SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रचा, लाक्षा गृह में पांडवों को जलाने का षडयंत्र किया, । है । ये सब तो संसार के कारण हैं, किन्तु ये मुक्ति के कारण हैं, ऐसा मानना तो प्रत्यक्ष विपर्यास है। विनय - परमार्थ देव - शास्त्र - गुरु तथा दर्शन - ज्ञानचारित्र और तपरूप समीचीन आराधनाओं का, जिस प्रकार विनय किया जाता है, उसी प्रकार रागी, द्वेषी, संसारी पुरुषों का या अन्य मिथ्याधर्मों का तथा कुतप तपनेवाले पुरुषों का भी विनय करना, उनकी प्रशंसादि करना विनयमिथ्यात्व है। किन्तु पुण्यशाली चरमशरीरी तथा सर्वार्थसिद्धि विमानों में उत्पन्न होनेवाले वे महात्मा पुरुष कैसे जल सकते थे? हाँ! कौरवों के कारण उनको १२ वर्ष तक, माता कुन्ती और अर्जुन-पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास के कष्ट पूर्वकर्मोदय होने से अवश्य भोगने पड़े । अन्त में मायावी कौरवों का पतन हुआ । इसी प्रकार रावण का दृष्टांत भी है। रावण सीता को मायाचार करके चुराया, परिजनों के समझाने पर भी, उसने सीता को वापस नहीं किया । युद्ध में विजय प्राप्त की राम ने, तथा रावण अपने परिजनों का (विभीषणादि का) शत्रु भी बना और अन्त में मरण को प्राप्त होकर श्वभ्र (नरक) गामी बना। यह माया शल्य महादोषों की खानि - स्वरूप है और आत्मा को दुर्गति का पात्र बनानेवाली है, अतः कल्याणेच्छु जनों को भविष्य में तिर्यंचयोनि के कारणभूत मायाचार का परित्याग करना चाहिए। मिथ्यादर्शन शल्य - मिथ्यात्वकर्म के उदय से तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है, उस अश्रद्धान से भगवान् अर्हन्त परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान, तथा जीवादि तत्त्वों के स्वरूप में अश्रद्धान होता है, यही मिथ्यादर्शन है। मिथ्यात्व के प्रकार- मिथ्यादर्शन एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है । गृहीत - अगृहीत के भेद से दो प्रकार का भी है। इसके नैसर्गिक और परोपदेश की अपेक्षा भी दो भेद पाये जाते हैं। अथवा ३६३ मिथ्यामतवादियों की अपेक्षा इसके ३६३ भेद भी हैं । परमागम से अन्य भेद भी जान लेना चाहिए। एकान्त- यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकान्तरूप अभिप्राय रखना, जगत के पदार्थ सत् ही हैं, असत् ही हैं, एक ही है, अनेक ही हैं, सावयव ही हैं, निरवयव ही हैं, नित्य ही हैं, अनित्य ही हैं इत्यादि एकान्त अभिनिवेश को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं । विपरीत- सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना, स्त्री को मुक्ति होती है, इस प्रकार मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है । विपरीत मिथ्यादृष्टि हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, राग-द्वेष, मोह और अज्ञान से ही मुक्ति होती है, ऐसे अभिनिवेश से युक्त होता 18 मई 2008 जिनभाषित Jain Education International संशय- जिसमें तत्त्वों का निश्चय नहीं है, ऐसे संशयज्ञान से सम्बन्ध रखनेवाले श्रद्धान को संशयमिथ्यात्व कहते हैं । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं या नहीं, इस प्रकार संशय बना रहता है। जिसे पदार्थों के स्वरूप का निश्चय नहीं है, उसे 'जीवादि पदार्थों का स्वरूप ऐसा ही है' इस प्रकार का निश्चयात्मक श्रद्धान नहीं होता है । अर्थात् संशय मिथ्यादृष्टि को सर्वत्र सन्देह ही रहता है, वह निश्चय नहीं कर पाता । अज्ञान - नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञानमिथ्यात्व कहते हैं। अज्ञानमिथ्यादृष्टि 'पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश देता है। उसके मत में हितअहित का बिलकुल भी विवेचन नहीं है। वह अज्ञान से ही मोक्ष मानता है। इस प्रकार मिथ्यादर्शन का स्वरूप, भेद-प्रभेद आदि को परमागम के अनुसार, भली-भाँति समझकर उसका परित्याग करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ भी अकल्याणकारी नहीं है। निदानशल्य- भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण नियम से चित्त दिया जाता है, वह निदान है। अर्थात् भोगों की लालसा निदान है। निदान नाम का शल्य दुःखद होने से उसे भी गणधरादि महापुरुषों ने त्याज्य माना है । निदान के भेद- प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से निदान दो प्रकार का है। प्रशस्त निदान भी दो प्रकार का है। एक संसारमूलक और दूसरा मोक्ष में कारणभूत । अप्रशस्त निदान भी भोगकृत और मानकृत के भेद से दो प्रकार का है। पुरुषत्व, वज्रवृषभनाराचादि उत्कृष्टसंहनन, वीर्यान्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy