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________________ धर्ममाता चिरौंजाबाई जी का समाधिमरण क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी बाईजी का स्वास्थ्य प्रतिदिन शिथिल होने लगा।। आ जाओ' या कोई ऐसी औषधी मिल जावे जिससे मैंने बाईजी से आग्रह किया कि आपकी अन्तर्व्यवस्था | मैं शीघ्र ही निरोग हो जाऊँ ऐसे शब्द उच्चारण नहीं जानने के लिये डॉक्टर से आपका फोटो (एक्सरा) उतरवा | किये। यदि कोई आता और पूछता कि 'बाईजी! कैसी लिया जावे। बाईजी ने स्वीकार नहीं किया। एक दिन | तबियत है?' तो बाईजी यही उत्तर देतीं कि 'यह पूछने मैं और वर्णी मोतीलालजी बैठे थे। बाईजी ने कहा 'भैया! | की अपेक्षा आपको जो पाठ आता हो सुनाओ, व्यर्थ बात मैं शिखरजी में प्रतिज्ञा कर आई हूँ कि कोई भी सचित | मत करो।' पदार्थ नहीं खाऊँगी। फल आदि चाहे सचित्त हों चाहे | एक दिन मैं एक वैद्य को लाया, जो अत्यन्त अचित्त हों, नहीं खाऊँगी। दवाई में कोई रस नहीं खाऊँगी। प्रसिद्ध था। वह बाईजी का हाथ देखकर बोला कि दवाई गेहूँ, दलिया, घी और नमक को छोड़कर कुछ न खाऊँगी। | खाने से रोग अच्छा हो सकता है।' बाईजी ने कहा 1. अजवाइन और हर्र छोडकर अन्य कछ | 'कब तक अच्छा होगा?' उसने कहा- 'यह हम नहीं न खाऊँगी।' जानते।' बाईजी ने कहा-'तो महाराज जाइये और अपनी उसी समय उन्होंने शरीर पर जो आभूषण थे, | फीस ले जाइये, मुझे न कोई रोग है और न कोई उपचार उतार दिये, बाल कटवा दिये, एक बार भोजन और | चाहती हूँ। जो शरीर पाया वह अवश्य बीतेगा, पचहत्तर एक बार पानी पीने का नियम कर लिया। प्रात:काल | वर्ष की आयु बीत गई, अब तो अवश्य जावेगी। इसके मन्दिर जाना, वहाँ से आकर शास्त्र स्वाध्याय करना, पश्चात् | रखने की न इच्छा है और न हमारी राखी रह सकती दस बजे एक छटाक दलिया का भोजन करना, शाम है। जो चीज उत्पन्न होती हैं उसका नाश अवश्यम्भावी को चार बजे पानी पीना और दिन भर स्वाध्याय करना, | है। खेद इस बात का है कि यह नहीं मानता। कभी यही उनका कार्य था। यदि कोई अन्य कथा करता, | वैद्य को लाता है और कभी हकीम को। मैं औषधि तो वे उसे स्पष्ट आदेश देतीं कि बाहर चले जाओ। | का निषेध नहीं करती। मेरे नियम है कि औषध नहीं पन्द्रह दिन बाद, जब मंदिर जाने की शक्ति न रही, | | खाना। दो मास में पर्याय छूट जावेगी, इससे जहाँ तक तब हमने एक ठेला बनवा लिया, उसी में उनको मंदिर | बने परमात्मा का स्मरण कर लूँ, यही परलोक में साथ ले जाते थे। पन्द्रह दिन बाद वह भी छूट गया, कहने | जावेगा। जन्मभर इसका सहवास रहा। इसके सहवास लगीं कि हमें जाने में कष्ट होता है, अतः यहीं से | से तीर्थयात्राएँ की, व्रत तप किये, स्वाध्याय किया, धर्मपूजा कर लिया करेंगे। हम प्रात:काल मंदिर से अष्टद्रव्य | कार्यों में सहकारी जान इसकी रक्षा की। परन्तु अब लाते थे और बाईजी एक चौकी पर बैठे-बैठे पूजन | यह रहने की नहीं, अतः इससे न हमारा प्रेम है न पाठ करती थीं। मैं ९ बजे दलिया बनाता था और बाईजी दस बजे भोजन करती थीं। एक मास बाद आध छटाक महान् आत्मा है। अब आप भूलकर भी किसी वैद्य को भोजन रह गया, फिर भी उन की श्रवणशक्ति ज्यों की | न लाना, इनका शरीर एक मास में छूट जावेगा। मैंने त्यों थी। ऐसा रोगी, आज तक नहीं देखा।' यह कह वैद्यराज चले श्वास रोग के कारण बाईजी लेट नहीं सकती | गये। उनके जाने के बाद बाईजी बोली कि 'तुम्हारी बुद्धि थीं. केवल एक तकिया के सहारे. चौबीस घण्टा बैठी | को क्या कहें? जो रुपया वैद्यराज को दिया. यदि उसी रहती थीं। कभी मैं, कभी मुलाबाई, कभी वर्णी मोतीलाल | का, अन्न मँगाकर गरीबों को बाँट देते तो, अच्छा होता। जी, कभी पं० दयाचन्द्रजी और कभी लोकमणि दाउ | अब वैद्य को न बुलाना।' शाहपुर निरन्तर बाईजी को धर्मशास्त्र सुनाते रहते थे।। | बाईजी का शरीर प्रतिदिन शिथिल होता गया। परन्तु बाईजी को कोई व्यग्रता न थी। उन्होंने कभी भी रोग | उनकी स्वाध्यायरुचि और ज्ञानलिप्सा कम नहीं हुई। एक वश 'हाय हाय' या 'हे प्रभो क्या करें' या 'जल्दी मरण | दिन बीना के श्रीनन्दनलाल जी आये और मुझसे मुकदमा - मई 2008 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524328
Book TitleJinabhashita 2008 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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