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________________ 'प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा है, अतः स्वयं की आत्मा के दर्शन करना चाहिये। जब भाव अच्छे हैं, तो सब कुछ ठीक है ।" इस प्रकार के विचार सुनकर आज की नव-पीढ़ी ही नहीं, बल्कि कई प्रौढ़ व्यक्ति भी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि जब अपने में ही भगवान है, तो मन्दिर जाने की क्या आवश्यकता है? जब मन्दिर नहीं जायेगा, तो देवपूजा का प्रश्न ही नहीं है। इस प्रकार के व्याख्यानों और प्रवचनों से भी श्रोता देवदर्शन से विमुख हुए हैं। ४. जिनालय की दूरी एवं समयाभाव आज के युग में श्रावकों की आजीविका के साधनों में व्यापार एवं नौकरी प्रमुख हैं। जिनका ट्रान्सफर ऐसे स्थानों पर हो जाता है, जहाँ जिनालय ही नहीं है और फोटो वगैरह का दर्शन प्रायः मिथ्यात्व कह दिया जाता है । अत: ऐसे परिवारों के बच्चे का देवदर्शन से विमुख होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार जो व्यापारी रात्रि १० बजे घर आकर भोजन करते हैं, वे प्रातः जल्दी उठ नहीं सकते, अतः वे समयाभाव से देवदर्शन से विमुख हो जाते हैं । ५. जल की व्यवस्था देवपूजा में कुएँ के जल की अव्यवस्था / अभाव और अशुद्धता भी बाधक है। आज के समय में कितने ही मन्दिर ऐसे हैं जिनके कुएँ के जल सूख गये अथवा उपलब्ध हैं तो बहुत दूर हैं या गन्देपानी से भरे हैं । इस प्रकार वर्तमान में देवदर्शन / देवपूजा-प्रक्षाल में अरुचि के प्रमुख जो कारण गिनाये गये हैं, उनके निराकरण करने के प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं। १. धार्मिक शिक्षा का प्रबन्ध वर्तमान वैज्ञानिकयुग में लौकिक शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा दी जाती है और आज का अभिभावक उच्चकोटि की शिक्षा दिलाना चाहता है और उस पर असीम खर्च भी कर रहा है। उसका परिणाम भी सामने " है कि जैनसमाज के बच्चे प्रत्येक क्षेत्र में निपुणता से निकल रहे हैं। अतः जिस प्रकार लौकिक शिक्षा पर हम व्यय करते , उसी प्रकार धार्मिक शिक्षा पर भी लौकिक शिक्षा के अनुपात में ५ प्रतिशत भी खर्च करें, तो बच्चों को धार्मिक शिक्षा की उत्तम-से-उत्तम व्यवस्था हो सकती है। अतः समाज का कर्त्तव्य है कि प्रत्येक मन्दिर में पूजन- फण्ड की तरह शिक्षाफण्ड बनना चाहिये और उस फण्ड को इतना समृद्ध बनाया जाय, जिससे धार्मिक-शिक्षा हेतु विद्वान् को सरकार के नियमों के अनुरूप आर्थिक सहयोग/वेतन दिया जा सके। जहाँ पर एकाधिक मन्दिर हैं, वहाँ पर दो या तीन मन्दिर मिलकर भी शिक्षा-फण्ड की स्थापना कर सकते हैं । अर्थ के अभाव में विद्वान् भी तैयार नहीं होते और प्रोत्साहित भी नहीं होते । धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है। -- क. सायंकालीन पाठशाला सायंकाल का समय बच्चों की धार्मिक-शिक्षा के लिये विशेष उपयोगी है, क्योंकि उक्त समय में प्रातः एवं दोपहर को स्कूल जानेवाले बालक/बालिकायें भी उपस्थित रहकर लाभ ले सकते हैं। यदि कदाचित् प्रारम्भ में ५० बालक हों और बाद में एक ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि १० छात्र ही रुचि लें, तो भी विद्वान् को वेतन देना चाहिये, क्योंकि हम यह क्यों भूल जाते हैं कि गणित आदि पढ़ानेवाले शिक्षक को प्रसन्नतापूर्वक प्रतिमाह रु. ४०० प्रतिदिन ४५ मिनिट पढ़ाने का ही दे देते हैं और धार्मिक-शिक्षक को एक माह में रु. ४००.०० देने में परेशानी महसूस करते हैं । अतः संस्कृति की सुरक्षा के लिये सहर्ष व्यवस्था करनी होगी। ख. रविवारीय पाठशाला कुछ मन्दिर / स्कूल ऐसे भी हो सकते हैं कि मात्र रविवार को प्रातः काल ही कक्षा लगाई जाये, जिससे जो बालक/बालिकायें प्रतिदिन नहीं आ सकते, उन्हें सप्ताह में मात्र एक दिन ही शिक्षा दी जाय। अभिरुचि बढ़ने पर दिनों में भी वृद्धि सम्भव है। ग. शिविर आयोजन धार्मिक-संस्कारों के लिये शीतकालीन एवं ग्रीष्मकालीन शिविर का आयोजन नितान्त आवश्यक है। इसके लिये मन्दिरों के प्रबन्धकों को पूर्व से ही योजना बनाना चाहिये। सम्प्रति कई संस्थाएँ शिविरों का आयोजन कर रही हैं। मंदिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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