Book Title: Jinabhashita 2005 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2531 भगवान शान्तिनाथ श्री दिगम्बर जैन तीर्थ, भोजपुर (HESH) आषाढ़, वि.सं. 2062 जुलाई, 2005 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर को गौण करना साधना का प्रथम चरण • आचार्य श्री विद्यासागर जी हमेशा-हमेशा संसारी प्राणी शरीर के साथ आत्मतत्त्व को जोड़कर बोलता है। बहुत कम क्षण आते हैं जब अपनी आत्मा से बोल सकता है। आत्मा से बोलना संभव नहीं तो आत्मसाधना प्रारम्भ नहीं। तिर्यंच हमेशा दिगम्बर रहता है, नारकी भी दिगम्बर रहता है और षष्ठकाल में सभी मनुष्य जाति प्रजाति दिगम्बर रहेगी। देव दिगम्बर नहीं रहते। आपने करेन्ट को कभी देखा है। प्रकाश को तो देखा आखों से, पर करेन्ट अचक्षुदर्शन है। इन्द्रिय और मन की सहायता से अनुभव कर सकते हैं। __ शरीर को गौण करके आनंद का अनुभव लेना है। शरीर को उखाड़कर बालों की तरह नहीं फेंका जा सकता। शरीर को गौण करना साधना का प्रथम चरण माना जाता है। एक बार गौण करके ममत्वभाव को छोड़ा जाता है। २८ मूलगुणों में एक मूलगुण है, वह ६ आवश्यक के अन्दर है, जिसे कायोत्सर्ग कहते हैं। आत्मा का संवेदन करना उतना ही कठिन है जितना करेंट का अनुभव करना।शरीर प्रवृत्ति के साथ शरीर गौण नहीं हो सकता। मुनि महाराज कायोत्सर्ग मुद्रा में सदैव रहते हैं। पाप का त्याग अलग वस्तु है। आपका अनुभव अलग वस्तु । लोभ को छोड़ देते हैं, संतोष को प्राप्त कर लेते हैं। आज तक जिसका स्वाद लिया नहीं तो वह याद नहीं। जीवन में मुनि बनने के अर्थ, बहुत ही सावधानी निकटता की आवश्यकता है। सुबह एवं शाम के समय हमारी छाया (परछाई) लम्बी होती है, जबकि १२ बजे हमारे शरीर की छाया शरीर को नमोऽस्तु करती है। हमारी छाया हमारे भीतर सिमट जाती। मुनि अवस्था ऐसी ही अवस्था है जब हमारी छाया हमारे भीतर सिमट जाती है। राग से छूटना कठिन है। द्वेष से राग विषैला होता है जैसे शूल से फूल । काँटे से सब दूर हो जाते, द्वेष से सब दूर हो जाते, करेंट से सब दूर हो जाते। राग ऐसा करेंट है, जिसे छोड़कर वीतराग बन जाओ। लगाम लगाने के बाद भी घोड़ा हिनहिनाता रहता है, उसकी हिनहिनाहट हटाना भी आवश्यक है। श्रद्धान के बल पर सारे के सारे कार्य हो सकते हैं। दिन न कटे, कर्म कटे साधना का फल यही है। अहं को कायोत्सर्ग से ही निकाल सकते हैं। कायोत्सर्ग जरूरी है, अनिवार्य है। दीक्षातिथि को याद रखना जरूरी नहीं, दीक्षा हुई, यह याद रखना जरूरी है। तन को भूल जाना, मैं को भूल जाना है 'तजे तन अहमेव'। यह मूलगुण बहुत महत्त्वपूर्ण है। अभव्य को भी ७ तत्त्वों का ज्ञान रहता है। आत्मतत्त्व को जोड़ना बहुत कठिन होता है। आत्मा को प्रधानता देने का लक्ष्य होना चाहिये। प्रत्येक काल में आत्मतत्त्व केन्द्र में रखना होगा, अन्यथा शरीर के साथ साधना का फल नहीं रहता। लेखा-जोखा करें, क्या अच्छे बुरे क्षण व्यतीत किये। जुगाली के रूप में करेंगे तो स्वाद अलग ही रहेगा। अच्छे काम करो, बुरे काम से बचना है, तो अच्छे कार्य को याद करो। आचार्यश्री विद्यासागर जी के सुभाषित स्तुत्य प्रत्यक्ष हो या न हो स्तुति करनेवाला तो गुणों का स्मरण कर पवित्र हो जाता है। प्रभु बनकर नहीं, किन्तु लघु बनकर ही प्रभु की भक्ति की जा सकती है। जिस प्रकार सीपी के योग से तुच्छ जल कण भी महान् मुक्ताफल बन जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भगवान् के प्रति किया गया अल्प स्तवन भी महत् फल प्रदान करता है। • नाल से जुड़े कमल का जिस प्रकार सूर्य की तेज किरणें भी कुछ बिगाड़ नहीं कर पातीं, उसी प्रकार भगवद्भक्ति से जुड़े रहने पर भक्त का संसार में कुछ भी बिगाड़ नहीं होता। "सागर द समाय" से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 मासिक जुलाई 2005 जिनभाषित वर्ष 4, अङ्क सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व पृष्ठ प्रवचन : शरीर को गौण करना साधना का प्रथम चरण आ.प्र.2 कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 : आचार्य श्री विद्यासागर जी 2 . सम्पादकीय : वर्तमान में नित्य देवदर्शन, पूजा-प्रक्षाल में उदासीनता एवं उसके निराकरण के उपाय सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर . लेख • मुनि, आर्यिका और श्रावक के आचार मार्ग : सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री • श्रुतपंचमी पर्व : श्रुत देवी और हमारे कर्त्तव्य : ब्र. संदीप 'सरल' • यह मंत्र-तंत्र-विज्ञान हमें कहाँ ले जा रहा है? शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी (आर.के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर : प्रा. सौ. लीलावती जैन • स्वयं को सँभाले रखना ही बुद्धिमानी है? . : प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन भक्तामर-अनुष्ठान : कितना सार्थक ? : ब्र. जयकुमार निशान्त प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278| •सज्जातित्व का वास्तविक विवेचन : पं. सुनील कुमार शास्त्री . जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा 23 कविताएँ सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100 रु. एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। • हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ : मुनिश्री प्रणम्यसागर जी आ.पृ. 3 • बोध : धरमचन्द बाझल्य समाचार 4, 8, 18, 22, 25-32 लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वर्तमान में नित्य देवदर्शन, पूजा-प्रक्षाल में उदासीनता एवं उसके निराकरण के उपाय देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने। जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, गुरु की उपासना करना, शास्त्र-स्वाध्याय करना/कराना, इन्द्रियों पर नियंत्रण एवं प्राणिरक्षारूप संयम रखना, तप करना एवं दान देना-ये छह आवश्यक कार्य गृहस्थ को प्रतिदिन करना आवश्यक हैं। उक्त छह कार्यों में देवपूजा का प्रथम कर्तव्य के रूप में उल्लेख किया गया है। जो व्यक्ति देवपूजा करता है, वह देवदर्शन स्वाभाविक रूप से करता ही है। देवपूजा के साथ देवदर्शनका अविनाभाव है। अत: श्लोक में देवदर्शन का पृथक से उल्लेख न कर देवपूजा में देवदर्शन का अन्तर्भाव किया गया है। देवदर्शन एवं पूजा-प्रक्षाल इन दो बिन्दुओं पर पृथक-पृथक विचार करना आवश्यक है, क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में आज श्रावक देवपूजा करना तो भूल ही रहा है, उसके साथ देवदर्शन से भी दूर हट रहा है। इसके प्रमुख कारण इस प्रकार हैं - १. धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारों का अभाव इस भौतिक वैज्ञानिक युग में जिस प्रकार लौकिक शिक्षा की व्यवस्था पग-पग पर उत्तम है, उसी प्रकार धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था उसके अनुपात में एक प्रतिशत भी नहीं है। साथ में आज के माता-पिता इतने व्यस्त हो गये हैं कि प्रात: बच्चे को सोता हुआ छोड़ जाते हैं और रात्रि में जब आते हैं तो बच्चे सोते ही मिलते हैं। यदि कदाचित् अवकाश का भी दिन मिल गया, तो टीवी और अखवार उपन्यासों से फुरसत कहाँ है कि बच्चों से बात करें। यदि बात करने की फुरसत भी मिली, तब भी धार्मिक शिक्षा की बात ही नहीं। अत: बच्चों में धार्मिक संस्कार कहाँ से आयेंगे? ऐसी स्थिति में देवपूजा तो बहुत दूर है, देवदर्शन के प्रति भी रुचि नहीं आयेगी। २. आचरण में धर्म एवं नैतिकता का अभाव प्राय: यह देखा जाता है कि जिनके माता-पिता प्रतिदिन देवदर्शन/देवपूजा करते भी हैं, तो भी उनके आचरण में सदाचार एवं नैतिकता नहीं आती है। कितने ही माता-पिता देवदर्शन के उपरान्त छोटे-छोटे प्रसंगों को लेकर परिवार एवं समाज में महाभारत करते-कराते देखे जाते हैं। इसी प्रकार व्यापार में नम्बर दो का धन्धा, नौकरी में घूसखोरी, भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं, दृष्टि में विशुद्धता नहीं। देवदर्शन करनेवाले बुजुर्ग श्रावक/श्राविकाओं के द्वारा दहेज के नाम पर बहुओं के उत्पीड़न की घटनाएँ तो देवपूजा वगैरह को पाखण्ड ही सिद्ध करती हैं। आज का नेतृत्ववर्ग, चाहे श्रेष्ठी हो या पण्डित हो, जब उनकी कथनी और करनी में अन्तर रहेगा, तो आज की तार्किक पीढ़ी पर दुष्प्रभाव पडेगा और देवदर्शन के प्रति अरुचि अवश्य होगी। आज की विद्वान् पीढ़ी जब शास्त्र-गद्दी पर बैठती है, तब देवपूजा का उपदेश देती है, लेख लिखती है, परन्तु दुर्भाग्य है कि वे प्रवचनकार स्वयं प्रतिदिन देवदर्शन/ देवपूजा नहीं करते, तो श्रोता-श्रावक पर भी विपरीत असर पड़ता है। कितने ही ऐसे विद्वान् हैं जो प्रो./शिक्षक आदि विभिन्न पदों पर हैं, ही ऐसे विद्वान हैं जो प्रो./शिक्षक आदि विभिन्न पदों पर हैं. वे पयर्षण-पर्वो पर प्रवचनों में जाते हैं. परन्त पूजन नहीं करते। यही कारण है कि वर्तमान पीढी पर असर नहीं पड़ता। इसी प्रकार मंदिरों के मंत्री/अध्यक्ष /ट्रस्टी /नेतृत्ववर्ग, चुनाव में तिकड़म लगाकर मन्दिरों के चुनाव जीत लेते हैं. परन्त न तो नित्य देवदर्शन करते हैं और न ही पजन । स्वाध्याय तो बहत दर रहता है । इससे यह हानि होती है कि जो प्रतिदिन देवदर्शन पूजाप्रक्षाल करते हैं, वे व्यक्ति व्यवस्था से दूर होते हैं और मंदिरों में अव्यवस्था हो जाती है । ३. भावात्मक जैनधर्म की व्याख्या इस समय कुछ विद्वान् एवं प्रबुद्ध प्रशिक्षित श्रावकों द्वारा सामान्य प्रवचनों में प्राय: यह कहा जाता है कि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा है, अतः स्वयं की आत्मा के दर्शन करना चाहिये। जब भाव अच्छे हैं, तो सब कुछ ठीक है ।" इस प्रकार के विचार सुनकर आज की नव-पीढ़ी ही नहीं, बल्कि कई प्रौढ़ व्यक्ति भी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि जब अपने में ही भगवान है, तो मन्दिर जाने की क्या आवश्यकता है? जब मन्दिर नहीं जायेगा, तो देवपूजा का प्रश्न ही नहीं है। इस प्रकार के व्याख्यानों और प्रवचनों से भी श्रोता देवदर्शन से विमुख हुए हैं। ४. जिनालय की दूरी एवं समयाभाव आज के युग में श्रावकों की आजीविका के साधनों में व्यापार एवं नौकरी प्रमुख हैं। जिनका ट्रान्सफर ऐसे स्थानों पर हो जाता है, जहाँ जिनालय ही नहीं है और फोटो वगैरह का दर्शन प्रायः मिथ्यात्व कह दिया जाता है । अत: ऐसे परिवारों के बच्चे का देवदर्शन से विमुख होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार जो व्यापारी रात्रि १० बजे घर आकर भोजन करते हैं, वे प्रातः जल्दी उठ नहीं सकते, अतः वे समयाभाव से देवदर्शन से विमुख हो जाते हैं । ५. जल की व्यवस्था देवपूजा में कुएँ के जल की अव्यवस्था / अभाव और अशुद्धता भी बाधक है। आज के समय में कितने ही मन्दिर ऐसे हैं जिनके कुएँ के जल सूख गये अथवा उपलब्ध हैं तो बहुत दूर हैं या गन्देपानी से भरे हैं । इस प्रकार वर्तमान में देवदर्शन / देवपूजा-प्रक्षाल में अरुचि के प्रमुख जो कारण गिनाये गये हैं, उनके निराकरण करने के प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं। १. धार्मिक शिक्षा का प्रबन्ध वर्तमान वैज्ञानिकयुग में लौकिक शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा दी जाती है और आज का अभिभावक उच्चकोटि की शिक्षा दिलाना चाहता है और उस पर असीम खर्च भी कर रहा है। उसका परिणाम भी सामने " है कि जैनसमाज के बच्चे प्रत्येक क्षेत्र में निपुणता से निकल रहे हैं। अतः जिस प्रकार लौकिक शिक्षा पर हम व्यय करते , उसी प्रकार धार्मिक शिक्षा पर भी लौकिक शिक्षा के अनुपात में ५ प्रतिशत भी खर्च करें, तो बच्चों को धार्मिक शिक्षा की उत्तम-से-उत्तम व्यवस्था हो सकती है। अतः समाज का कर्त्तव्य है कि प्रत्येक मन्दिर में पूजन- फण्ड की तरह शिक्षाफण्ड बनना चाहिये और उस फण्ड को इतना समृद्ध बनाया जाय, जिससे धार्मिक-शिक्षा हेतु विद्वान् को सरकार के नियमों के अनुरूप आर्थिक सहयोग/वेतन दिया जा सके। जहाँ पर एकाधिक मन्दिर हैं, वहाँ पर दो या तीन मन्दिर मिलकर भी शिक्षा-फण्ड की स्थापना कर सकते हैं । अर्थ के अभाव में विद्वान् भी तैयार नहीं होते और प्रोत्साहित भी नहीं होते । धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है। -- क. सायंकालीन पाठशाला सायंकाल का समय बच्चों की धार्मिक-शिक्षा के लिये विशेष उपयोगी है, क्योंकि उक्त समय में प्रातः एवं दोपहर को स्कूल जानेवाले बालक/बालिकायें भी उपस्थित रहकर लाभ ले सकते हैं। यदि कदाचित् प्रारम्भ में ५० बालक हों और बाद में एक ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि १० छात्र ही रुचि लें, तो भी विद्वान् को वेतन देना चाहिये, क्योंकि हम यह क्यों भूल जाते हैं कि गणित आदि पढ़ानेवाले शिक्षक को प्रसन्नतापूर्वक प्रतिमाह रु. ४०० प्रतिदिन ४५ मिनिट पढ़ाने का ही दे देते हैं और धार्मिक-शिक्षक को एक माह में रु. ४००.०० देने में परेशानी महसूस करते हैं । अतः संस्कृति की सुरक्षा के लिये सहर्ष व्यवस्था करनी होगी। ख. रविवारीय पाठशाला कुछ मन्दिर / स्कूल ऐसे भी हो सकते हैं कि मात्र रविवार को प्रातः काल ही कक्षा लगाई जाये, जिससे जो बालक/बालिकायें प्रतिदिन नहीं आ सकते, उन्हें सप्ताह में मात्र एक दिन ही शिक्षा दी जाय। अभिरुचि बढ़ने पर दिनों में भी वृद्धि सम्भव है। ग. शिविर आयोजन धार्मिक-संस्कारों के लिये शीतकालीन एवं ग्रीष्मकालीन शिविर का आयोजन नितान्त आवश्यक है। इसके लिये मन्दिरों के प्रबन्धकों को पूर्व से ही योजना बनाना चाहिये। सम्प्रति कई संस्थाएँ शिविरों का आयोजन कर रही हैं। मंदिर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकों को उत्साहपूर्वक सहयोग करना चाहिये । घ. व्याख्यानों / प्रवचनों का आयोजन वर्तमान में शास्त्र-स्वाध्याय की परम्परा लगभग समाप्त-सी हो चुकी है। जो कुछ शेष है वह वृद्धों तक ही सीमित है । ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि मंदिर- प्रबन्धकों को साप्ताहिक / पाक्षिक/ मासिक जो भी सुविधा हो, तदनुसार व्याख्यानों/प्रवचनों का आयोजन अवश्य ही करना चाहिए। प्रवचनों से माता-पिता में धर्म की अभिरुचि बनेगी, तो बच्चों को धार्मिक शिक्षा के प्रति प्रेरित कर सकेंगे। माता-पिता धार्मिक अभिरुचि के होंगे, तो आशा की जा सकती है कि बच्चे भी अनुसरण करें। ३. देवदर्शन पर चलचित्रों का निर्माण इस वैज्ञानिक युग में देवदर्शन के महत्त्व को चलचित्रों के माध्यम से अधिक प्रभावी ढंग से समझाया जा सकता है। जैनपुराणों में एवं कथाओं में देवदर्शन के महत्त्व के कई कथानक आए हुए हैं। उनके आधार पर चलचित्रों का निर्माण करना चाहिये और धार्मिक अवसरों पर प्रसारित करना चाहिये । ४. पंचायत/संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहन धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में जो मन्दिर या शिक्षण संस्थायें अच्छा कार्य कर रही हैं/करें ऐसी संस्थाओं/ मन्दिरों को कम-से-कम ५००१ की धनराशि से सार्वजनिक अवसरों पर पुरस्कृत करना चाहिए। ५. बाल- मण्डलों का गठन युवा-मण्डलों का गठन सर्वत्र है, परन्तु युवाओं में धर्म के संस्कार नहीं होने से युवामण्डलों के सदस्य या पदाधिकारी अधिकांशतया देवदर्शन ही नहीं करते, तो पूजा कहाँ से करेंगे? अतः १५ वर्ष तक के बच्चों का बालमण्डल रूप में गठन करना चाहिये, जिससे वाल्यावस्था में ही अभिरुचि जागृत हो। इस प्रकार के संगठन कई जगहों पर हैं । बाल्यावस्था के संस्कार ही आगे चलकर युवा - वृद्धावस्था में कार्यकारी होते हैं। विद्वानों का विशेष दायित्व है कि यदि वे प्रवचन करते हैं, तो देवदर्शन के साथ पूजन भी नियमित करें, अन्यथा कथनी और करनी में अन्तर होने से समाज का विद्वानों के प्रति आस्थाभाव कम होता है। जो प्रतिदिन देवदर्शन / पूजा प्रक्षाल करते हैं, उन सभी का दायित्व है कि प्रत्येक क्षेत्र में उनका आचरण सम्यक् हो व हृदय में दयालुता आदि गुणों का निरन्तर विकास हो । ६. मन्दिरों में जल व्यवस्था पूजा - प्रक्षाल हेतु मन्दिरों में कुएँ के पानी की अनिवार्यता समाप्त होना चाहिए और अन्य वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार कर व्यवस्था दी जानी चाहिये । इस प्रकार देवदर्शन/पूजा-प्रक्षाल को दिनचर्या का अनिवार्य अंग मानकर प्रत्येक श्रावक / श्राविका को उन्हें करना चाहिये। थाणे के हरिओमनगर में वेदीप्रतिष्ठा सम्पन्न था (पूर्व) में दिगम्बर जैन समाज के उत्साही, कर्मठ, लगन के धनी श्री वीरेन्द्रकुमार जी जैन दोषी के प्रयास से प्रथम बार शिखरबन्द नूतन जिनालय का निर्माण हुआ, जिसका वेदी प्रतिष्ठामहोत्सव १८ मई से २० मई २००५ तक सम्पन्न किया गया। भगवान् शान्तिनाथ जी की प्रतिमा नूतनवेदी पर विराजमान की गयी। सम्पूर्ण विधि प्रतिष्ठाचार्य पं सनतकुमार जी, विनोदकुमार जी रजवाँस (सागर) द्वारा सम्पन्न हुई। श्री मान् मदनलाल जी बैनाड़ा ने तन-मन-धन से सहयोग दिया। श्री अशोक जी पाटनी (आर० के० मार्बल्स) से मन्दिर जी के लिए मार्बल का सहयोग प्राप्त हुआ। श्रीमती रवि एवं श्री वीरेन्द्र जी ने अतिथियों का सम्मान किया। श्रीमती रवि वीरेन्द्र जैन दोषी, थाणे डॉ. शीतलचन्द्र जैन, प्राचार्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मुनि, आर्यिका और श्रावक के आचारमार्ग जैन-धर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है। इसमें मुक्ति और उसके । अट्ठाईस मूलगुण कारणों की मीमांसा सांगोपांग और सूक्ष्मता के साथ की गयी है । इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें प्रवृत्ति के लिए यत्किंचित् भी स्थान नहीं है। वस्तुतः प्रवृत्ति कथंचित् निवृत्ति की पूरक है। अशुभ और शुभ से निवृत्ति होकर जीव की शुद्ध आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति हो, यह इसका अन्तिम लक्ष्य है। यहाँ शुभ से हमारा अभिप्राय शुभ राग से है। राग भी बन्ध का कारण है, इसलिए वह भी हेय है। इसका अपना दर्शन है जो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है। आचार्य कुन्दकुन्द 'समयसार' में पर से भिन्न आत्मा की पृथक् सत्ता का मनोरम चित्र उपस्थित करते हुए कहते हैं, "अहो आत्मन्! ज्ञान दर्शनस्वरूप तू अपने को स्वतंत्र और एकाकी अनुभव कर । विश्व में तेरे दायें-बायें, आगे-पीछे और ऊपर-नीचे पुद्गल की जो अनन्त राशि दिखलाई देती है, उसमें अणुमात्र भी तेरा नहीं है। वह जड़ है और तू चेतन है। वह विनाशीक है और तू अविनाशीक पद का अधिकारी है। उसके पास सम्बन्ध स्थापित कर तूने खोया ही है, कुछ पाया नहीं। संसार खोने का मार्ग है। प्राप्त * करने का मार्ग इससे भिन्न है । " जैनधर्म एकमात्र उसी मार्ग का निर्देश करता जो आत्मा के निज स्वरूप की प्राप्ति में सहायक होता है । यद्यपि कहीं-कहीं स्वर्गादिरूप अभ्युदय की प्राप्ति धर्म का फल कहा गया है, किन्तु इसे औपचारिक ही समझना