना कर, आजीविका हेतु असि, मसि, कृषि, विद्या, | प्रख्यात शोधमनीषी स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमी के
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अनुसार दक्षिण महाराष्ट्र एवं कर्नाटक प्रांत की चार जैन। निष्कर्ष- विद्यमान संदर्भ में जबकि अति खुली जातियों यथा-पंचम, चतुर्थ, कासार-बोगार एवं शेतवालों | समाजव्यवस्था स्वतः प्रगट हो रही है, नेतृत्व और विद्वान्में परस्पर रोटी-व्यवहार होता है। इन सभी जातियों में | समाजसधारकों को विवाह व्यवस्था के संबंध में उपर्यक्त विधवा-पुनर्विवाह जायज है। (जैन सा. और इति./प्र. शास्त्रोक्त व्यवस्थानुसार उदारतापूर्वक विचार करना चाहिए, 504-506)। विधवाविवाह की इस प्रथा को ध्यान में जिससे कि विजातीय-विधर्मी विवाह-सम्बन्धों पर नियंत्रण रखकर ही आचार्य श्री शांतिसागर जी (चतुर्थजाति) ने किया जा सके। ऐसे नियमों की स्थापना एवं उद्घोषणाओं अपनी दीक्षा शास्त्रसम्मत बताते हुए यह स्पष्ट किया | से समाज की विकृतियाँ नहीं रुकेंगी, जिनका पालन है कि उनके मात या पित पक्ष में कभी पुनर्विवाह नहीं | उद्घोषक अपने परिवार में ही नहीं कर सकते और हुआ। इस प्रकरण से समाजव्यवस्था और धर्मव्यवस्था | न ही आगमसम्मत हैं। अंतर्जातीय विवाहों के विरोध की भिन्नता प्रकट होती है।
की अपेक्षा विजातीय-विधर्मी शादी-सम्बन्धों को हतोत्साहित आचार्य शान्तिसागर जी का अभिमत
किया जाना चाहिए, अन्यथा आनेवाली पीढ़ियाँ धर्मपं. श्री सुमेरचंद दिवाकर ने आचार्यश्री से प्रश्न | विहीन, संस्कार-विहीन हो जावेंगी। विधर्मी-विजातीय किया- 'क्या यह सच है कि आप आहार-पूर्व गृहस्थ | कन्या के साथ सम्बन्ध होने की स्थिति में उसके जैनधर्म से प्रतिज्ञा कराते हैं कि विजातीय विवाह आगमविरुद्ध | में दीक्षित किये जाने की परम्परा स्थापित की जानी चाहिए है। जो ऐसी प्रतिज्ञा नहीं लेते वहाँ आप आहार नहीं | और जैनकन्या विधर्मी वर के साथ विवाह न करे, इसके लेते?' इसके उत्तर में महाराजश्री ने कहा कि 'आहार | लिए समाज को जागरूक होना चाहिए, अपरिहार्यता की दाता के यहाँ उपर्युक्त प्रतिबंध की बात मिथ्या है।' ] स्थिति में वर को जिनमत में दीक्षित करने का भी प्रयास
(संदर्भ-जैनमित्र, दि. 6.1.1938, अङ्क 9वाँ, पौष | किया जा सकता है। व्यावहारिक जागरूकता से लाभ सुदी 5, वीर संवत् 2464)।
| होता है। सुधीजन मार्गदर्शन करें।
बी-269, ओ.पी.एम., अमलाई, शहडोल
सभी मंदिरों एवं तीर्थक्षेत्रों के ट्रस्टियों से विनम्र निवेदन दिगम्बर जैन समाज के तीर्थक्षेत्रों की स्थितियाँ दिन- | कोई अन्य प्रकार से पूजा-अभिषेक करना चाहे तो उस ब दिन बिगड़ती जा रही हैं। बड़वानी-क्षेत्र को बीस | पर उचित कार्यवाही की जायेगी। इस प्रकार के नियम पंथी करार देने का अट्टहास चल रहा है। हर क्षेत्र के | अगर ट्रस्ट के आरंभिक संविधान (डीड) में नहीं हैं, फोटो उतारकर रखे जा रहे हैं। बडवानी तीर्थक्षेत्र को तेरापंथी | तो नये सिरे से ट्रस्ट के सदस्यों को दो तिहाई बहुमत सिद्ध करने वाले के लिए ५१ हजार के पुरस्कार की | से प्रस्ताव पारित कर उसका संविधान में (नये संशोधित घोषणा करते हुए पोस्टर का विमोचन प० श्री बाबूलालजी प्रस्ताव का) निवेदन चरेटी कमिशन की ओर दर्ज करा पाटोदी के करकमलों द्वारा बडनगर में किये जाने का समाचार | दिया जाये, तो इसे भंग कोई नहीं कर सकेगा। इस तरीके मिला है। यही रवैया हर क्षेत्र में अपनाया जायेगा और | से कम से कम मूल में जो जिस परिपाटी के तीर्थ । विवाद बढ़ाया जायेगा। शुद्ध आम्नाय । तेरापंथ के विरोध | मंदिर हैं, वे अपनी परिपाटी (तेरा या बीस पंथी की) में कार्य योजनाबद्ध तरीके से फैलाया जा रहा है। आपसे | या क्षेत्र की पवित्रता कायम रख पायेंगे। अत: पुनश्य विनम्र निवेदन है कि इन आक्रमक प्रवृत्तियों को रोकने ! आपसे विनम्र निवेदन है कि कम से कम श्रवणबेलगोला के लिए कुछ कदम उठाना जरूरी है।
| में पारित प्रस्ताव के अनुसार जहाँ जो पूजा-अभिषेक पद्धति आप से हमारा विशेष निवेदन है कि बडवानी | चल रही है, उसका स्पष्ट निर्देश करते हुए अपने क्षेत्र या इस प्रकार के सभी तीर्थक्षेत्रों की नियमावली (संविधान- / मंदिर के संविधान में नियम बनाकर बोर्ड लगा दिये डीड) में यह क्लॉज (नियम) होना चाहिए कि इस | जायें। इस प्रकार कुटिलता से क्षेत्रों पर विवाद मचाने क्षेत्र में शुद्धाम्नाय / तेरापंथ या बीस पंथ के नीति-नियमों | के प्रसंगों से बचा जा सकेगा। के अनुसार पूजा-अर्चा होगी। इसके विरोध में जाकर अगर ।
विनीता प्रा. सौ. लीलावती जैन संपादिका धर्ममंगल, औंध पुणे-411007
24 मई 2008 जिनभाषित
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श्री सेवायतन
विमलकुमार सेठी [ शाश्वत सिद्ध क्षेत्र श्री सम्मेदशिखर जी की पावनता की सुरक्षा एवं विकास की सार्थक पहल
परम पावन तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी जैन । के प्रति बदले। आधुनिक प्रगति, सभ्यता, संस्कार और संस्कृति एवं जैन धर्मावलंबियों के आस्था का एक विकास की किरण उनके दरवाजों तक पहुँचाना होगा महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। वर्तमान अवसर्पिणी युग के बीस | ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके, वे भी हमारे तीर्थंकरों एवं असंख्यात मुनियों की निर्वाणभूमि होने कारण आपकी तरह सम्मानपूर्वक जीवन जी सकें। यदि ऐसा इस क्षेत्र का कण-कण पूजनीय है। परंतु आज हम जैन | हम करेंगे तब जैन समुदाय एवं उसकी समृद्धि यहाँ धर्मावलम्बियों की उपेक्षा, उदासीनता एवं अकर्मण्यता | के लोगों के लिए ईष्या का विषय नहीं श्रद्धा और अनुराग के कारण इस तीर्थराज की पावनता एवं सौन्दर्यता विलुप्त | का विषय बन जायगा और तब स्वतः ही इस परम होती चली जा रही है। क्षेत्र के विकास की बात तो | पावन तीर्थराज की पावनता, सुरक्षा और विकास का मार्ग दर इसकी सुरक्षा भी संदिग्ध हो चली है। इस चिन्तनीय | सहजता से प्रशस्त हो जायगा। विषय को लेकर अभी तक इस दिशा में कोई सार्थक पूज्य मुनिश्री की उपर्युक्त प्रेरणा एवं सत्प्रयत्नों पहल नहीं हुआ।
| से जैन समाज के सशक्त कर्णधार सक्रिय हुये और पुण्योदय से संत शिरोमणि प. पू. १०८ आचार्य | उन्होंने इस परम पावन तीर्थराज की पावनता सुरक्षा एवं श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक, प्रखर वक्ता, | विकास के लिए, पू. मुनिश्री की भावना के अनुरूप यवा शिष्य प. पू. १०८ मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज | श्री सम्मेदशिखर जी के तलहटी में बसे, गाँवों के सर्वांगीण का ससंघ इस पावन तीर्थ पर वंदनार्थ आगमन हुआ। विकास एवं मानव सेवा के उपक्रम के रूप में 'श्री प. मनि श्री का ध्यान जब इस तीर्थराज की बदहाली | सेवायतन' संस्था का गठन करके एक सार्थक पहल एवं दयनीय स्थिति की ओर आकृष्ट किया गया, तो | की। उनका हृदय पीड़ा से भर गया और उनके अन्तःकरण | श्री सेवायतन ने पर्वतराज की तलहटी में बसे में इस तीर्थराज के उद्धार की भावना स्वतः उमड़ने लगी। | १४ गाँवों में से प्रथम चरण में २ गाँव बगदाहा एवं
पूज्य मुनिश्री ने अपने विभिन्न मांगलिक देशनाओं | बीरेनगड्डा को गोद लेकर उनके विकास का कार्य प्रारंभ के माध्यम से हमें बताया की इस परम पावन तीर्थराज | कर दिया है। ग्राम बगदाहा को 'आचार्य विद्यासागर आदर्श की पावनता को अक्षुण्ण रखने तथा क्षेत्र की स्थायी सुरक्षा | ग्राम' नाम देकर उसके समग्र विकास का कार्य किया सुनिश्चित करने एवं विकास का मार्ग प्रशस्त करने हेतु | जा रहा हैं। इस ग्राम में शुद्ध पेय जल उपलब्ध कराने जैन समाज को स्थानीय ग्रामीण जनता के सर्वांगीण विकास | के लिए चापाकल लगाए गये है, साक्षरता अभियान चलाया के लिए जनहित के कार्यो में लगना होगा। स्थानीय जनता | गया है। निःशुल्क चिकित्सा सेवा प्रदान की जा रही के उद्धार बिना इस क्षेत्र का उद्धार असंभव है। पूज्य | है, बच्चों के लिए पाठशाला खोली गयी है। नव चेतना मुनिश्री ने कहा कि अब स्थानीय ग्रामवासियों को भिक्षा | शिविर लगाकर प्रौढ़ शिक्षा का अभियान चलाया गया नहीं व्यवस्था देनी होगी। उन्हें स्वावलम्बी बनाना होगा। जिसके परिणाम स्वरूप ९० प्रतिशत लोग साक्षर हो गये उन्हें शिक्षा और संस्कार देना होगा। उन्हें इतना समर्थ | हैं। सरकारी सहयोग से स्ट्रीट लैम्प, बिजली, संपर्क सड़क बना देना होगा की अब उनका हाथ लेने के लिए नहीं| प्रत्येक परिवार को सोलर लैंप आदि आधारभूत सुविधाएँ देने के लिए उठने लगे। आज आवश्यकता है यहाँ के | प्रदान की जा रही हैं। लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में जैन समाज | दूसरा गाँव 'विरेनगड्डा' को 'मुनि प्रमाणसागर सहभागी बने तथा उनके दुःख दर्द में शामिल हो ताकि | निरोगी ग्राम' नाम दिया गया है। इस ग्राम को भी बगदाहा कुंठा और निराशा से ग्रसित लोगों की सोच हम जैनियों ग्राम की तरह विकसित किय जा रहा है। संपूर्ण चिकित्सा
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निःशुल्क प्रदान की जा रही
श्री सेवायतन द्वारा उपर्युक्त दोनों गाँवों में आर्ट ऑफ लिविंग के प्रवर्तक श्री रविशंकर जी के सहयोग से व्यक्तित्व-विकास-प्रशिक्षण शिविर लगाकर ग्रामवासियों में स्वावलम्बन की भावना जाग्रत करते हुए उन्हें सद्संस्कारों से संस्कारित कर नशामुक्त एवं शाकाहारी बनाने का प्रयत्न किया गया, जिसके परिणाम स्वरूप दोनों ग्राम के निवासी पूर्णतः नशामुक्त एवं शाकाहारी बन गये हैं। यह श्री सेवायतन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। विकास प्रशिक्षण शिविर से प्रशिक्षित ग्रामीण युवक एवं युवतियाँ अपने-अपने गाँवों में नशामुक्ति, शाकाहार, साक्षरता एवं सफाई आदि का कार्य कर गाँवों का कायाकल्प कर रहे हैं।
पर्वत पर बसे लोगों को, जिनके वजह से पर्वत की पवित्रता नष्ट हो रही है, नीचे लाने के एिल वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था की गयी है, तथा पर्वत पर बसे भिक्षुओं को भी नीचे लाने के लिए प्रयास किया जा रहा है।
श्री शिखरजी के आस-पास में बसे गाँवों की सबसे बड़ी समस्या, बेरोजगारी और बेकारी की है, इसे दूर करने के लिए संत शिरोमणि प.पू. १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की भावना एवं आशीर्वाद से प्रेरित प.पू. १०८ मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज की प्रेरणा से श्री सेवायतन ने झारखण्ड सरकार के सहयोग से ग्रामवासियों को दुधारू गाय देकर उन्हें पशुपालन एवं दुग्ध उत्पादन के व्यवसाय से जोड़कर बेरोजगारी एवं बेकारी समाप्त करने की योजना बनाई है। झारखण्ड सरकार मधुवन में मिल्क चिलिंग प्लाण्ट स्थापित कर ग्रामवासियों से दूध लेकर प्लाण्ट के माध्यम से श्री सेवायतन ब्राण्ड दूध की आपूर्ति खुले बाजार में करेगी। इससे ग्रामवासियों को सुनिश्चित रोजगार मिलेगा और स्थानीय लोगों एवं यात्रियों को शुद्ध दूध । इस योजना से प्रति परिवार न्यूनतम १००/- प्रतिदिन की आय होगी। प्रथम चरण में ५०० नशामुक्त एवं शाकाहारी परिवार को झारखण्ड सरकार एवं श्री सेवायतन के सहयोग से दुधारू गायें प्रदान की जायेंगी। भविष्य में प.पू. १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के भावना के अनुरूप श्री शिखरजी के आस पास के गाँवों को दुधारू गाय प्रदान कर । 'अमूल गाँव' की तरह परिवर्तित कर दिया जायेगा ।
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ग्रामवासियों को बेहतर चिकित्सा प्रदान करने हेतु श्री सेवायतन के माध्यम से यहाँ एक निःशुल्क होमियोपैथिक चिकित्सालय का शुभारम्भ श्री प्रकाशचन्द्र जी सेठी राँची वालों के सौजन्य से उनके पू. पिताजी स्व. कन्हैयालाल जी सेठी जशपुर निवासी के पुण्य स्मृति में किया गया। इस चिकित्सालय में कोरवा (छत्तीसगढ़) नगर के प्रसिद्ध चिकित्सक श्री एम.के. जैन ने जन कल्याणार्थ अपनी सेवा प्रदान करने का संकल्प प.पू. १०८ मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के चरणों में व्यक्त किया जिसकी लोगों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
श्री सेवायतन अपनी स्वास्थ्य सेवा योजना के अन्तर्गत यहाँ शीघ्र ही श्री गजराज जी जैन गंगवाल दिल्ली के सौजन्य से उनके पूज्य पिताजी स्व. पूनमचन्द्र जी गंगवाल झरिया की पुण्य स्मृति में पूनमचन्द्र कमलादेवी गंगवाल रोग जाँच केन्द्र (डायग्नोस्टिक सेण्टर) की स्थापना करने जा रहा है। जिससे गंभीर रोगों का निदान स्थानीय स्तर पर ही सुलभ हो जायेगा। श्री पूनमचन्द्र जी गंगवाल झरिया निवासी जैन समाज के प्रसिद्ध समाजसेवी, उदारमन, तीर्थभक्त एवं मुनिभक्त व्यक्तित्व के धनी थे । प्रसन्नता है उनके पुत्र भी उनके पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए, समाज सेवा के कार्यक्रम में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।
श्री सेवायतन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से प्रत्येक स्कूल के बच्चों को २२ सेट पोशाकें निःशुल्क प्रदान करने की योजना बनायी है तथा मेघावी किन्तु आर्थिक दृष्टि कमजोर छात्रों को उच्च शिक्षा हेतु चयन कर उन्हें उच्च शिक्षा निःशुल्क प्रदान करने की योजना बना रहा है, जो शीघ्र ही क्रियान्वित किया जायेगा । १२०० छात्र - छात्राओं को निःशुल्क पोशाकें श्री संजय जी जैन (नोयडा) के सहयोग से दी जा रही हैं।
श्री सेवायतन द्वारा श्री शिखरजी में ग्रामीण विकास एवं मानव सेवा की दिशा में किया गया उपर्युक्त कार्य मात्र एक वर्ष की उपलब्धि है। इन कार्यों का यहाँ के ग्रामवासियों एवं बुद्धिजीवियों पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। स्थानीय लोगों के सोच में बदलाव आ रहा है। परन्तु इस दिशा में अभी बहुत काम करना है, जिसके लिए समस्त जैन जगत के सहयोग की अपेक्षा है। श्री सेवायतन की गतिविधियों के संचालन के लिए
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कोलकात्ता-निवासी उदारमना श्री कैलाशचन्द्र जी जैन घी । प्रदान करते हुए कहा कि जैनधर्मावलम्बियों को श्री वाले (भारत ट्रेडर्स) द्वारा अपनी भूमि पर भव्य भवन | सेवायतन के लिए उदारतापूर्वक मुक्तहस्त से दान एवं का निर्माण कराकर श्री सेवायतन को प्रदान किया गया | सक्रिय सहयोग देना चाहिये। पूज्य मुनिश्री ने कहा कि है। साथ ही विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों के संचालन श्री सेवायतन को दिया गया सहयोग पर्वतराज की वन्दना हेतु झारखण्ड सरकार द्वारा टी.पी.सी. भवन का निर्माण | तल्य पुण्य कार्य है। करा कर दिया जा रहा है।
श्री सेवायतन, कुन्दकुन्दमार्ग प.पू. १०८ मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज ने
मधुवन, सम्मेद शिखर जी, होली-अवकाश के प्रसंग में यहाँ आयोजित विभिन्न
जिला-गिरीडीह (झारखण्ड) भारत विधान-आयोजनों के मध्य श्री सेवायतन के सक्रिय सम्पर्क सूत्र- 09431149900, 09431144901, कार्यकर्ताओं को उनकी सक्रियता के लिए आशीर्वाद
09431140177,06558 232428
