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________________ अर्थात् हुण्डावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव (अतदाकार) स्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कुलिंग-मतियों से मोहित इस लोक में सन्देह हो सकता है।" ('पुष्पाञ्जलि'/ खण्ड २/पृ. ८४)। उक्त गाथा का अभिप्राय पं० सदासुखदास जी ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है-"इस काल में अन्यमतीनि (अन्यमतवालों) की अनेक स्थापना हो गयीं। तातें इस काल में तदाकार स्थापना की ही मुख्यता है। जो अतदाकार स्थापना की प्रधानता हो जाय, तो चाहे जी ही में या अन्यमतीनि की प्रतिमा में हू, अरहन्त की स्थापना का संकल्प करने लगि जायँ, तो मार्गभ्रष्ट हो जायँ।" (रत्नकरण्डश्रावकाचार /टीका/कारिका ११९)। पं० सदासुखदास जी इसके पूर्व लिखते हैं-"बहुरि जो स्थापना के पक्षपाती स्थापना बिना प्रतिमा का पूजन नांही करें, तो स्तवन-वंदना करने की योग्यता हू प्रतिमा के नाहीं रही। बहुरि जो पीततन्दुलनि की अतदाकार स्थापना ही पूज्य है, तो तिन पक्षपातिनि के धातु-पाषाण का तदाकार प्रतिबिम्ब स्थापन करना निरर्थक है तथा अकृत्रिम चैत्यालय के प्रतिबिम्ब अनादि-निधन स्थापन हैं, तिनमें हू पूज्यपना नाहीं रहा।" (र.क.श्रा./टीका / कारिका ११९)। . प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' तीन-तीन पुष्प गिनकर ठोने पर चढ़ाने को न केवल अनावश्यक हैं, अपितु आहावन-स्थापन में बाधक भी मानते हैं। उनके विचारों को रखते हुए उनके पुत्र एवं शिष्य प्रतिष्ठाचार्य 'निशान्त' जी लिखते हैं "आहावन, स्थापन एवं सन्निधीकरण में क्रमशः तीन-तीन पुष्प चढ़ाने का प्रयास करते-करते यह महत्त्वपूर्ण क्रिया पूर्ण करते हैं और अखण्ड पीले चावल सम्हारने-चढ़ाने में ही भगवान् के आवाहन, स्थापन एवं सन्निधीकरण का भाव चूक जाता है। उनसे निकटता प्राप्त करने का अवसर हाथ से निकल जाता है। हम उनके प्रति समर्पित होने का भाव जागृत ही नहीं कर पाते हैं और क्रिया पूर्ण हो जाती है।" (पुष्पाञ्जलि/खण्ड २/पृष्ठ ८४)। 'निशान्त' जी आगे लिखते हैं-"इसके बाद (आवाहन, स्थापना और सन्निधीकरण के पश्चात्) पूजा करने का संकल्प इस भावना के साथ करें कि हे भगवन्! जो विशुद्धि, कषायों की मन्दता एवं परिणामों की निर्मलता आपके सान्निध्य में हुई है, वह मेरे जीवन में बनी रहे। तत्पश्चात् ठोने पर संकल्पपुष्प क्षेपण करें। यहाँ किसी प्रकार की गिनती के व्यवधान में नहीं उलझना चाहिए, क्योंकि हम भगवान् की पूजा का संकल्प करके संकल्पपुष्प ठोने पर क्षेपण कर रहे हैं, भगवान् को नहीं (भगवान् को स्थापित नहीं कर रहे हैं)।" (पुष्पाञ्जलि / खण्ड २ / पृष्ठ ८६)। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ठोने पर जो पुष्प चढ़ाये जाते हैं, उनमें भगवान् की स्थापना नहीं की जाती, बल्कि वे भगवान् की पूजा का संकल्प किये जाने के प्रतीक होते हैं। अत: गिन-गिन करके तीन एवं साबुत पुष्प (पीताक्षत) चढ़ाने की परम्परा शास्त्रसम्मत नहीं है। ठोने पर चढ़ाये जानेवाले पुष्पों को भगवान् की प्रतिमा का प्रतीक मान लेने के कारण यह भी देखा जाता है कि विसर्जन के बाद उन पुष्पों (पीताक्षतों) को जल से धोकर जल को प्रतिमा के अभिषेकजल के समान मानते हुए गन्धोदक की तरह मस्तक पर चढ़ाया जाता है। कहीं-कहीं उन पुष्पों को अग्नि में जला दिया जाता है। इन प्रथाओं को भी श्रद्धेय पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' के विचारों को अभिव्यक्ति देनेवाले प्रतिष्ठाचार्य पं० 'निशान्त' जी ने आगमविरुद्ध बतलाया है। वे लिखते हैं "पूजा समाप्ति पर पूजनकार्य का विसर्जन (समापन) भी पुष्पों के द्वारा ठोने पर किया जाता है। --- यहाँ भी पुष्पों की गिनती का कोई प्रमाण शास्त्रों में नहीं मिला है, अतः जितने पुष्प हाथ में आ जावें, उन्हें निम्न पद पढ़कर ठोने पर क्षेपण करना चाहिए श्रद्धा से आराध्यपद पूजे शक्ति प्रमाण। पूजा-विसर्जन मैं करूँ, होय सतत कल्याण॥ -मई 2008 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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