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तत्पश्चात् ठोने के संकल्पपुष्पों को निर्माल्य की थाली में ही डाल देना चाहिए।" (पुष्पांजलि / खण्ड २ / पृष्ठ ८९ ) ।
उपर्युक्त बात पर जोर देते हुए 'निशान्त' जी पुनः लिखते हैं-" संकल्प के पुष्पों को भी निर्माल्य की थाली में क्षेपण कर दें। उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए।" (पुष्पांजलि / खण्ड २ / पृ. ९० ) ।
और चूँकि आवाहन आदि के समय ठोने पर चढ़ाये गये पुष्पों (पीले चावलों) में भगवान् की स्थापना नहीं की जाती, बल्कि वे पूजा करने के संकल्पपुष्प होते हैं, अतः उन्हें धोकर उस जल को अभिषेकजल के समान मस्तक पर चढ़ाना या आँखों में लगाना भी आगमविरुद्ध है। फलस्वरूप विसर्जन के बाद उनका निर्माल्य की थाली में क्षेपणा करना ही आगमसम्मत है।
जैन शास्त्रों में, जैन मात्र को अष्ट मूलगुण धारण करना अति आवश्यक कहा गया है। आ. अमृतचन्द्र ने तो पाँच उदम्बर फल तथा तीन मकार (मद्य, मांस एवं मधु) के त्यागी को ही जैनशास्त्र सुनने का अधिकारी कहा है। परन्तु वर्तमान में कुछ साधर्मी भाई स्वास्थ्यलाभ के लिये मधु लेने लगे हैं। वे मधु निर्मित दवाओं से भी परहेज नहीं करते। उनका कहना है कि आजकल मधु शुद्ध तरीकों से बनने लगा है। उनका यह कथन बिलकुल भ्रामक है। मधु तो मधुमक्खी की उगाल (वमन) है। इसको किसी भी तरह शुद्ध नहीं कहा जा सकता। इसकी एक बूँद में भी अनंत जीवों का घात होता है। अतः मधु को मांसवत् मानते हुये कभी प्रयोग नहीं करना चाहिये ।
मधु (शहद) भी मांसवत् अभक्ष्य ही है
जैन शास्त्रों में तो मधु को अभक्ष्य कहा ही है, परन्तु वैदिकग्रंथों में भी इसे सर्वथा अभक्ष्य कहा है। वैदिक ग्रंथों के कुछ प्रमाण इस प्रकार हैंसप्तग्रामेषु दग्धेषु यत्पापं जायते नृणाम् । तत्पापं जायते तेषां मधुबिन्द्वेककभक्षणात् ॥
(महाभारत)
सात गाँव के जलाने में जितना पाप, किसी मनुष्य को होता है, उतना ही पाप, शहद की एक बूँद के खाने से होता है ।
जीवाण्डैर्मधु संभूतं म्लेच्छोच्छिष्टं न संशयः । वर्जनीयं सदा श्रेष्ठैः परलोकाभिकांक्षिभिः ॥ (आरण्यक - पुराण)
4 मई 2008 जिनभाषित
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रतनचन्द्र जैन
संकलन : पं० अनन्तवल्ले शास्त्री जो मक्खियाँ अण्डे देती हैं, उनसे ही शहद बनता है। शहद म्लेच्छों की जूठन है, इसमें सन्देह नहीं हैं। इसलिए श्रेष्ठ उत्तम पुरुषों को जो परलोक में सुख चाहते हैं, सदैव शहद छोड़ना चाहिए, अर्थात् कभी न खाना चाहिए।
मद्ये मांसे मधूनि च नवनीते तक्रतो बहिः । उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते तद्वर्णास्तत्र जन्तवः ॥ (नागपुराण) मदिरा, मांस शहद और छाछ (मठा) से बाहर निकलते ही नवनीत ( लूनिया घी) में उसी वर्ण (रंग) के जीव जन्तु पैदा होते रहते और मरते रहते हैं । सप्तग्रामेषु यत्पापमग्निना भस्मसात्कृतम्। तत्पापं जायते जन्तोर्मधुबिन्द्वेकभक्षणात् ॥
(मनुस्मृति) सात गाँवों को आग लगाकर जला देने में जो पाप होता है, उतना पाप शहद की एक बूँद खाने से लग जाता है।
यो ददाति मधु श्राद्धे मोहितो धर्मलिप्सया । स याति नरकं घोरं खादकैः सह लम्पटैः ॥
(महाभारत) जो मनुष्य धर्म की इच्छा से मोहित होकर श्राद्ध में किसी को मधु (शहद) खिलाता है, तो लंपटी खानेवालों के साथ वह घोर नरक में जाता 1
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प्रशिक्षक, श्रमण संस्कृति संस्थान, सागानेर (जयपुर) राजस्थान
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