'पलट गये भाव' नाटक का भावभीना मंचन
मदनगंज-किशनगढ़ में श्री महावीरजयन्ती के | बनी. श्रीमती शांता पाटनी शुभ अवसर पर महासमिति के तत्त्वाधान में आदिनाथ | व महावीर बनी कु. शिखा भवन में नाटक (पलट गए भाव) सहित अन्य धार्मिक | गंगवाल ने वैराग्य के दृश्य व सांस्कृतिक कार्यक्रम का भव्य आयोजन समारोह- | को इतना मार्मिकता पूर्वक पूर्वक सम्पन्न हुआ। समाज सेविका श्रीमती जीवनीबाई | प्रस्तुत किया की सभी लुहाड़िया के मुख्य आतिथ्य में, श्रीमती सरिता पहाड़िया | दर्शक भाव विभोर हो गये। श्रीमती सुलेखा बाकलीवाल, की अध्यक्षता व श्रीमती विमलादेवी पाटोदी के विशिष्ट | श्रीमती इन्द्रा गोधा, श्रीमती सुनिता सेठी, टीम द्वारा आतिथ्य में आयोजित इस कार्यक्रम की शुरुआत तृप्ति | कव्वाली 'त्रिशला ने ललना जाया है' प्रस्तुत की गई। बोहरा ने मंगलाचरण से की। देवशास्त्र गुरु की स्तुति | दिगम्बर जैन पाठशाला के बच्चों द्वारा 'रेल का डिब्बा' श्रीमती शांता पाटनी, रजनी अजमेरा व संगीता गंगवाल प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम का निर्देशन श्रीमती आशा की टीम ने की। नाटक 'पलट गए भाव' में पदमा अजमेरा व शांति देवी गंगवाल ने किया। मंच संचालन कासलीवाल, आशा अजमेरा, टीना बज व आचुकी | डॉ. तृप्ति बोहरा व रजनी अजमेरा द्वारा किया गया। बाई ने मुख्य भूमिकायें निभाईं। सामुहिक नृत्य थाने | इस अवसर पर मण्डल की अध्यक्षता श्रीमती शांता नैना में रमाल्युं श्वेता वेद रजनी अजमेरा, आशा | पाटनी, मंत्री आशा अजमेरा, सांस्कृतिक मंत्री शशीप्रभा बडजात्या. संगीता काला, सिम्पल बाकलीवाल, मोनिका | बज दिगम्बर जैन पाठशाला की मंत्री शांति देवी गंगवाल, गंगवाल द्वारा प्रस्तुत किया गया। संगीत व नृत्य के नवरतन दगड़ा, डॉ. किरण माला जैन ने अतिथियों माध्यम से भगवान महावीर के गर्भ से लेकर वैराग्य का माला व तिलक लगाकर स्वागत किया। मण्डल लेने तक के दृश्यों को आकर्षित ढंग से दिखाया | की अध्यक्षा श्रीमती शांता पाटनी ने कार्यक्रम के अन्त गया। माता त्रिशला बनी श्रीमती सुशीला पाटनी, सिद्धार्थ । में सभी का आभार व धन्यवाद व्यक्त किया।
वक्त की लहरों से टकराते हुए बढ़ जाइये। फेर कर मुँह, जिन्दगी का सामना मुमकिन नहीं॥
वाहिद देखा गया है अक्सर नाकामियों के बाद, कुछ हादसात ले के उभरती है जिन्दगी।
चकबस्त
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बिस्किट और दिग्भ्रमित ग्राहक सब प्रकार के पॅकेज्ड फूड के लिए सरकार ने | बिस्किट कैसे बनते हैं? कानून बनाये हैं। उस कानून के तहत सभी खाद्य पदार्थों आटा, पानी में कई घटक मिला कर बिस्किट पर शाकाहारी या मांसाहारी लिखना अनिवार्य है। परंतु, | बनाये जाते हैं। इनमें रंग, सुगंधित द्रव्य प्रिजरर्वेटिव्ज्ञ, दर्भाग्य की बात है कि इस कानन पर अमल करने | अँटी-ऑक्सीडंट, थिकनर्स, स्वीटनर्स, स्टॅबिलाज़र्स, वाले सरकारी अधिकारी रिश्वत के चंगल में फंसते . अॅसिडिटी, रेग्युलेटर्स इनमें से अनेक अँटिक्विज, प्राणीजन्य और इन पॅकेज्ड फूड के कानून से छुटकारा पाने के
पदार्थों से बनाये जाते हैं। उदाहरण अन्नपदार्थ और पेय
पदार्थों में लाल रंग कोचिनियल बीटल्स (Cochineal कई अवैध मार्ग अपनाये जाते हैं। मछली, अंडे या मांस
Beetle) से बनाया जाता है। मेक्सिकन कीड़ों से यह जिन पदार्थों में मिलाया जाता हो, उन पर लाल निशान होना आवश्यक है और जिन पदार्थों में शाकाहारी पदार्थ |
रंग बनता है। इसका मतलब यह है कि यह रंग
वनस्पतिजन्य नहीं है। मिलाये गये हैं, उन पर हरा निशान आवश्यक है। यह
इ-नबर्स- बिस्किट के पैकेट पर देखिए उस पर हरा निशान ही अब ग्राहकों को दिग्भ्रमित कराने के
(E-Numbers) लिखे होते हैं। योरापीय देशों में 'इलिए और फँसाने के लिए उपयोग में लाया जा रहा
नम्बर' की पद्धति आवश्यक की है। पार्ले जी-का नया है। ऐसे कई केसेस हैं जिनमें मांसाहारी पदार्थ उपयोग ।
300 ग्राम का पैक लीजिए, उस पर ध्यान से पढिए, में लाये जाते है और वे विटामिन के नाम पर चला |
उसमें इम्युलसि-फायर्स 322, या 471 और 481 नम्बर
नहीं बताया जाता है | छपा हुआ है। कुछ माल पर कॅल्शियम सॉल्ट. (A 233 कि विटामिन ए मछली तेल से किया गया उत्पादन S > 0) कंडिशनर 223 और इस प्रकार के इ-नम्बर है। ऐसे अनेक पदार्थों पर हरा निशान भी नहीं लगाया | अत्यंत बारीक अक्षरों में छपे हुए होते हैं, परंतु पढ़ जाता। मिठाई में भी ये ही मांसाहारी पदार्थ उपयोग में | सकते हैं। लाये जाते हैं, यह जानकर कई शाकाहारी सज्जनों को। सच्ची रहस्यकथा तो यही से आरंभ होती है। चक्कर आ जायेगा। (कुछ मंदिरों में महावीर जयंती के | देशभर के बिस्किट उत्पादक उपर्युक्त पदार्थ विदेशों से अवसर पर बीमार लोगों को बिस्किट बाँटे जाते हैं। क्या
मँगाते हैं। उसके लिए केंद्र शासन से परमिट आवश्यक यह उचित है?)
होता है। सब मांसाहारी अंतर्घटक हैं। इसके लिए मांसाहारी
आयात परमिट (अनुज्ञापत्र) बिस्किट उत्पादक कम्पनियाँ बिस्किट-कितने शाकाहारी और कितने मांसाहारी?
