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________________ शोध छात्र पुस्तकालय में से अपने विषय प्रयोजन की| कि ठहरो, मैं भी आ जाऊँ? सीता पूछती है, कहाँ आ पुस्तक चुन लेता है। उसके माध्यम से मैं अपनी यात्रा | जाऊँ? तुम्हारे साथ! किसलिए? दोनों घर में रहें, बाद बढ़ा सकती हूँ। अब राम, तुम्हारी कोई आवश्यकता में मार्ग चुन लेंगे। सीता कहती है- अरे! अब घर में नहीं है। अब स्वावलम्बी जीवन आ गया। अब विवाह | रहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, मैं जब विद्यार्थी की डोरी को तोड़ना चाहती हूँ, ध्यान रखना पहले नहीं | थी, तब तक ठीक था, अब मैं विद्यार्थी से ऊपर उठ तोड़ी। वह कहती है अब मैं इस पाठशाला में नहीं चुकी हूँ। अब आपकी कोई आवश्यकता नहीं, आपको रहूँगी। ऊपर उठूगी और पंचमुष्टि केशलुंचन कर लेती ! धन्यवाद देती हूँ कि आपने एम.ए. तक मेरा साथ नहीं गोध मात्र नहीं थे अतः वे प्रणिपात हो| छोडा, धन्यवाद बहत धन्यवाद। पर अब पैरों मे बहत गये उसके चरणों में। जिसने विषय चुन लिया, शोध | बल आ चुका है, आँखों को दृष्टि मिल चुकी है, अब छात्र बन गया, ऊपर उठ गया, वह अब विद्यार्थी नहीं।| मैं अनाहत जा सकती हूँ, अब कोई परवाह नहीं, राह छात्र तो इसलिए मान लिया जाता है कि अभी भी कुछ | मिल चुकी है। कर रहा है। अब वह स्नातक से भी ऊपर उठ चुका राम ने अग्नि परीक्षा के बाद कहा था कि चलो है, अब वह विद्यार्थी नहीं है, भले ही उसे विद्यार्थी | प्रिये, घर चलो। वह अग्नि परीक्षा ही सीता के लिए, कहो, पर वह अब मास्टर बन गया है। राम ने अभी | मैं समझता हूँ, स्नातक परीक्षा थी, वह उसमें सफल इतना साहस नहीं किया था, इसलिये उन्होंने सीता के | हो जाती है। वह राम से आगे निकल गई। राम ने बहुत चरणों में प्रणिपात किया और अपने आप को कमजोर | कहा अभी मत जाओ। सीता कहती है- तुम पीछे आ, महसूस करने लगे कि देखो यह एक अबला होकर जाओ, पर मैं अब नहीं रुक सकती। साथ रहने पर भी शोधछात्रा बन गई। अब यह विश्व में बिखरी चैतन्य-| बिखरे हुये विषय का संग्रह नहीं कर सकूँगी। इसलिए सत्ताओं के बारे में विचार करेगी, अध्ययन करेगी और | आप अपना विषय अपनायें और मैं अपना विषय अपनाती उनके पास पहुँचने का प्रयास करेगी। अब सीता को | हूँ। अब आप मेरी दृष्टि में राम नहीं हैं, आतमराम हैं। राम की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार लिंग का विच्छेद करके, वेद का विच्छेद राम-राम, श्याम-श्याम, रटन्त से विश्राम। | करके वह अभेद यात्रा में चली गई, यह घड़ी उसकी रहे न काम से काम, तब मिले आतम राम॥ आत्मा की अपनी घड़ी थी। उसी दिन उसके लिए मोक्ष सीता की दृष्टि में अब राम, राम न रहे, अब | पुरुषार्थ की भूमिका बन गई। यह कामपुरुषार्थ का ही दृष्टि में था आतमराम। प्रत्येक काया में छिपे हुये आतमराम | सुफल था कि वह मोक्ष-पुरुषार्थ में लीन थी अब वह को वह टटोलेगी, उन सब के साथ सम्बन्ध रखेगी, विश्व | मोक्षपुरुषार्थी थी, कामपुरुषार्थी नहीं। के साथ एक प्रकार से भोगयात्रा प्रारम्भ हो गई, लेकिन राम ने सोचा कि क्या मैं कमजोर हूँ? उन्हें अबला ध्यान रहे अब आतमराम के साथ भोग है, राम के साथ से शिक्षण मिल गया। वे भी शोधछात्र बन गये। सीता नहीं। राम उस काया का नाम था, आतमराम काया का| को मालूम न था कि ये मुझसे भी आगे बढ़ जायेंगे। नाम नहीं है। उस अन्तर्यामी चैतन्य सत्ता में न पुरुष | स्पर्धा ऐसी बातों में करनी चाहिए। आप लोग कमाने है, न स्त्री है, न नपुंसक है, न बुड्ढा है, न बालक में, भौतिक सामग्री जुटाने में स्पर्धा करते हैं, ये आविष्कार है, न जवान है, उसमें देव नहीं, नारकी नहीं, तिर्यंच | हुआ, ये परिष्कार हुआ, लेकिन अन्दर क्या आविष्कार नहीं, पशु नहीं, वह केवल आतमराम है। चारों ओर | हुआ, यह तो देखो, अपने आपके ऊपर डॉक्टरेट की आतमराम। वह सीता अकेली चल पड़ी। सीता की आत्मा | उपाधि तो प्राप्त कर लो। स्वयं पर नियन्त्रण नहीं है, कितने जबरदस्त बल को प्राप्त कर चुकी! अब वह | स्वयं के बारे में गहरा ज्ञान है, तो मैं समझता हूँ कि किसी की परवाह नहीं करती। अब वह अबला नहीं| भौतिक ज्ञान भी आपका सीमित है। मात्र दूसरे ने जो है, सबला है। उसके चरणों में अब राम प्रणिपात कर कुछ कहा उसी को नोट कर लिया, पढ़ लिया। अन्दर रहे हैं, इस समय वे निर्बल थे, और सीता सबला थी। ज्ञान के स्रोत हैं- वहाँ पर देखो, चिन्तन के माध्यम वह ऊपर उठ चुकी थी। राम उससे कहते हैं | से देखो कितने-कितने खजाने भरे हुये हैं, वहाँ पर, - मई 2008 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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