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________________ प्रबन्धकों को उत्साहपूर्वक सहयोग करना चाहिये । घ. व्याख्यानों / प्रवचनों का आयोजन वर्तमान में शास्त्र-स्वाध्याय की परम्परा लगभग समाप्त-सी हो चुकी है। जो कुछ शेष है वह वृद्धों तक ही सीमित है । ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि मंदिर- प्रबन्धकों को साप्ताहिक / पाक्षिक/ मासिक जो भी सुविधा हो, तदनुसार व्याख्यानों/प्रवचनों का आयोजन अवश्य ही करना चाहिए। प्रवचनों से माता-पिता में धर्म की अभिरुचि बनेगी, तो बच्चों को धार्मिक शिक्षा के प्रति प्रेरित कर सकेंगे। माता-पिता धार्मिक अभिरुचि के होंगे, तो आशा की जा सकती है कि बच्चे भी अनुसरण करें। ३. देवदर्शन पर चलचित्रों का निर्माण इस वैज्ञानिक युग में देवदर्शन के महत्त्व को चलचित्रों के माध्यम से अधिक प्रभावी ढंग से समझाया जा सकता है। जैनपुराणों में एवं कथाओं में देवदर्शन के महत्त्व के कई कथानक आए हुए हैं। उनके आधार पर चलचित्रों का निर्माण करना चाहिये और धार्मिक अवसरों पर प्रसारित करना चाहिये । ४. पंचायत/संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहन धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में जो मन्दिर या शिक्षण संस्थायें अच्छा कार्य कर रही हैं/करें ऐसी संस्थाओं/ मन्दिरों को कम-से-कम ५००१ की धनराशि से सार्वजनिक अवसरों पर पुरस्कृत करना चाहिए। ५. बाल- मण्डलों का गठन युवा-मण्डलों का गठन सर्वत्र है, परन्तु युवाओं में धर्म के संस्कार नहीं होने से युवामण्डलों के सदस्य या पदाधिकारी अधिकांशतया देवदर्शन ही नहीं करते, तो पूजा कहाँ से करेंगे? अतः १५ वर्ष तक के बच्चों का बालमण्डल रूप में गठन करना चाहिये, जिससे वाल्यावस्था में ही अभिरुचि जागृत हो। इस प्रकार के संगठन कई जगहों पर हैं । बाल्यावस्था के संस्कार ही आगे चलकर युवा - वृद्धावस्था में कार्यकारी होते हैं। विद्वानों का विशेष दायित्व है कि यदि वे प्रवचन करते हैं, तो देवदर्शन के साथ पूजन भी नियमित करें, अन्यथा कथनी और करनी में अन्तर होने से समाज का विद्वानों के प्रति आस्थाभाव कम होता है। जो प्रतिदिन देवदर्शन / पूजा प्रक्षाल करते हैं, उन सभी का दायित्व है कि प्रत्येक क्षेत्र में उनका आचरण सम्यक् हो व हृदय में दयालुता आदि गुणों का निरन्तर विकास हो । ६. मन्दिरों में जल व्यवस्था पूजा - प्रक्षाल हेतु मन्दिरों में कुएँ के पानी की अनिवार्यता समाप्त होना चाहिए और अन्य वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार कर व्यवस्था दी जानी चाहिये । इस प्रकार देवदर्शन/पूजा-प्रक्षाल को दिनचर्या का अनिवार्य अंग मानकर प्रत्येक श्रावक / श्राविका को उन्हें करना चाहिये। थाणे के हरिओमनगर में वेदीप्रतिष्ठा सम्पन्न था (पूर्व) में दिगम्बर जैन समाज के उत्साही, कर्मठ, लगन के धनी श्री वीरेन्द्रकुमार जी जैन दोषी के प्रयास से प्रथम बार शिखरबन्द नूतन जिनालय का निर्माण हुआ, जिसका वेदी प्रतिष्ठामहोत्सव १८ मई से २० मई २००५ तक सम्पन्न किया गया। भगवान् शान्तिनाथ जी की प्रतिमा नूतनवेदी पर विराजमान की गयी। सम्पूर्ण विधि प्रतिष्ठाचार्य पं सनतकुमार जी, विनोदकुमार जी रजवाँस (सागर) द्वारा सम्पन्न हुई। श्री मान् मदनलाल जी बैनाड़ा ने तन-मन-धन से सहयोग दिया। श्री अशोक जी पाटनी (आर० के० मार्बल्स) से मन्दिर जी के लिए मार्बल का सहयोग प्राप्त हुआ। श्रीमती रवि एवं श्री वीरेन्द्र जी ने अतिथियों का सम्मान किया। श्रीमती रवि वीरेन्द्र जैन दोषी, थाणे Jain Education International डॉ. शीतलचन्द्र जैन, प्राचार्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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