चाहिए। धर्म का साक्षात् फल आत्मविशुद्धि है। इसकी परमोच्च अवस्था का नाम ही मोक्ष है। यह न तो शून्यरूप है और न इसमें आत्मा का अभाव ही होता है। संसार में संकल्पविकल्प और संयोगजन्य जो अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, मुक्तात्मा में उनका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिए जैनधर्म में मुक्ति - प्राप्ति का उद्योग सबके लिए हितकारी माना गया है। १. मुनिधर्म · दूसरे शब्दों में यह बात यों कही जा सकती है कि . जैनधर्म प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करके व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के आधार पर उसके बन्धन से मुक्त होने के मार्ग का निर्देश करता है। तदनुसार इसमें मोक्षमार्ग के दो भेद किये गये हैं, प्रथम मुनि-धर्म और दूसरा गृहस्थ-धर्म मुनि-धर्म पूर्ण स्वावलम्बन की दीक्षा का दूसरा नाम है। सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री इसमें किसी भी प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी और अब्रह्म के लिए तो स्थान है ही नहीं। साथ ही साथ, साधु अन्तरंग और बहिरंग पूर्णपरिग्रह का त्यागी होता है। वह अपना समस्त आचार-व्यवहार यत्नाचारपूर्वक करता है । चलते समय जमीन शोधकर चलता है। बोलने का संयम रखता है। यदि बोलना भी है तो हित, मित और प्रिय वचन ही बोलता है। शरीर द्वारा संयम की रक्षा के लिए अयाचित और अनुद्दिष्ट निर्दोष भोजन दिन में एक बार लेता है। पात्र और आसन को स्वीकार नहीं करता। आहार के ग्रहण की पूर्ति अंजलिबद्ध दोनों हाथों से हो जाती है और खड़े-खड़े ही उपकरणों में आसक्ति किये बिना आहार लिया जा सकता है, इसलिए पात्र और आसन का आश्रय नहीं लेता। संयम की रक्षा और ज्ञान की वृद्धि के लिए वह पीछी, कमण्डलु और शास्त्र को स्वीकार करता है। किन्तु उनके उठाने धरने में किसी को बाधा न पहुँचे, इस अभिप्राय से वह पूरी सावधानी रखता है। मल-मूत्र आदि का क्षेपण भी निर्जन्तु और एकान्त स्थान में करता है। काय और मन की यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति से विरत रहता है। केश सम्मूर्च्छन- जीवों की उत्पत्ति के स्थान हैं, इस अभिप्राय से वह स्वयं अपने हाथ से उनके उत्पाटन का व्रत स्वीकार करता है। इसके लिए किसी से कर्तरी और छुरा आदि की याचना नहीं करता। कोई स्वेच्छा से लाकर देने भी लगे, तो भी वह उन्हें स्वीकार नहीं करता । उनके स्वीकार करने में या उनसे काम लेने में वह अपने स्वावलम्बन व्रत की हानि मानता है 1 साधु की परिग्रह आदि के समान शरीर में भी आसक्ति नहीं होती, इसलिए वह न तो शरीर का संस्कार करता है। और न स्नान ही करता है। आवरण और परिग्रह का त्याग कर देने से वह नग्न रहता है। आहार उतना ही लेता है जो शरीर के सन्धारण के लिए आवश्यक होता है। उसके मुँह में आहारजन्य दुर्गन्ध आदि के उत्पन्न न होने के कारण उसे दन्तधोवन आदि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। वह अपने पाँचों इन्द्रियों के विषयों से सदा विरक्त रहता है। यह प्रत्येक साधु की जीवन-भर के लिए स्वीकृत चर्या है। इसका वह प्रतिदिन शरीर में आसक्ति किये बिना उत्तम रीति से पालन करता है। साधु के मूलगुण अट्ठाईस होते हैं : पाँच महाव्रत, जुलाई 2005 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों के विषयों का निरोध, सात विशेष । है।। गुण और छह आवश्यक। इनमें से बाईस मूलगुणों का विचार | ८. संयम के योग्य क्षेत्र, निर्जन वन, गिरि गुफा या पूर्व में कर आये हैं। छह आवश्यक ये हैं : सामायिक, | चैत्यालय आदि में निवास करता है। चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग।। ९. अन्य साधुओं की आवश्यकतानुसार वैयावृत्य साधु इनका भी उत्तम रीति से पालन करता है। जीवन | करता है। मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु और सुख- | १०. गाँव में एक दिन और शहर में पाँच दिन से दुःख में समता-परिणाम रखना और त्रिकाल देव-वन्दना | अधिक निवास नहीं करता है। करना सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों को नाम, निरुक्ति और ११. पहले अपनी गुरु-परम्परा से आये हुए आगम गणानकीर्तन करते हुए मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक | का विधिपर्वक अध्ययन करके गरु की आज्ञा से अन्य म करना चतुर्विशति-स्तव है। पांच परमेष्ठी और जिन- | शास्त्रों का अध्ययन करता है। प्रतिमा को कृति-कर्म के साथ, मन, वचन और काय की | १२. अध्ययन करने के बाद यदि अन्य धर्मायतन शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और | आदि स्थान में जाने की इच्छा हो, तो गुरु से अनेक बार भाव के आलम्बन से व्रतविशेष में या आहार आदि के ग्रहण | पृच्छापूर्वक अनुज्ञा लेकर अकेला नहीं जाता है; किन्तु अन्य के समय जो दोष लगता है, उसकी मन, वचन और काय | साधुओं के साथ जाता है। अकेले विहार करने की गुरु ऐसे की सम्हाल के साथ निन्दा और गर्दा करते हुए शुद्धि करना साधु को ही अनुज्ञा देते हैं जो सूत्रार्थ का ज्ञाता है। उत्तम प्रतिक्रमण है। तथा अयोग्य नाम, स्थापना और द्रव्य आदि प्रकार से तपश्चर्या में रत है, जिसने सहनशक्ति बढ़ा ली है, का मन, वचन और काय से त्याग कर देना प्रत्याख्यान है। जो शान्त और प्रशस्त परिणामवाला है, उत्तम संहनन का विशेष नियम धारी है, सब तपस्वियों में पुराना है, अपने आचार की रक्षा ये साधु के मूल गुण हैं। इनका वह नियमित रूप से | करने में समर्थ है और जो देशकाल का पर्ण जाता है। जो इन पालन करता है। इनके सिवा उक्त धर्म के पूरक कुछ उपयोगी | गुणों का धारी नहीं है, उसके एकल विहारी होने पर गुरु का नियम और हैं जिनको जीवन में उतारने से साधुधर्म की रक्षा । अपवाद होने का, श्रुत का विच्छेद होने का और तीर्थ के मानी जाती है। वे ये हैं मलिन होने का भय बना रहता है तथा स्वैराचार की प्रवृत्ति १. जो अपने से बडे पुराने दीक्षित साध हैं. उनके सामने आने पर अभ्युत्थान और प्रणाम आदि द्वारा उनकी साधु एकल विहारी नहीं हो सकता। जो इस प्रवृत्ति को समुचित विनय करता है। प्रोत्साहन देते हैं, वे भी उक्त दोषों के भागी होते हैं। प्रायः जो २. आगमार्थ के सुनने और ग्रहण करने में रुचि रखता | गारब दोष से युक्त होता है, मायावी होता है, आलसी होता है, व्रतादि के पूर्णरूप से पालन करने में असमर्थ होता है और ३. गुरु आदि से शंका का निवारण विनयपूर्वक करता पापबुद्धि होता है, वही गुरु की अवहेलना करके अकेला रहना चाहता है। ४. श्रुत का अभ्यास बढ़ जाने पर न तो अहंकार १३. आर्यिका या अन्य स्त्री के अकेली होने पर करता है और न उसे छिपाता है। उनसे बातचीत नहीं करता और न वहाँ ठहरता ही है। ५. ज्ञान और संयम के उपकरणों के प्रति आसक्ति | १४. यदि बातचीत करने का विशेष प्रयोजन हो तो नहीं रखता। अनेक स्त्रियों के रहते हुए ही दूर से उनसे बातचीत करता ६. जिस पुस्तक का स्वाध्याय करता है, उसे स्वाध्याय | है। समाप्त होने तक के लिए ही स्वीकार करता है, अनावश्यक | १५. आर्यिकाओं या अन्य व्रती श्राविकाओं के उपाश्रय पस्तकों के संग्रह में रुचि नहीं रखता। अनुसन्धान के लिए | में नहीं ठहरता।। अधिक पुस्तकों का अवलोकन करना वर्जनीय नहीं है, | १६. अपनी प्रभाववृद्धि के लिए मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिष परन्तु उनके संग्रह में रुचि नहीं रखता। विद्या का उपयोग नहीं करता। ७. अपने गुरु और गुरुकुल के अनुकूल प्रवृत्ति करता १७. तैल-मर्दन आदि द्वारा शरीर का संस्कार नहीं 6 जुलाई 2005 जिनभाषित - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता और सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग नहीं करता । १८. शीत आदि की बाधा से रक्षा के उपायों का आश्रय नहीं लेता । १९. वसतिका आदि का द्वार स्वयं बन्द नहीं करता • तथा वहाँ आनेवाले अन्य व्यक्ति को नहीं रोकता। ★ २०. दीपक या लालटेन की रोशनी को कम-अधिक नहीं करता। बैटरी भी पास में नहीं रखता । २५. तथा यात्रा के समय किसी प्रकार की सवारी का उपयोग नहीं करता । पैदल ही विहार करता है। इन नियमों के सिवा और भी बहुत-से नियम हैं, जिनका वह संयम की रक्षा के लिए भली प्रकार पालन करता है। २. आर्यिकाओं के विशेष नियम उक्त धर्म का समग्र रूप से आर्यिकाएँ भी पालन करती हैं। इसके सिवा उनके लिए जो अन्य नियम बतलाये * गये हैं, उनका भी वे आचरण करती हैं। वे अन्य नियम ये २१. उष्णता का वारण करने के लिए पंखे आदि का उपयोग नहीं करता । २२. अपने साथ नौकर आदि नहीं रखता । २३. किसी के साथ विसंवाद नहीं करता । १२. आचार्य से पाँच हाथ, उपाध्याय से छह हाथ और अन्य साधुओं से सात हाथ दूर रहकर गो-आसन में २४. तीर्थादि की यात्रा के लिए अर्थ का संग्रह नहीं बैठकर उनकी वन्दना करती हैं। जो साधु आर्यिकाएँ इस करता और न इसकी पूर्ति के लिए उपदेश देता है। आचार का पालन करते हैं, वे जगत् में पूजा और कीर्ति को प्राप्त करते हुए अन्त में यथानियम मोक्ष-सुख के भागी होते हैं। १. वे परस्पर में एक-दूसरे के अनुकूल होकर एकदूसरे की रक्षा करती हुई रहती हैं। २. रोष, वैरभाव और मायाभाव से रहित होकर लज्जा और मर्यादा का ध्यान रखती हुई उचित आचार का पालन करती हैं। ३. सूत्र का अध्ययन, सूत्रपाठ, सूत्र का श्रवण, उपदेश देना, बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन, तप, विनय और संयम में सदा सावधान रहती हैं। ४. शरीर का संस्कार नहीं करतीं । ५. सादा बिना रंगा हुआ वस्त्र पहनती हैं। ६. जहाँ गृहस्थ निवास करते हैं, उस मकान आदि में नहीं ठहरतीं । ७. कभी अकेली नहीं रहतीं। कम-से-कम दो-तीन मिलकर रहती हैं। ८. बिना प्रयोजन के किसी के घर नहीं जातीं। यदि प्रयोजनवश जाना ही पड़े, तो गणिनी से अनुज्ञा लेकर ही जाती हैं। ९. रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन बनाना, दाई का कार्य और कृषि आदि छह प्रकार का आरम्भ कर्म नहीं करतीं 1 १०. साधुओं का पाद- प्रक्षालन व उनका परिमार्जन नहीं करतीं। ११. वृद्धा आर्यिका को मध्य में करके तीन, पाँच या सात आर्यिकाएँ मिलकर एक-दूसरे की रक्षा करती हुई आहार को जाती हैं। I ३. गृहस्थ-धर्म मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् मार्ग मुनिधर्म ही है । किन्तु जो व्यक्ति मुनिधर्म को स्वीकार करने में असमर्थ होते हुए भी उसे जीवनव्रत बनाने में अनुराग रखते हैं, वे गृहस्थधर्म के अधिकारी माने गये हैं । मुनिधर्म उत्सर्गमार्ग है और गृहस्थधर्म अपवादमार्ग है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थधर्म से आंशिक आत्मशुद्धि और स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है, इसलिए यह भी मोक्ष का मार्ग माना गया है। समीचीन श्रद्धा और उसका फल I जो मुनिधर्म या गृहस्थधर्म को स्वीकार करता है, उसकी पाँच परमेष्ठी और जिनदेव द्वारा प्रतिपादित शास्त्र में अवश्य श्रद्धा होती है। वह अन्य किसी को मोक्ष-प्राप्ति में साधक नहीं मानता, इसलिए आत्मशुद्धि की दृष्टि से इनके सिवा अन्य किसी की वन्दना और स्तुति आदि नहीं करता । तथा उन स्थानों को आयतन भी नहीं मानता जहाँ न तो मोक्षमार्ग की शिक्षा मिलती है और न मोक्षमार्ग के उपयुक्त साधन ही उपलब्ध होते हैं। लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरे का आदर-सत्कार करना अन्य बात है । वह जानता है कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिए शरीर, उसकी सुन्दरता और बल का अहंकार नहीं करता। धन, ऐश्वर्य, कुल और जाति ये या तो माता-पिता के निमित्त से प्राप्त होते हैं या प्रयत्न से प्राप्त होते हैं। ये आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकते, इसलिए इनका भी अहंकार नहीं करता। ज्ञान और तप ये समीचीन भी होते हैं और असमीचीन भी होते जुलाई 2005 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जिसे आत्मदृष्टि प्राप्त है, उनके ये असमीचीन हो ही नहीं । ही करूँगा। इसके बाहर होने वाले व्यापार आदि से या सकते, इसलिए इन्हें मोक्षमार्ग प्रयोजक जान इनका भी अहंकार नहीं करता । धर्म आत्मा का निज रूप है, यह वह जानता है, इसलिए अपनी खोयी हुई उस निधि को प्राप्त करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है। उसके निमित्त से होने वाले लाभ से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। समय-समय पर यथा नियम दूसरे व्रत को स्वीकार करते समय वह अपने इस क्षेत्र को और भी सीमित करता है। और इस प्रकार अपनी तृष्णा पर उत्तरोत्तर नियन्त्रण स्थापित करता जाता है। इतना ही नहीं, वह आजीविका में और अपने आचार-व्यवहार में उन्हीं साधनों का उपयोग करता है जिनसे दूसरे प्राणियों को किसी प्रकार की बाधा नहीं होने पाती। जिनसे दूसरों की हानि होने की सम्भावना होती है, उनका वह निर्माण भी नहीं करता और ऐसा करके वह स्वयं को अनर्थदण्ड से बचाता है। चार शिक्षाव्रत वह अपने जीवन में कुछ शिक्षाएँ भी स्वीकार करता है । प्रथम तो वह समता तत्त्व का अभ्यास कर अपने सामायिक शिक्षाव्रत को पुष्ट करता है। दूसरे, पर्व दिनों में एकाशन और उपवास आदि व्रतों को स्वीकार कर वह प्रोषधोपवास व्रत की रक्षा करता है। शरीर सुखशील न बने और आत्मशुद्धि की ओर गृहस्थ का चित्त जावे, इस अभिप्राय से वह इस व्रत को स्वीकार करता है। वह अपने आहार आदि में प्रयुक्त होनेवाली सामग्री का भी विचार करता है और मन तथा इन्द्रियों को मत्त करनाली तथा दूसरे जीवों को बाधा पहुँचाकर निष्पन्न की गयी सामग्री का उपयोग न कर उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत को स्वीकार करता है। अतिथि सबका आदरणीय होता है और उससे संयम के अनुरूप शिक्षा मिलती है, इसलिए वह अतिथिसंविभाग व्रत को स्वीकार कर सबकी यथोचित व्यवस्था करता है । ये गृहस्थ के द्वारा करने योग्य बारह व्रत हैं । इनके धारण करने से उसका गार्हस्थिक जीवन सफल माना जाता है। पाँच अणुव्रत इस प्रकार दृढ़ आस्था के साथ सम्यग्दर्शन को स्वीकार करके वह अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थधर्म के प्रयोजक बारह व्रतों को धारण करता है । बारह व्रत ये हैं- पाँच अणुव्रत, तीन और चार शिक्षाव्रत । हिंसा, असत्य, गुणवत चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का वह एक देश त्याग करता इसलिए उसके पाँच अणुव्रत होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह त्रस हिंसा से तो विरत रहता ही है, बिना प्रयोजन के एकेन्द्रिय जीवों का भी वध नहीं करता। ऐसा वचन नहीं बोलता जिससे दूसरों को हानि हो या बोलने से दूसरों के सामने अप्रमाणित बनना पड़े । अन्य की छोटी-बड़ी किसी वस्तु को उसकी आज्ञा के बिना स्वीकार नहीं करता । अपनी स्त्री के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन या पुत्री के समान मानता है और आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं करता । तीन गुणवत इन पाँच व्रतों की वृद्धि के लिए वह दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत इन तीन गुणव्रतों को भी धारण करता है। दिग्व्रत में जीवन-भर के लिए और देशव्रत में कुछ काल के लिए क्षेत्र की मर्यादा की जाती है। गृहस्थ का पुत्र, स्त्री और धन-सम्पदा से निरन्तर सम्पर्क रहता है । इस कारण उसकी तृष्णा में वृद्धि होना सम्भव है । ये दोनों व्रत उसी तृष्णा को कम करने के लिए या सीमित रखने के लिए स्वीकार किये जाते हैं । प्रथम, व्रत को स्वीकार करते समय वह इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन-भर अपने व्यापार आदि प्रयोजन की सिद्धि इस क्षेत्र के भीतर रहकर क्रमश: 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' के 'प्रास्ताविक वक्तव्य' से साभार गिरनार में गुरुदत्तात्रेय - प्रवेश द्वार के निर्माण का तीव्र विरोध भारत के प्रसिद्ध तीर्थ गिरनार के प्रवेश स्थल पर 'गुरुदत्तात्रेय प्रवेश द्वार' बनाने का निर्णय लिया गया है, जिसका भूमिपूजन दिनांक १६ मई २००५ को जूनागढ़ के कलेक्टर द्वारा किया गया। इस प्रवेश द्वार के निर्माण का सम्पूर्ण भारत का जैन समाज तीव्र विरोध करता है और गुजरात प्रदेश के शासन से अनुरोध करता है कि वह साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित न कर धर्मनिरपेक्ष नीति से कार्य करने का प्रयास करे । 'गिरनार प्रवेश द्वार' के बजाय 'गुरुदत्तात्रेय प्रवेश द्वार' बनाकर जैनों के गिरनार तीर्थक्षेत्र पर कब्जा करने की बड़ी भारी साजिश की जा रही है, जिसका पूरी ताकत से विरोध करना आवश्यक है। 8 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपंचमी पर्व : श्रुतदेवी और हमारे कर्त्तव्य ब्र. संदीप 'सरल' भगवान ऋषभदेव के तीर्थकाल से भगवान महावीर | ३. क्रोधादि कषायों की मंदता स्वाध्याय से प्राप्त होती • के तीर्थकाल तक श्रुतज्ञान की अविरल धारा चलती रही। | है। भगवान महावीर के मोक्षगमन पश्चात् ६८३ वर्ष तक श्रुत ४. पांचों इन्द्रियों के विषयों में जाते हए मन को को लिपिबद्ध करने का कार्य प्रारम्भ नहीं हुआ था। आ. | स्वाध्याय से ही रोका जाता है। धरसेन जी ने इस दिशा में प्रयत्न करके सुयोग्य मुनिद्वय ५. हिंसादिपापों से निवृत्ति एवं हेयोपादेय का ज्ञान मुनिश्री १०८ पुष्पदंत जी एवं मुनिश्री १०८ भूतबलि जी स्वाध्याय से ही हुआ करता है। महाराज को आ. परम्परा से प्राप्त ज्ञान प्रदान किया। भूतबली ६. स्वाध्याय के माध्यम से व्यक्ति परमात्मा और जी ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को षट्खण्डागम की रचना पूर्णकर | परलोक से अनायास सम्पर्क स्थापित कर लेता है। चतुर्विध संघ के समक्ष श्रुतज्ञान की पूजा की थी। तबसे यह तिथि श्रुतपंचमी के रूप में जानी जाती है। ७. जैसे एक-एक पैसे के संचय से धन की वृद्धि होती है, उसी प्रकार एक-एक सद्विचार का संग्रह करने से श्रुतदेवी और हमारे कर्त्तव्य : आत्मोत्थान में सहायक ज्ञानकोष की वृद्धि होने से पाण्डित्य की प्राप्ति होती है। देव-शास्त्र और गुरु के मध्य शास्त्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान हुआ करता है। श्रुत की भक्ति करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति ८. केवल धन/ऐश्वर्य से कोई सुखी नहीं हो सकता, हुआ करती है और सद्ज्ञान/भेदविज्ञान से जीव अपने लक्ष्य अपितु धर्म व तत्त्वज्ञान से व्यक्ति संतोषप्रद जीवन शैली को प्राप्त कर लेता है। हमारे आचार्यों ने ज्ञानाराधना हेतु अपनाकर सुखी बन सकता है। स्वाध्याय की प्रबल प्रेरणा देते हुए स्वाध्याय को परम तप ९. स्वाध्याय करनेवाला व्यक्ति अधिकाधिक ज्ञान कहा है। इतना ही नहीं, श्रावक एवं श्रमणों की षट्आवश्यक प्राप्तकर आनंद को प्राप्त होता है। भावनाओं में अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी भावना निरन्तर स्वाध्याय १०. आभ्यन्तर चक्षुओं को खोलने के लिए स्वाध्याय की प्रेरणा हमें दिया करती है। एक अंजनशलाका है। स्वाध्याय क्या, कैसे, क्यों : शास्त्रों का पठन- ११. स्वाध्यायशील मानव के अन्दर प्रशम, संवेग, पाठन करना व्यवहार स्वाध्याय कहलाता है, तो स्व-आत्मा | अनुकम्पा आदि उदारगुणों की पूंजी निरन्तर बढ़ती रहती है। के निकट वास करना अथवा आत्मा का अध्ययन करना | १२. स्वाध्याय संसार की नश्वर आकुलता से ऊपर निश्चय स्वाध्याय कहलाता है। उठने के लिए अनुपम नसैनी के समान है। प्रतिदिन नियमित रूप से विनयपूर्वक क्रमबद्ध तरीके १३. स्वाध्यायशील व्यक्ति को लोक में यश-सम्मान से स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय क्यों करना चाहिए? | भी प्राप्त होता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आ. पूज्यपाद स्वामी जी सर्वार्थसिद्धि १४. स्वाध्याय एक शुभक्रिया है, इसके माध्यम से ग्रन्थ में लिखते हैं कि स्वाध्याय करने से प्रज्ञातिशय, प्रशस्त अतिशय पुण्य का आस्रव-बंध होता है। अध्यवसाय, परमसंवेग, तपवृद्धि एवं अतिचारों में विशुद्धि १५. स्वाध्याय करने से जीव परम्परा से आत्मानुभवबढा करती है। शास्त्राभ्यास की अपूर्व महिमा है जैसे दशा को प्राप्त होता है। १. मैं कौन हूँ? जन्म, मरण क्या है? संसार में मेरा स्वाध्याय की महिमा वचनातीत है। हमें प्रमाद का क्या संबंध है इत्यादि रहस्यात्मक प्रश्न स्वाध्यायशील व्यक्ति त्यागकर निरन्तर स्वाध्याय में ही अधिकाधिक समय देना के मन में उठा करते हैं। चाहिए। श्रुतपंचमी पर हमें स्वाध्याय करने का नियम लेकर २. नई दिशा, नये विचार, नये शोध और वैदुष्य के स्वाध्याय की परम्परा को जीवंत रखना चाहिये। अवसर निरन्तर स्वाध्याय करने वालों को प्राप्त होते हैं। - जुलाई 2005 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र भण्डारों के प्रति हमारे कर्त्तव्य : हमारे जिनालयों की अपूर्व शोभा जिनप्रतिमाओं एवं शास्त्र भण्डारों से हुआ करती है। हमारे पूर्वज पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित मां जिनवाणी को ताडपत्र - भोजपत्र एवं कागजों पर लिखकरलिखवाकर मंदिरों में विराजमान करवाते रहे हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि इन ग्रन्थों में जैन संस्कृति, इतिहास, सिद्धान्त, आचार-विचार की प्रचुर सामग्री समाहित है। श्रुतपंचमी पर्व के अवसर पर श्रुतभण्डारों के संरक्षणसंवर्द्धन का कार्य बृहद स्तर पर किया जाता है। श्रुतपंचमी पर्व पर इतना तो अवश्य करें १. श्रुतपंचमी को जिनवाणी की शोभायात्रा, सामूहिक श्रुतपूजन कर श्रुतपंचमी पर्व की महत्ता पर धर्मसभा का आयोजन करना चाहिए । २. शास्त्र भण्डार के समस्त ग्रन्थ निकालकर हवा में रखना चाहिए, ग्रन्थों की, अल्मारियों की सफाई करना चाहिए। पुराने जीर्ण शीर्ण वेष्टन (अछार) एवं कव्हर अलग करके नये चढ़ाना चाहिए। ३. कम से कम एक ग्रन्थ बुलवाकर शास्त्र भण्डार में विराजमान करना चाहिए । ४. यदि हो सके तो सामूहिक शास्त्रसभा प्रारम्भ करना चाहिए । यदि यह संभव न हो तो स्वतंत्ररूप से स्वाध्याय अवश्य ही करना चाहिए । ५. हस्तलिखित ग्रन्थों की पूर्ण सुरक्षा के लिये ग्रन्थों को सूती कपड़ों में कसकर बाँधना चाहिए, ताकि शीत- धूप से प्रभावित न हों। ६. शास्त्र भण्डार के स्थानों पर खाद्य सामग्री न रखी जावे, शीत आदि का प्रकोप न हो इस बात का ध्यान रखा जावे । ७. कीड़े-मकोड़े, दीमक आदि से बचाव हेतु अल्मारियों में सूखी नीम की पत्ती अथवा नीम की खली रखें। ८. अजवायन की पोटलियां अथवा लवंग चूर्ण अल्मारियों में रखें । ९. ग्रंथभण्डार का सूचीकरण कर पूर्ण जानकारी रखें। १०. अपने-अपने ग्रन्थ भण्डारों के व्यवस्थापन में सहभागी अवश्य बनें। आशा है हमारे श्रुतप्रेमी उपासक अवश्य ही श्रुतसेवा का संकल्प लेकर श्रुतज्ञान से केवलज्ञान तक की यात्रा पूर्ण करेंगे। अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान, बीना किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैन समाज क्या अब भी जागेगा ? निर्मलकुमार पाटोदी गिरनार सिद्धक्षेत्र पर सोमवार १९ मई २००५ तक जितना कुछ घटित हुआ है, उस सबके बावजूद भी समाज के संगठन, तीर्थक्षेत्र कमेटियाँ, सन्त, विद्वान् न सचेत दिख रहे हैं और न गंभीर। योजनाबद्ध और संगठित रूप से अर्थ सामर्थ्य के साथ फरवरी २००६ को आयोजित पूज्य भगवान बाहुबली मस्तकाभिषेक के लिये सब कुछ किया जा रहा है। गिरनार के डूबते अस्तित्व को बचाने के लिये अँगूठा कटाकर शहीद होने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। किसी के अन्तर्मन में यह विचार नहीं कौंध रहा है कि जब तक गिरनार सिद्धक्षेत्र की रक्षा नहीं हो जाती तब तक न बाहुबली का महामस्तकाभिषेक करेंगे, न पंचकल्याणक करेंगे, अपितु समूचे समाज को जागृत और सक्रिय करके एक सूत्र में बँधकर सारी शक्ति तीर्थराज गिरनार के लिये अर्पण करेंगे। गिरनार दिगम्बर जैन समाज की पहचान है, इसके बिना जैन संस्कृति का एक अंग कम हो जाएगा। भविष्य में हमारे अन्य सिद्धक्षेत्र गँवाने का पथ प्रशस्त होने का भय है। क्यों नहीं वर्षायोग में सन्तगण सिर्फ गिरनार की चर्चा करें? क्यों नहीं राष्ट्रीय स्तर पर तीर्थरक्षा के लिये सिर्फ एक कमेटी काम करे? क्या अपनी-अपनी ढपली अपना अपना राग अलापना अब भी जरूरी है ? क्या इतना अधिक पानी सिर पर से निकल जाने के बाद भी हमारी आँखें नहीं खुलेंगी? हाथों से तीर्थक्षेत्र फिसलता हुआ जानने के बाद भी हम चैन की नींद सोए रहेंगे? कितनों का अंतर्मन विचलित है ? तीर्थ कराह रहा है, समाज नहीं । प्रहार तीर्थ पर हुआ है। २२, जाँय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर (म. प्र. ) 10 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मंत्र-तंत्र-विज्ञान हमें कहाँ ले जा रहा है ? प्रा. सौ. लीलावती जैन आ. गुणधरनंदी जी लिखित मंत्र-तंत्र विज्ञान का | सुविधा चाहता है और चमत्कार भी!...परंतु पाखंडियों ने छल (द्वितीय भाग-पृष्ठ ११०) किसी ने पढ़ने के लिए दिया। और प्रपंच का जाल फैलाया और इस महान विद्या के प्रति हमने सोचा जैन मंत्रशास्त्र की विज्ञाननिष्ठ भूमिका से मेल | घृणा और अविश्वास प्राप्त करा दिया।" ...तो क्या मिथ्या बिठानेवाली भूमिका के तहत यह ग्रंथ लिखा गया होगा। मंत्र-तंत्र का विरोध करने वाले आ.कंदकंद पाखंडी छलकपट अतः उत्सुकतापूर्वक पढ़ना आरंभ किया और पाया कि यह करनेवाले थे? 'लघविद्यानवाद की छोटी बहन' के रूप में है। इसे पढकर आइए! इस पर अधिक विचार न करते हुए हम विचार आया कि इस प्रकार का मंत्रविज्ञान हमें कहाँ ले जा पाठकों को उन मंत्रों का परिचय कराते हैं जिससे वे स्वयं रहा है? जान लें कि ये मंत्र हमें कहाँ ले जा रहे हैं? और मंत्रविज्ञान आ. गुणधरनंदजी ने ऐसी और कुछ (२८ तक) के नाम पर हमारी श्रद्धा में कौन सा विज्ञान झोंका जा रहा है? अन्य किताबों का संकलन, संपादन, लेखन किया है। उनमें इस पुस्तक में प्रस्तुत मंत्रों की भाषा अधिक स्थान कुछ ये नाम हैं- विद्यानुशासन, जैन वास्तुविज्ञान, मुहूर्त विज्ञान, । | पर राजस्थानी-हुँढारी से मिलती जुलती है। और कई मंत्र यात्राशकुन, अंकज्योतिष, यंत्र-मंत्र-आराधन, सरस्वती-कल्प, संस्कृत में हैं। हमने आ. कुंथुसागर द्वारा प्रकाशित लघुविद्यानुज्वालामालिनी-कल्प, स्वर-विज्ञान, ईंट का जवाब पत्थर से ईंट का जवाबपाशा से वाद के मूल ताडपत्रीय ग्रंथ का संशोधन किया। परंतु वह आदि हैं। सबके नाम पढ़कर हम जान गए हैं कि आ. ग्रंथ जैन पूर्वाचार्य (के नाम से) लिखित प्रमाणित नहीं महावीरकीर्ति जी से पनपी यह मंत्र-तंत्र-विज्ञान की धारा होता। न हि लघुविद्यानुवाद में समाविष्ट हिंसक मंत्रतंत्र जैन जाली विद्यानुवाद के इर्द गिर्द ही घूम रही है, जिसमें जारण, आचार्यों के लिखे लगते हैं। मारण, तारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण २०वीं सदी के प्रथमाचार्य पू. शांतिसागरजी महाराज तथा निमित्त, शकुन आदि विद्याओं का समावेश है। इनमें ने इस प्रकार की मंत्र-तंत्रवादी प्रवृत्तियों को कभी प्रश्रय नहीं दिया। उनकी शिष्यपरंपरा में भी वह दिखायी नहीं देती। परंतु रोग मंत्र, रक्षा-मंत्र, विद्या-मंत्र, प्रेत-मंत्र, कार्यसिद्धि-मंत्र प्र.आ. महावीरकीर्तिजी से यह मंत्रतंत्र की धारा पनपी है जो आदि अनेकों मंत्रों का भी समावेश है। उनकी शिष्यपरंपरा में दिखायी देती है। हम आ.कुंथसागर ___ हमने १९८४-८५ के दरमियान 'लघुविद्यानुवाद के विरोध में' और 'पू.आ. विमलसागरजी को खुला आवाहन' तथा उनके सभी शिष्यों से विनयपूर्वक कहना चाहते हैं कि यह विद्यानुशासन या विद्यानुवाद जहाँ कहीं से भी भोजपत्रशीर्षक से जो २ परचे देश भर बँटवाये थे, उसमें हमने इस | ताड़पत्र में लिखित प्राप्त हुआ हो, जैन संशोधक-अभ्यासकों मंत्र-तंत्रवादी धारा की अप्रवृत्तियों को खुला किया था। परंतु को उपलब्ध करायें, जिससे कि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध सच्चे देव-शास्त्र-गुरु-स्वरूप के सही अध्ययन के अभाव में, स्वाध्याय से वंचित अज्ञ समाज, भौतिक सुखों की की जा सके। उपलब्ध मंत्र तो अन्य-अजैन नाथपंथीय, शाक्तपंथी, हठवादी आदि विचारधारा से आये प्रतीत होते अभिलाषा से, राग-द्वेष के मोह जाल में फँसता इन विषयों हैं। जैनत्व का स्पर्श बताने के लिए मात्र बीच में णमोकार में अपना समाधान ढूँढ रहा है। प्रस्तावना के दो शब्द में आ. मंत्र का समावेश गलत उद्देश्यपूर्ण तथा अस्थायी लगता है। गुणधरनंदी जी के अनुसार, 'मंत्र विज्ञान अनादि निधन है।' हम उनसे पूछना चाहते हैं कि कौन सा मंत्र-विज्ञान अनादि कुछ नमूने 'जैन मंत्र विज्ञान' से उद्धृत कर रही हूँनिधन है? उपादेय या हेय? शुभ या अशुभ? आपने जो मंत्र (१) रक्षा मंत्र - ६ (पृष्ठ १४) आगे नरसिंह, पीछे नरसिंह, ....मरमरठा में फिरूँ, मणिया मांस खाऊँ.....मैं हनुमंत विज्ञान प्रकाशित किया है वह हेय है या उपादेय? क्या वह का बालक.....आदि। इस मंत्र की भाषा राजस्थानी से मिलती वीतरागता को बढ़ावा देता है? या संसारसुखों की अभिलाषाएँ है। इसमें नरसिंह, हणमंत, नाहरसिंह, भैरूजी, गोरखनाथ पूर्ण करता है? आदि नाम आये हैं। डाकिनी, शाकिनी, डंकनी, शंखनी, ___ आप लिखते हैं "मंत्रसाधन द्वारा देवी देवता अपने वश में हो जाते हैं...मंत्र-सिद्धि-प्राप्त साधक को संसार का समस्त सालिनी, बीजासनी, कालका आदि के भी नाम आये हैं। वैभव सुलभ हो जाता है।...इस भौतिकताप्रधान युग में मानव प्रश्न - क्या इन डाकिनी, शाकिनी आदि से होनेवाले - जुलाई 2005 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घात से रक्षा करने को ये मंत्र दिये गये हैं? क्या यह रक्षा । आकर्षिणी, घंटाकरणी पिशाचिनी विशल्ला मम स्वप्न दर्शय हनुमंत, गोरखनाथ, नरसिंह आदि करेंगे? मांस खाने की बात | | स्वाहा। कहने वाले मंत्र क्या जैन मंत्र हो सकते हैं? प्रश्न-यह पिशाचिनी का मंत्र जपने से बचन सिद्धि (२) रक्षामंत्र ७ (पृ. १४-१५)- 'लकमान हकीम होगी? क्या वह पिशाचिनी हमारे मुख से बोलेगी? और वह हिकमत के बादशाह दमेस्यां मर्तजहाली चढे ख्वाजा इतवारी, नहीं निकली तो? क्या भूत-प्रेत, पिशाच भगाने के मंत्र और चढ़ी सर्वा पूरा की असवारी... इन पीरों की ऐसी हांक जे मारे | पढ़ने होंगे? क्या ये जैन मंत्र हैं? पिशाचिनी की आराधना सात समुद्र पार, आय लगाऊँ खुवाजा के पाय, गुरु चोर हराम | करना जैन धर्म में मान्य है? अगर यह पिशाचिनी ज्ञान व खोर... न करोगे तो दुहाई ख्वाजा मुईनुद्दीन की हाजरी सो हाजरी।' विद्या दे सकती है तो ज्ञान के क्षयोपशम का, ज्ञानावरणादिकर्म प्रश्न-ये लुकमान हकीम, ख्वाजा मुईनुद्दीन क्या जैन | फल का क्या मतलब रह जाता है? इस मंत्र के आगे पूर्वाचार्य हैं? क्या यह भाषा अनादि-अनिधन मंत्र की भाषा | कर्मसिद्धांत का विचार करने की क्या आवश्यकता रह जाती लगती है? है? कोई भी पाप करो और मंत्र से झडवा दो, मुक्ति हो (३) क्षेत्रपाल मूल मंत्र ४ - इस मंत्र के जपने से | जाएगी? बंधन छटे, बंदीखाने से छटे... (७) मंत्र ७-यह मंत्र १ लाख बार जपे तो सर्व प्रश्न-क्या चोरों, खूनी, डाकुओं के लिए काम आसान | विद्या आवे। सब झगडों से विजय होवे। नहीं हो जाएगा? कोई भी दुष्कृत्य करो, मंत्र जपने से जेल से प्रश्न - शिखरजी, गिरनारजी आदि विवादों में उलझे मुक्ति मिल जायेगी? क्या भगवान अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थक्षेत्रों को यह मंत्र बडा ही लाभकारी है. अगर यह मंत्र (शिरपुर) जो कई वर्षों से ताले में बंद हैं, मुक्त हो सकते हैं? | प्रतिपक्ष के हाथ में चला गया तो क्या हम हार जायेंगे? बेचारे कार्यकर्ताओं के कोर्ट कचहरी के चक्कर से तो जान (८) धन व क्रय-विक्रय लाभ-१-इस मंत्र में छूटे? आज तक किसी आचार्य को यह क्यों नही सूझा? चावलों पर ५०० जाप करें और गल्ले में डाले तो क्रय (४) क्षेत्रपाल मूल मंत्र १३ - यह मंत्र जपने से | विक्रय में लाभ हो। क्षेत्रपाल प्रत्यक्ष आवे तथा गुड़ पानी में घोले... प्रसन्न भवति। प्रश्न - समाज में ८०% बेरोजगार जैन गरीब युवकों प्रश्न-क्या क्षेत्रपालजी को बुलाकर काफी काम | को छोटे-छोटे कारोबार दिला दिये जायें और इस मंत्र का । निकलवाये जा सकते हैं? गिरनार क्षेत्र पर अनधिकृत कब्जा पाठ पढ़ाया जाय तो क्या उनकी दरिद्रता दूर हो सकती है? जमाने वालों को ये क्षेत्रपालजी ठीक कर देंगे? सब समाज के संपन्न होने में इसमंत्र से बहुत लाभ होगा? (५) क्षेत्रपाल मूल मंत्र १५ - जाप २७००० कीजै। (९) वचन चातुर्य मंत्र ३-ॐ अजीजी भवानी कोडिया लोभाण खेवे।जाप पूरा हुयां पक्षी नैवेद्य संपूर्ण कीजै। स्वाहा... पाछे लापसी, घूघरी, बड़ा को भक्ष दीजै। जो कहे सो करे। प्रश्न-यह अजीजी भवानी कौन है? क्या वचन चातुर्य राजा प्रजा, वश करे, स्त्री-आकर्षण करे, ...परद्वीप देनेवाली सरस्वती है? या शिवाजी महाराज की कुलदेवता बैरीने नाखें। परदेस थी वस्तु आणी छै। परदेस मेवा आणी भवानी देवी है? क्या वचन चार्य किसी के देने से मिलता दे। भी है? क्या पशु की भाषा समझने से उनके दुख दर्द, प्रश्न - लोभाण (धूप) खेना, लापसी, घूधरी, बड़ा आक्रोश को भी मंत्र जपने वाले समझ सकेंगे? क्या यह मंत्र का नैवेद्य देकर अगर क्षेत्रपाल महाराज प्रसन्न होते हैं, तो क्या रोज यह नैवेद्य देकर हम जो कहेंगे सो वे करेंगे? ये पढ़कर पशु भाषा समझकर कसाइयों, बूचड़खाने वालों का हृदय परिवर्तन होगा? क्षेत्रपाल प्रभो! महँगाई कम कर दो! त्सुनामी लहरों से पीड़ित के मकान बनवा दो? राजा, प्रजा को वश में कर देंगे? स्त्री (१०) कर्ण पिशाचनी मंत्र-(कर्ण पिशाचनी देवी की आराधना, कर्ण पूजा कही है, जंगली बेर के कांटे और आकर्षण भी करवा देंगे? तब तो हर कोई ...खैर ! क्या आप जंगली बराह का दांत पास में रखने को कहा है।) विशेष यह । अलाउद्दीन के चिराग हैं? अगर हैं तो कम से कम हमें है कि यह मंत्र आ. गुणधरनंदी जी का स्वयं आजमाया हुआ, परदेस से बादाम काजू तो मँगवा दीजिए, ताकि भूख से मरने सिद्ध है। चैलेंज के साथ लिखा है कि कोई भी साधक आकर वालों को दे सकें। इसे परख सकता है। हमारा आ. गुणधरनंदीजी को विनयपूर्वक (६) ज्ञान व विद्या प्राप्ति मत्र ५ - यक्षिणी | निवेदन है कि अगर यह कर्णपिशाचिनी मंत्र उनको सिद्ध है. 12 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वे उसके सामर्थ्य से सम्मेद शिखरजी, गिरनारजी, अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी (शिरपुर ) के विवाद को सुलझायें। जैन समाज उनके पाँव धोकर पियेगी । आ. पद्मप्रभमलधारी देव ने नियमसार के अजीव अधिकार के श्लोक ५० की टीका में लिखा है - इति विरचित मुच्चैर्द्रव्यषट्कस्य भास्वद्, विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् । तदिह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोदं, भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ॥ ५० ॥ अर्थ - भव्यों के कर्णों में अमृत सदृश छह द्रव्यों का अति रम्य जिनमुनियों के चित्त को प्रमोद देने वाला, विस्तारपूर्वक किया गया षट्द्रव्य विवरण भव्य जीवों को सदा मुक्ति का कारण हो । और आप तो कानों में अमृत घोलनेवाली जिनवाणी को छोड़ कर्णपिशाचिनी को सिद्ध कर बैठे हैं। अब हम क्या कहें? - (११) भूत-प्रेत भगाने वाले मंत्र (पृ.३३ ) - इस मंत्र क्या काली माँ प्रत्यक्ष दर्शन देती है? क्या हमारी उज्ज्वल + (१२) (पृ.३४) इस मंत्र का सवा लाख जप करने से माँ तारादेवी नित्य सिरहाने दो तोला सोना रख देती है ... तब तो हर किसी को इस मंत्र से रोज दो तोला सोना (यानी करीबन १२ हजार रु. ) प्राप्त हो तो कोई व्यापार, मेहनत, नौकरी क्यों करें? (१३) चक्षुरोग निवारण मंत्र (पृ. ३४) - हणमंत को भजने से वे हमारे आँखों आदि के रोग ठीक करते हैं। तब तो सारे आँखों के डॉक्टरों को अस्पताल बंद कर इन हणमंतजी को ही भजना चाहिए ? ... विशेष यह है कि जब इन्हीं आचार्य या मुनिश्री की आँखें खराब होती हैं, तब इन्हें चश्मे का नंबर निकालने के लिए डॉक्टर को पास क्यों बुलाना पड़ता है? क्या ये मंत्र इन पर काम नहीं करते? (१४) कार्यसिद्ध मंत्र - (पृ. ४३) दत्तात्रय नमः ... इस पुस्तक में दिया यह ( कल्पवृक्ष के बराबर, चमत्कारपूर्ण ?) मंत्र पढ़कर गिरनार वाले पंडे कहेंगे कि हमारे तुम्हारे दत्तात्रेय एक ही तो हैं। ... जैनधर्म हिंदूधर्म की ही तो शाखा है । ... तब हमारे तीर्थ का क्या होगा? इस मंत्र विज्ञान को क्या कहें? इसप्रकार अनेकों मंत्र इस पुस्तक में दिये हैं । जैसेबेड़ी तोड़नेवाले मंत्र, प्रबल बुद्धि करानेवाले मंत्र, अनाज को कीड़ों से बचानेवाले मंत्र, भय दूर करानेवाले मंत्र, अरिष्ट निवारण, स्वप्न फल, मेघ आगमन, पीलिया मंत्र, सर्प जिनवाणी माता को छोड़ इस काली माँ के दर्शन करने को बिच्छू का विष उतारने के मंत्र, शरीर के एक-एक अंग के हमारे आचार्यों ने कहा है? दर्द के मंत्र, गर्भधारण, गर्भरक्षा, पुत्रप्राप्ति, लड़का होगा या लड़की, सुखप्रसव आदि सभी समस्याओं के हल इन मंत्रों से निकलते हैं। कुछ मंत्रों से चींटियाँ आदि भगायी जाती हैं, मिरगी जाती है। कुछ से घड़ा चलता है। मंत्रित चावल चोर को खिलाने से चोर के मुख से खून गिरता है। और भी विघ्ननिवारणं, बुखार आदि रोग निवारण, अग्निनिवारण, (इसमें अग्रि का स्तंभन बताया है), लक्ष्मीप्राप्ति, पुत्रसंपदाप्राप्ति, महामृत्युंजय मंत्र, ( इससे आयु बढ़ती है ? ) जहाँ मूठ मारने के मंत्र हैं वहाँ मूठ उतारने के भी मंत्र हैं। ये काम वीर वेताल आदि करते हैं।..... हर मंत्र संसार का, इंद्रिय भोगों का विषय है। जिससे वीतरागता कोसों दूर है । कहाँ तक चर्चा करें ? पढ़कर हम सोच सकते हैं कि इस वीतरागधर्म का क्या होगा ? (१५) वस्तु बढ़ोत्तरी का मंत्र (पृ. ५१ ) - इस मंत्र के पढ़ने से अटूट भंडार होता है । ...