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एक्सरे यन्त्र नहीं। एक बार एक्सरे से आत्मा को पकड़। करेंगे, लेकिन हम नमस्कार करके भी अपना उद्देश्य लें, बस। कैमरे से उतारा गया ढाँचा बदल सकता है, यह नहीं बना पाते कि हमें भी उस शान्त लहर का शरीर बदल सकते हैं, पर एक्सरे से उतारी गई आत्मा | अनुभव करना है, वह शान्ति की अनुभूति अनन्तकाल नहीं बदल सकती। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है व्यर्थ | में नहीं हुई है, लेकिन ऐसी बात भी नहीं है कि हो में, हम लक्ष्य पर नहीं पहुंचे।
भी नहीं सकती, हो सकती है, लेकिन दृष्टि अन्दर जाये दिपे चाम चादर मणी हाड़ पीजरा देह।
तो। भीतर या सम जगत में और नहीं घिनगेह॥
कामपुरुषार्थ को आप मात्र भोग मत मानो, वह (बारह भावना/६) | भोगपुरुषों के लिए है, आत्मा के लिए है। वास्तविक आपके पास तो घिनावने पदार्थ पकड़ने की मशीन | भोग वही है, जो चैतन्य के साथ हुआ करता है। जब है, किन्तु सुगन्धित, जहाँ किसी प्रकार के घिनावने पदार्थ | सर्वज्ञ बन जाते हैं, उस समय अनन्तचैतन्य के साथ नहीं हैं, वह एक आत्मा है, वह हमें मिल सकती है, | मेल हो जाता है। उस मेल में कितनी अनुभूति, कितनी जब हमारी दृष्टि, अन्तर्दृष्टि हो जाये।
शान्ति मिलती होगी, यह वे ही कह सकते हैं, हम नहीं जब राम ने मुनिदीक्षा धारण कर ली, घोर तपस्या | कह सकते। मात्र कुछ बिन्दु हमें उसके मिल जाते हैं में लीन हो गये, तो इतनी अन्तर्दृष्टि बन चुकी थी कि | (ध्यान के समय) तो हम आनन्द-विभोर हो जाते हैं बाहर क्या हो रहा है? उन्हें पता ही नहीं। प्रतीन्द्र के | उस अनन्त-सिंधु में गोता मारनेवाले के सुख की कोई रूप में सीता का जीव सोचता है कि अरे! इन्होंने तो सीमा नहीं है. असीम है उसका सख, असीम है वह सीधा रास्ता अपना लिया, मुझे तो स्टेशन पर रुकना | शान्ति. असीम है वह आनन्द। वही आनन्द अपने को पड़ा। ये लक्ष्य तक पहुँचनेवाले हैं। सीता ने सोचा कि | मिले ऐसा पुरुषार्थ करना है। राम डिगते हैं कि नहीं, उसने डिगाने का प्रयास किया | मुनिराज भी निर्भोगी नहीं होते, वे भी भोगी होते पर राम डिगे नहीं। उन्हें फिर बाहरी पदार्थों ने प्रभावित | हैं. किन्त वे चैतन्य के भोक्ता बनते हैं, पाँच इन्द्रियों नहीं किया। इसी को कहते हैं ब्रह्मचर्य। अपनी आत्मा | के लिये यथोचित विषय देते हैं, किंतु रागपूर्वक नहीं, में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है।
भोग की दृष्टि से नहीं, अपितु योग की साधना की इस ब्रह्मचर्य के सामने विश्व का मस्तक नत- | दष्टि सेमस्तक हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस दिव्य- ले तप बढ़ावन हेतु नहीं, तन पोसते तज रसन को। तत्त्व के सामने सांसारिक कोई चीज मौलिकता नहीं रखती,
(छहढाला-छठी ढाल) उनका कोई मूल्य नहीं है। इसलिये मैं उस दिव्यब्रह्मचर्य | विषय और भोग (काम) मात्र संपोषण की दृष्टि धर्म की वन्दना करते हुए आप लोगों को यही कहूँगा | से माने गये हैं, किन्तु जब वह दृष्टि हट जाती है, कि आप लोग कैमरे को छोड़ दें और एक्सरे के पीछे | तो वे ही पदार्थ हमें मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना करने में लग जायें, अन्दर घुस जायें, कोई परवाह नहीं कि बाहर | कार्यकारी हो जाते हैं। मुनिराज के द्वारा इन्द्रियविषय (निद्रा क्या हो रहा है? बाहर कुछ भी नहीं होगा। अन्दर ही भोजन आदि) ग्रहण किये जाते हैं, पर वे विषय-पोषण जो होगा, उसे देखोगे तो बाहर कुछ घट भी जाये, तो | की दृष्टि से नहीं होते, मात्र शोषण नहीं रहता। पोषण उसका प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ेगा, क्योंकि वह सुरक्षित | व शोषण के बीच की धारा योगदृष्टि उनके पास रहती आत्मद्रव्य है। बाहर कुछ भी कर लो, आत्मा इस प्रकार | है, जिसमें शरीर के साथ सम्बन्ध छूटता भी नहीं है, का टैंक है कि जिसके ऊपर किसी भी प्रकार का गोला- | टूटता भी नहीं है और मात्र शरीर के साथ भी सम्बन्ध बारूद असर नहीं करता, वह अन्दर का व्यक्ति सुरक्षित नहीं रहता, किन्तु चैतन्य के साथ सम्बन्ध रहता है। मुनिराज रहता है, किन्तु वह बाहर आ जाये तो स्थिति बिगड़ | का शरीर के साथ संबंध चैतन्य-खुराक के साथ रहता जाती है। बाहर लू चलती है, पर अन्दर शान्ति की लहरें | चल रही हैं। उस अन्तरात्मा में लीन होनेवाले व्यक्ति | सवारी तभी आगे बढ़ेगी, जब उसमें पेट्रोल डालेंगे। के चरणों में कौन नहीं नत-मस्तक होगा? अवश्य नमस्कार | आप लोग भी इस काम-पुरुषार्थ के माध्यम से, मोक्ष
- मई 2008 जिनभाषित 11
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