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________________ शरीर को गौण करना साधना का प्रथम चरण • आचार्य श्री विद्यासागर जी हमेशा-हमेशा संसारी प्राणी शरीर के साथ आत्मतत्त्व को जोड़कर बोलता है। बहुत कम क्षण आते हैं जब अपनी आत्मा से बोल सकता है। आत्मा से बोलना संभव नहीं तो आत्मसाधना प्रारम्भ नहीं। तिर्यंच हमेशा दिगम्बर रहता है, नारकी भी दिगम्बर रहता है और षष्ठकाल में सभी मनुष्य जाति प्रजाति दिगम्बर रहेगी। देव दिगम्बर नहीं रहते। आपने करेन्ट को कभी देखा है। प्रकाश को तो देखा आखों से, पर करेन्ट अचक्षुदर्शन है। इन्द्रिय और मन की सहायता से अनुभव कर सकते हैं। __ शरीर को गौण करके आनंद का अनुभव लेना है। शरीर को उखाड़कर बालों की तरह नहीं फेंका जा सकता। शरीर को गौण करना साधना का प्रथम चरण माना जाता है। एक बार गौण करके ममत्वभाव को छोड़ा जाता है। २८ मूलगुणों में एक मूलगुण है, वह ६ आवश्यक के अन्दर है, जिसे कायोत्सर्ग कहते हैं। आत्मा का संवेदन करना उतना ही कठिन है जितना करेंट का अनुभव करना।शरीर प्रवृत्ति के साथ शरीर गौण नहीं हो सकता। मुनि महाराज कायोत्सर्ग मुद्रा में सदैव रहते हैं। पाप का त्याग अलग वस्तु है। आपका अनुभव अलग वस्तु । लोभ को छोड़ देते हैं, संतोष को प्राप्त कर लेते हैं। आज तक जिसका स्वाद लिया नहीं तो वह याद नहीं। जीवन में मुनि बनने के अर्थ, बहुत ही सावधानी निकटता की आवश्यकता है। सुबह एवं शाम के समय हमारी छाया (परछाई) लम्बी होती है, जबकि १२ बजे हमारे शरीर की छाया शरीर को नमोऽस्तु करती है। हमारी छाया हमारे भीतर सिमट जाती। मुनि अवस्था ऐसी ही अवस्था है जब हमारी छाया हमारे भीतर सिमट जाती है। राग से छूटना कठिन है। द्वेष से राग विषैला होता है जैसे शूल से फूल । काँटे से सब दूर हो जाते, द्वेष से सब दूर हो जाते, करेंट से सब दूर हो जाते। राग ऐसा करेंट है, जिसे छोड़कर वीतराग बन जाओ। लगाम लगाने के बाद भी घोड़ा हिनहिनाता रहता है, उसकी हिनहिनाहट हटाना भी आवश्यक है। श्रद्धान के बल पर सारे के सारे कार्य हो सकते हैं। दिन न कटे, कर्म कटे साधना का फल यही है। अहं को कायोत्सर्ग से ही निकाल सकते हैं। कायोत्सर्ग जरूरी है, अनिवार्य है। दीक्षातिथि को याद रखना जरूरी नहीं, दीक्षा हुई, यह याद रखना जरूरी है। तन को भूल जाना, मैं को भूल जाना है 'तजे तन अहमेव'। यह मूलगुण बहुत महत्त्वपूर्ण है। अभव्य को भी ७ तत्त्वों का ज्ञान रहता है। आत्मतत्त्व को जोड़ना बहुत कठिन होता है। आत्मा को प्रधानता देने का लक्ष्य होना चाहिये। प्रत्येक काल में आत्मतत्त्व केन्द्र में रखना होगा, अन्यथा शरीर के साथ साधना का फल नहीं रहता। लेखा-जोखा करें, क्या अच्छे बुरे क्षण व्यतीत किये। जुगाली के रूप में करेंगे तो स्वाद अलग ही रहेगा। अच्छे काम करो, बुरे काम से बचना है, तो अच्छे कार्य को याद करो। आचार्यश्री विद्यासागर जी के सुभाषित स्तुत्य प्रत्यक्ष हो या न हो स्तुति करनेवाला तो गुणों का स्मरण कर पवित्र हो जाता है। प्रभु बनकर नहीं, किन्तु लघु बनकर ही प्रभु की भक्ति की जा सकती है। जिस प्रकार सीपी के योग से तुच्छ जल कण भी महान् मुक्ताफल बन जाते हैं, ठीक उसी प्रकार भगवान् के प्रति किया गया अल्प स्तवन भी महत् फल प्रदान करता है। • नाल से जुड़े कमल का जिस प्रकार सूर्य की तेज किरणें भी कुछ बिगाड़ नहीं कर पातीं, उसी प्रकार भगवद्भक्ति से जुड़े रहने पर भक्त का संसार में कुछ भी बिगाड़ नहीं होता। "सागर द समाय" से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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