इस मंत्र के पढ़ने से सौ | आदमी की रसोई में दो सौ लोग खाना खायें तो भी अन्न खत्म नहीं होता। प्रश्न- क्या हर शादी-विवाह में थोड़ा सा खाना बनाकर यह मंत्र फूँकें तो सारे गाँव को प्रीतिभोज में बुलाया जा सकता है? (१६) षद्गायत्री मंत्र (पृ. ५४ ) - जैनगायत्री, ब्रह्म गायत्री, वैश्यगायत्री, सूर्यगायत्री, रुद्रगायत्री, शूद्रगायत्री आदि मंत्रों में वैश्य, सूर्य, वासुदेव, रूद्र, विष्णु आदि के मंत्र हैं। सभी गायत्री मंत्रों ने अनादि अनिधन णमोकारमंत्र को भी फीका कर दिया। इस्माईल जोगी, गोरखनाथ आदि का उल्लेख है। (१७) दाढ़ का मंत्र - इस मंत्र में कामाख्या देवी, पैसे उड़ाने का मंत्र - (पृ. ५८) यह मंत्र पैसे उड़ा लाता है। तो क्या हमारे आचार्य यह कर्म भी सिखायें ? क्या दि. जैन साधु यह सब करें? जिन मुनियों पर धर्मरक्षा, शिक्षा, पोषण एवं वृद्धि की पूर्ण जिम्मेदारी है, क्या वे ही धर्म के शाश्वत सिद्धातों के मुँह पर कालिख नहीं पोत रहे हैं? सिद्धातों के विपरीत विचारधाराओं का समर्थन नहीं कर रहे हैं? क्या शाश्वत सिद्धातों को गड्ढे में नहीं डाल रहे हैं? क्या इस ग्रंथ में समाविष्ट कुछ मंत्र-तंत्रों का प्रयोग वे तथा उनसे दीक्षित कई मुनिगण खुलकर नहीं कर रहे हैं? इनमें कई अभक्ष्य पदार्थों को औषधि के रूप में जुलाई 2005 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सेवन की सलाह क्यों दी गयी है? इन मंत्रों को पढ़ने पर प्रश्न उठता है कि पीर-फकीरों को भजनेवाले जैनसमाज को जैनधर्म की ओर मोड़ने के लिए मंत्र-तंत्रों का प्रयोग कहाँ तक उचित है? क्या मुनियों को इतने घिनौने, हिंसात्मक मंत्र-तंत्र मंजूर हैं? इसका परिणाम क्या होगा? इस एक ग्रंथ के पन्ने पन्ने पर आक्षेपार्ह वचन, मंत्र - तंत्र भरे हैं, तो सब पुस्तकों में अगणित आक्षेपार्ह मंत्र मिल सकते हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के अध्ययन-स्वाध्याय से वंचित ९०% जैन इस प्रकार के ग्रंथों को प्रामाणिक आगमवचन समझकर श्रद्धा से स्वीकार करते देखे गये हैं, क्योंकि आचार्य पदस्थ मुनियों द्वारा संकलित, लिखित हैं। यह स्थिति बड़ी गंभीर है। कई अनभ्यासी इसका गलत उपयोग कर मूढ़ लोगों को फँसा रहे हैं। मिथ्यात्व की तेजी से बढ़ती इस आँधी को इसप्रकार के मंत्र-तंत्र-विज्ञान ने और भड़काया है। अगर इसे सोच-समझकर नहीं रोका गया तो ९०% स्वाध्याय से वंचित जैनसमाज द्वारा स्वीकृत मंत्र-तंत्रवाद जैनधर्म को, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के आत्मवाद की पावनता को ले डूबेगा । यह विचारधारा आयी कहाँ से ? भ. महावीर के बाद ६८३ वर्षों तक जिनवाणी की पवित्र गंगा केवल मौखिक रूप से बहती रही। धीरे-धीरे आचार्यपरंपरा से बहते - बहते उसकी धारा क्षीण हो गयी। अन्य जैनपंथियों ने जैसा भी मिला उसका संकलन कर लिया । १२ अंगों में दृष्टिवाद अंग में १४ पूर्वों में विद्यानुवादपूर्व का नाम आता है। परंतु कोई पाठी न बचने के कारण अनुपलब्ध है। केवल उसमें समाविष्ट विषय और श्लोकों की संख्या आदि की जानकारी मात्र उपलब्ध है। इसलिए अन्य पंथियों द्वारा संकलित ऐसे किसी ग्रंथ को जिनागम के ठोस आधार के अभाव में दिगम्बर जैन पूर्वाचार्यों ने कभी मान्यता नहीं दी। अब कोई तत्त्वमर्म अनभिज्ञ, स्वार्थ के लिए या अज्ञानतावश इसे संकलित प्रकाशित करे और बिना संशोधन किये बिना सिद्धांतशास्त्रों से उसका मूल्यांकन/तुलना किये प्रकाशन करे, तो जिनवाणी की शुद्ध, सात्विक, पवित्र धारा को कलंकित होना पड़ेगा। क्योंकि इतने घिनौने वचन जैन सिद्धांतों के कभी नहीं हो सकते। अगर आ. कुंदकुंद पंचपरमागम नहीं लिखते तो मिथ्यात्व का निरंकुश शासन और भी चलता रहता। पर आप तो कुंदकुंद के ग्रंथ निकालकर फेंकने को कहते हैं । 1 इस दिशा में समाज के सामने प्रस्तुत कुछ प्रश्न १. क्या साधु के २८ मूलगुणों में यह कार्य बैठता है? 14 जुलाई 2005 जिनभाषित मुनियों को ऐसे शास्त्रनिषिद्ध ग्रंथों का संकलन, रचना, प्रकाशन आदि कार्य तथा मंत्र-तंत्र के प्रयोग करने चाहिए? २. क्या सुबुद्ध श्रावकों को मंत्र-तंत्र, प्रश्न, भविष्य आदि पूछने के लिए मुनियों के पास जाना चाहिए? ३. क्या ऐसे मंत्र-तंत्र वाद को फैलाने वाले मुनियों से चर्चा कर उन्हें सही मार्ग में मोड़ने का काम शास्त्री पंडित, विद्वानों को नहीं करना चाहिए? जिससे मुनिधर्म की रक्षा हो? अगर मुनि न मानें तो उनका खुलकर विरोध नहीं करना चाहिए? धर्म बड़ा है या व्यक्ति ? ४. क्या जैन समाज में पनपती यह अंधश्रद्धा हमें ठीक दिशा में ले जा रही है ? इस दिशा में हमें किस तरह काम लेना चाहिए? ५. क्या मंत्र - तंत्र से सच्चे देव - शास्त्र - गुरु का तथा जैन सिद्धान्तों का श्रद्धान, अध्ययन का भाव होता है? क्या यह नाथपंथी, हठवादी साधुओं की असत् प्रवृतियों का समर्थन नहीं है ? ६. क्या इन मंत्रों द्वारा आत्मकल्याण होता है ? मंत्रतंत्रों का आश्रय लेना क्या कर्मवाद के शाश्वत मूल्यों को झुठलाना मात्र नहीं है? ७. क्या ये मंत्र तंत्र अहिंसा, क्षमा, समता, दया तथा आत्मलीनता इत्यादि सत् - शुभ भावों के अनुकूल एवं वीतरागता के पोषक हैं? ८. क्या सुबुद्ध श्रावकों को, मुनियों को ऐसे ग्रंथ घर से, मंदिर से निकालकर पानी में डुबोकर नष्ट नहीं कर देने चाहिए? जिससे आगे आनेवाली पीढ़ी को असत् प्रवृत्तियों से रोका जा सके, भविष्य में ऐसी कृति जन्म न ले, न ये प्रमाण शेष रहें तथा पवित्र जिनवाणी के पवित्र प्रवाह में घुस आये गंदे नालों का नामोनिशान मिट सके । ९. क्या तथाकथित मुनिनिंदा, शास्त्रनिंदा के मिथ्या भय से हम विकृति या मिथ्यात्व फैलाने / पनपाने का दोष उठायें ? १०. क्या इतने घिनौने वचन सिद्धान्तशास्त्रों के हो सकते हैं ? ११. गणधराचार्य कुंथूसागर जी महाराज, आचार्य श्री गुणधरनंदी जी महाराज तथा उनके संघ के सभी आचार्य, मुनिगणों के चरणों में शत शत वंदन कर मेरा एक विनम्र प्रार्थनाप्रश्न सादर निवेदित है कि वे इस तरह कब तक आ. कुंदकुंद की वाणी को मंदिर से निकालते रहेंगे और वीतरागता को गड्ढे में डालनेवाले इन ग्रंथों का लेखन, संकलन, प्रकाशन आदि कार्य कर ऐसे मंत्र-तंत्रों को घर-घर में और Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिर में स्थापित करते रहेंगे? अथ सति परमाणोरेकवर्णादिभास्वन्, हमारे आगम शास्त्र क्या कहते हैं? निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः। हमारे परमागम में जहाँ तहाँ इसप्रकार के मिथ्या मंत्र इति निजहदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम्, एवं उनके प्रयोग आदि कुप्रवृत्तियों की घोर निंदा की गयी परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः॥ • है। श्रीपद्मप्रभमलधारी देव नियमसार की टीका में कहते हैं अर्थ- यदि एक परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशमान इति विविधविकल्पे पुदगले दृश्यमाने, ज्ञात-होते निज गुण समूह में है, तो उसमें मेरी कोई कार्यसिद्धि न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन्। नहीं है। अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण,रस,गंध आदि अपने कुरु रतिमतुलां त्वं चिमत्कारमात्रे, गुणों में ही है। तो फिर उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध कैसे हो भवति हि परमश्री कामिनीकामरूपः॥३८॥ सकता है? इसप्रकार निज हृदय में मानकर परमसुखपद के अर्थ- विविध भेदोंवाला यह पुदगल दिखायी देने | इच्छुक भव्य जीव आत्मा की एकता को भायें। से हे भव्य शार्दूल!(भव्योत्तम!) तू उसमें रतिभाव न कर। यह उपदेश सभी भव्य जीवों के लिए है। अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मा में अतुल रति कर। जिससे तू | केवल मुनियों के लिए ही नहीं गृहस्थों के लिए भी हैं । परमश्री रूपी कामिनी (मोक्ष लक्ष्मी)का वल्लभ होगा। ऐसे अनेकों संदर्भ दिये जा सकते हैं। हमारा नम्र ___ स्पष्ट है कि स्त्रीवशीकरण के मंत्र से (अगर प्राप्त भी | निवेदन है कि सुबुद्ध मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं हो तो भी) परस्त्रीसेवन हमारे लिए बंध का कारण है। कोई | को चाहिए कि ऐसे जो ग्रंथ खरीदे गये हैं, उन्हें नष्ट करें और दि. जैन साधु ऐसे मंत्र-सेवन का उपदेश दे, तो क्या वह जैन | सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के परम पावन वीतराग धर्म की रक्षा साधुकहलाने के योग्य रहेगा? करें। शुभोपयोग में शुभभावों के हेतुस्वरूप भाव किसी मुनिपद ___आगे नियमसार में उसी अध्याय में ४१ वें श्लोक में | के अविनय का नहीं है। कहा है संपादिका धर्ममंगल' १,सलील अर्पाट.५७ सानेवाडी, आँध-पुणे ४११००७ फोन : ०२०-२५८८७७९३ सम्पादकीय टिप्पणी ___ 'धर्ममंगल' की सम्पादिका, विदुषी लेखिका ने जिनशासन के प्रति भक्ति से प्रेरित होकर निर्भीकतापूर्वक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। आज कतिपय दिगम्बर जैन मुनि स्वयं में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की अलौकिक आभा न जगा पाने के कारण श्रावकों को प्रभावित और आकृष्ट करने के लिए उन्हें मन्त्र-तन्त्र के द्वारा लौकिक कार्यों की सिद्धि का प्रलोभन देते हैं। यह मुनिधर्म के सर्वथा विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे मुनियों को 'लौकिक' कहा है णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि॥ १/६९ प्रवचनसार इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में कहते हैं- "वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थोऽपि दीक्षाग्रहणेन प्रव्रजितोऽपि वर्तते यदि ऐहिकैः कर्मभिः भेदाभेदरत्नत्रभावनाशकैः ख्यातिपूजालाभनिमित्तैयोतिष-मन्त्रवादि-वैदिकादिभिरैहिकजीवनोपायकर्मभिः स लौकिको व्यावहारिक इति भणितः।" अर्थात् वस्त्रादि-परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थदीक्षा ग्रहण कर लेने पर भी जो मुनि ख्याति और पूजा के लिए भेदाभेदरत्नत्रय के विनाशक ज्योतिष, मन्त्रतन्त्र, वैद्यक आदि लौकिक कर्म करता है, उसे आगम में 'लौकिक' (मुनियों की रत्नत्रयात्मक अलौकिक वृत्ति से च्युत सामान्य संसारी मनुष्य) नाम दिया गया है। - विदुषी लेखिका ने मन्त्रतन्त्र प्रयोग पर प्रकाशित हुए जिस नवीन ग्रन्थ की चर्चा की है और उसमें वर्णित मन्त्रों के जो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वे किसी भी विवेकशील जैन के हृदय को जगप्सा से भर देनेवाले हैं। वे जैनधर्म और खिलाफ हैं। उक्त ग्रन्थ और उन जैसे अन्य ग्रन्थ जिन मन्दिर और जैन गृहस्थ के घर में स्थान पाने योग्य नहीं हैं। रतनचन्द्र जैन गया है। - जुलाई 2005 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्मन का चिन्तन स्वयं को सँभाले रखना ही बुद्धिमानी है (प्राचार्य) नरेन्द्र प्रकाश जैन 'जिनभाषित' में हमारी विज्ञप्ति 'अन्तर्मन की पुकार' समझ चाहिए और जहाँ परिस्थिति के बिगाड़ में किसी व्यक्ति छपने के बाद सुधी पाठकों, विद्वज्जनों एवं समाजप्रमुखों के | का सीधा हाथ दिखता हो वहाँ प्रसन्नता टिकाए रखने के लिये अनेक फोन आए। अधिकांश ने २१ मार्च की घटना पर अपनी क्षमा करने की उदारता चाहिए।" कोई किसी से द्वेष क्यों । कुछ ने सम्पादन-दायित्व न छोड़ने का | करे? जो द्वेषभाव रखते हैं, वे स्वयं अपने से/अपने स्वभाव से आग्रह किया। एक विद्वद्वर ने कहा कि यह समय तो सुप्तावस्था दूर होते जाते हैं। कामना तो यही करनी चाहिए कि वे सभी में पड़ी ऊर्जा को प्रज्ज्वलित करने का है। इतनी सारी प्रतिक्रियायें | अपने स्वभाव में लौटें, जो कर्मोदयवश जाने या अनजाने उससे मिलने से यह लगा कि लोग 'जिनभाषित' को कितने चाव से दूर हो गए हैं। पढ़ते हैं। इस लोकप्रिय पत्रिका के माध्यम से अपने सभी जो बाद में छूटना ही है, उसे पहले ही छोड़ देने में हितैषियों के प्रति हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। बुद्धिमानी है। राग-द्वेष आदि भी सदाबहार तो हैं नहीं, एक न 'अज्ञानेन हि जन्तूनां भवत्येव दुरीहितम्' अर्थात् अज्ञान | एक दिन तो छुटेंगे ही। अच्छा यही है कि हम पहले से ही दशा में ही कोई खोटे कर्म करने को प्रवृत्त होता है। फिरोजाबाद उनके चक्कर में न पड़ें। पाण्डवपुराण की यह सूक्ति कितनी की घटना भी ऐसे ही अज्ञान की निष्पत्ति थी। उसे हम एक | सार्थक है- 'गृहीत्वा त्यज्यते यच्च, प्राक् तस्याग्रहणं वरम्' उपसर्ग मानते हैं, क्योंकि उसके पीछे कोई उचित कारण ही | अर्थात् ग्रहण करके जो वस्तु छोड़नी पड़े, उसे पहले ही न लेना नहीं था। जिन बच्चों ने इसका ताना-बाना बुना, क्या वे यह | उत्तम है। जब परिस्थिति ऐसी हो कि उसे बदला न जा सके, चाहेंगे कि इस घटना के प्रसंग में उनका नाम कभी सामने आए? | तब मन:स्थिति को बदलना चाहिए। फिरोजाबाद की घटना के उपसर्ग करने वाले प्रायः अज्ञानी, कायर और डरपोक होते हैं। क्रियान्वयन से किसको कौनसा पुण्य अर्जित हुआ, यह सभी वे अज्ञात घुसपैठियों की तरह अपनी पहचान छिपाकर गरिल्ला | सम्बन्धित लोग सोचें हम व्यर्थ ही इससे चिन्तित होकर क्यों शैली में प्रहार कर लुप्त हो जाते हैं। ऐसे तत्त्वों को प्रेरित या | कर्म-बंध करें? प्रोत्साहित करनेवालों की अपनी स्वयं की कमजोरियाँ भी ऐसे इस घटना से हमारा मन कुछ पलों के लिए हिला तो अवसरों पर सामने आ जाती हैं। हर उपसर्ग किसी पूर्वकृत जरूर है, पर डिगा नहीं है। वटवृक्ष आँधी आने पर हिल जरूर . अशुभोदय या पाप-ऋण का ही परिणाम होता है और उसे | जाता है, पर अपने मूल स्थान से हटने का नाम नहीं लेता। हमें टालने या चुकाने के लिए समता-भाव बनाए रखना और अपने भी उस वृक्ष जैसा ही बनना चाहिए। वैशाख के भीषण ताप को मन को मलिन न होने देना ही एकमात्र उपाय है। सहकर वृक्ष कभी कमजोर नहीं पड़ता। विद्वज्जन भी इस आघात जब हम विचार करते हैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं | से मजबत ही होंगे. इसमें हमें किंचित भी सन्देह नहीं है। कि इस घटना की दो प्रतिक्रियाएँ हो सकती थीं- एक तो यह जिस तरह पानी का पिरामिड या रेत का घड़ा नहीं बन कि जिन बच्चों ने यह शरारत की और जिन बड़ों ने उन्हें इसके सकता, उसी तरह कषायपूरित चित्त में समता-रस नहीं टिक लिए प्रेरित किया, उनके प्रति कोई भी पीड़ित व्यक्ति वितृष्णा से | सकता। हम असंभव को सम्भव बनाने के फेर में अपने जीवन भर उठता और दूसरी यह कि वह मन ही मन उनकी उस [ के अमल्य क्षण क्यों नष्ट करें? हम स्वयं को सँभाले रहें, कमजोरी को समझकर स्वयं को किसी अशुभ प्रतिक्रिया से | बद्धिमानी इसी में है। बचाए रखता। सुधीजनों के लिए दूसरा रास्ता ही हितकर था। आइए, सभी वृद्धजन मिलकर एक सन्त की इन प्रेरक हमारे एक मित्र की सलाह थी -'It is not proper to oppose | एवं अमृतमयी पंक्तियों को नित्य दुहरायेंthe powerful' वैसे एक सत्य यह भी है कि जो अपने नाम 'वैर-विरोध? छल-प्रपंच? और काम से 'पॉवरफुल' समझे जाते हैं, वे भी यदा-कदा दुश्मनी ? दुराचार ? अपनी कमजोरियों का प्रदर्शन कर बैठते हैं। को न मह्यात् धोखाधड़ी? विश्वासघात ? और वह भी जीवन के अन्तिम पलों में एक अनुभवी सन्त-प्रवर का यह कथन दीप-स्तम्भ की ना बाबा, ना! तरह किसी को भी अँधेरे में भटकने से बचा सकता है- "इस कभी नहीं, कभी नहीं !! हर्गिज नहीं, हर्गिज नहीं !!!' जीवन में जो भी अच्छे या बुरे प्रसंग आयें, उनमें दो वस्तुयें १०४, नईबस्ती, फिरोजाबाद, महत्त्वपूर्ण हैं - एक तो समझ और दूसरी क्षमा। कर्म के उदय दूरभाष : (०५६१२) २४६१४६ से जहाँ परिस्थिति बिगड़े, वहाँ स्वस्थता बनाए रखने के लिए 16 जुलाई 2005 जिनभाषित भूतले! Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर-अनुष्ठान : कितना सार्थक ? ब्र. जयकुमार 'निशान्त' भक्तामरस्तोत्र सर्वमान्य एवं अत्यन्त लोकप्रिय भक्ति । से आराधक उस मंत्रशक्ति को प्राप्त नहीं करता जो मूल स्तोत्र है, जिसका कारण है सरल बोधगम्य भाषा एवं यंत्र | संस्कृत पाठ से होती है। वर्तमान में तो आचार्य सोमसेन की तथा साधना-विधिपूर्वक अनुष्ठान से आधि-व्याधि दूर होने | पूजा और आचार्य मानतुंग स्वामी के मूलपाठ को भी अलग का असीम विश्वास। प्रत्येक छंद विशेष प्रयोजन को दर्शाते | करके केवल पद्यानुवाद से ही पूजाविधि करके विधान हैं। इनका भक्तिभावपूर्वक सस्वर शुद्ध पाठ करने से | किया जाने लगा है, विचारणीय यह है क्या फल मिलेगा इस असातोवेदनीय का क्षय एवं सातारूप संक्रमण होने से | अधूरे अनुष्ठान से? मानसिक शांति एवं आरोग्य प्राप्त होता है। यही कारण है वर्तमान में चमत्कारों का विशेष आकर्षण है या कहें कि प्रत्येक श्रावक इसका पाठ नियमित रूप से करता है। | कि कामना के वशीभूत होकर धर्माचरण की प्रक्रिया बलवती भक्तामर स्तोत्र के लगभग १५० पद्यानुवाद उपलब्ध हो गयी है। आज व्रतोपवास, पूजा-पाठ, अनुष्ठान, भक्तामर होते हैं। यह एकमात्र स्तोत्र है जिसका प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, | पाठ, यहाँ तक कि अष्टाह्निका पर्व, पंचकल्याणक जैसे अनुष्ठान मराठी, बंगला, उड़िया, राजस्थानी, अवधी, तमिल, तेलगु, | भी प्रदर्शन के माध्यम बन गये हैं। प्रदर्शन की होड़ में हम कन्नड़, मलयालम के साथ उर्दू, फारसी, जर्मनी एवं अंग्रेजी | मूल क्रियाविधि भी भूल गये हैं। भाषाओं में अनुवाद किया गया है। विशिष्ट अनुष्ठान शुभ तिथि, वार, नक्षत्र एवं लग्न में भक्तामर स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने राजा जपसंकल्प, पात्रशुद्धि, सकलीकरण, स्थलशुद्धि, मण्डप भोज द्वारा ४८ तालों में बंद कारागृह में की थी। भक्ति की प्रतिष्ठा, अभिषेक, शांतिधारा (प्रासुक जल से) पूजन विधान शक्ति से ताले टूटना एवं आचार्यश्री का बाहर विराजमान में प्रयुक्त सामग्री का शोधन शुद्ध ताजा घी, धुले धोती दुपट्टे, मिलना भक्ति का चमत्कार था, जिससे जिनशासन की | साड़ी आदि अखण्ड वस्त्र (पेंट शर्ट, पायजामा, सलवार अत्यधिक प्रभावना हुई और राजाभोज ने मिथ्यात्व छोड़कर | | सूट आदि नहीं) एवं चटाई का प्रयोग ही किया जाना चाहिए। जैनधर्म स्वीकार कर आत्मकल्याण किया। रात्रि भोजन का त्याग, ब्रह्मचर्य का नियम, अभक्ष्य पदार्थों भक्तामर विधान के मूल रचनाकार आचार्य सोमसेन | | का त्याग, संयम साधना, खान-पान की शुद्धि के साथ ही स्वामी हैं। इन्हीं के द्वारा रचित पाठ द्वारा अनुष्ठानविधि एवं | अनुष्ठानविधि फलीभूत होती है। उतावली या शार्टकट क्रिया भक्तामरविधान किया जाता है, जो तीन वलय में ८, १६ एवं | से कुछ भी मिलना संभव नहीं है। क्रियाविधि की अनभिज्ञता २४ काव्यों में वर्णित है। प्रत्येक वलय का अलग-अलग में श्रावक को जितना लाभ नहीं होता. उससे अधिक हानि महार्घ्य है। स्थापना पूजा के साथ जयमाला तथा ४८ ऋद्धिमंत्र | उठाना पड़ती है। के अर्घ्य वर्णित हैं। प्रायः देखा यह जाता है कि पाठ करने वाले भाईयहाँ ध्यान देने योग्य है कि आचार्य सोमसेन के पाठ | बहन मनशुद्धि, वचनशुद्धि एवं कायशुद्धि की जानकारी न के प्रचलित न होने के कारण उनकी पूजाविधि को ग्रहण | होने के कारण जिन वस्त्रों से लघुशंकादि, भोजन एवं गृहस्थ करके उनके छंदों के स्थान पर भक्तामर स्तोत्र के छंद जोड़कर | कार्य करते हैं, उन्हीं वस्त्रों को पहिने हुए पाठ में सम्मलित मिश्रित विधान का निर्माण किया गया है, जो विशेष अनुष्ठान | हो जाते हैं। जबकि धोबी के यहाँ धुले हुए, ड्रायक्लीनिंग एवं साधना की दृष्टि से सर्वथा अनुचित है। किए हुए फैशनेबिल वस्त्र, लिपिस्टिक, नैल पॉलिस, स्प्रे मूल संस्कृत पाठ मंत्र-रूप होने के कारण उसके | प्रसाधन तथा कोशा एवं सिल्क के वस्त्रों का उपयोग अनुष्ठान विधिवत् पाठ से मानसिक शांति, आधि-व्याधि का शमन, । | में नहीं करना चाहिए। रात्रि जागरण हेतु नवयुवक चाय, पर्यावरण सृद्धि, नियमित रूप से होती है। परन्तु पद्यानुवाद | कॉफी, दूध, पान मसालों का भी प्रयोग करते हैं । टेंट हाउस जुलाई 2005 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सामान का प्रयोग भी अधिकांश देखा जाता है जो उचित | क्या-क्या करते हैं? मंत्रित वस्तओं की अवमानना से इसका नहीं है। विपरीत प्रभाव भी देखने में आता है। भक्तामर के संस्कृतपाठ का उच्चारण अत्यन्त शुद्ध विद्वज्जन भी विचार करें! भक्तामर स्तोत्र अलग है होना चाहिए। हिन्दी पाठों को भी मूललय में न पढ़कर | तथा भक्तामर विधान अलग है। अनुष्ठान में इन दोनों को आधुनिक फिल्मी तों में पढ़ने का फैशन जोर पकड़ रहा | साथ-साथ तो पढ़ सकते हैं, किन्तु आधा-आधा अंश लेकर है, जिससे धार्मिक प्रभावना की जगह मानसिक विकृति किसी प्रकार अनुष्ठान नहीं किया जाना चाहिए। यदि केवल उत्पन्न होती है। पाठ करना हो तो भक्तामरस्तोत्र का पाठ करना चाहिए परन्तु अनुष्ठान में आनेवाले के लिए प्रसाद की व्यवस्था, | अनुष्ठानक्रिया तो सोमसेनाचार्य के विधान पूर्वक करना अनिवार्य है। गिफ्ट आयटम (फोटो, पेन, चाबी छल्ले) का वितरण तथा अनुष्ठान के समापन पर मंत्रित छल्ले, कड़े, अंगूठी, यंत्र अखण्डपाठ की परम्परा किस ग्रन्थ या किन आचार्य आदि प्राप्त करना हमारी किस भावना का द्योतक हैं? के अनुसार सम्पादित की जा रही है? शोध का विषय है। ____ यह सही है कि मंत्रानुष्ठान से सभी वस्तुएं मंत्रित हो पुष्य भवन, टीकमगढ़ (म.