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________________ संसार परिभ्रमण का कारण शल्यत्रय आर्यिका श्री सुशीलमती जी (परम पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी की शिष्या) शल्य का स्वरूप- 'शृणाति हिनस्तीति शल्यम्' । शुद्धात्मभावना से उत्पन्न निरन्तर आनन्दरूप सुखामृतजल यह शल्य शब्द का निरुक्ति अर्थ है। जो प्राणी को पीड़ा | से अपने चित्त की शुद्धि न करते हुए बाहर में बगुले देता है वह शल्य है, ऐसी तत्त्वज्ञों ने शल्य शब्द की जैसे वेष को धारण कर लोगों को प्रसन्न करना मायाव्याख्या की है। जिस प्रकार शरीर में लगा हुआ या | शल्य कहलाती है। चुभा हुआ बाण या काँटा आदि प्राणी को दुःखी करता निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि और प्रतिकुंचन है, उसी प्रकार शल्य भी प्राणी को संसार-परिभ्रमण कराते | ये माया के पाँच प्रकार हैं। धन के विषय में अथवा हुए व्यथित करता है। अन्य किसी कार्य के विषय में जिसकी अभिलाषा उत्पन्न शल्य के भेद- माया, मिथ्या और निदान के हुई है, ऐसे मुनष्य को फँसाने का, ठगने का चातुर्य भेद से शल्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भावशल्य | निकृति माया है। अच्छे परिणामों को छिपाकर धर्म के के भेद से दो प्रकार का भी शल्य होता है। मिथ्यादर्शन, | निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति उपधि माया है। माया और निदान ऐसे तीन शल्यों की जिनसे उत्पत्ति | धन के विषय में असत्य बोलना, किसी की धरोहर होती है ऐसे कारणभत कर्म को द्रव्यशल्य तथा इनके | का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा प्रशंसा उदय से जीव के माया, मिथ्या व निदानरूप परिणाम | करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक मूल्य की सदृश भावशल्य है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग के भेद से | वस्तुएँ आपस में मिलाना, तौल और माप के सेर, पसेरी चार भेद भावशल्य के तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र | आदि बाँटों का अथवा माप-तौल के अन्य साधनों को शल्य के भेद से द्रव्यशल्य तीन प्रकार का है। । कम-अधिक रखकर उनसे लेन-देन करना, असली शंका, कांक्षा आदि सम्यग्दर्शन के शल्य हैं। अकाल | नकली पदार्थ परस्पर में मिलाना यह सब प्रणिधि माया में पढ़ना और अविनयादि करना ज्ञान के शल्य हैं। समिति | है। आलोचना करते समय अपने दोषों को छिपाना और गुप्तियों में अनादर रहना चारित्रशल्य, असंयम में | प्रतिकुंचन माया है। परिणति योगशल्य है। दासादिक सचित द्रव्यशल्य, सुवर्णादि । इस प्रकार माया का भेद-प्रभेदों सहित स्वरूप पदार्थ अचित्त द्रव्यशल्य तथा ग्रामादि मिश्रशल्य हैं। इस | जानकर इसका परित्याग कर देना चाहिए। मायाचारी पुरुष प्रकार शल्य के भेद-प्रभेदों का वर्णन भगवती-आराधना | अन्य लोगों की वञ्चना करके मन में यह सोचता है में किया है। प्रस्तुत लेख में मुख्यतया माया, मिथ्या और | कि मैंने अमुक व्यक्ति को ठग लिया, किन्तु ऐसा सोचने निदान शल्य सविस्तार विवेच्य हैं अतः उद्देश्यानुसार उन्हीं | और करनेवाला आत्मवञ्चना करता है, स्वयं को ठगता का स्वरूप आगे वर्णित है। है। मायाचारी व्यक्ति के मन-वचन-काय ऋजु नहीं होते। माया शल्य : स्वरूप- आत्मा का कुटिलभाव | वह मन से कुछ चिंतन करता है, वचनों से अन्य ही माया है, इसे निकति या वंचना भी कहते हैं। दसरों| अभिव्यक्त करता है तथा कार्य से कछ और ही चेष्टा को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किये | करता है। मायाचार करनेवालों का इहलोक और परलोक जाते हैं, वे माया हैं। यह बाँस की गँठीली जड़, मेंढे | दोनों ही पापमय होते हैं। शास्त्रों में अनेक दृष्टांत भरे का सींग, गोमूत्र की वक्र रेखा और अवलेखनी के समान | पडे हैं, जिनने भी मायाचार किया, जो मायाशल्य से चार प्रकार की होती है। विद्ध थे, उनका इहलोक में तो अपमान हुआ ही, किन्तु राग के उदय से परस्त्री आदि में वाञ्छारूप तथा | परलोक भी दुःखों से भरा हुआ मिला। कौरवों ने पांडवों द्वेष से अन्य जीवों के मारने, बाँधने अथवा छेदने रूप | के साथ कितनी बार मायाचार किया, मात्र ऐश्वर्य के मेरे दुर्ध्यान को कोई नहीं जानता ऐसा मानकर निज- | लोभ में उनका प्राणान्त तक करने के लिए मायाजाल मई 2008 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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