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________________ मंदिर में स्थापित करते रहेंगे? अथ सति परमाणोरेकवर्णादिभास्वन्, हमारे आगम शास्त्र क्या कहते हैं? निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः। हमारे परमागम में जहाँ तहाँ इसप्रकार के मिथ्या मंत्र इति निजहदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम्, एवं उनके प्रयोग आदि कुप्रवृत्तियों की घोर निंदा की गयी परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः॥ • है। श्रीपद्मप्रभमलधारी देव नियमसार की टीका में कहते हैं अर्थ- यदि एक परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशमान इति विविधविकल्पे पुदगले दृश्यमाने, ज्ञात-होते निज गुण समूह में है, तो उसमें मेरी कोई कार्यसिद्धि न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन्। नहीं है। अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण,रस,गंध आदि अपने कुरु रतिमतुलां त्वं चिमत्कारमात्रे, गुणों में ही है। तो फिर उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध कैसे हो भवति हि परमश्री कामिनीकामरूपः॥३८॥ सकता है? इसप्रकार निज हृदय में मानकर परमसुखपद के अर्थ- विविध भेदोंवाला यह पुदगल दिखायी देने | इच्छुक भव्य जीव आत्मा की एकता को भायें। से हे भव्य शार्दूल!(भव्योत्तम!) तू उसमें रतिभाव न कर। यह उपदेश सभी भव्य जीवों के लिए है। अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मा में अतुल रति कर। जिससे तू | केवल मुनियों के लिए ही नहीं गृहस्थों के लिए भी हैं । परमश्री रूपी कामिनी (मोक्ष लक्ष्मी)का वल्लभ होगा। ऐसे अनेकों संदर्भ दिये जा सकते हैं। हमारा नम्र ___ स्पष्ट है कि स्त्रीवशीकरण के मंत्र से (अगर प्राप्त भी | निवेदन है कि सुबुद्ध मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं हो तो भी) परस्त्रीसेवन हमारे लिए बंध का कारण है। कोई | को चाहिए कि ऐसे जो ग्रंथ खरीदे गये हैं, उन्हें नष्ट करें और दि. जैन साधु ऐसे मंत्र-सेवन का उपदेश दे, तो क्या वह जैन | सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के परम पावन वीतराग धर्म की रक्षा साधुकहलाने के योग्य रहेगा? करें। शुभोपयोग में शुभभावों के हेतुस्वरूप भाव किसी मुनिपद ___आगे नियमसार में उसी अध्याय में ४१ वें श्लोक में | के अविनय का नहीं है। कहा है संपादिका धर्ममंगल' १,सलील अर्पाट.५७ सानेवाडी, आँध-पुणे ४११००७ फोन : ०२०-२५८८७७९३ सम्पादकीय टिप्पणी ___ 'धर्ममंगल' की सम्पादिका, विदुषी लेखिका ने जिनशासन के प्रति भक्ति से प्रेरित होकर निर्भीकतापूर्वक एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। आज कतिपय दिगम्बर जैन मुनि स्वयं में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की अलौकिक आभा न जगा पाने के कारण श्रावकों को प्रभावित और आकृष्ट करने के लिए उन्हें मन्त्र-तन्त्र के द्वारा लौकिक कार्यों की सिद्धि का प्रलोभन देते हैं। यह मुनिधर्म के सर्वथा विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे मुनियों को 'लौकिक' कहा है णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि॥ १/६९ प्रवचनसार इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में कहते हैं- "वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थोऽपि दीक्षाग्रहणेन प्रव्रजितोऽपि वर्तते यदि ऐहिकैः कर्मभिः भेदाभेदरत्नत्रभावनाशकैः ख्यातिपूजालाभनिमित्तैयोतिष-मन्त्रवादि-वैदिकादिभिरैहिकजीवनोपायकर्मभिः स लौकिको व्यावहारिक इति भणितः।" अर्थात् वस्त्रादि-परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थदीक्षा ग्रहण कर लेने पर भी जो मुनि ख्याति और पूजा के लिए भेदाभेदरत्नत्रय के विनाशक ज्योतिष, मन्त्रतन्त्र, वैद्यक आदि लौकिक कर्म करता है, उसे आगम में 'लौकिक' (मुनियों की रत्नत्रयात्मक अलौकिक वृत्ति से च्युत सामान्य संसारी मनुष्य) नाम दिया गया है। - विदुषी लेखिका ने मन्त्रतन्त्र प्रयोग पर प्रकाशित हुए जिस नवीन ग्रन्थ की चर्चा की है और उसमें वर्णित मन्त्रों के जो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वे किसी भी विवेकशील जैन के हृदय को जगप्सा से भर देनेवाले हैं। वे जैनधर्म और खिलाफ हैं। उक्त ग्रन्थ और उन जैसे अन्य ग्रन्थ जिन मन्दिर और जैन गृहस्थ के घर में स्थान पाने योग्य नहीं हैं। रतनचन्द्र जैन गया है। - जुलाई 2005 जिनभाषित 15 Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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