सरकार से प्राप्त करती हैं। परन्तु देश में उन घटकों कुछ महिनों पहले 24 लोकसभा सदस्यों ने केंद्रीय
को शाकाहारी के नाम पर ग्राहकों को ठगा जाता है। अन्न प्रक्रिया मंत्रालय की ओर बेकरी माल और बिस्किट
अगर शाकाहारी माल मँगाना होता है तो उसके लिए उत्पादन कम्पनियों की जाँच करने की माँग की थी।
मांसाहारी परमिट की क्या जरूरत थी? यह सादा, सरल उनकी शिकायत के अनुसार इन खासदारों ने आरोप लगाया
प्रश्न है। केंद्र सरकार अन्न प्रक्रिया मंत्रालय को भी है कि बेकरी माल और बिस्टिकों में प्राणियों की चरबी
इसके बारे में 'ना खेद ना दुःख'! शाकाहारी जनता तो (Animal Fat) उपयोग में लायी जाती है। यह चरबी
इसकी बलि चढ़ जाती है। विशेषतः अहिंसाधर्मीय जैन, सअर, गाय, कुत्ता और बंदरों को कत्ल कर बिस्किट | ब्राह्मण आदि समाज के साथ तो यह सीधा धोखा है। उत्पादनों में उपयोग में लायी जाती है, इस गम्भीर शिकायत | निम्नलिखित नंबर्स उनके लिए नहीं हैं, यह ध्यान में
हित दशभर म ब्रिटानया, मिल्क बक्काज, मरा गोल्ड, | रखा जाए। A-120, 441, 542, 904.920 के साथ ही टायगर, गुड डे, पार्ले जी, मोनॅको, हाईड और सिक | ल्यूसीन (Leuclen) और स्पर्मासेटी स्प्रेम (Spermaceti/ इन कम्पनियों की जाँच केन्द्र सरकार ने आरंभ कर | Sperm) इनके कोई नम्बर नहीं होते। व्हेल मछली के दी है। इस से कुछ गम्भीर बातें ग्राहकों के सामने आ | सिर पर का सफेद चरबीयुक्त पदार्थ ही स्पर्मासेटी है। रही हैं।
हिन्दी अनुवाद- सौ. लालीवती जैन, 28 मई 2008 जिनभाषित
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा- ६३ शलाका पुरुषों के शरीर का वर्ण | आगे पीछे नहीं आता। सभी दसों धर्म आत्मा के स्वभाव बतायें?
| हैं। आचार्यों एवं मुनियों के द्वारा सदैव पालने योग्य हैं, समाधान- २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, तथा श्रावकों के द्वारा भी यथायोग्य नित्य पालन-योग्य ९ प्रतिनारायण, ९ बलदेव, ये सब मिलाकर ६३ शलाका | हैं। परन्तु दशलक्षणपर्व में जब इनका प्रवचन होता है, पुरुष अर्थात् प्रसिद्ध पुरुष कहलाते हैं। इस अवसर्पिणी | तब चौथे दिन किस धर्म का प्रवचन होना चाहिये, इस काल में भरत क्षेत्र में जो ६३ शलाकापुरुष हुये हैं, उनके पर कहीं-कहीं विवाद देखा जाता है। यह विवाद उचित शरीर का वर्ण इस प्रकार का आगम में पाया जाता है- | नहीं है, फिर भी आचार्यों ने इनका क्रम किस प्रकार
२४ तीर्थंकर- सामान्य से भगवान् चन्द्रप्रभ एवं | कहा है, उसे देखते हैंभगवान् पुष्पदंत का श्वेत, भ. पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ | १. तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता आ. उमास्वामी तथा का हरा, भ. नेमिनाथ एवं भ. मुनिसुव्रतनाथ का नीला, | उनके सभी टीकाकारों ने उत्तम शौच के बाद उत्तम भ. पद्मप्रभ एवं भ. वासुपूज्य का लाल वर्ण था। शेष | सत्य कहा है। इसी प्रकार स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्त्वार्थ१६ तीर्थंकरों का शरीर तपाये हुए स्वर्णवत् था। इन वर्गों | सार तथा चामुंडरायरचित चारित्रसार में भी इसी प्रकार में सफेद एवं लाल वर्णवाले तीर्थंकरों के संबंध में सभी का वर्णन है। आचार्य एकमत हैं। परन्तु भ. सुपार्श्वनाथ एवं भ. पार्श्वनाथ २. आ. कुंदकुंद ने वारसाणुवेक्खा में, भ. सकलका वर्ण हरिवंशपुराण एवं कल्याणमंदिर-स्तोत्र में कृष्ण | कीर्ति ने मूलाचारप्रदीप में, ब्रह्मदेवसूरि ने बृहदद्रव्यसंग्रह तथा त्रिलोकसार एवं पार्श्वपुराण में नीलवर्ण कहा है। | में, आ. पद्मनंदि ने पद्मनंदि-पंचविंशातिका में, आ. भ. नेमिनाथ एवं भ. मुनिसुव्रत का वर्ण, वरांगचरित्र, | जिनसेन ने आदिपुराण में तथा अमितगति-श्रावकाचार आदि निजमलकल्प, अनगार-धर्मामृत, गौतमचरित्र, चर्चाशतक, | में उत्तम सत्य के बाद उत्तम शौचधर्म कहा है। त्रिलोकसार पार्श्वपुराण में काला कहा गया है। तपे हुये ३.आ. वट्टकेर ने मूलाचार में तथा वसुनंदिश्रावकाचार स्वर्ण वर्णवाले तीर्थंकरों के संबंध में सभी आचार्य एकमत | में धर्म का क्रम इस प्रकार कहा है- क्षमा, मार्दव, आर्जव,
शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य तथा त्याग। १२ चक्रवर्ती- सभी चक्रवर्तियों का वर्ण स्वर्णवत् | उपर्युक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि आचार्यों ने कहा गया है।
इसका वर्णन कई प्रकार से किया है। अतः इस संबंध ९ बलदेव- बलदेवों के शरीर का वर्ण जंबूदीप | में विवाद उचित नहीं है। पण्णत्ति, हरिवंशपुराण एंव उत्तरपुराण में श्वेत कहा है,। प्रश्नकर्ता- डॉ० अभयदगडे कोपरगाँव । जब कि तिलोयपण्णत्ति में स्वर्णवत् कहा गया है। । जिज्ञासा- असंक्षेपाद्धाकाल का अर्थ, आवली का
९ नारायण- इनके शरीर का वर्ण जंबूदीप-पण्णत्ति | संख्यातवाँ भाग माना जाय या असंख्यातावाँ भाग माना में नीला, हरिवंशपुराण में काला, उत्तरपुराण में नीला | जाय? जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष में तो आवली का असंख्यातवाँ
और काला तथा तिलोयपण्णत्ति में स्वर्णवत् कहा है। भाग कहा है ? इसमें कई मत हैं।
समाधान- जैनेन्द्रसिद्धांतकोष के अनसार आपने जो ९ प्रतिनारायण- इनके शरीर का वर्ण जंबूदीप | लिखा है वह ठीक है। परन्तु वह वर्णन ठीक नहीं है। पण्णत्ति के अनुसार नीला, तथा तिलोयपण्णत्ति के अनुसार | कर्मकाण्ड गाथा १५८ की टीका करते हुये विशेषार्थ में स्वर्णवत् कहा गया है।
इस प्रकार कहा है- 'आयुकर्म की जघन्य आबांधा' जिज्ञासा- दशधर्म के वर्णन में पहले उत्तम शौच | असंक्षेपाद्धा प्रमाण है। यह काल भी आवली के संख्यातवें आता है या उत्तम सत्य?
| भाग प्रमाण है। क्योंकि श्री धवल पु. ११ पृष्ठ २६९, समाधान- वास्तविकता तो यह है कि कोई धर्म | तथा २७३ के अनुसार आयुकर्म की जघन्य आबाधा से
हैं।
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क्षुद्रभव संख्यातगुणा कहा है। इससे स्पष्ट है कि । शमिक सम्यग्दर्शन भी क्षायोपशमिकभाव ही है। जैसा असंक्षेपाद्धाकाल, आवलि का असंख्यातवाँ भाग न होकर, | श्री षट्खण्डागम/१४/१९ / १८ में (उपर्युक्त प्रमाण के संख्यातवाँ भाग है। पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार ने भी इसी | अनुसार) कहा गया है कि सम्यक् प्रकृति क्षायोपशमिक प्रकार कहा है। प्रश्नकर्ता- सौ. ज्योति लोहाडे कोपरगाँव।
इस तरह यह स्पष्ट हुआ कि इन दोनों प्रकृतियों जिज्ञासा- क्या सम्यक् मिथ्यात्व एवं सम्यक प्रकृति | के उदय में होने वाले परिणाम क्षायोपशमिक भाव हैं, का उदय बंध में कारण है?
अब यह विचार करना हैं कि क्षायोपशमिक भाव बंध समाधान- यहाँ सबसे प्रथम यह विचार करना में कारण होते हैं या नहीं। श्री धवला प. ७ में इस आवश्यक है कि बंध के कारण कौन हैं? तत्त्वार्थसूत्र प्रकार कहा हैअ.८/१ में उमास्वामी ने कहा है- 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमाद ओदइया बंधयरा, उवसमखयमिस्सया य मोक्खयरा। कषाययोगा बन्धहेतवः। अर्थ- मिथ्यादर्शन अविरति, | भावो दु परिणमिओ, करणोभयवज्जिओ होदि॥३॥ प्रमाद, कषाय तथा योग बंध के कारण हैं।
अर्थ- औदयिक भाव बंध करनेवाले हैं, औपशमिक यहाँ विचारणीय कि सम्यक-मिथ्यात्व तथा| क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं, तथा सम्यकप्रकृति एवं इनके कारण होने वाले परिणाम उपर्यक्त | परिणामिक भाव बंध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित कारणों में नहीं आते। ये दोनों, न तो मिथ्यात्व रूप ही | है। हैं और न अन्य कारणों रूप। अतः इस सूत्र के अनुसार | उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि क्षायोपये दोनों बंध के कारण सिद्ध नहीं होते।
शमिक भाव बंध में कारण नहीं हैं। अतः सम्यकप्रकृति २. आगे विचार करते हैं कि इन दोनों प्रकृतियों | तथा सम्यग्मिथ्यात्व के उदय में होनेवाले भावों को, के उदय में होने वाले परिणाम कौन से भाव हैं- क्षायोपशमिक होने के कारण, बंध का कारण नहीं कहा
अ- सम्यक् मिथ्यात्व के उदय में सम्यक्त्व तथा | जा सकता। मिथ्यात्वरूप मिले जुले परिणाम होते हैं। ध.पु.५ / १९८ प्रश्नकर्ता- पवन कुमार जी तेजपुर । में कहा है कि इसके उदय में सम्यक्त्वगुण का अंशरूप जिज्ञासा- क्या शाश्वत भोगभूमियों में भी जघन्य उदय रहता है अतः यह क्षायोपशमिक भाव है। | आयु का विधान मानना चाहिये?
श्री षट्खंडागम/१४/१९/१८/में भी सम्यक्मिथ्यात्व | समाधान- शाश्वत भोगभूमियों अर्थात् देवकुरुएवं सम्यक्प्रकृति दोनों को क्षायोपशमिक कहा है। | उत्तरकुरु इन उत्तम भोगभूमियों में, हरिक्षेत्र, रम्यकक्षेत्र
धवला १/१/१६९ में इस प्रकार कहा है- इन मध्यम भोगभूमियों में तथा हैमवतक्षेत्र एवं हैरण्यवत
प्रश्न- मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व | क्षेत्र इन जघन्य भोगभूमियों में उत्कृष्ट आयु ३ पल्य, गुणस्थान को प्राप्त होनेवाले जीव के क्षायोपशमिकभाव | २ पल्य तथा १ पल्य एवं जघन्य आयु २ पल्य एकसमय, कैसे संभव है?
१ पल्य एक समय तथा पूर्वकोटि १ समय मानना आगमउत्तर- वह इस प्रकार है कि वर्तमान समय में | सम्मत है। इसके प्रमाण इस प्रकार हैंमिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय १. श्री धवला पु. १४ पृष्ठ ३९८-९९ में इस प्रकार होने से, सत्ता में रहनेवाले उसी मिथ्यात्वकर्म के सर्वघाती | कहा है- शंका- उत्तरकुरु और देवकुरु में सब मनुष्य स्पर्धकों का उदयाभाव-लक्षण उपशम होने से और | तीन पल्य की स्थितिवाले ही होते हैं, इसलिये 'तीन सम्यग्मिथ्यात्व-कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने | पल्य की स्थितिवाले के' यह विशेषण यक्त नहीं है। से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान पैदा होता है, इसलिये वह समाधान- यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि उत्तरकुरु क्षायोपशमिक है।
और देवकरु के मनष्य तीन पल्य की स्थितिवाले ही इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकति के उदय में जो होते हैं, ऐसा कहने का फल वहाँ पर शेष आयस्थिति मिश्र रूप परिणाम होते हैं, वे क्षायोपशमिक भाव हैं।| के विकल्पों का निषेध करना है और इस सत्र को छोडकर
आ- सम्यक्प्रकृति के उदय में होनेवाला क्षायोप- | अन्य सूत्र नहीं हैं, जिससे यह ज्ञात हो कि उत्तरकुरु
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और देवकुरु के मनुष्य तीन पल्य की स्थितिवाले ही होते हैं, अतः यह विशेषण सफल है । अथवा एक समय अधिक दो पल्य से लेकर एक समय कम तीन पल्य तक के स्थिति - विकल्पों का निषेध करने के लिये सूत्र में तीन पल्य की स्थितिवाले पद का ग्रहण किया है। सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु जिस प्रकार निर्विकल्प होती है, उस प्रकार वहाँ की आयु निर्विकल्प नहीं होती, क्योंकि इस प्रकार की आयु की प्ररूपणा करनेवाला, सूत्र और व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता। भावार्थ- देवकुरुउत्तरकुरु में आयु तीन पल्य की ही होती है। दूसरे मत के अनुसार समयाधिक २ पल्य प्रमाण जघन्य आयु से लेकर ३ पल्य तक सभी आयु-विकल्प वहाँ होते है । ऐसी ही अन्य शाश्वत जघन्य एवं मध्यम भोगभूमि के संबंध में भी समझ लेना चाहिये ।
२. श्री आचारसार अधिकार - ११ में कहा हैजघन्य - मध्यमोत्कृष्ट - भोगभूमिष्ववस्थितम् । स्यादेकद्वित्रिपल्यायुर्नित्यास्वन्यासु तद्वरम् ॥ ५६ ॥
पूर्वकोट्येकपल्यं च पल्यद्वयमिति त्रयम् । समयेनाधिकं तासु नृतिर्यक्ष्ववरं क्रमात् ॥ ५७॥
अर्थ- नित्य रहनेवाली देवकुरु- उत्तरकुरु आदि तथा प्रथम द्वितीय कालादि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि में अवस्थित उन जीवों की उत्कृष्ट आयु एक, दो, तीन पल्य है । (५६)
उन्हीं भोगभूमियों में मनुष्य और तिर्यंचों में जघन्य आयु क्रम से १ समय अधिक पूर्व कोटि, एक समय अधिक एकपल्य और एक समय अधिक दो पल्य है, इस प्रकार तीनों जघन्य आयु हैं । (५७)
३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग २ पृष्ठ २६४ पर उपर्युक्त प्रकार ही शाश्वत भोगभूमियों में उत्कृष्ट एवं जघन्य आयु कही गई है।
विदेश में मची धर्म की धूम
बैंकांक, थायलेंड में महावीर जयंती एवं वेदी प्रतिष्ठा का कार्यक्रम 18 से 20 अप्रैल 2008 तीन दिन अभूतपूर्व धूमधाम के साथ सम्पन्न हुआ । इस पूरे कार्यक्रम में विदेशों से (भारत से ) 25-30 सधर्मी बन्धु भी सम्मलित हुये ।
1 / 205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा - 282002 ( उ.प्र. )
वर्तमान श्रेष्ठ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य ब्र. संजीव भैया कंटगी के कुशल निर्देशन में कार्यक्रम संपन्न हुआ । ब्र. भैया की कुशल आध्यात्मिक तत्त्वपरक शैली से संपूर्ण जैन समाज ने मिलकर कार्यक्रम को अभूतपूर्व बना दिया।
ज्ञातव्य हो विगत तीन वर्ष पूर्व दिगम्बर जैन मंदिर की स्थापना की गई थी। प्रारम्भ में एक भगवान् महावीर स्वामी की मूर्ति विराजमान थी, इस अवसर पर एक 7 फीट उत्तुंग सर्वतोभद्र स्तंभ में चार चतुर्मुखी भगवान् विराजमान किये गये ।
ज्ञातव्य हो कि मंदिर जी में मूर्तियों को प्रतिष्ठित कराने व मारबल का परिकर व स्तंभ बनाने में वास्तुकार श्री राजकुमार जी कोठारी का बड़ा योगदान रहा।
बैंकांक में लगभग 100 दिगम्बर जैन समाज के परिवार निवास रत है। संपूर्ण समाज के श्रावक श्राविकाओं ने ब्र. संजीव भैया की ओजस्वी भाषाशैली से प्रभावित होकर सप्ताह में एक दिन अभिषेकपूजन का नियम लेकर एक श्रेष्ठ कीर्तिमान स्थापित किया । ब्र. भैया ने कहा कि कार्यक्रम की सफलता का श्रेय उनके गुरुवर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज को है। समाज ने निवेदन किया कि ऐसे भैया जी का पुनः बैंकाक में आगमन हो ।
दिगम्बर जैन फाउंडेशन बैकांक, थायलेंड
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समाचार
"प्रवेश हेतु शीघ्रता करें"
वे सौम्य तथा सज्जन-प्रकृति के हैं। उनके साथ उनकी वाराणसी के सुप्रसिद्ध श्री स्याद्वाद महाविद्यालय | पत्नी भी पधारी थीं। सभी के सम्मान में कन्नड भाषा में सत्र 2008-2009 में प्रवेश के इच्छुक योग्य विद्यार्थियों | के माध्यम से परिचय प्रस्तुत कर कन्नड एवं हिन्दी का प्रवेश लेना हैं यहाँ पर सम्पूर्णानन्दक संस्कृत विश्व- | में प्रशस्ति समर्पित की गई तथा हार, माल्यार्पण एवं विद्यालय से सम्बद्ध शास्त्री-आचार्य अध्ययन की व्यवस्था
श्रीफल आदि से सम्मानित किया गया। है। इस हेतु उत्तर मध्यमा अथवा संस्कृत विषय के साथ
सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' इण्टर (12वीं) एवं बी.ए. उत्तीर्ण छात्र प्रवेश ले सकते
एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) हैं। जैन दर्शन और प्राकृत विषय में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से शोध करनेवाले छात्रों को भी प्रवेश
डॉ. भागेन्दु जी के सम्मान से दमोह नगर की सविधा है। इस विद्यालय में साहित्य, व्याकारण,
___ गौरवान्वित प्राकृत, जैन दर्शन और आधुनिक विषयों के साथ-साथ, . दमोह नगर के गौरव डॉ. भागचंद्र भागेन्दु को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर द्वारा संचालित धार्मिक परीक्षाओं | अखिल भारतीय तीर्थक्षेत्र वृषभांचल ध्यान केन्द्र दिल्ली हेतु अध्ययन कार्य होता है। लौकिक शिक्षा की भी | की ओर से वर्ष के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् के रूप में सम्मानित यथासम्भव सुविधा प्रदान की जा सकती है। पूर्व प्रविष्ट | करने की घोषणा की है। यह भव्य समारोह दिनांक 26 छात्र 25 जुलाई से होने जा रहे सत्रारम्भ में ही विद्यालय मई 2008 को बाल ब्रह्मचारिणी माँ कौशल के सान्निध्य में उपस्थित हों।
में श्री मोतीलाल जी बोरा, भू.पू. मुख्यमंत्री म.प्र. एवं प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी | भू.पू. राज्यपाल उत्तर प्रदेश के कर कमलों से सम्मान श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी | राशि 51000/- प्रशस्त्री पत्र, शाल, श्रीफल से सम्मानित
किया जावेगा। डॉ. रमेशचन्द्र जैन सहित दस विद्वान् | अखिल भारतीय मैत्री ग्रुप संगठन के द्वारा प्रात: श्री गोम्मटेश्वर विद्यापीठ प्रशस्ति से सम्मानित । स्मरणीय परम पूज्य 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी
क्षेत्र की बहुमुखी योजनाओं में एक योजना श्री | महामुनिराज की कृतियों पर अनुशीलन एवं शोध खोज गोम्मटेश्वर विद्यापीठ प्रशस्ति प्रदान समारोह है। इसके | के लिए आचार्य श्री के परम शिष्य मुनिवर 108 क्षमासागर अंतर्गत अनेक वर्षों से विद्वान् पुरस्कार प्राप्त करते आ | जी महाराज के सान्निध्य में पर्वराज श्रुत पंचमी पर समारोह रहे हैं। इस वर्ष यह पुरस्कार दस विद्वानों को भगवान् | पूर्वक तीर्थ क्षेत्र पटेरिया जी गढ़ाकोटा सागर मध्यप्रदेश महावीर जयन्ती (18 अप्रैल 2008) के दिन श्री क्षेत्र में श्रेष्ठ विद्वान् डॉ. भागचंद जैन भागेन्दु को सम्मानित श्रवणबेलगोला में भव्य समारोह के साथ प्रदान किया | कर सम्मान समर्पित किया जावेगा यह समारोह 8 जून गया। पुरस्कार प्राप्तकर्ता थे- डॉ. आ. सुन्दर, मैसूर, प्रो. | 2008 को सम्पन्न होगा। नागराज पूवणी, उजिरे, डॉ. बाला साहिब लोकापुर,
श्री डॉ. भागेन्दु जी को जो राष्ट्रीय सम्मान मिला बागलकोट, डॉ. किरणकान्त चौधरी, तिरुपति, प्रो. प्रेमसुमन | है उससे दमोह नगर का गौरव बढ़ा है। इस हेतु श्री जैन, उदयपुर, डॉ. सत्यप्रकाश जैन, देहली, डॉ. नलिन | दिगम्बर जैन पंचायत अध्यक्ष विमल लहरी, पूर्व अध्यक्ष के शास्त्री, बोधगया, डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर, श्री | वीरेन्द्र इटोरया, महामंत्री नरेन्द्र चौधरी ने अपने शुभभाव जे.टी.जी कलप्पा, हासन, श्रीमती नवरत्न इन्दुकुमार, | प्रगट करते हुए उनके क्रियाशील दीर्घआयु की कामना चिक्कमंगलौर। इन सबको मख्य अतिथि श्री अजीत कब्बिन | कर प्रसन्नता व्यक्त की है। उनके मित्रों हितैषियों तथा ने सम्मानित किया तथा श्रीफल आदि भेंट कर पज्यस्वामी | अनेक संस्थाओं ने उन्हें बधाइयाँ दी हैं। जी ने अपना आशीर्वाद दिया। मुख्य अतिथि बंगलौर
नरेन्द्र चौधरी हाई कोर्ट के जज के रूप में सेवानिवृत हो चुके हैं।।
महामंत्री-श्री दिग. जैन पंचायत, दमोह 32 मई 2008 जिनभाषित
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मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ
अनहोनी - 1
तुम
कभी किसी वृक्ष ने
अपनी शाखाओं पर बने
पक्षी के घोंसले
अपने ही हाथों तोड़कर नीचे फेंक दिये हों?
तुमने नहीं सुना, मैंने भी नहीं सुना
ऐसा तो
किसी ने
कभी नहीं सुना ।
खिड़की
सम्बन्धों के बीच
पहले
एक दीवार
हम खुद
खड़ी करते हैं
फिर उसमें
एक खिड़की
लगाते हैं
पर जिन्दगी-भर करीब रहकर भी
हम खुलकर कहाँ मिल पाते हैं?
'अपना घर' से साभार
अनहोनी-2
तुमने देखा
कभी आँधी-पानी तूफान
वृक्ष से
पक्षी को घोंसला
टूटकर गिरते वक्त
वृक्ष का पत्ता- पत्ता न काँपा हो?
कि आँसुओं की तरह
फूल और फल
न गिरे हों ?
तुमने नहीं देखा
मैंने भी नहीं देखा,
ऐसा होते
किसी ने
कभी नहीं देखा।
सावधान
दर्पण
तोड़ने से पहले
इतना जरूर देख लेना,
कहीं
दर्पण में बना
तुम्हारा प्रतिबिम्ब
टूट न जाए !
में
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________________ UPHIN/2006/16750 संस्कृति और संस्कारों की ओर बढ़ते चलें, आधुनिक शिक्षा के साथ श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय एवं छात्रावास पिसनहारी मढ़िया के सामने, जबलपुर -03 प्रवेश प्रारंभ छात्रों के लिए : कक्षा 6 वीं से 12 वीं, उच्च शिक्षण हेतु, सुरम्य वातावरण, धार्मिकता से परिपूर्ण, सभी वर्गों के लिए, संख्या सीमित है 1.6 एकड़ भूमि का विशाल प्रांगण 8. सरस शुद्ध सात्विक भोजन व्यवस्था 2. उच्चतम, स्वच्छ आवासीय व्यवस्था 9. आधुनिक कम्प्यूटर लैब 3. प्रातः कालीन योगाभ्यास क्रियाएँ। 10. उच्च संगीतज्ञों द्वारा संगीत शिक्षा 4.प्रत्येक कक्षा में सीमित छात्र संख्या 5. प्रशिक्षित एवं अनुभवी शिक्षकों द्वारा अध्यापन / 11. विशालतम प्रयोगशाला 6. धार्मिक क्रियाओं का समयानुसार प्रशिक्षण 12. वार्षिक उच्च प्राप्तांकों पर शासकीय 7. आधुनिक सुविधायुक्त अध्ययन कक्ष उच्चाधिकारियों द्वारा सम्मान सम्पर्क -ब्र.जिनेश जैन 0761-2672991, 2671828,9425984533,9200299320,9301338591 निवेदक- श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल ट्रस्ट कमेटी एवं सदस्य गण स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।