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पकड़ना है । जठराग्नि ही नहीं तो फिर क्या होगा ? संग्रहणी के रोगी को जैसे होता है कि ऊपर से डालते हैं, वह नीचे से वैसे ही निकल जाता है, उसी प्रकार आपकी स्थिति है, पर फिर भी कुछ गुंजाइश है, जठराग्नि कुछ उत्तेजित हो जाये और कुछ हजम हो जाये तो ठीक ही है।
उपयोग की धारा को बाहर से अन्दर की ओर लाना है, तभी ब्रह्मचर्यव्रत पालन हो सकता है, अथवा यूँ कहिये कि उपयोग की धारा जिस पदार्थ में अटक रही है, उस पदार्थ से वह स्थानान्तरित ( ट्रांसफर) हो जाये ओर गहराई तक उतरने लग जाये । चाहे अपनी आत्मा में चले जायें, चाहे दूसरे की आत्मा में चले जायें, पर उपयोग को खुराक मिलनी चाहिये 'आत्मतत्त्व' की, जड़ की नहीं, अपितु चैतन्य की ! जहाँ पर बहुत सारी निधियाँ हैं, बहुत सारी सम्पदा बिछी हुई है, वह सम्पदा उस उपभोग की खुराक बन सकती है, सहीसही मायने में वही खुराक है और इसके लिये हमारे आचार्यों ने ब्रह्मचर्यव्रत पर जोर दिया है, क्योंकि उस आत्मा को एक बार तृप्त करना है, जो अनादिकाल से तप्त है।
ब्रह्मचर्य का विरोधी कर्म है 'काम', इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करनी है। यह काम और कोई चीज नहीं है, ध्यान रखिये वही उपयोग है जो कि बहिर्वृत्ति को अपनाता जा रहा है, उसी का नाम है काम। वही उपयोग, जो कि भौतिक सामग्री में अटका हुआ है, वही काम है, महाकाम है, यह अग्नि अनादि काल से जला रही है उस आत्मा को । कामाग्नि बुझे और आत्मा शांत हो । उस कामाग्नि को बुझाने में दुनियाँ का कोई पदार्थ समर्थ नहीं है, बल्कि यह ध्यान रहे कि उस कामाग्नि को प्रदीप्त करने के लिए भौतिक सामग्री घासलेट तेल का काम करती है। आपको यह आग बुझानी है, या उद्दीप्त करनी है ? नहीं! नहीं ! बुझानी है, ये चारों ओर जो लपटें धधक रही हैं, उनमें से अपने को निकालना है और वहाँ पर पहुँचना है, जहाँ चारों ओर लहरें आ रही हैं शांति की, आनन्द की सुख की। हम यहाँ एक समय के लिये भी आनन्द की श्वास नहीं ले रहे हैं । ऐसे दीर्घ श्वास तो निकाल रहे हैं, जो कि दुःख के, परिश्रम के प्रतीक हैं, श्वास की गति अवरुद्ध नहीं है, चल रही है, अनाहत चल रही है, किन्तु आनन्द के 6 मई 2008 जिनभाषित
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साथ नहीं, क्योंकि मृत्यु की स्मृति या मृत्यु का वार्तालाप भी सुनते ही हृदय की गति में परिवर्तन आ जाता है और विषय की, वासनाओं की जो लहर चल रही है उसमें आप रात-दिन आपादकण्ठ लीन हैं, उसी का परिणाम दुःख के साथ श्वास है, सुख के साथ नहीं।
इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करना है अर्थात् अपने बाहर की ओर जा रहे उपयोग को, जो कि भौतिक सामग्री में अटक रहा है, उसे आत्मा में लगाना है। आत्मा में नहीं लगा पाते, इसीलिये कामाग्नि धधक रही है।
काम पुरुषार्थ का उल्लेख मिलता है भारतीय साहित्य में । कई लोगों की इस काम पुरुषार्थ के बारे में यह दृष्टि रह सकती है कि काम - पुरुषार्थ का अर्थ भोग है । पर लौकिक नहीं, चैतन्य का सही-सही मायने में वह काम - पुरुषार्थ से ही मोक्ष - पुरुषार्थ में जा सकता है और जाने को कोई रास्ता ही नहीं, लेकिन कामपुरुषार्थ का अर्थ बाह्य वातावरण में घूमते रहना ही नहीं लेना चाहिये, काम-पुरुषार्थ का अर्थ ही है गहरे उतरना । काम+पुरुष+ अर्थ, इन तीन शब्दों के योग से 'काम-पुरुषार्थ' यह पद निष्पन्न हुआ है। काम- पुरुष - अर्थ, काम अर्थात् भोग, पुरुष अर्थात् प्रयोजन। पुरुष के लिए काम आवश्यक है, पुरुष के दर्शन के लिए नितान्त यह आवश्यक है, इसके बिना हम वहाँ पहुँच नहीं सकते। अर्थात् चैतन्यभोग के बिना हम आत्मा तक पहुँच नहीं सकते। पहुँचना वहीं पर है, पुरुष तक, पुरुष तक पहुँचने के लिये यह काम (चैतन्यभोग) सहायकं तत्त्व है। आप लोग पुरुष तक नहीं पहुँच पाते, पुरुष तक पहुँचनेवाले ही पुरुषार्थी होते हैं और भौतिक सामग्री में अटकने वाला गुलाम होता है। आप तो गुलाम हैं, आप मानो या ना मानो, क्योंकि जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य पुरुष ( आत्मा ) नहीं है, वह गुलाम तो है ही जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति चेतनद्रव्य होते हुये भी जड़ माना जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है और जो लक्ष्य से पतित हैं वे भटके हुए माने जायेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
काम - पुरुषार्थ को धीर-धीरे उन्नत करने के लिये यह भारतीय आचारसंहिता है, जो कि विवाह के ऊपर जोर देती है । कई लोगों की दृष्टि हो सकती है कि विवाह अर्थात् ब्रह्मचर्य को स्खलित करना, किन्तु नहीं, कथञ्चित् ब्रह्मचर्य के और निकट जाना है, यह शार्टकट है, घुमावदार रास्ता है वहाँ पर जाने के लिये क्योंकि
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