प्र.) जाती हैं, परन्तु उनको पहिनकर कहाँ-कहाँ जाते हैं एवं सर्वोदय जैनविद्या शिक्षणशिविर सम्पन्न परमपूज्य निर्ग्रन्थाचार्यवर्य, जिनशासन-युग-प्रणेता, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, आचार्य परमेष्ठी, आचार्य भगवन् श्री विद्यासागर जी महामुनिराज की परम शिष्या वात्सल्यमूर्ति आर्यिकारत्न मृदुमति माताजी, आर्यिका श्री निर्णयमति माताजी, आर्यिका श्री प्रसन्नमति माताजी, परम विदुषी बा.ब्र. पुष्पा दीदी (रहली) एवं बा.ब्र. सुनीता दीदी (पिपरई) का धर्मप्राण नगरी आष्टा में १४ अप्रैल २००५ को प्रात:काल धर्मप्रभावना के साथ मंगल प्रवेश हुआ। श्रावकों का उत्साह देखते ही बनता था। भोपाल से विहार के बाद प्रत्येक गांव में आष्टा के श्रावक आते रहे । यहां तक कि सीहोर में आष्टा के श्रावकों ने आर्यिका संघ की आगवानी सीहोर प्रवेश पर की। आष्टा के श्रावकों की देव-शास्त्रगुरु पर अपार श्रद्धा-भक्ति है। विद्यासूत्र एवं भक्तियों पर आर्यिकासंघ के मंगल प्रवचन प्रारंभ हुये। साथ ही महावीर जयंती से ३ मई २००५ तक शिक्षणशिविर का भव्य आयोजन किया गया, जिसमें आर्यिका संघ के द्वारा विभिन्न कक्षाओं का संचालन किया गया। जिसमें सैकड़ों शिविरार्थियों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। कक्षाओं में शिविरार्थियों ने बहुत रुचि ली। शिविर की परीक्षा आयोजित की गई, जिसमें शतप्रतिशत शिविरार्थी उत्तीर्ण हुये और उन्होंने बहुत सराहनीय अंक प्राप्त किये। दिनांक १ मई २००५ को आर्यिकासंघ के सान्निध्य में आष्टा के बड़ेबाबा श्री आदिनाथ भगवान की वेदी पर कलशारोहण का भव्य आयोजन उदासीन-आश्रम इन्दौर के अधिष्ठाता बा.ब्र. अनिल भैयाजी के प्रतिष्ठाचार्यत्व में सानंद सम्पन्न हुआ। दिनांक १० जून से १२ जून २००५ तक किले अंतर्गत मंदिर के दो शिखरों पर कलशारोहण, चौबीसी के शिखरों पर कलशारोहण एवं त्रिमूर्ति वेदी पर कलशारोहण का भव्य आयोजन आर्यिकासंघ के सान्निध्य में आयोजित भगवन्हुआ। अतिशयक्षेत्र के समान किले के दिगम्बर जैनमंदिर में अभूतपूर्व धर्मप्रभावना का वातावरण निर्मित हुआ। __ आर्यिका संघ का आगमन प.पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से हुआ है। आष्टा के समस्त श्रावक प्रसन्न हैं और भावना भाते हैं कि आचार्यश्री की दृष्टि इसी तरह आष्टा पर हमेशा रहे। बा.ब्र. अनिल, भोपाल - 18 जुलाई 2005 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जातित्व का वास्तविक विवेचन पं. सुनील कुमार शास्त्री वर्तमान में सज्जातित्त्व पर बड़ी चर्चायें सुनने में आती । जाति कहते हैं। गौ, मनुष्य, घट, पट, स्तंभ और वैत इत्यादि हैं। कई पत्र पत्रिकाओं में इस विषय पर लेख भी निरन्तर जाति निमित्तक नाम है.... वे जाति पांच प्रकार की है, एकेन्द्रिय ★ आते रहते हैं। पू. आर्यिका विशुद्धमति तथा पू. आर्यिका जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय स्याद्वादमति माताजी के ट्रेक्ट भी इस संबंध में प्रकाशित जाति । हुये हैं। मुझे सज्जातित्त्व के संबंध में विशेष जानने की जिज्ञासा वर्षों से थी। मैंने जब गौर से उपरोक्त लेख और पुस्तिकाओं को पढ़ा तो पाया कि सज्जातित्त्व पर आगम संबंधी कोई चर्चा उसमें नहीं है । और की बात तो जाने दें, सज्जातित्त्व शब्द की आगमिक परिभाषा तक उसमें नहीं है। इसी कारण यह लेख लिख रहा हूँ । आजकल देखने में आता कि यदि कोई गोलापूर्व जैन भाई, यदि परवार जैन भाई के साथ शादी संबंध कर ले तो उसे जाति संकर तथा सज्जातित्त्व का नाश करने वाला कहा जाता है और उसे मुनि संघों को आहार देने तथा प्रमुख धार्मिक कार्यों से वंचित भी रखा जाता है। यह सब देखकर मैं यह लेख समाज के समक्ष इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ कि सज्जातित्त्व के संबंध में समाज को वास्तविकता का परिचय मिल सके। १. शब्द व्याख्या क- सज्जातित्त्व सत् + जातित्त्व इन दो शब्दों से मिलकर बना है। आर्यिका विशुद्धमति जी के अनुसार माता के वंश को जाति कहते हैं और जाति की शुद्धता को सज्जातित्त्व कहते 1 ख- आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि ८ / ११ में जाति की परिभाषा इसप्रकार कही है- 'तासु नरकादि गतिस्व व्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जातिः तन्निमित्तं जातिनामा । अर्थ : उन नरकादि (आदि पद से यहाँ तिर्यन्च, मनुष्य तथा देवगति भी लेना चाहिए) गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने रुप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है और इसका निमित्त जातिनामकर्म है । | ग- श्री धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७ - १८ पर कहा है, 'तत्थ जाई तव्भवसारिच्छलक्खण सामण्णं । ..... तत्थ जाइणिमित्तं णाम गो मणुस्स घड पड स्तंभवेत्तादि । अर्थ : तद्भव और सामान्य लक्षण वाले सामान्य को घ- सज्जातित्व शब्द तो शास्त्रों में स्थान-स्थान पर पढ़ने में आता है परन्तु किसी भी आचार्य ने इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं की । सन् २००० में आर्यिका सुपार्श्वमति माताजी का चातुर्मास जयुपर चल रहा था और वे पार्श्वनाथ भवन में विराजमान थीं । मेरे सामने सज्जातित्त्व पर उनकी एक विद्वान से डेढ़ घण्टे तक चर्चा चली । वे विद्वान माताजी से सज्जातित्व की परिभाषा का आगम प्रमाण मांग रहे थे । चर्चा के अन्त में पूज्य माताजी ने स्पष्ट कहा कि, सज्जातित्त्व शब्द की परिभाषा शास्त्रों में कहीं भी नहीं दी गई है। सर्वज्ञ ही जाने । हम तो अपनी गुरु परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया कि सज्जातित्त्व की वर्तमान में लगाई जाने वाली परिभाषा आगम सम्मत नहीं हैं । उपरोक्त संदर्भों से सज्जातित्त्व का यही अर्थ लेना उचित होगा कि जो सदाचरण से युक्त (सप्तव्यसनका त्यागी) तथा नीच व्यापार से रहित है, उसको सज्जातित्त्व गुण वाला मानना या उस परिवार की कन्या से उत्पन्न वंश परम्परा को सज्जातित्त्व गुण से विभूषित मानना चाहिए। खण्डेलवाल - अग्रवाल आदि से यहां जाति का कोई संबंध नहीं जाति के निर्धारण में गुण, कर्म अथवा आकार-प्रकार आदि ही कारण है अर्थात सभी मनुष्य जाति अपेक्षा से तो एक मनुष्य जाति के हैं जैसा कि आ. अमितगति महाराज ने कहा है, ब्राह्मण क्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः । एकैव मानुषीजातिराचारेण विभज्यते ॥ अर्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ तो वास्तव में आचरण पर ही आधारित हैं। वास्तव में तो एक मनुष्य जाति ही है । आचार्य गुणभद्र महाराज ने भी लिखा है, नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । अर्थ : जैसा पशुओं में या तिर्यंचों में गाय या घोड़े आदि का भेद होता है वैसा मनुष्यों में कोई जातिकृत भेद नहीं है । जुलाई 2005 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. जाति क्या है? कात्यायन और भार्गव आदि अनेक गोत्र. नाना जातियाँ तथा हमको यह समझाया जाता है कि जैसवाल जाति | | माता, बहु, साला, पुत्र और स्त्री आदि नाना सम्बन्ध, इनके अलग है और खण्डेलवाल जाति अलग है। जबकि | अलग-अलग वैवाहिक कर्म और नाना वर्ण प्रसिद्ध हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि ये जातियाँ नहीं हैं। जो जैनी भाई | उनके वे सब वास्तव में एक ही हैं । ५-६॥ जेसलमेर में रहते थे, वे जैसवाल कहलाये । तथा जो खण्डेला विश्वकोष अधिकार ५, पृष्ठ ७१८ के अनुसार में रहते थे वो खण्डेलवाल कहलाये। खण्डेलवाल या | आ. जिनसेन के उपदेश से ८२ गाँव राजपूतों के और २ जैसवाल तो उनके निवास स्थान को सूचित करने वाले सुनारों के जैनधर्म में दीक्षित किये गये। उन्हीं से खण्डेलवालों शब्द हैं, जातियां नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि अलग-अलग | के ८४ गोत्र हुए। क्षत्रिय और सुनार जैन खण्डेलवालों में स्थान पर रहने वाले मनुष्यों के खान-पान, ओढ़ाव-पहनाव | रोटी-बेटी व्यवहार चालू हो गया, जो कि अभी भी है। आदि में अन्तर होता है परन्तु जाति तो उनकी मनुष्य ही है।। उपरोक्त सभी प्रमाण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जाति उसमें अन्तर कैसे माना जाये? आचार्य सोमदेव महाराज ने | की अपेक्षा सभी मनुष्य एक जाति के हैं। गोलापूर्व या कहा है, | परवार आदि भेदों का जाति भेद से कोई संबंध नहीं है। विप्रक्षत्रियविद्शूद्राः प्रोक्ता क्रियाविशेषतः। ३. विवाह किससे कौन कर सकता है? जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः।। वर्तमान में यदि कोई गोलापूर्व, परवार से शादी कर अर्थ : क्रियाभेद से ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र ये ले तो हम उस शादी को गलत मान लेते हैं। जबकि जैन भेद कहे गये हैं । जैन धर्म में अत्यन्त आसक्त हुए वे सब | शास्त्रों में ऐसी एक भी पंक्ति देखने को नहीं मिलती। आचार्य परस्पर भाई-भाई के समान हैं। जिनसेन महाराज ने आदिपुराण में इसप्रकार कहा हैआचार्य देवसेन महाराज ने कहा है, शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः । एहु धम्म जो आयरइ, वंभणु सुइवि कोइ। वहेत्स्वां ते च राजन्यः द्विजन्मा क्विचिच्च ताः॥ सोसावहु, किंसावयहंअण्णु कि सिरिमणि होइ।। अर्थ : शूद्र को शूद्र की कन्या से विवाह करना अर्थ : इस जैनधर्म का जो भी आचरण करता है वह | चाहिये, वैश्य-वैश्य की तथा शूद्र की कन्या से विवाह कर चाहे ब्राह्मण हो, चाहे शूद्र या कोई भी हो, वही श्रावक | सकता है, क्षत्रिय अपने वर्ण की तथा वैश्य और शूद्र की (जैन) है। क्योंकि श्रावक के सिर पर कोई मणि तो लगा | कन्या से विवाह कर सकता है और ब्राह्मण अपने वर्ण की नहीं रहता। आचार्यों का इतना स्पष्ट उल्लेख मिलने पर भी | तथा शेष तीन वर्ण की कन्यायों से भी विवाह कर सकता है। हम गोलापूर्व और परवार में भिन्न जाति कैसे मानते हैं? वरांग | श्री सोमदेव सूरि ने भी नीतिवाक्यामृत में इसी तथ्य चरित्र में तो आचार्य जटासिंहनन्दी ने तो स्पष्ट कहा है : । | का पूर्ण समर्थन किया है। हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन फलान्यथोदुम्बरवृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि। ने स्वयंवर द्वारा विवाह में अपनी पूर्ण स्वीकृति इसप्रकार रुपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या॥ ४ ॥ | प्रदान की हैये कौशिकाः काश्यपगोतमाश्च कौडिन्यमाण्डव्यवशिष्ठ गोत्राः। कन्या वृणीते रुचिरं स्वयंवरगता वरं । आत्रेयकौत्साङ्गिरसाःसगार्या मोद्गल्यकात्यायन भार्गवाश्च ॥५॥ कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे। गोत्राणि नानाविधजातयश्च मातृस्नुषामैथुनपुत्रभार्याः । अर्थ : स्वयम्वरगत कन्या अपने पसन्द वर को वैवाहिक कर्म च वर्णभेदः सर्वाणि चैक्यानि भवन्ति तेषाम्॥६॥ | स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या अकुलीन । अर्थ : जिसप्रकार सभी उदुम्बर वृक्षों के ऊपर, नीचे | कारण कि स्वयम्वर में कुलीनता अकुलीनता का कोई नियम और मध्यभाग में लगे हुए फल,रुप और स्पर्श आदि की | नहीं होता। अपेक्षा समान होते हैं उसीप्रकार एक से उत्पन्न होने के इतना स्पष्ट कथन हुये भी जो लोग कल्पित उपजातियों .. कारण उनकी जाति भी एक ही जाननी चाहिए॥ ४ ॥ लोक में गोल । लाक | में (गोलापूर्व, परवार आदि में) विवाह करने में भी धर्म में यद्यपि जो कौशिक, काश्यप,गौतम, कौडिन्य, कर्म की हानि समझते हैं. उनको उपरोक्त आगम के अनसार माण्डव्य,वशिष्ठ,आत्रेय, कौत्स, आङ्गिरस, गार्म्य, मोद्गल्य, | अपनी धारणा तुरन्त बदल देनी चाहिए। 20 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. आहार देने की योग्यता है. राजा मधु ने वटपर नगर में अपने अन्तर्गत राज्य करने कुछ लोग ऐषणा समिति के अन्तर्गत पिण्ड शुद्धि वाले राजा वीरसेन की चन्द्राभा नामक रानी को छलपूर्वक अधिकार का आश्रय लेकर विभिन्न जातियों में वैवाहिक | अपने यहाँ बुला लिया। बाद में उसके साथ शादी भी कर संबंध करने वालों को अयोग्य मानते हैं। जबकि मुलाचार | ली। बाद में उसने अपनी रानी चन्द्राभा के साथ मनिराज को आदि किसी भी ग्रंथ में दायक आदि दोषों के अन्तर्गत | आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। अन्तर्जातीय विवाह करने वालों को कहीं भी गलत नहीं ग- आराधना कथाकोष की ६६वीं कथा के अनुसार, बताया गया है। श्रीमूलाचार की अनगार भावना में तो स्पष्ट | अग्नि नामक राजा ने अपनी कृतिका नामक पुत्री पर आसक्त कहा है - होकर उससे संबंध स्थापित किया और उससे उत्पन्न कार्तिकेय अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेसु। नामक पुत्र ने एक मुनिराज से मुनि दीक्षा ग्रहण की। ये घरपंतीहिं हिंडति य मोणेण मुणी समादिति ॥८१५ ॥ | कातिकय नामक मुनि महान् प्रासद्ध कार्तिकेय नामक मुनि महान् प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। अर्थ : वे साधु नीच, उच्च या मध्यम कुलों में गृह घ- सुदर्शनोदय नामक सेठ सुदर्शन की कथा के पंक्ति से मौन पर्वक भ्रमण करते हैं और अजात तथा अनजात | अनुसार, सेठ सुदर्शन ने मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। एक भिक्षा को ग्रहण करते हैं। वेश्या ने उनकी सुन्दरता पर रीझकर उनका अपने निवास यही कारण है कि मूलाचार आदि में पिण्डशुद्धि आदि | स्थान पर अपहरण करा लिया। सभी काम चेष्टा करने के बाद भी जब वह हार गई तब उसने विरक्त होकर उन्हीं मुनि प्रकरण के अन्तर्गत किसी गृहस्थ को जाति या कुल के | सदर्शन से आर्यिका दीक्षा धारण की । आधार पर आहार देने के लिए अपात्र नहीं ठहराकर अन्य | सुपर कारणों से उसे अपात्र ठहराया है। इन सब आगम प्रमाणों पर उपरोक्त कथानकों पर यदि पूर्वाग्रह छोड़कर विचार पक्ष छोडकर यदि विचार किया जाये तो अन्तर्जातीय विवाह किया जाये तो वर्तमान सज्जातित्त्व संबंधी सभी मानी जाने करन वाला का साधु के लिए आहार देने से कैसे वंचित | वाली परिभाषाएं चूर-चूर हो जाती हैं। जैन शास्त्रों में तो किया जा सकता है। जैन शास्त्र तो अन्य वर्ण वालों को भी, धर्माचरण के संबंध में उपरोक्त कथानकों के अनुसार अत्यंत योग्य आचरण होने पर 'उच्च वर्ण वाला' स्वीकार करते हैं।। उदारता वर्णित है। अत: हमें सज्जातित्त्व की वर्तमान परिभाषा जैसे सागारधर्मामृत में कहा है 'अध्याय २/२२' पर अच्छी प्रकार विचार करना चाहिए। शद्रोप्यपस्कराचारवपः शयास्त तादशः।। ६. क्या अन्तर्जातीय विवाहवालों को आहार देने से जात्या हीनोऽपिकालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक्॥ वंचित करना उचित है अर्थ : कोई शूद्र भी, यदि उसका आसन, वस्त्र, इस संबंध में यदि विचार करें तो हमें आगम के आचार और शरीर शुद्ध है तो वह ब्राह्मणादि के समान है। | निम्न प्रमाणों पर अवश्य ध्यान देना होगा। तथा जाति से हीन (नीच)होकर भी कालादि-लब्धि पाकर जातिदेहाश्रिता दष्टा देह एव आत्मनो भवः। वह धर्मात्मा हो जाता है। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहः ॥८८॥ ५. कुछ शास्त्रीय उदाहरण जाति-लिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । क- श्री हरिवंशपुराण सर्ग १४-१५ में एक कथा । तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः ।। ८९॥ आती है,जिसके अन्तर्गत कौशाम्बी के राजा सुमुख ने आसक्त अर्थ : जाति देह के आश्रय से देखी गई है और होकर वीरक नामक वैश्य की पत्नी वनमाला को अपने | आत्मा का संसार शरीर ही है, इसलिए जो जातिकृत आग्रह महल में बुलाकर उसके साथ शादी कर ली। एक दिन राजा | से युक्त हैं,वे संसार से मुक्त नहीं होते। ८८ ॥ ब्राह्मणादि सुमुख और वनमाला ने तपोनिधान वरधर्म नामक मुनिराज | जाति और जटाधारण आदि लिंग के विकल्परुप से जिनका को भक्तिभाव से आहार कराया, जिस उत्तम दान के | धर्म में आग्रह है वे भी आत्मा के परम पद को नहीं प्राप्त होते फलस्वरुप वे मरकर विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर --विद्याधरी हैं ॥ ८ ॥ हुए। उपरोक्त प्रमाण यह स्पष्ट कर रहा है कि जाति संबंधी ख- श्री हरिवंशपुराण सर्ग ४३ में एक कथा इसप्रकार | आग्रह को जैनधर्म में कोई स्थान नहीं है। फिर भी यदि कोई जुलाई 2005 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु किसी अन्तर्जातीय विवाह वालों से आहार लेने का । जानना चाहिये कि यह तो सर्वमान्य सत्य है कि यदि कोई विरोध करते हैं या कुछ समाज के बड़े लोग, गोलापूर्व और संघ परंपरा या गुरु परंपरा आगम सम्मत न हो तो उसे आगम परवार जाति का आपस में संबंध होने पर, आगम से कोई | के अनुसार सुधार कर लेना चाहिए। संघ परम्परा को मार्ग भी विरोध दिखाई न देने पर भी, उनके दान आदि में बाधा | नहीं कहा जा सकता, जबकि आगम परम्परा ही मार्ग है। डालते हैं,तो उनको रयणसार ग्रंथ की निम्न गाथा अवश्य | चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज ने अपने दीक्षा देख लेनी चाहिए: गुरु देवेन्द्रकीर्ति महाराज से दीक्षा अवश्य ली थी, परन्तु खयकुद्दसूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसिरो।। | उनकी परम्पराओं को स्वीकार नहीं किया। अन्त में जब सीदुण्हवाराई पूजादाणन्तरायकम्मफलं ॥ ३३ ॥ | देवेन्द्रकीर्ति महाराज ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य से अपनी अर्थ : किसी के पूजन और दान-कार्य में अन्तराय पूरी चर्या गलत मानते हुये पुनः मुनिदीक्षा धारण की तब गुरु करने से (रोकने से )जन्म जन्मान्तर में क्षय, कुष्ठ, शूल, परम्परा पीछे रह गई और आगम परम्परा का जय-जयकार हुआ। अत: यदि कोई संघ परम्परा आगम के अनुसार उचित रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना आदि रोग नहीं बैठती है तो उसे स्वीकार करने में रन्च मात्र भी हिचक तथा शीत, उष्ण के आताप सहने पड़ते हैं और कुयोनियों में नहीं करनी चाहिए। परिभ्रमण करना पड़ता है। ____ मैंने यह लेख बड़ी सद्भावना पूर्वक लिखा है। आशा ७. संघ परम्परा और आगम परम्परा में श्रेष्ठ कौन है ? है सभी पाठकगण, पूर्वाग्रह से मुक्त होकर इस लेख का - कुछ साधुगण, सज्जातित्त्व की परंपरा का अपनी संघ पठन और चिन्तन करेंगे और अपने विचारों को आगम के परंपरा के अनुसार पालन करने में धर्म मान रहे हैं। उनको | अनुसार बनायेंगे। 'वर्णी विचार' का लोकार्पण सागर (म.प्र.)। "पूज्य गणेश प्रसार वर्णी संत थे, जिन्होंने अपने कल्याण के लिए तो साधना की ही, परकल्याण और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए भी अपना जीवन समर्पित कर दिया।" उक्त उद्गार अवधेश प्रताप सिंह, विश्वविद्यालय, रीवा के कुलपति माननीय डॉ. ए.डी.एन. बाजपेयी ने 'वर्णी-विचार' पुस्तक का लोकार्पण करते हुए व्यक्त किया। डॉ. बाजपेयी श्री गणेशप्रसाद वर्णी, संस्कृत महाविद्यालय, मोराजी, सागर की स्थापना के १०० वर्ष पूरे होने पर आयोजित त्रिदिवसीय समारोह के समापन समारोह पर बोल रहे थे। पूज्य मुनि श्री अजितसागरजी महाराज एवं ऐलक निर्भयसागरजी महाराज के सान्निध्य में शताब्दी-समारोह एवं अखिलभारतवर्षीय दिगंबर जैन विद्वतपरिषद का अधिवेशन आयोजित किया गया। लोकार्पित कृति 'वर्णी विचार' का परिचय देते हुए डॉ. कपूरचन्द जैन खतौली ने कहा कि वर्णीजी द्वारा रचित अधिकांश साहित्य का प्रकाशन हो चुका है, किन्तु उनकी डायरियों का प्रकाशन नहीं हुआ। 'वर्णी विचार' में वर्णीजी की १९३८ की डायरी प्रकाशित की गई है। अन्य वर्षों की डायरियों का प्रकाशन भी शीघ्र होगा, ऐसी आशा है। 'वर्णी विचार' का संपादन ब्र. विनोद जैन और ब्र. अनिल जैन ने किया है। इसका प्रकाशन सिंघई सतीशचन्द्र केशरदेवी जनकल्याण संस्थान, नैनागिरि ने किया है। ज्ञातव्य है कि उक्त संस्थान की स्थापना श्री सुरेश जैन, आई.ए.एस. ने की है। इस संस्थान द्वारा अहिंसा, विश्वशांति, शाकाहार को बढ़ावा देनेवाले अनेक कार्यक्रम तो संचालित हैं ही, साथ ही नैनागिरि में जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का संचालन हो रहा है। यह पुस्तक निम्न स्थानों से प्राप्त की जा सकती है- (१) ब्र. विनोद कुमार जैन, श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र, पपौरा जी जिला टीकमगढ़, म.प्र. (२) श्री सुरेश जैन आई.ए.एस., ३०, निशात कॉलोनी, भोपाल, म.प्र.-४६२ ००३ । डॉ. संगीता जैन, भोपाल 22 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता : श्री सतीश जैन,पिपरई और वे ही प्रथम गणधर बने।) जिज्ञासा : श्री आदिपुराण २४ /१६८ के अनुसार | इसप्रकार भगवान् आदिनाथ के समक्ष की चर्चा जब बिना गणधर की उपस्थिति के,भरत जी के पूछने पर | देखकर अब भगवान वर्धमान के समक्ष की चर्चा पर विचार दिव्यध्वनि खिर गई थी, तब फिर भगवान महावीर के करते हैं : श्री वीरवर्धमान चरित (श्री सकलकीर्ति विरचित) समवशरण में बिना गणधर के क्यों नहीं खिरी? | में १५/८०-८२ में इसप्रकार कहा है, 'तब इन्द्र ने, बार-बार समाधान : तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि गणधर का अभाव | प्रार्थना करने पर भी दिव्यध्वनि न होने पर अपने अवधिज्ञान होने से नहीं खिरती है। श्री धवला पुस्तक ९, पृष्ठ १२० पर से गणधर पद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृन्द को कहा है कि, 'गणधर का अभाव होने से दिव्यध्वनि की जानकर विचार किया कि , अहो, इन मुनिश्वरों के मध्य में प्रवृत्ति नहीं होती है।' अब प्रश्न है कि तो फिर गणधर प्रभु ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हत् मुख कमल से कौन और कैसे बनते हैं? इसके समाधान में कषायपाहुड़ निर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशांग श्रुत १/७६ में इसप्रकार कहा है-'सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं की संपूर्ण रचना को शीघ्रकर सके और गणधर के पद के मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे। योग्य हो(वास्तविकता यह थी जिसने भगवान् के पादमूल में साहावियादो। ही महाव्रत स्वीकार किया है, उसके ही निमित्त से उसको प्रश्न : जिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार सम्बोधनार्थ प्रथम दिव्यध्वनि होती है । पूर्व दीक्षित मुनिराज किया है, ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि गणधर नहीं बनते।)तब वह गौतम ब्राह्मण के पास गया और क्यों नहीं खिरती ? उनको समवशरण में लाया। समवशरण में प्रविष्ट होकर वहाँ विराजमान भगवान् वर्धमान को उस द्विजोत्तम गौतम ने उत्तर : ऐसा ही स्वभाव है ।' देखा और श्री वीर वर्धमान चरित्र अधिकार-१६, श्लोक नं० भावार्थ : भगवान की दिव्यध्वनि सर्वप्रथम उस व्यक्ति २ से २५ तक के अनुसार भगवान वर्धमान से विभिन्न प्रश्न की समवशरण में उपस्थिति होने पर होती है, जो अभी तो पूछते हुये दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश देने की प्रार्थना की।(यहाँ अव्रती अवस्था में है, परन्तु भगवान का उपदेश सुनकर, महाव्रत भी गणधर बनने की योग्यता रखने वाले व्यक्ति की अव्रती स्वीकार करके, गणधर बनने की योग्यता रखता हो। इसको अवस्था में उपस्थित हो जाने पर प्रथम दिव्यध्वनि हुई। तब अब प्रथमानुयोग से देखते हैं। आदिपुराण २४/७९ में कहा है भगवान ने दिव्यध्वनि से उपदेश देना प्रारम्भ किया। ' कि महाराजा भरत ने प्रार्थना की कि हे भगवन, तत्त्वों का पश्चात इसी ग्रन्थ के अधिकार-१८, श्लोक नं० १४८-१५० विस्तार. मार्ग और उसका फल, मैं आपसे यह सब सुनना में कहा है कि, "दिव्यध्वनि सुनकर मिथ्यात्व को छोड़कर चाहता हूँ। महाराजा भरत का प्रश्न समाप्त होने पर भगवान प्रबोध को प्राप्त उस गौतम ने अपने दोनों भाईयों तथा ५०० की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी। (यहाँ यह स्पष्ट है कि उस समय भरत के छोटे भाई वृषभसेन अव्रती अवस्था में | छात्रों के साथ तुरन्त जिनमुद्रा धारण कर ली और प्रथम गणधर कहलाये।' उपस्थित थे।) आदिपुराण २४/१७१-१७२ में कहा है, 'उसी समय जो पुरिमताल नगर का स्वामी था, भरत का छोटा भाई उपरोक्त दोनों प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान् था, पुण्यवान,विद्वान.शरवीर.पवित्र धीर. स्वाभिमान करने वालों की प्रथम दिव्यध्वनि तो गणधर की अनुपस्थिति में,परन्तु में श्रेष्ठ, श्रीमान्,बुद्धि के पार को प्राप्त अतिशय बुद्धिमान और | गणधर बनने की योग्यता रखने वाले व्यक्ति की उपस्थिति जितेन्द्रिय था तथा जिसका नाम वृषभसेन था, उसने भगवान् | | में ही होती है। उसके होने पर वह व्यक्ति वहीं दीक्षा धारण के समीप सम्बोध पाकर दीक्षा धारण की और उनका पहला कर प्रथम गणधर पद को प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिए जब गणधर हो गया ।' (यहाँ यह स्पष्ट है कि भगवान की प्रथम तक गणधर बनने की योग्यता रखने वाले गौतम ब्राह्मण देशना होने पर समवशरण में अव्रती अवस्था में उपस्थित | समवशरण में नहीं आए तब तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। वृषभसेन ने, भगवान के पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया प्रश्नकर्ता : श्री पद्मकुमार जैन, बरहन जुलाई 2005 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा : वर्तमान में जम्बूदीप के भरतक्षेत्र में | समाधान : आपके प्रश्नों का उत्तर तिलोयपण्णत्ति द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या बतायें? के अनुसार इसप्रकार है, भवनवासी शब्द ही यह बता रहा है समाधान : द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन उपशम श्रेणी | कि ये देव भवनों में अर्थात् महलों में निवास करते हैं, चढ़ने में प्रवृत्त मुनिराजों के ही उत्पन्न होता है। वर्तमान विमानों में नहीं। इनके निवास स्थान तीन प्रकार के होते हैं । पंचमकाल में भरतक्षेत्र में उपशम श्रेणी आरोहण की योग्यता १. भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी के खर एवं पंक भाग में . जो भवन बने हैं, वे भवन कहलाते हैं। प्रथम तीन उत्तम संहननों के होने पर ही संभव है,जबकि २. भवनपुर : मध्यलोक में द्वीपसमुद्रों के ऊपर जो पंचमकाल में तीन हीन संहनन ही पाये जाते हैं। अतः जब | भवन बने हैं, वे भवनपुर कहलाते हैं। किसी भी मनुष्य में या मुनिराज में उपशमश्रेणी आरोहण ३. आवास : तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर की योग्यता ही नहीं है,तब द्वितीयोपशम सम्यक्त्व किसी | जो भवन बोके आवास कहलाते हैं। असरकमार देवों के भी जीव को कैसे हो सकता है। श्री लब्धिसार २/४२ में | तो केवल भवनरुप ही निवास स्थान होते हैं,भवनपुर और इसप्रकार कहा है, 'उपशम श्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्व आवास नहीं होते। अन्य नौ भवनवासी देवों के किन्हीं के तें जो उपशम सम्यक्त्व होय ताका नाम द्वितीयोपशम है।' | तीनों में से कोई भी आवास होते हैं। अत: उपशमश्रेणी आरोहण की योग्यता किसी भी जीव में __ इन भवनों की लम्बाई-चौड़ाई जघन्य से संख्यात संभव न होने के कारण, वर्तमान पंचम काल में जम्बूदीप योजन और उत्कृष्ट से असंख्यात योजन होती है। वे समस्त के भरतक्षेत्र में द्वितीयोपशम सम्यक्त्वीयों की संख्या भवन चौकोर होते हैं, उनकी ऊँचाई ३०० योजन होती है। शून्य माननी चाहिए। प्रत्येक भवन में १०० योजन ऊँचा एक पर्वत होता है जिस प्रश्नकर्ता : सौ. स्मिता जवाहरलाल दोशी, बारामती पर एक चैत्यालय होता है। समस्त भवनों की भूमि और जिज्ञासा : उदयावली, प्रत्यावली, अचलावली तथा | दीवारें रत्नमयी होती हैं। ये भवन अत्यन्त रमणीय, सतत् बन्धावली की परिभाषा बताईये ? प्रकाशमान रहने वाले तथा इन्द्रियों को सुख देने वाली चन्दन समाधान : आपकी करणानुयोग में विशेष रुचि आदि बस्तुओं से सिक्त होते हैं। भवनवासियों के कुल भवनों प्रशंसनीय है। आप यदि करणानयोग दीपक भाग १.२ व ३ | की संख्या ७ करोड ७२ लाख है। इसीलिए उनसे संबंधित । (पं0 पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा विरचित)का स्वाध्याय चैत्यालयों की संख्या इतनी ही कही जाती है। कर लें तो आपके ऐसे सभी प्रश्नों का समाधान हो जायेगा। जिज्ञासा : आबाधाकाल किसे कहते हैं और किस सभी प्रश्न गोम्मटसार कर्मकाण्ड पर आधारित हैं और | कर्म का कितना आवाधाकाल होता है ? करणानुयोग दीपक में इनकी परिभाषा इसप्रकार दी है : समाधान : बन्ध को प्राप्त कर्मवर्गणायें जब तक उदयावली : आबाधाकाल के अनन्तर प्रथम आवली उदय एवं उदीरणा रुप होने के योग्य नहीं होती हैं तब तक में स्थित निषेकों की आवली को उदयावली कहते हैं। के काल को आवाधाकाल कहते हैं। जैसे कोई कर्म एक प्रत्यावली : उपरोक्त प्रथम आवली के उपरान्त कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का बांधा गया । वह कर्म १०० आगे की आवली को द्वितीयावली या प्रत्यावली कहते हैं। वर्ष तक उदय एवं उदीरणा के अयोग्य होता है। तो यह अचलावली : प्रकृतिबंध होने के पश्चात् एक १०० वर्ष का काल आवाधाकाल होगा। आवली काल तक उन बांधे गये कमों की किस कर्म की कितनी आवाधा होती है इसका विचार उदय,उदीरणा,अपकर्षण,उत्कर्षण या संक्रमण नहीं होता | उदय और उदीरणा की अपेक्षा से दो प्रकार से करेंगे। उदय है। इस आवली को अचलावली अथवा आवाधावली अथवा की अपेक्षा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की आवाधा, बंधावली भी कहते हैं। एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति पर १०० वर्ष के अनुपात जिज्ञासा : भवनवासी देवों के क्या विमान नहीं से लगानी चाहिये। अर्थात् यदि कोई कर्म १० कोड़ाकोड़ी . होते, वे भवनों में ही रहते हैं, उनके भवन किसप्रकार के सागर स्थिति का बंधा है तो वह १००० वर्ष तक उदय में होते हैं? नहीं आएगा, यह उसका आवाधाकाल हआ। जिन कर्मों की 24 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति अन्त:कोडाकोडी सागर प्रमाण होती है, उनकी आवाधा समाधान : कासनगाँव अतिशय क्षेत्र अभी नवीन ही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जाननी चाहिए। आयुकर्म की आवाधा, | प्रसिद्धि में आया है, यह जिला-गुड़गाँव, हरियाणा में स्थित आयुकर्म के बंध के पश्चात् शेष बची हुई भुज्यमान आयु | है। दिल्ली-जयपुर हाइवे से गुड़गांव पहुंचने पर वहाँ से २० प्रमाण कही गई है। अर्थात् यदि किसी एक करोड़ पूर्व की | कि.मी. दूरी पर स्थित है । क्षेत्र समतल है, सिर्फ एक आयु वाले जीव ने, आयु का त्रिभाग शेष रहने पर आयुकर्म | जिनालय है। २६ अगस्त १९९७ को खुदाई में भगवान् का बन्ध किया तो उस आयुकर्म की आवाधाकाल शेष बचे पार्श्वनाथ की ४ तथा भगवान् मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, हुए एक करोड़ पूर्व के त्रिभाग प्रमाण होगी। यह आयुकर्म अभिनन्दननाथ, अनन्तनाथ तथा आदिनाथ भगवान् की एककी उत्कृष्ट आवाधा कहलाती है। आयुकर्म की जघन्य | एक प्रतिमा प्राप्त होने से ही यह तीर्थ प्रसिद्धि में आया। ये आवाधा, असंक्षेपाद्धाकाल प्रमाण कही गई है। सभी मूर्तियां १३वीं-१४वीं शताब्दी की अष्टधातु की हैं। ___उदीरणा की अपेक्षा समस्त कर्मों की आवाधा एक खुदाई में कुछ चरण और यन्त्र भी प्राप्त हुए हैं। सभी आवली प्रमाण होती है अर्थात् बंधी हुई कर्म प्रकृति की एक | मूर्तियां अत्यन्त मनोहर और दर्शनीय हैं । मूर्तियों की विधिवत् अचलावली के बाद उदीरणा होना संभव है। विशेष यह है शद्धि एवं प्रतिष्ठा कराके विराजमान करा दिया गया है। प्रतिदिन कि आयुकर्म के संबंध में, परभव संबंधी आयु की उदीरणा सैकड़ों यात्री दर्शनार्थ आने से यह क्षेत्र अत्यंत प्रसिद्ध हो नहीं होती,मात्र वर्तमान भुज्यमान आयु की उदीरणा ही संभव | गया है। १/२०५, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा - २८२ ००२ जिज्ञासा : कासनगाँव क्षेत्र कहाँ है.परिचय दीजिएगा? जैन गुरुकुल, मढ़िया जी जबलपुर ने कीर्तिमान रचा मानवीय गुण प्रेम, वात्सल्य एवं त्याग की शिक्षा से ओतप्रोत श्री वर्णी दिगंबर जैन गुरुकुल जहाँ सिर्फ धार्मिकक्षेत्र में छात्रों को भारतीय संस्कृति के प्रतिरूप नैतिक एवं संस्कारवान् शिक्षा प्रदान कर संपूर्ण जबलपुर का देश भर में सिर ऊँचा कर रहा है, वहीं आज विगत दिनों गुरुकुल में पधारे माननीय मुख्यमंत्री श्री बाबूलाल जी गौर के आशीर्वाद को भी सच में बदल दिया। आज जैसे ही इंटरनेट पर गुरुकुल विद्यालय का मा.शिक्ष मण्डल भोपाल द्वारा घोषित परीक्षा परिणाम देखा, तो इतिहास के नालंदा और तक्षशिला के शिक्षा केन्द्रों की याद ताजा हो गई कि वे छात्रों को नैतिक एवं संस्कारवान शिक्षा ही नहीं प्रदान करते थे, बल्कि जीवन की सच्चाइयों से भी परिचित कराकर लौकिक क्षेत्र में उन्हें मजबूत करते थे। तभी वहाँ से निकला प्रत्येक छात्र जीवन की ऊँचाइयों को अवश्य छूता था। वही इतिहास दुहराने की प्रथम सीढ़ी पर आज गुरुकुल कदम रख रहा है। विद्यालय जहाँ विगत ५ वर्षों से १०० प्रतिशत परीक्षा परिणाम दे रहा है वहीं इस वर्ष विद्यालय के छात्रों ने एक कीर्तिमान रच दिया कि हायर सेकेण्ड्री परीक्षा में विद्यालय के समस्त छात्रों ने परीक्षा को प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर गौरवपूर्ण कार्य किया है। इससे सिर्फ विद्यालय का ही नहीं बल्कि संस्कारवान् शिक्षा प्राप्त करने के सपने संजोने वाले प्रत्येक व्यक्ति का हौसला बुलंद हुआ है। विश्वास उत्पन्न हुआ है कि मात्र आधुनिकता की दौड़ में पाश्चात्य संस्कृति पर आधारित विद्यालय ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति को अपने हृदय में संजोए विद्यालय भी जीवन की दौड़ में आगे निकल सकते हैं। छात्रों की इस अभूतपूर्व सफलता से समस्त गुरुकुल परिवार एवं छात्रों के परिवारजन हर्षोल्लसित हैं एवं उन्होंने छात्रों को ढेर सारी बधाइयाँ प्रेषित की हैं तथा उनके स्वर्णिम भविष्य की कामना की है। विद्यालयपरिवार ने भी उन्हें आगे शिक्षा प्राप्त करने तक अपने छात्रावास में रहने की एवं उत्कृष्ट अध्यापन व्यवस्था प्रदान करने की घोषणा की है ताकि आगे जाकर ये छात्र भारतीय प्रशासनिक सेवाओं जैसी देश की सर्वोच्च सेवाओं में आसानी से चयनित हो सकें। राजेश कुमार जैन, श्री वर्णी दिगंबर जैन गुरुकुल, पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर -जुलाई 2005 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार जैनों के ही नहीं, जन-जन के थे भगवान महावीर | लिये गौशाला समिति के समस्त पदाधिकारी, ट्रस्टियों को त्रिदिवसीय कार्यक्रम सम्पन्न उनके कुण्डलपुर प्रवास के दौरान गुरुवर आचार्यश्री ने मण्डला (म.प्र.), २२.०४.