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रायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाला दृढ़परिणाम | पद, चक्रवर्तीपद आदि भोगों के लिए इच्छा करना आदि मोक्ष की साधनभूत सामग्री मुझे प्राप्त हो, मेरे दुःखों | भोगनिदान है। का नाश, कर्मों का क्षय हो, बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति | जिस प्रकार कोई कुष्ठरोगी कुष्ठरोग की नाशक हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र भगवान् के गुणों की प्राप्ति | रसायन को प्राप्तकर उसको जलाता है, उसी प्रकार निदान हो इत्यादि जो निदान-प्रार्थना है, ये प्रशस्त-निदान हैं और | करनेवाला मनुष्य सर्वदुःखों का नाश करने में समर्थ संयम मोक्ष की कारणभूत सामग्री की इसमें याचना की गई | का भोगक़त निदान से नाश करता है। जो प्राणी भोगों है। अथवा जिनधर्म की प्राप्ति होने के योग्य देश | की आसक्ति में अपना मन लगाता है उसे हितकर(आर्यक्षेत्र), योग्य स्थान, जहाँ वीतरागधर्म के आराधक | अहितकर का परिज्ञान नहीं होता। सर्पदंश से युक्त मनुष्य श्रावक रहते हैं और भाव-शुभपरिणाम, धनिक एवं बन्धु- | के समान वह मूर्छा, दाह और प्रलाप से सहित होता बांधवों से संयुक्त परिवार में उत्पन्न होने का निदान करना | है। भोगासक्ति के कारण वह उनकी पूर्ति के अभाव संसार सम्बन्धी प्रशस्त निदान है।
| में अपने आपको दुःखी अनुभव करता है और पूर्ति उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रशस्त निदानों में प्रथम | होने पर भोगों के प्रति तृष्णावृद्धि से भी दु:खी होता निदान मोक्ष की कारणभूत सामग्री का याचक होने से | है। सर्वथा त्याज्य नहीं है। अप्रशस्त निदान तो सर्वथा त्याज्य इस प्रकार तीनों ही प्रकार के शल्य जीव को ही हैं, निंद्य हैं और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश कराने में बाधक |
| कष्टदायक हैं। अतः अहिंसादि व्रतरूप सम्पत्ति के धारक हैं। क्रुद्ध होकर मरण-समय में शत्रुवधादि की इच्छा करना | भव्यजन हृदय में प्रविष्ट माया, मिथ्या व निदानरूप अप्रशस्तानदान है। अथवा मान के वशीभूत होकर उत्तम | शल्यत्रय का परित्याग करें। संसार परिभ्रमण के कारणभत मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य | इन तीनों शल्यों को पृथक् करके ही संयमधारणपूर्वक पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और | इस कलिकाल में भी स्वर्गगमन कर वहाँ से पुनः मनुष्य सुन्दरपना इत्यादि की प्रार्थना करना मानकृत अप्रशस्त | पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं। तथा मनुष्य पर्याय में निदान है। यद्यपि आचार्य गणधर और तीर्थंकर जैसे पदों | पुनः संयम धारण कर अनादिकालीन कर्मबन्ध से आत्मा की इच्छा की गई हो, तो भी मानकषाय से दूषित होने | को मुक्तकर शाश्वत सुख के स्थानभूत मोक्ष को प्राप्त से वह अप्रशस्त निदान ही है। देव-मनुष्यों में प्राप्त होने | कर सकते हैं। वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है।
'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दनग्रन्थ' श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपद, केशवपद, नारायण-प्रतिनारायण
से साभार
अन्तर्जगत किसी सज्जन ने आचार्य भगवन्त से कहा- आज पुनः देश भोग से योग की ओर लौट रहा है। आज जगह-जगह पर योगशिविर आयोजित किये जा रहे हैं। योगासन के माध्यम से लोगों को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी से बड़ी बीमारियों में भी लोगों को योगासन से लाभ मिल रहा है। आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले कि "योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय नहीं अंतर्जगत् है।" __योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को बाह्य जगत से हटाकर अंतर्जगत् की ओर ले आना। यह कितनी गम्भीर बात गुरुदेव के श्रीमुख से हम लोगों को उपलब्ध हुई, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतर्दृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है- योग के माध्यम से मन-वचन-काय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना।
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 30.08.2005) मुनिश्री कुन्थुसागरकृत 'अनुभूत रास्ता' से साभार
- मई 2008 जिनभाषित 19
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