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२. जाति क्या है?
कात्यायन और भार्गव आदि अनेक गोत्र. नाना जातियाँ तथा हमको यह समझाया जाता है कि जैसवाल जाति | | माता, बहु, साला, पुत्र और स्त्री आदि नाना सम्बन्ध, इनके अलग है और खण्डेलवाल जाति अलग है। जबकि
| अलग-अलग वैवाहिक कर्म और नाना वर्ण प्रसिद्ध हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि ये जातियाँ नहीं हैं। जो जैनी भाई | उनके वे सब वास्तव में एक ही हैं । ५-६॥ जेसलमेर में रहते थे, वे जैसवाल कहलाये । तथा जो खण्डेला विश्वकोष अधिकार ५, पृष्ठ ७१८ के अनुसार में रहते थे वो खण्डेलवाल कहलाये। खण्डेलवाल या | आ. जिनसेन के उपदेश से ८२ गाँव राजपूतों के और २ जैसवाल तो उनके निवास स्थान को सूचित करने वाले सुनारों के जैनधर्म में दीक्षित किये गये। उन्हीं से खण्डेलवालों शब्द हैं, जातियां नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि अलग-अलग | के ८४ गोत्र हुए। क्षत्रिय और सुनार जैन खण्डेलवालों में स्थान पर रहने वाले मनुष्यों के खान-पान, ओढ़ाव-पहनाव | रोटी-बेटी व्यवहार चालू हो गया, जो कि अभी भी है। आदि में अन्तर होता है परन्तु जाति तो उनकी मनुष्य ही है।। उपरोक्त सभी प्रमाण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि जाति उसमें अन्तर कैसे माना जाये? आचार्य सोमदेव महाराज ने | की अपेक्षा सभी मनुष्य एक जाति के हैं। गोलापूर्व या कहा है,
| परवार आदि भेदों का जाति भेद से कोई संबंध नहीं है। विप्रक्षत्रियविद्शूद्राः प्रोक्ता क्रियाविशेषतः।
३. विवाह किससे कौन कर सकता है? जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः।।
वर्तमान में यदि कोई गोलापूर्व, परवार से शादी कर अर्थ : क्रियाभेद से ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र ये ले तो हम उस शादी को गलत मान लेते हैं। जबकि जैन भेद कहे गये हैं । जैन धर्म में अत्यन्त आसक्त हुए वे सब | शास्त्रों में ऐसी एक भी पंक्ति देखने को नहीं मिलती। आचार्य परस्पर भाई-भाई के समान हैं।
जिनसेन महाराज ने आदिपुराण में इसप्रकार कहा हैआचार्य देवसेन महाराज ने कहा है,
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः । एहु धम्म जो आयरइ, वंभणु सुइवि कोइ।
वहेत्स्वां ते च राजन्यः द्विजन्मा क्विचिच्च ताः॥ सोसावहु, किंसावयहंअण्णु कि सिरिमणि होइ।।
अर्थ : शूद्र को शूद्र की कन्या से विवाह करना अर्थ : इस जैनधर्म का जो भी आचरण करता है वह | चाहिये, वैश्य-वैश्य की तथा शूद्र की कन्या से विवाह कर चाहे ब्राह्मण हो, चाहे शूद्र या कोई भी हो, वही श्रावक | सकता है, क्षत्रिय अपने वर्ण की तथा वैश्य और शूद्र की (जैन) है। क्योंकि श्रावक के सिर पर कोई मणि तो लगा | कन्या से विवाह कर सकता है और ब्राह्मण अपने वर्ण की नहीं रहता। आचार्यों का इतना स्पष्ट उल्लेख मिलने पर भी | तथा शेष तीन वर्ण की कन्यायों से भी विवाह कर सकता है। हम गोलापूर्व और परवार में भिन्न जाति कैसे मानते हैं? वरांग | श्री सोमदेव सूरि ने भी नीतिवाक्यामृत में इसी तथ्य चरित्र में तो आचार्य जटासिंहनन्दी ने तो स्पष्ट कहा है : । | का पूर्ण समर्थन किया है। हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन फलान्यथोदुम्बरवृक्षजातेर्यथाग्रमध्यान्त भवानि यानि। ने स्वयंवर द्वारा विवाह में अपनी पूर्ण स्वीकृति इसप्रकार रुपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या॥ ४ ॥ | प्रदान की हैये कौशिकाः काश्यपगोतमाश्च कौडिन्यमाण्डव्यवशिष्ठ गोत्राः। कन्या वृणीते रुचिरं स्वयंवरगता वरं । आत्रेयकौत्साङ्गिरसाःसगार्या मोद्गल्यकात्यायन भार्गवाश्च ॥५॥
कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे। गोत्राणि नानाविधजातयश्च मातृस्नुषामैथुनपुत्रभार्याः ।
अर्थ : स्वयम्वरगत कन्या अपने पसन्द वर को वैवाहिक कर्म च वर्णभेदः सर्वाणि चैक्यानि भवन्ति तेषाम्॥६॥ | स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या अकुलीन ।
अर्थ : जिसप्रकार सभी उदुम्बर वृक्षों के ऊपर, नीचे | कारण कि स्वयम्वर में कुलीनता अकुलीनता का कोई नियम और मध्यभाग में लगे हुए फल,रुप और स्पर्श आदि की | नहीं होता। अपेक्षा समान होते हैं उसीप्रकार एक से उत्पन्न होने के इतना स्पष्ट कथन हुये भी जो लोग कल्पित उपजातियों .. कारण उनकी जाति भी एक ही जाननी चाहिए॥ ४ ॥ लोक में गोल
। लाक | में (गोलापूर्व, परवार आदि में) विवाह करने में भी धर्म में यद्यपि जो कौशिक, काश्यप,गौतम, कौडिन्य, कर्म की हानि समझते हैं. उनको उपरोक्त आगम के अनसार माण्डव्य,वशिष्ठ,आत्रेय, कौत्स, आङ्गिरस, गार्म्य, मोद्गल्य, | अपनी धारणा तुरन्त बदल देनी चाहिए। 20 जुलाई 2005 जिनभाषित
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