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________________ सज्जातित्व का वास्तविक विवेचन पं. सुनील कुमार शास्त्री वर्तमान में सज्जातित्त्व पर बड़ी चर्चायें सुनने में आती । जाति कहते हैं। गौ, मनुष्य, घट, पट, स्तंभ और वैत इत्यादि हैं। कई पत्र पत्रिकाओं में इस विषय पर लेख भी निरन्तर जाति निमित्तक नाम है.... वे जाति पांच प्रकार की है, एकेन्द्रिय ★ आते रहते हैं। पू. आर्यिका विशुद्धमति तथा पू. आर्यिका जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, पंचेन्द्रिय स्याद्वादमति माताजी के ट्रेक्ट भी इस संबंध में प्रकाशित जाति । हुये हैं। मुझे सज्जातित्त्व के संबंध में विशेष जानने की जिज्ञासा वर्षों से थी। मैंने जब गौर से उपरोक्त लेख और पुस्तिकाओं को पढ़ा तो पाया कि सज्जातित्त्व पर आगम संबंधी कोई चर्चा उसमें नहीं है । और की बात तो जाने दें, सज्जातित्त्व शब्द की आगमिक परिभाषा तक उसमें नहीं है। इसी कारण यह लेख लिख रहा हूँ । आजकल देखने में आता कि यदि कोई गोलापूर्व जैन भाई, यदि परवार जैन भाई के साथ शादी संबंध कर ले तो उसे जाति संकर तथा सज्जातित्त्व का नाश करने वाला कहा जाता है और उसे मुनि संघों को आहार देने तथा प्रमुख धार्मिक कार्यों से वंचित भी रखा जाता है। यह सब देखकर मैं यह लेख समाज के समक्ष इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ कि सज्जातित्त्व के संबंध में समाज को वास्तविकता का परिचय मिल सके। १. शब्द व्याख्या क- सज्जातित्त्व सत् + जातित्त्व इन दो शब्दों से मिलकर बना है। आर्यिका विशुद्धमति जी के अनुसार माता के वंश को जाति कहते हैं और जाति की शुद्धता को सज्जातित्त्व कहते 1 ख- आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि ८ / ११ में जाति की परिभाषा इसप्रकार कही है- 'तासु नरकादि गतिस्व व्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जातिः तन्निमित्तं जातिनामा । अर्थ : उन नरकादि (आदि पद से यहाँ तिर्यन्च, मनुष्य तथा देवगति भी लेना चाहिए) गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने रुप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है और इसका निमित्त जातिनामकर्म है । | ग- श्री धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७ - १८ पर कहा है, 'तत्थ जाई तव्भवसारिच्छलक्खण सामण्णं । ..... तत्थ जाइणिमित्तं णाम गो मणुस्स घड पड स्तंभवेत्तादि । अर्थ : तद्भव और सामान्य लक्षण वाले सामान्य को Jain Education International घ- सज्जातित्व शब्द तो शास्त्रों में स्थान-स्थान पर पढ़ने में आता है परन्तु किसी भी आचार्य ने इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं की । सन् २००० में आर्यिका सुपार्श्वमति माताजी का चातुर्मास जयुपर चल रहा था और वे पार्श्वनाथ भवन में विराजमान थीं । मेरे सामने सज्जातित्त्व पर उनकी एक विद्वान से डेढ़ घण्टे तक चर्चा चली । वे विद्वान माताजी से सज्जातित्व की परिभाषा का आगम प्रमाण मांग रहे थे । चर्चा के अन्त में पूज्य माताजी ने स्पष्ट कहा कि, सज्जातित्त्व शब्द की परिभाषा शास्त्रों में कहीं भी नहीं दी गई है। सर्वज्ञ ही जाने । हम तो अपनी गुरु परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया कि सज्जातित्त्व की वर्तमान में लगाई जाने वाली परिभाषा आगम सम्मत नहीं हैं । उपरोक्त संदर्भों से सज्जातित्त्व का यही अर्थ लेना उचित होगा कि जो सदाचरण से युक्त (सप्तव्यसनका त्यागी) तथा नीच व्यापार से रहित है, उसको सज्जातित्त्व गुण वाला मानना या उस परिवार की कन्या से उत्पन्न वंश परम्परा को सज्जातित्त्व गुण से विभूषित मानना चाहिए। खण्डेलवाल - अग्रवाल आदि से यहां जाति का कोई संबंध नहीं जाति के निर्धारण में गुण, कर्म अथवा आकार-प्रकार आदि ही कारण है अर्थात सभी मनुष्य जाति अपेक्षा से तो एक मनुष्य जाति के हैं जैसा कि आ. अमितगति महाराज ने कहा है, ब्राह्मण क्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः । एकैव मानुषीजातिराचारेण विभज्यते ॥ अर्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह जातियाँ तो वास्तव में आचरण पर ही आधारित हैं। वास्तव में तो एक मनुष्य जाति ही है । आचार्य गुणभद्र महाराज ने भी लिखा है, नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । अर्थ : जैसा पशुओं में या तिर्यंचों में गाय या घोड़े आदि का भेद होता है वैसा मनुष्यों में कोई जातिकृत भेद नहीं है । For Private & Personal Use Only जुलाई 2005 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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