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________________ के लिये मन्दिर से पूजन का द्रव्य लाया और अर्घ बनाकर । बाहर आ गया और उपस्थित महाशयों से कहने लगा बाईजी को देने लगा। उन्होंने द्रव्य नहीं लिया और हाथ | कि 'बाईजी अच्छी हैं।' सब लोग हँसने लगे। का इशारा कर जल माँगा। उसने हस्त प्रक्षालन कर गन्धोदक मैं जब बाहर आया तब बाईजी ने मोतीलालजी की वन्दना की। मैं फिर अर्घ देने लगा तो फिर उन्होंने | से कहा कि 'अब हमको बैठा दो।' उन्होंने बाईजी को हाथ प्रक्षालन के लिये जल माँगा। पश्चात् हस्त प्रक्षालनकर |बैठा दिया। बाईजी ने दोनों हाथ जोड़े 'ओं सिद्धाय नमः' अर्घ चढाया। फिर हाथ धोकर बैठ गई और सिलेट कह कर प्राण त्याग दिये। वर्णीजी ने मुझे बुलाया- 'शीघ्र माँगी। मैंने सिलेट दे दी। उस पर उन्होंने लिखा कि | आओ।' मैंने कहा- 'अभी तो बाईजी से मेरी बातचीत 'तुम लोग आनन्द से भोजन करो।' हुई। मैंने पूछा था- सिद्ध भगवान् का स्मरण है। उत्तर बाईजी तीन मास से लेट नहीं सकती थी। उस दिन पैर पसार कर सो गईं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। का उल्लङ्घन नहीं कर सकता था।' वर्णीजी ने कहा मैंने समझा कि आज बाईजी को आराम हो गया। अब कि 'आज्ञा देनेवाली बाईजी अब कहीं चलीं गईं?' क्या इनका स्वास्थ्य प्रतिदिन अच्छा होने लगेगा। इस खुशी | ऊपर गईं है? वर्णीजी बोले 'बड़े बुद्ध हो। अरे वह में उस दिन हमने सानन्द विशिष्ट भोजन किया। दो | तो समाधिमरण कर स्वर्ग सिधार गईं। जल्दी आओ उनका बजे पं० मोतीलालजी वर्णी से कहा कि 'बाईजी की | अन्तिम शव तो देखो कैसा निश्चल आसन लगाये बैठी तबियत अच्छी है, अतः घूमने के लिये जाता हूँ।' वर्णीजी हैं?' मैं अन्दर गया, सचमुच ही बाईजी का जीव निकल ने कहा कि 'तुम अत्यन्त मूढ़ हो। यह अच्छे के चिह्न गया था, सिर्फ शव बैठा था। देखकर अशरण भावना नहीं हैं, अवसर के चिह्न हैं।' मैंने कहा-'तुम बड़े धन्वन्तरि | का स्मरण हो आयाहो। मुझे तो यह आशा है कि अब बाईजी को आराम 'राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार। होगा।' वर्णीजी बोले-'तुम्हारा सा दुर्बोध आदमी मैंने नहीं मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार॥ देखा। देखो, हमारी बात मानो, आज कहीं मत जाओ।' दलबल देवी देवता मात पिता परिवार। मैंने कहा-आज तो इतने दिन बाद अवसर मिला है और मरती विरियाँ जीवको कोई न राखन हार॥ आज ही आप रोकते हैं। उसी समय कार्तिकेय स्वामी के शब्दों पर स्मरण कुछ देर तक हम दोनों में ऐसा विवाद चलता | जा पहुँचारहा। अन्त में, मैं साढ़े तीन बजे जलपान कर ग्राम के जं किंचि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेड़ णियमेण बाहर चल गया। एक बाग में जाकर नाना विकल्प करने परिणामसरूवेण विण य किं पि वि सासयं अत्थि।। लगा-'हे प्रभो! हमने जहाँ तक बनी बाईजी की सेवा सीहम्मकये पडियं सारंग जह ण रक्खए को वि। की, परन्तु उन्हें आराम नहीं मिला। आज उनका स्वास्थ्य तह मिच्चुणा वि गहियं जीवं पि ण रक्खए को वि॥' कुछ अच्छा मालूम होता है। यदि उनकी आयु पूर्ण हो जो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, उसका विनाश गई तो मुझे कुछ नहीं सूझता कि क्या करूँगा?' इन्हीं | नियम से होता है। पर्यायरूप कर कोई भी वस्तु शाश्वत विकल्पों में शाम हो गई, अतः सामायिक करके कटरा | नहीं है। सिंह के पैर के नीचे आये मृग की जैसे कोई के मन्दिर में चला गया। वहाँ पर शास्त्र प्रवचन होता | रक्षा नहीं कर सकता, उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा गृहीत था, अतः ९ बजे तक शास्त्र श्रवण करता रहा। साढ़े इस जीव की कोई रक्षा नहीं कर सकता। इसका तात्पर्य नौ बजे बाईजी के पास पहुँचा तो क्या देखता हूँ कि | यह है कि पर्याय जिस कारणकूट से होती है, उसके कोई तो समाधिमरण का पाठ पढ़ रहा है और कोई | अभाव में वह नहीं रह सकती। प्राणी के अन्दर एक 'राजा राणा छत्रपति' पढ़ रहा है। मैं एकदम भीतर गया | आयु प्राण है उसका अभाव होनेपर एक समय भी जीव और बाईजी का हाथ पकड़ कर पूछने लगा-'बाईजी | नहीं रह सकता। अन्य की कथा छोड़ो, स्वर्ग के देवेन्द्र सिद्ध परमेष्ठी का स्मरण करो!' बाईजी बोलीं- भैया! | भी आयु का अवसर होने पर एक समयमात्र भी स्वर्ग कर रहे हैं, तुम बाहर जाओ।' मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। में ठहरने के लिए असमर्थ हैं। अथवा देवेन्द्रों की कथा कि अब तो बाईजी की तबियत अच्छी है। मैं सानन्द । छोड़ो, श्रीतीर्थंकर भी मनुष्यायु का अवसान होने पर एक मई 2008 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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