२००५ । भगवान महावीर मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद प्रदान किया। केवल जैनों के ही नहीं, बल्कि जन-जन के हैं। उनके संदेश इसके पूर्व क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी एवं ऐलक श्री सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए हैं। भगवान महावीर | 1 निश्चयसागर जी महाराज ने अपने उद्बोधन में कहा कि को पाकर मानवता गौरवान्वित हुई है। भारतवर्ष को इस बात आज से २६०५ वर्ष पूर्व ५९९ ई. पूर्व भारतवर्ष के बिहार राज्य स्थित वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर ग्राम में पिता का गर्व होना चाहिए कि उसने तीर्थंकर भगवान महावीर सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला के यहाँ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी (तेरस) जैसा प्रज्ञा-पुरुष इस विश्व को प्रदान किया है। भगवान | | के दिन भगवान् महावीर ने जन्म लेकर आर्यावर्त भारतदेश महावीर ने इस धरती के लोगों को ऐसा दर्शन दिया, जिससे | को धन्य किया था। अहिंसा के अग्रदूत आदिब्रह्मा तीर्थंकर प्रत्येक प्राणी को परमात्मा बनने का मौलिक अधिकार प्राप्त ऋषभदेव की परम्परा के अंतिम शासननायक के रूप में हुआ है। सच्चे अर्थों में वे ऐसे क्रांतिदूत थे, जिन्होंने जीवन के | भगवान महावीर आये। तीर्थंकर महावीर के अवतरित होते प्रत्येक क्षेत्र में क्रांति का संदेश देकर जनजागरण का ऐसा | ही वसुन्धरा पर सुख-शांति/अमन-चैन की स्थिति निर्मित शंखनाद किया था कि सारी सृष्टि ने एक असाधारणप परिवर्तन | हुई। आज राष्ट्र में बढ़ती हुई हिंसा, आतंक, युद्ध की विभीषिका की अनुभूति की थी। उक्ताशय के विचार आचार्य श्री अकाल, महामारी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि के वातावरण विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य पूज्य मुनि श्री में अणुबम नहीं, बल्कि भगवान महावीर के अणुव्रत ही " सुख-शांति प्रदान कर सकेंगे। वर्तमान को वर्धमान की समतासागर जी महाराज ने महावीर जयंती के पावन संदर्भ पर व्यक्त किये। मनिश्री ने कहा कि भगवान महावीर का | आवश्यकता है। कार्यक्रम-स्थल पर जैन-जैनेत्तर समुदाय के हजारों लोग उपस्थित थे, जो मुनिसंघ की वाणी का लाभ मानना था कि मानव क्रोध को शांति से, अभिमान को नम्रता | ले आनंदित हो रहे थे। से, माया को सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीत सकता मुनिश्री १०८ समतासागर जी, ऐलक श्री १०५ है। मानव अपने मन को सदैव वासनाओं से मुक्त रखे, वह | निश्चयसागर जी, क्षल्लक श्री १०५ पूर्णसागर जी महाराज अपने जीवन का एक लक्ष्य, एकविचार सुनिश्चित करे।। के सान्निध्य में मण्डला के इतिहास में पहली बार सर्वोदयी हमारी भारतीय-संस्कृति का इतिहास अत्यंत समृद्ध और | जिनशासननायक भगवान महावीर की जन्मजयन्ती जयसम्पन्न है। भगवान महावीर ने कहा कि प्रेम और करुणा से | जयकारों के उद्घोष के साथ प्रातः ७.३० बजे श्री १००८ रहित जीवन श्मशान के समान है। मुनिश्री ने अंत में सम्यक् | शंतिसागर दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर, महावीर स्वामी मार्ग, आहार, विचार, व्यवहार और व्यापार शद्धि पर जोर देते हये | पड़ाव से भव्य शोभायात्रा प्रारंभ हुई, जिसमें आचार्य श्री गांधी जी के तीन बंदरों की व्याख्या की तथा कहा कि - | विद्यासागर दिगम्बर जैन पाठशाला के नन्हें-मुन्ने बालक बालिकाओं द्वारा मनोज्ञ झांकी, टीलेवाले बाबा एवं जीवन के भगवान महावीर द्वारा निरूपित यदि 'बुरा मत सोचो' का यथार्थ अंतिम सत्य मृत्यु की वैराग्यताप्रद प्रस्तुति की गई। चौथा बंदर अपने पास होता, तो फिर इन तीन बन्दरों की ___ महावीरजयंती के त्रिदिवसीय कार्यक्रम में पहले आवश्यकता ही न पड़ती। शुद्धता के इन सिद्धांतों में चलकर चलकर | दिन जैनसमाज के युवाओं द्वारा प्रभातफेरी एवं अहिंसाआज भी आदिनाथ, श्रीराम और महावीर जैसा बना जा | वाहनरैली निकाली गई। जो दयोदय पश सेवा केन्द्र गौशाला सकता है। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की प्रेरणा व | होते हुए शहर के चारों जिनालयों की वंदना करते हुये ध्वजारोहण उनके आशीर्वाद से निकटवर्ती ग्राम आमानाला में सकल | के साथ सम्पन्न हुई। अगले दिन जैनसमाज द्वारा दयोदय दिगम्बर जैनसमाज मण्डला द्वारा संचालित दयोदय पशुसेवा | स्थिति पशुओं के लिए चारा-पानी एवं समुचित आहारदान सदन दयाधर्म की मिसाल है। इस अवसर पर मनिश्री करते हुए शहर में ठीक ३ बजे भण्डारा कार्यक्रम रखा गया। समतासागर जी ने लोगों से अपने निरीह अशक्त मक पशओं | सांयकालीन आरती, भक्ति एवं स्वाध्याय-सभा सम्पन्न हई। खासकर गायों को, गौशाला में पहुँचाने का आह्वान किया। अंतिम दिन अखिलभारतीय विशाल कविसम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें देश के जानेमाने कवि सम्मिलित पशु-वध रोकने की दिशा में उठाये गये सराहनीय कदम के | 26 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुये। मुनिसंघ की धर्मप्रभावना का एक बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित तब हुआ जब महावीर जयंती की शोभायात्रा और मुनिसंघ की धर्मसभा को शहर के मध्य उदय चौक की बात आई। इस बार मुस्लिम समाज का इस तिथि में ईद का पर्व पड़ जाने के कारण उन्होंने अपनी सभा इसी स्थल पर आयोजित करने की परमीशन प्रशासनिक स्तर पर पहले ही ले ली थी, किन्तु जैनसमाज द्वारा प्रशासन को उस स्थान पर अपना कार्यक्रम दिये जाने पर स्थिति बड़े असमंजस की बन गई। एतदर्थ थाना प्रभारी एवं एस.पी. महोदय ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुये दोनों समुदाय के वरिष्ठ नागरिकों से बातचीत में जैसे ही मुनिसंघ की उपस्थिति का संदर्भ आया तो मुस्लिम बंधुओं ने बड़े ही सौहार्दपूर्वक अपने कार्यक्रम के लिए स्थान परिवर्तन का आशय प्रकट किया और कहा कि महावीर के सिद्धांतों से और जैनमुनियों की तपस्या से हम लोग परिचित हैं उनके प्रति श्रद्धा यही है कि आपका कार्यक्रम उसी स्थान पर सम्पन्न हो । तदानुरूप प्रशासनिक स्तर पर व्यवस्था बनाई गई और दोनों समुदाय के कार्यक्रम जुलूस एक ही रास्ते से निकलते हुए सम्पन्न हुये। अशोक कौछल प्रवचनमाला का ऐतिहासिक आयोजन नयी पीढ़ी को विरासत में केवल धन ही नहीं, धर्म भी प्रदान करें : मुनि १०८ श्री प्रमाणसागरजी महाराज राँची। आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य एवं ओजस्वी वक्ता मुनिश्री १०८ प्रमाण सागरजी महाराज ने तीर्थराज सम्मेदशिखर जी में अल्प प्रवास एवं महती धर्मप्रभावना के उपरांत हजारीबाग, गोमिया, साढ़म, रामगढ़ आदि स्थानों से विहार करते हुए झारखंड की राजधानी राँची में मंगल प्रवेश किया। पूज्य मुनिश्री के साथ ऐलक श्री चेतनसागर जी एवं १०५ श्री सम्यक्त्व सागरजी एवं ब्र. अन्नू भैया, रोहित भैया, राजेन्द्र भैया ने भी मंगल प्रवेश किया । मुनिश्री की अगवानी करने के लिए राजधानी के हजारों जैन एवं जैनेतर लोग उमड़ पड़े। मुनिश्री की अगवानी रांची के लोकप्रिय विधायक सी. पी. सिंह ने की। इस पद - विहार में सैकड़ों लोग मुनिश्री के साथ-साथ सम्मेद शिखर जी से ही चल रहे थे। धीरे-धीरे जैसे मुनिश्री के चरण राँची की ओर बढ़ रहे थे, सैकड़ों की भीड़ हजारों में बदलती जा रही थी। मुनिश्री के नगर - प्रवेश के अवसर पर हजारों पुरुष, महिलायें एवं बच्चे पलकपावड़े बिछाकर अगवानी करने के लिए खड़े हुए थे । आगमनिष्ठ-चर्या के साधक मुनिश्री प्रमाणसागरजी महाराज अपनी अनूठी प्रवचनशैली एवं शब्द-सौष्ठव के लिए विख्यात् हैं । दिगम्बर जैनपंचायत राँची के तत्वावधान में एक ऐतिहासिक “दिव्य-सत्संग एवं प्रवचनमाला" का नौ दिवसीय आयोजन दिनांक १९.०४.२००५ से २७.०४.२००५ तक किया गया। मुनिश्री की मंत्रमुग्ध करदेनेवाली शैली से प्रभावित होकर हजारों जैन-अजैन श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ी। 'दिव्य सत्संग एवं प्रवचनमाला' के प्रथम दिन ध्वजारोहण समस्त पांड्या परिवार द्वारा एवं आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चित्र का अनावरण महावीर प्रसाद जी सोगानी द्वारा एवं मंगल कलश स्थापना श्री माणिक चंद्र जी एवं मोतीलाल जी काला द्वारा किया गया। दीप प्रज्वलन धर्मचंद जी (अध्यक्ष जैनपंचायत, रांची), प्रदीप वाकलीवाल (मंत्री दिगम्बर जैनपंचायत, रांची), माणिकचंद गंगवाल द्वारा सामूहिक रूप से किया गया। प्रवचनमाला में नौ दिनों तक मुनिश्री ने विभिन्न दार्शनिक, सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर मंत्रमुग्ध कर देनेवाली शैली में प्रवचन किये। मुनिश्री ने भगवान महावीर के पंच सिद्धांतों को जन-जन के हृदय में आरोपित कर दिया। जैनसंत ने जन-संत बनकर जीवन के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया । प्रवचनमाला के दौरान ही भगवान महावीर स्वामी की जन्मजयंती पर एक विशेष धर्मसभा आयोजित की गयी, जिसमें मुख्य अतिथि झारखंड राज्य के मुख्यमंत्री श्री अर्जुन मुंडा रहे । मुख्यमंत्री श्री अर्जुन मुंडा ने पूज्य मुनिश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया एवं गौरव तीर्थराज सम्मेद शिखर के विकास हेतु एक विशेष योजना बनाने पर विचार करने का आश्वासन दिया। उन्होंने कहा कि झारखंडा सरकार जैनसमुदाय के लिए हर प्रकार का सहयोग देने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी अवसर पर रीवा विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री ए. डी. एन. बाजपेयी जी भी रीवा (म. प्र. ) से पधारे। उन्होंने अपनी विद्वत्तापूर्ण अभिव्यक्ति करते हुए कहा कि मेरी हार्दिक भावना है कि मैं अगला जन्म किसी जैनपरिवार में लूँ । उपकुलपति जी ने भगवान महावीर के अपरिग्रह के सिद्धांत को दुनियाँ के 'हर मर्ज की दवा' बताते हुए कहा कि जैनसमाज को इस सिद्धांत को केवल आदर्श नहीं, आचरण बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं जैनों से नहीं, जैन संतों से प्रभावित होकर जैनधर्म से जुड़ा हूँ । इस प्रवचनमाला की ख्याति समस्त झारखंड के कोनेकोने में फैल गयी। नौदिवसीय कार्यक्रम में प्रत्येक दिन जुलाई 2005 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झारखंड सरकार के विभिन्न मंत्रियों ने उपस्थित होकर मुनिश्री | रखनेवालों को ड्राइवर में तथा ऑफिस वालों की स्टाफ में से आशीर्वाद प्राप्त किया एवं प्रवचन श्रवण किया। इनमें | रुचि नहीं रहती। अपने शारीरिक सौन्दर्य को निखारने में झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री श्री अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो | अधिकांश लोगों की रुचि ब्यूटीपार्लर की बनी रहती है, (गृह मंत्री), इन्दरसिंहजी नामधारी (विधानसभा अध्यक्ष), लेकिन अपने शीलरूपी अंगार हेतु तप, त्याग आदि में रुचि बाबूलाल जी मरांडी (भूतपूर्व मुख्यमंत्री), जलेश्वर महतो विरलों की ही होती है। जड़ के मामले में जो उत्साह व (पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री), चंद्रप्रकाश चौधरी (भू-राजस्व उमंग तथा समय लगाया जाता है, वैसा उत्साह व उमंग मंत्री), रमेशसिंह मुंडा (समाजकल्याण मंत्री), हरिनारायण आत्म-तत्त्व के लिये नहीं रहता तथा अक्सर समय के अभाव राव (वन मंत्री) आदि मुख्य रूप से उपस्थित हुए। केन्द्रीय | का रोना रोया जाता है। उन्होंने बताया कि ज्ञानी की रुचि खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री श्री सुबोधकांत सहाय भी पूज्य | परमार्थ की ओर रहती है, जबकि अज्ञानी की संसार की मुनिश्री के दर्शनार्थ पधारे एवं मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।। ओर। फिर भी यह कैसी बात है, कि दोनों संसार में रहते दर्शनार्थियों में झारखंड जैन न्यास बोर्ड के अध्यक्ष ताराचंद | नहीं। ज्ञानी संसार में रहते हुए अपने आप में लीन रहता है, जी देवधर भी पधारे। उन्होंने झारखंड राज्य के समस्त जैनतीर्थों | जबकि अज्ञानी संसार में रहते हुये संसारको अपने आप में के विकास हेतु मुनिश्री से चर्चा करते हुए निर्देश प्राप्त किये।| रखता है। अज्ञानी-व्यक्ति का ध्यान जहां राग की ओर रहता इस आयोजन को सफल बनाने में दि. जैन पंचायत राँची के | है, वहां ज्ञानी की रुझान वैराग्य की ओर रहती है। जितना नवयुवकों ने अथक श्रम किया। श्री अरुण गंगवाल (कोषाध्यक्ष | समय मन-वचन-काय से जड़ की ओर लगाया जाता है, जैन पंचायत राँची) एवं निर्मल रारा (सहमंत्री श्री दि. जैन | उसका एक बहुत छोटा-सा भाग अपने आत्म-तत्त्व की पंचायत रांची) के प्रयास विशेष सराहनीय रहे। इस भव्य | ओर लगाने को उन्होंने श्रेयस्कर बतलाते हुये कहा कि आयोजन का मंचसंचालन राष्ट्रीय जैनकवि श्री चंद्रसेन जैन | परिवर्तनशील संसार में रहते हुये जिन्होंने समय को अपनी ने किया। मंगलाचरण पं. पंकज जैन 'ललित' राँची ने किया। | मुट्ठी में कर लिया और अपने आत्म-कल्याण की ओर ___महावीर जयंती पर आयोजित विशेष धर्मसभा में | अग्रसर हुये, उन्हें मुक्तिधाम की ओर बढ़ने से कोई नहीं मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा मुख्य अतिथि के रूप में पधारे। उन्होंने | रोक सकता। एक मूर्ख को समझाना सहज है, पागल को भी मुनिश्री प्रमाणसागरजी से लम्बी चर्चा के उपरांत मंच से | समझदार बनाया जा सकता है जनसमुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि तीर्थराज सम्मेद | दी जा सकती है, लेकिन एक दुर्जन को बुद्धिमान व समझदार शिखर में चौपड़ा कुंड स्थित दि. जैनमंदिर किसी भी हालत में | बनाना कठिन है। दुर्जन का काम तो सज्जनों की टांग खेंचना नहीं तोड़ा जायेगा। इसे विधि प्रक्रिया के अनुसार संरक्षित किया | व अच्छे कार्यों में रोडा डालने का रहता है। बिल्ली तो इंसान जायेगा। का कभी ही रास्ता कांटती है, लेकिन दुर्जन-व्यक्ति सज्जनों पंकज जैन 'ललित',राँची का बार-बार रास्ता काटते हैं। एक उल्लू के कारण ही परेशानी का आलम रहता है, फिर सोचो-हर शाख पर उल्लू मूकमाटी आधारित प्रवचन बैठा हो तो अंजाम गलिस्तां क्या होगा? जिन्हें देव, शास्त्र, गुरु अजमेर १ मई २००५ । परमपूज्या आर्यिकारत्न १०५ | का आशीर्वाद हो तथा अपने गुरु का सम्बल हो, उन्हें ऐसे श्री पूर्णमति माताजी ने परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर | दुर्जनों से घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि गुरु के मंगल जी महाराज की महान कृति 'मूकमाटी' महाकाव्य के आधार | आशीर्वाद से उनके पवित्र मन व संस्कारों के कारण उनके पर अपने मंगल उद्बोधन में कहा कि इस संसार में रहनेवाले | सभी काम निर्विघ्न पूर्ण होते देखे गये हैं। सभी प्राणियों का जन्म व मरण होता है, लेकिन जन्म व कुंडलपुर में विराजमान आचार्य १०८ श्री विद्यासागर मृत्यु के दोनों छोरों के बीच जिन्होंने अपने जीवन के निर्माण | जी महाराज, जिनकी दीक्षा का सौभाग्य अजमेर नगर को की ओर ध्यान दिया, उनका जीवन सार्थक हो जाता है। देखा | मिला एवं उनके गुरु आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज गया है कि जड की पसंदगी में सबकी मास्टरी है, लेकिन | ने एक कुशल जौहरी की त जीव की पसंदगी में घोटाला-ही-घोटाला है। इस दुविधा के | तराशा कि अपनी मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपने इस शिष्य को कारण दुनिया का परिचय व समझ सबको है, लेकिन अपने | ही अपना गुरु बना लिया। अपने उत्कृष्ठ साहस व साधना के स्वयं का परिचय व स्वयं की समझ कुछ को ही है। मोटरगाडी | बल पर आज आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के 28 जुलाई 2005 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजारों शिष्य भारत वसुंधरा में स्थान-स्थान पर धर्म की | साथ गोम्मटसार जीवकाण्ड के संक्षिप्तस्वरूप करणानयोग ध्वजा फहरा रहे हैं और लाखों लोगों को सन्मार्ग में चलने का दीपक भाग-१ पर चालीस शिविरार्थियों द्वारा अच्छी तरह मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। उन्हीं आचार्य श्री को नमन करते हये अध्ययन किया गया। इस कथा को स्वयं अधिष्ठाता श्रीमान उन्होंने बतलाया, कि आचार्य विद्यासागर दीक्षा-स्थली पर । रतनलाल बैनाडा ही लेते थे। शिविर में लगभग २५० स्मृति-स्तुप की अपेक्षा अपने गुरु आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागर शिविरार्थियों ने भाग लिया। यहाँ भी प्रात: ४५ मिनिट का ध्यान केन्द्र के निर्माण का आशीर्वाद प्रदान कर आचार्यश्री ने | योग का प्रिशिक्षण दिया जाता था जो बारामती-प्रवासी डॉ. अपने गरु के प्रति अपने श्रद्धा के भावों को प्रस्फटित किया। सुधीरकुमार शास्त्री ने दिया। दिनांक १ जन से १० जन आर्यिकाश्री ने जात-पात व पंथ व्यामोहों से दर रहकर सभी २००५ तक औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में प्रथमवार शिविर को इस मंगलमय पुनीत कार्य में अपना सहयोग प्रदान कर | आयोजित किया गया, जिसमें लगभग ३५० शिविरार्थियों ने अपना जीवन धन्य करने का आशीर्वाद प्रदान किया। इस भाग लिया। औरंगाबाद में इस प्रकार का यह अद्भुत संबंध में प.पू.मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज का शिक्षणशिविर रहा, जिसकी सम्पूर्ण समाज ने बहुत सराहना मंगल आशीर्वाद भी प्राप्त हो गया है। इसे हजारों वर्षों तक और प्रशंसा की। इस शिविर में अधिष्ठाता महोदय के अलावा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये इस कार्य को अक्षय तृतीया संस्थान के अन्य शास्त्री एवं आचार्य से शिक्षा प्राप्त विद्वानों ने दिनांक ११ मई २००५ का दिन शुभ बतलाते हुये शिलान्यास प्रशिक्षण दिया। इनके अलावा ४७ अन्य जिला एवं तहसील का आशीर्वाद भी प्राप्त हो गया है। स्तर पर शिविर लगाये गये, जिनमें आगम-ग्रन्थों का स्वाध्याय, प्रवचन से पूर्व केसरगंज में कुछ दिन पूर्व स्थापित | स्तोत्र व पूजाओं के अर्थ सिखाये गये। विभिन्न स्थानों में धार्मिक पाठशाला का नामकरण"आचार्य १०८ श्री विद्यासागर | छात्रावास व संस्थान को लगभग २ लाख रुपये सहायतापाठशाला" उद्घोषित किया गया। बतौर भी प्राप्त हुये। अनेक स्थानों में साधर्मी भाईयों ने उनसे हीराचन्द जैन यहाँ प्रतिवर्ष इसी प्रकार शिविर लगाने का अनुरोध किया है, जिसे श्रमण-संस्कृति संस्थान में आयोजकों ने सानन्द स्वीकार श्रमण-संस्कृति संस्थान, सांगानेर द्वारा किया है। आशा है वर्ष २००६ में महाराष्ट्र में लगभग १०० - महाराष्ट्र में ५० स्थानों पर शिक्षणशिविर सम्पन्न स्थानों पर शिक्षणशिविरों का आयोजन किया जायेगा। श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर द्वारा इस वर्ष चारित्र- छात्रावास के भूतपूर्व छात्र एवं वर्तमान में बारामतीचक्रवर्ती आ. शान्तिसागरजी महाराज के ५०वें समाधि वर्ष प्रवास कर रहे डॉ. सुधीरकुमार जैन शास्त्री ने महाराष्ट्र के के उपलक्ष में 'जिनभाषित' अप्रैल २००५ पिछले माह के उपरोक्त समस्त स्थानों पर अत्यंत परिश्रम करके शिक्षणपृष्ठ पर छापे गये ५० स्थानों पर 'सर्वोदय ज्ञान संस्कार एवं शिविरों का आयोजन निश्चित किया था। उनके अथक आध्यात्मिक शिक्षणशिविरों का सफलतापूर्वक आयोजन किया | प्रयास की समस्त समाज ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। श्रमणगया। सर्वप्रथम संस्थान में अधिष्ठाता महोदय श्रीमान पं. | संस्कृति संस्थान ने भी उनका अभिनन्दन करने की योजना रतनलाल जी बैनाड़ा ने दिनांक १८ अप्रैल २००५ से २८ | बनाई है। अप्रैल २००५ तक बारामती में शिविर लगाया। जिसमें 'बालबोध, छहढाला, तत्त्वार्थसूत्र एवं समयसार का अध्ययन श्री अ.भा.दि. जैन विद्वतपरिषद् का कराया गया। इस वर्षा की एक प्रमुख विशेषता यह रही कि २६वां अधिवेशन सम्पन्न छतरपुर के योगाचार्य पं. फूलचन्द जी जैन द्वारा प्रतिदिन सागर (म.प्र.), यहाँ पू. क्षल्लक श्री गणेशप्रसादजी प्रात: ५.४५ से ६.४५ तक योग का प्रशिक्षण भी दिया गया। वणा द्वारा र वर्णी द्वारा संस्थापित श्री सत्तर्क तरंगिणी दि. जैन पाठशाला शिविर में सभी शिविरार्थियों ने अत्यंत मनोयोग से भाग (वर्तमान नाम श्री गणेशप्रसाद दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय) लिया। शिविरार्थियों की संख्या लगभग २५० रही। यहाँ से | के शताब्दी समारोह के मध्य अक्षयतृतीया पर्व के शुभावसर अधिष्ठाता महोदय व सभी विदतगण कार द्वारा कोपरगाँव । पर पू. वीजी की प्रेरणा से वीरशासन जयन्ती सन् १९४४ में (महाराष्ट्र) चले गये, जहाँ दिनांक ३० अप्रैल से ११ मई | संस्थापित श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वतपरिषद् २००५ तक बालबोध छहढाला एवं तत्त्वार्थ सत्र के साथ- | साधारण सभा का २६ वां अधिवेशन दिनांक ९ से ११ मई २००५ तक संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज - जुलाई 2005 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सुशिष्य मुनिश्री १०८ अजितसागर जी महाराज एवं ऐलक | सहयोग की भी अपील की गयी। श्री १०५ निर्भयसागर जी महाराज के सान्निध्य में प्रो. डॉ. | शताब्दी-समारोह का उद्घाटन डॉ. डी.पी. सिंह फूलचन्द जैन 'प्रेमी' की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। (कलपति डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर) एवं अधिवेशन का सफल संचालन डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन (मंत्री, | समापन के अवसर पर सम्मान समारोह का मुख्यातिथ्य डॉ. विद्वतपरिषद) ने किया। अधिवेशन में जैनागम के प्रख्यात | डी.बी. सिंह (कुलपति अबधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, विद्वान सर्वश्री डॉ. नंदलाल जैन (रीवा), डॉ. भागचन्द्र | रीवा) ने ग्रहण किया। अध्यक्षता श्रीमान् सेठ डालचन्द जैन 'भास्कर' (नागपुर), डॉ. शीतलप्रसाद जैन (जयपुर), डॉ. नाग डॉ शीतलण्यात जैन (जया) टॉ | (पर्व सांसद) ने की। संचालन श्री कान्तकुमार सराफ (मंत्री) नेमीचन्द्र जैन (खुरई), डॉ. कमलेशकुमार जैन (वाराणसी). I ने किया। अस्वस्थता के कारण म.प्र. के राज्यपाल श्री बलराम पं. अमरचन्द जैन (सतना), डॉ. कपूरचन्द जैन (खतौली), | जाखड़ नहीं आ सके। उन्होंने अपनी लिखित शुभकामनाएं डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन (सनावद), डॉ. विमला जैन | प्रेषित की। मंगलाचारण पं. लालचन्द्र राकेश ने किया। (फिरोजाबाद), डॉ. गोपाललाल अमर (दिल्ली). पं. | अधिवेशन ने श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कत सखपाल जैन (दिल्ली). पं. निर्मल जैन (सतना), पं. | महाविद्यालय (सागर) शताब्दी समारोह स्मारिका. डॉ. सुरेन्द्र कोमलचन्द जैन (टीकमगढ़), पं. विनोद जैन (रजबांस), | कुमार जैन 'भारती' (बुरहानपुर) द्वारा लिखित एवं विद्यारत्न डॉ. कस्तरचन्द 'समन' (श्री महावीर जी), पं. पवन दीवान | डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन (सनावद) द्वारा सम्पादित कविता(मोरेना) आदि द्विशताधिक विद्वान/विदुषियाँ सम्मिलित हुए। | संग्रह 'अत्र कुशलं तथास्तु' एवं टॉप-टेन (विचार सूक्त), इस अवसर पर श्री गणेश दिगम्बर जैन संस्कृत महाविद्यालय | ब्र. विनोद द्वारा संकलित 'वर्णी विचार', प्रो. हीरालाल पांडे (सागर) के स्नातकों का सम्मेलन आयोजित किया गया। द्वारा रचित 'जय सन्मति' (महाकाब्य) एवं सम्पादित कृति स्थानीय विद्वानों पं. दयाचन्द्र जैन, पं. मोतीलाल जैन (प्राचार्य). | 'वर्णी वन्दनाकाव्यम्' का विमोचन किया गया। इन पुस्तकों पं. ज्ञानचन्द जैन, पं. विजय कमार जैन, पं. मनोज कमारजैन, | के साथ विद्वानों को वैरिस्टर चम्पतराय द्वारा लिखित सर्वधर्म पं. शतलचन्द्र जैन, पं. शिखरचन्द जैन. ब्र. साधना जैन. ब्र. | समभाव, 'असहमत संगम' एवं पं. पद्मचन्द्र जैन (दिल्ली) पुष्पा जैन आदि की महती सहभागिता रही। द्वारा लिखित 'मूल जैनसंस्कृति अपरिग्रह' वीरसेवामंदिर अधिवेशन एवं शताब्दी-समारोह के मध्य चले | एवं शकुन प्रकाशन के सौजन्य से भेंटस्वरूप प्रदान की वैचारिक-संगोष्ठी क्रम में विद्वानों ने पू. क्षुल्लक श्री गणेश | गया। प्रसाद जी वर्णी के व्यक्तित्व-कृतित्व एवं जैनधर्म, समाज समारोह के समापन पर सभागत द्विशताधिक विद्वानों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके अवदान के प्रति गहन आस्था का शाल, श्रीफल, सम्मानपत्र, स्मृति-चिन्ह एवं सम्मानएवं कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि राशि के साथ सम्मान किया गया। समारोह के गरिमामय व्यक्त की। अधिवेशन में डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन (सनावद) ने | आयोजन में स्थानीय श्री पूरनचंद जैन (अध्यक्ष), प्रो. मंदिरों में प्राप्त आय की दसप्रतिशत राशि प्रतिवर्ष मूलग्रन्थों | क्रान्तकुमार सर्राफ (मंत्री), डॉ. जीवनलाल जैन, श्री के प्रकाशन पर व्यय करने तथा नियमित पाठशाला के | शिखरचंद जैन,चौ. ऋषभ कुमार जैन, श्री गुलाबचन्द जैन संचालन की पुरजोर अपील की। जैनसमाज को धार्मिक आदि का महनीय योगदान रहा। शताब्दी-समारोह के प्रथम अल्पसंख्यक घोषित करने, म.प्र. शासन द्वारा पूर्व में घोषित | चरण में श्री समवमरण मण्डल विधान का दिनांक ७ से ९ संस्कृत विद्वानों की श्रेणी में प्रतिवर्ष आचार्य समन्तभद्र दिवस | मई तक श्री वर्णी भवन, मोराजी, सागर में आयोजन किया मनाने, नगरीय निकायों द्वारा मांस विक्रयकेन्द्रों को मूल- | गया। शताब्दी-समारोह के सफल आयोजन की सागर समाज बाजार से अलग रखने, गिरनार तीर्थक्षेत्र पर जैन धर्मावलम्बियों | ने प्रशंसा की। को जैनरीति से पूजन-अर्चन करने की व्यवस्था सुनिश्चित डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन, बुरहानपुर करने, फरवरी २००६ में आयोजित होनेवाले श्री गोम्मटेश्वर बाहुबली महामस्तकाभिषेक के आयोजन को सफल बनाने अतिशयक्षेत्र कोल्हुआ पहाड़ जी पर वेदी शुद्धि एवं । जिनबिम्ब स्थापना एवं प.पू. मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज की प्रेरणा से श्रमण-संस्कृति परीक्षा-बोर्ड (सांगानेर) से जैन पाठशालाओं/ _ बिहार में गया के निकट स्थित गोल्हुआ पहाड़ अतिशय विद्यालयों से सम्बद्ध करने की अपील की। प्रशासनिक | क्षेत्र पर दिनांक ११.५.२००५ बुधवार को अक्षय तृतीया के 30 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावन अवसर पर पूज्य मुनि श्री १०८ प्रमाणसागरजी महाराज | भरपुर सहयोग मेरी सफलता के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। मुझे के मंगल आशीर्वाद से वेदी-शुद्धि एवं १००८ श्री पार्श्वनाथ | आई.ए.एस. की तैयारी के दौरान संस्थान में लोक-प्रशासन भगवान की जिनबिम्ब स्थापना की गयी। विषय के प्रशिक्षण का दो वर्षों तक का अवसर मिला है। मैं ज्ञातव्य है कि कोल्हुआ पहाड़ पर अनेक प्राचीन जैन | संस्थान की प्रबंध समिति के प्रति व जिन प्रशिक्षार्थियों को - प्रतिमायें एवं जैन शिलालेख उत्खनन में एवं चट्टानों में प्राप्त | पढ़ाया है उन्हें मैं कभी विस्मृत नहीं कर पाऊँगा।" हुए हैं। यह क्षेत्र पुरातात्विक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण सम्मान समारोह का आतिथ्य माननीय श्री ईश्वरदास है। कुछ समय पहले दुर्भाग्यवश मंदिरजी से मूलनायक | रोहाणी (म.प्र. विधानसभा अध्यक्ष), माननीय श्री राकेश भगवान की प्रतिमा कछ असामाजिक तत्वों द्वारा चोरी कर | सिंह जी (सांसद) एवं माननीय श्री शरद एडवोकेट ली गयी थी। (विधायक) द्वारा किया गया। अजित जैन संस्थान गौरव श्री राहुल जैन एवं श्री अरविन्द श्रीवास्तव आई.ए.एस. में चयनित असम बोर्ड की मैट्रिक की परीक्षा में श्री दिगम्बर जैन __ सम्मान व आशीष विद्यालय, गुवाहाटी की शानदार सफलता सत्र २००५ में यूपीएससी द्वारा आयोजित चयन- | हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मैट्रिक की परीक्षा में साक्षात्कार में संस्थान से संबद्ध श्री राहुल जैन एवं संस्थान | श्री दिगम्बर जैन विद्यालय, गवाहाटी (श्री दिगम्बर जैन के लोक-प्रशासन विषय के प्रशिक्षक श्री अरविन्द श्रीवास्तव पंचायत, गुवाहाटी द्वारा संचालित) ने शत-प्रतिशत सफलता आई.ए.एस में चयनित हए हैं, जो संस्थान व नगर के लिए | प्राप्त करके एक नवीन कीर्तिमान स्थापित किया है। इस वर्ष गौरव का विषय है। इस विद्यालय से कुल ७६ परीक्षार्थी परीक्षा में बैठे थे, जिसमें उक्त चयनित द्वय श्री राहुल जैन एवं श्री अरविन्द | से सभी ने अच्छे अंकों से सफलता प्राप्त की। श्रीवास्तव के सम्मान में संस्थान-परिसर में दिनांक कपूरचन्द जैन पाटनी २६.०५.२००५ दिन गुरुवार को संध्या ७ बजे सम्मान व आशीष समारोह का आयोजन किया गया। आयोजन में संस्थान कांकरोली में विद्या-सुधा गुणाभिवंदन पुस्तक का के पदाधिकारीगणों सहित जैनपंचायतसभा, श्री पिसनहारी विमोचन मढ़िया क्षेत्र कमेटी, श्री गुरुकुल कमेटी, श्री ब्रह्म. विद्या अजमेर, २८ मई २००५ । परमपूज्य संतशिरोमणि आश्रम व समाज एवं नगर के अनेकों गणमान्य उपस्थित | | आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य मुनिपुंगव हुए। | १०८ श्री सुधासागर जी महाराज ससंघ के पावन सान्निध्य में श्री राहल जैन ने कहा कि- "प.पू. १०८ आचार्य श्री दिनांक १५.०५.०५ से २०.०५.०५ तक कांकरोली में नूतन विद्यासागर जी महाराज का आशीष एवं संस्थान का सदभाव जिनालय की प्रतिष्ठा हेत आयोजित पंचकल्याणक महामहोत्सव मेरी सफलता का मुख्य आधार है। मैं अपने सेवाकाल में | के अंतर्गत दिनांक १७ मई २००५, जन्मकल्याणक शुभ पज्य गुरुवर द्वारा बताये मार्गों पर चल सकूँ तथा संस्थान व | दिवस को श्री दिगम्बर जैन ज्ञानोदय महिला समिति अजमेर समाज के गौरव बढ़ाने की दिशा में निष्ठा व लगन से कार्य की अध्यक्षा श्रीमती सुशीला पाटनी धर्मपत्नी श्री अशोक करता रहूँ तो अपने को धन्य मानूँगा।" आपने अपनी सफलता | पाटनी (आर.के. मार्बल्स मदनगंज) की प्रेरणा से महामंत्री में स्वयं के कठोर परिश्रम का वर्णन करते हुए अपने परिवार श्रीमती निर्मला पांड्या द्वारा सम्पादित पुस्तक “विद्यासुधा को भी अपनी सफलता की नींव बताया। गुणभिवंदन' का विमोचन श्रीमती मुन्नी देवी (धर्मपत्नी श्री अरविन्द श्रीवास्तव, जो कि जिला एवं सत्र स्व. श्री राजेन्द्र गदिया, मातुश्री ज्ञानचंद गदिया सूरत-प्रवासी न्यायाधीश श्री ए.एन.एस. के सुपुत्र हैं एवं संस्थान के लोक अजमेर) के करकमलों से हुआ। इस अवसर पर श्रीमती (प्रशासन के प्रशिक्षक हैं, ने कहा कि- "परिश्रम व पुरुषार्थ प्रेमलता गंगवाल (तिलक मार्बल मदनगंज) की ओर से करने में मैंने कोई कमी-कसर नहीं रखी थी, लेकिन मेरी सफलता के पीछे मेरे पिताजी का कडा अनुशासन, माताजी उस दिन स्टालों पर घटी हुई दरों पर पुस्तक विक्रय हेतु उपलब्ध कराई गयी। का वात्सल्य एवं बहिन की प्रेरणा के अतिरिक्त संस्थान का हीराचन्द जैन - जुलाई 2005 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार कार्यक्रम की अध्यक्षता पं. मूलचन्द जी लुहाड़िया धर्मनिष्ठ श्रावक श्री चम्पालाल जैन का देहावसान। व ताराचन्द्र जी दोषी व मुख्य अतिथि जयसिंह जी कोठारी 'व्यापार समाचार' पाक्षिक के सम्पादक आदरणीय | 'नफा-नकसान' पेपर के सम्पादक के मंगलाचरण, सुशीला भइया श्री चम्पालाल जैन, कपड़ा कमीशन-एजेण्ट, माधोगंज, जी पाटनी, गरिमा वाकलीवाल, भजन चेलना जागृति मण्डल ग्वालियर, पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए देह त्यागकर | | द्वारा कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। • परलोक प्रयाण कर गये। आप योग-विद्या के प्रसारक, परम अनिल गंगवाल स्वाध्यायी, कर्मठता के प्रतीक, पर-दुःख-कातर, ग्वालियर नगर के सेवा-भावी व्यक्ति थे। 'अनेकान्त' अकादमी में महावीर के मौलिक चिंतन पर अतिसाधारण परिवार में जन्म लेकर उच्च शिक्षा विचार-सभा एवं भव्य कवि-सम्मेलन के अभाव में भी आपने निरन्तर स्वाध्याय और अपनी कर्मठता भोपाल, २५ अप्रैल २००५ । भगवान महावीर के के बल पर समाज में अपना शीर्ष स्थान बना लिया था। मौलिक चिंतन पर राष्ट्रीय अनेकान्त अकादमी के तत्वावधान १९२० ई. में शमशाबाद (विदिशा, म.प्र.) के साधारण किन्तु | में विचारमाला एवं भव्य कविसम्मेलन राजधानी भोपाल के धर्म-संस्कारी परिवार में जन्म लेकर आप व्यवसाय हेतु | चार इमली स्थित कम्युनिटी हॉल में ऐतिहासिक सफलता ग्वालियर आये और ईमानदार व्यवसायी के रूप में प्रतिष्ठा | के साथ सम्पन्न हुये। इस अवसर पर विचार-सभा सहित अर्जित कर ली। प्रातः २ घण्टे प्राणायाम व योगासान करना | सम्पूर्ण समारोह के मुख्यअतिथि न्यायमूर्ति श्री एन.के. जैन और कराना, नित्य अभिषेक पूजन व प्रतिदिन २ बार सामूहिक | (अध्यक्ष-राज्य उपभोक्ता फोरम म.प्र.) ने अध्यक्षता की। स्वाध्याय करना, साधर्मी और सहकर्मी बन्धुओं की यथासंभव | सुप्रसिद्ध कवि श्री कैलाश मड़बैया 'साहित्य वारिधि' संयोजक सहायता करना, प्रत्येक धार्मिक आयोजन में सक्रिय भाग | थे, और संचालन किया विमल भंडारी ने। लेना, डायरी-लेखन उनकी जीवनचर्या के अभिन्न अंग थे। विमल जैन आपकी स्मृति में 'जिनभाषित' के लिए दान स्वरूप दो सौ रुपये प्रेषित किये गये। प्रा. अरुण कुमार शास्त्री, ब्यावर भगवान महावीर का २६०३वां जन्मजयन्ती महोत्सव मनाया गया पंचदिवसीय महावीरजयंती पर्व सम्पन्न विश्ववंद्य अहिंसा-धर्म के युगप्रवर्तक एवं जैनधर्म भोपाल। श्री दिगम्बर जैन पंचायतकमेटी ट्रस्ट | के २४वें तीर्थंकर १००८ श्री भगवान महावीर का २६०३वाँ (पंजीयत) चौक, भोपाल के तत्त्वावधान में महावीर जयन्ती | जन्मजयंती महोत्सव शुक्रवार २२ अप्रैल २००५ को प.पू. वर्ष २००५ पर्व मनाने हेतु ट्रस्ट की एक विशेष समिति | आर्यिकारत्न १०५ श्री पूर्णमति माताजी ससंघ के पावन गठित कर इस वर्ष विशेष उत्साह एवं ऐतिहासिक ढंग से | सान्निध्य में हर्षोल्लास से विशाल रूप में मनाया गया। मनाने हेत पाँच दिवसीय कार्यक्रमों की योजना बनाई गयी हीराचन्द जैन और दिनांक १८ अप्रैल से २२ अप्रैल २००५ तक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। जरूर सुनें सन्त-शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर आध्यात्मिक एवं सामाजिक विचारगोष्ठी जी महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों श्री १००८ भगवान् महावीर वर्तमान जिनशासन | का प्रसारण 'साधना चैनल' पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 नायक के जन्मजयन्ती महोत्सव पर सकल दिगम्बर जैन | से 10.00 बजे तक किया जा रहा है, अवश्य सुनें। समाज किशनगढ़ द्वारा सामूहिक वात्सल्य-भोज के साथ- | नोट : यदि आपके शहर में 'साधना चैनल' न आता साथ दो दिवसीय गोष्ठी का सफल आयोजन हुआ। जिसमें || हो तो कृपया मोबाइल नं. 09312214382 पर अवश्य गोष्ठी-संयोजक अनिल गंगवाल व नेमीचन्द्र जी भौच के ( सूचित करें। 32 जुलाई 2005 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ" ० मुनि श्री प्रणम्यसागर जी बोध गिरि, मसान, गुह कोटर मज्झे, बिन मालिक बिन शोधी सज्जे । दोष रहित वसती में बस कर, निज मस्ती में मस्त हि रह हूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। • धरमचंद वाझल्य दो अनेक वा एक अकेले, सब तीरथ सब मुनि मन मेले । शुद्ध पवन सम विहर विहर कर, विरह राग से कबहूँ न सनहूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। तुम्हारा क्रोध कम हो गया है, यह परिवर्तन अब मुझे सुखद लगता है। बाधाएँ दूर हो रही हैं, कार्य सम्पन्न सहज हो गया है। कब तक तुम इस तरह दूसरों को रहोगे आँकते क्यों नहीं अपने ही अंतर में झाँकते आरंभ तो करो - स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना तब तुम्हें स्वयं ही अपनी अनेक निरर्थकताओं का सहज ही बोध हो जाएगा। ज्यों गो चरने वन में जावे, त्यों गोचर को वन से आवे । पर परिचय में चित न लगाकर, चित चिन्मय से बतियाँ कर हूँ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। बी/92, शाहपुरा, भोपाल चार मास इक ठाण हि ठाणे, सह हों धूप मेघ औ जाड़े। दया क्षमा सब जीवन सौ धरि, ध्यान अगनि से कर्मन दह हूँ ॥ हे प्रभु कब मैं सो मुनि बन हूँ। (आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के शिष्य) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FF 1. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC 31 4614 Sh.-H.../974161/588/2003-05 Estd. in 1997 Vidyasagar Institute of Management JIM (Recognized by AICTE, New Delhi, Govt. of MP & Affiliated to BVV, Bhopal) Vallabh Nagar, BHEL Bhopal - 462 021. Ph.: 0755-2621718, Telefax : 0755-2621723, Mob.: 94250-21265 Modern Hostel Complex for Boys & Girls I LARA . 111171117 11 11 11 11 11 11 111111111111111111 II I . Shanti Bhawan Boys Hostel Trishla Girls Hostel Special Features The Institute has hostel facilities available for boys & girls studying in Engineering, Management & Professional College. The Boys Hostel has the capacity of 200 students & the Girls Hostel of 100 students. Both the hostels are located in the campus itself. Both hostels have spacious and well furnished rooms with excellent live-in facilities. Each student in the hostel is provided with cot, cupboard, study table and study chair. The hostel mess is operated by a private contractor. It provides delicious & hygienic food. "ONLY VEGETARIAN FOOD IS SERVED IN THE MESS." The hostels are well furnished with all modern facilities like Water Purifier, Colour TV, Phone and Internet facilities with Outdoor and indoor games facilities. There are well furnished common rooms, guest rooms. The hostel provides good learning environment lays greater emphasis on moral and spiritual development of its students. The hostel has the first aid facilities; Senior Doctors are available on demand. The institute provides Bus Facility to the hostel residents. The hostel residents shall be encouraged to make effective use of campus facilities such as the computer centre and the library till late evening. VIDYASAGAR INSTITUTE OF MANAGEMENT The VIM offers moderate hostel facilities to boys & girls at reasonable & moderate rates. The hostel residents should follow hostel rules & regulations. FOR MORE DETAILS, FEEL FREE TO CONTACT THE AUTHORITIES OF THE INSTITUTE स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, 97791C (H.9.) Hisa ya watu wa fani 1/205 1 Sci-i, TRT-282002 (3.9.) ofera i