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________________ घुसते चले जाओ, अनन्त सम्पदा भरी पड़ी है, वह । देशों में) विनाश। वह धारा इधर भी बहकर आ रही अनन्तकालीन सम्पदा लुप्त है, गुप्त है, आप सोये हुये | है। हैं, अतः वह सम्पदा नजर नहीं आ रही है। राम और सीता ने विवाह को, काम-पुरुषार्थ को जब राम को सीता से प्रेरणा मिल जाती है, तब | अपनाया, उसे निभाया, उसी का फल मानता हूँ कि राम ने निश्चय कर लिया कि मुझे भी अब कॉलेज | राम तो मुक्ति का वरण कर चुके और स्वयं आनन्द की कोई आवश्यकता नहीं, अब तो मैं भी ऊपर उठ का अनुभव कर रहे हैं, और सीता सोलहवें स्वर्ग में जाऊँगी। आप लोगों का जीवन कॉलेज में ही व्यतीत | विराजमान है। वह भी गणधर परमेष्ठी बनेगी और हो जाता है। शिक्षण जब लेते हो, तब भी कॉलेज की | मुक्तिगामी होगी। हम इस कथा को सुनते मात्र हैं, इसकी आवश्यकता है और उसके उपरान्त अर्थ-प्रलोभन आपके| गहराई तक नहीं पहुँचते। ऊपर ऐसा हावी हो जाता है कि पुनः उस कॉलेज में| कामपुरुषार्थ का अर्थ है- काम सम्बन्ध, अर्थात् आप को नौकरी कर लेना पड़ती है। पहले विद्यार्थी पुरुष के लिए भोगचैतन्य का। आप पुरुष तक नहीं पहुँचते, के रूप में, अब विद्यार्थियों को पढ़ाने के रूप में, स्वयं| शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग में दंग रह जाते हैं, के लिये कुछ नहीं है। उसी कॉलेज में जन्म और उसी | बहिरंग में ही रह जाते हैं, अन्तरंग में नहीं उतरते। आत्मा कॉलेज में अन्त, यही मुश्किल है। डाक्टरेट कर ही| के साथ भोग करो, आत्मा के साथ मिलन करो, आत्मा नहीं पाते, एक बार स्वयं पर, दूसरों पर नहीं, अपने | के साथ सम्बन्ध करो।' - आप पर अध्ययन करो। अभी कुछ देर पूर्व यहाँ मेरा परिचय दिया, पर राम ने संकल्प ले लिया और दिगम्बरदीक्षा ले| वह मेरा परिचय कहाँ था, आत्मा का कहाँ था? मेरा ली। अब राम की दृष्टि में भी कोई सीता नहीं रही, परिचय देने वाला वही हो सकता है, जो मेरे अन्दर न कोई लक्ष्मण रहा। वे भी आतमराम में लीन हो गये। आ जाये, जहाँ मैं बैठा हूँ। सिंहासन पर नहीं, सिंहासन यह 'काम' (आत्मा के लिये चैतन्य का भोग, काम | पर तो शरीर बैठा है। आपकी दृष्टि वहीं तक जा सकती पुरुषार्थ) की ही देन थी। मोक्ष-पुरुषार्थ में भर्ती कराने | है, आपकी पहुँच भौतिक काया तक ही जा पाती है। का साहस कामपुरुषार्थ की ही देन है। वह कामपुरुषार्थ | मेरा सही परिचय है- मैं चैतन्यपुंज हूँ, जो इस भौतिक भारतीय परम्परा की अनुरूप हो, तो मोक्ष-पुरुषार्थ की शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर जो अज्ञान दशा में ओर दृष्टि जा सकती है, आपके कदम उस ओर उठ| अर्जित मल चिपक गया है उसको हटाने में रत हूँ, सकते हैं। जब दृष्टि नहीं जायेगी, तो कदम उठ नहीं| उद्यत हूँ, मैं चाहता हूँ कि मेरे ऊपर का कवच निकल पायेंगे। विवाह तो आप कर लेते हैं, किन्तु आपको अभी जाये और साक्षात्कार हो जाये इस आत्मा का, परमात्मा वह राह नहीं मिल पाई। भारत में पहले बन्धन है, फिर | का, अन्तरात्मा का। आपके पास कैमरे हैं फोटो उतारने राग है, वह राम-वीतराग बनने के लिए है। इसमें एक के, मेरे पास एक्सरे हैं। कैमरे के माध्यम से ऊपर की ही साथ सम्बन्ध रहा है। अनन्त के साथ नहीं, अनन्त | शक्ल ही आयेगी और एक्सरे के माध्यम से अन्तरंग के साथ तो बाद में, सर्वज्ञ होने पर। पहले सीमित विषय, | आयेगा, क्योंकि अन्तरंग को पकड़ने की शक्ति एक्सरे फिर अनन्त । जो प्रारम्भ से ही अनन्त में अधिक उलझता | में है और बाह्यरूप को पकड़ने की शक्ति कैमरे में है, उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं होता। | है। आप कैमरे के शौकीन हैं, मैं एक्सरे का शौकीन आज पाश्चात्य समाज की स्थिति है कि एक हूँ। अपनी-अपनी अभिरुचि है। एक बार एक्सरे के शौकीन व्यक्ति दूसरे पर विश्वास नहीं करता, प्रेम नहीं करता, | बनकर देखो, एक बार बन जाओगे तो लक्ष्य तक पहुँच वात्सल्य नहीं करता। एक-दूसरे की सुरक्षा के भाव वहाँ जाओगे। मैं चाहता हूँ कि हम उस यन्त्र को पहचानें, पर नहीं हैं। भौतिक सम्पदा में सुरक्षा नहीं हुआ करती, | ग्रहण करें, उसके माध्यम से अन्दर जो तेजोमय आत्मा आत्मिक सम्पदा में ही सुरक्षा हुआ करती है। | अनादिकाल से बैठी है, विद्यमान है, वह पकड़ में आ विवाह के पश्चात् यहाँ आपका (भारतीय | जाये, लेकिन ध्यान रखना एक्सरे की कीमत बहुत होती परम्परानुसार) विकास प्रारम्भ होता है और वहाँ (पाश्चात्य | है। प्रत्येक व्यक्ति गले में कैमरा लटका सकता है, पर 10 मई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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