SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय स्थापना के तीन साबुत चावल एक मन्दिर में मैं पूजा करने के लिए पहुँचा। वहाँ पहले से ही एक पन्द्रह-सोलह साल का लड़का पूजा कर रहा था। वह उस मन्दिर के पुजारी का बेटा था और पुजारी की अनुपस्थिति में प्रायः वही पूजा करने के लिए आया करता था। पढ़ाई-लिखाई में कमजोर होने के कारण उसने पाँचवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था। वह हथेली में पीताक्षत रखकर उनमें से तीन-तीन साबुत चावल चुनकर ठोने पर चढ़ाते हुए आवाहन, स्थापन, सान्निधीकरण कर रहा था। मैंने जब पूजा प्रारंभ की तब तीन-तीन साबुत चावल न चुनकर बहुत से चावल उठा-उठा कर ठोने पर चढ़ाते हुए आवाहन आदि करने लगा। तब उस पुजारी-पुत्र ने मुझे टोका और कहा कि आपको स्थापना करना भी नहीं आता। इतने सारे टूटे-फूटे चावलों में स्थापना नहीं की जाती। तीन-तीन साबुत चावल चुन-चुन कर ठोने पर स्थापित करना चाहिए। मैंने उससे पूछा-"ऐसा किस शास्त्र में लिखा है?". वह शास्त्र का नाम नहीं बतला सका, पर बोलासब लोग ऐसा ही करते हैं। इतने में एक ब्रह्मचारी जी मंदिर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने मेरा प्रश्न सुन लिया था। पुजारी-पुत्र से किये गये प्रश्न का उत्तर देते हुए वे बोले-"सब चीजें शास्त्रों में नहीं मिलती। परम्परा भी कोई चीज होती है। ठोने पर चढाये गये चावल भगवान के प्रतीक होते हैं। वे भगवान की अतदाकार प्रतिमा हैं। भगवान् की अखण्ड प्रतिमा ही पूजनीय होती है, इसलिए चावल भी अखण्ड होने चाहिए। इसी कारण अखण्ड चावल चुन-चुन कर ठोने पर स्थापित किये जाते हैं। और चावलों की तीन संख्या रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र) का प्रतीक है, जिसकी साधना से आत्मा भगवान्-पद को प्राप्त होती है।" मैंने उनसे प्रश्न किया-"जब पंचकल्याणक-विधि द्वारा शास्त्रोक्त-पद्धति से प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा सामने वेदी पर विराजमान है, तब चावलों में भगवान् की स्थापना करने की क्या आवश्यकता है? तथा जयधवला में कहा गया है "अणंतणाण-दसण-विरिय-सुहादिदुवारेण एयत्तमावण्णेसु अणंतेसु जिणेसु एयवंदणाए सव्वेसि पि वंदणुववत्तीदो।" (जयधवला/कसायपाहुड/ भाग १/गाथा १/अनुच्छेद ८७/पृ.१०२)। ___अनुवाद-"अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुखादि की अपेक्षा अनन्त जिन एकत्व को प्राप्त होते हैं, अत: एक जिन या जिनालय की वन्दना से सभी जिनों या जिनालयों की वन्दना हो जाती है।" इसलिए जिन तीर्थंकरों की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ वेदी पर उपलब्ध नहीं हैं, उनकी पूजा भी उसी प्रतिमा के आश्रय से की जा सकती है, जो वेदी पर प्रतिष्ठित है, भले ही वह किसी भी तीर्थंकर की हो। अतः उनकी पूजा के लिए भी चावल आदि में उनकी स्थापना आवश्यक नहीं है। तब वह क्यों की जाती है?" ब्रह्मचारी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। मैंने उन्हें आगे बतलाया कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में आचार्यों ने अतदाकार स्थापना (चावल आदि पदार्थों में भगवान् की स्थापना) का निषेध किया है। इसका सप्रमाण निरूपण वर्तमानयुग के आर्षमार्गी विद्वान् एवं अत्यन्त प्रामाणिक प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' के प्रतिष्ठाचार्य पुत्र एवं शिष्य ब्रह्मचारी जयकुमार जी 'निशान्त' ने पुष्पाञ्जलि (प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र 'पुष्प' अभिनन्दन ग्रन्थ) में किया है। वे लिखते हैं-"पुष्पों (पीताक्षतों) में भगवान् की स्थापना करने का निषेध अवश्य मिलता है हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होदि कादव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो॥ ३८५॥ वसुनन्दि-श्रावकचार 2 मई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy