SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करता और सुगन्धित द्रव्यों का उपयोग नहीं करता । १८. शीत आदि की बाधा से रक्षा के उपायों का आश्रय नहीं लेता । १९. वसतिका आदि का द्वार स्वयं बन्द नहीं करता • तथा वहाँ आनेवाले अन्य व्यक्ति को नहीं रोकता। ★ २०. दीपक या लालटेन की रोशनी को कम-अधिक नहीं करता। बैटरी भी पास में नहीं रखता । २५. तथा यात्रा के समय किसी प्रकार की सवारी का उपयोग नहीं करता । पैदल ही विहार करता है। इन नियमों के सिवा और भी बहुत-से नियम हैं, जिनका वह संयम की रक्षा के लिए भली प्रकार पालन करता है। २. आर्यिकाओं के विशेष नियम उक्त धर्म का समग्र रूप से आर्यिकाएँ भी पालन करती हैं। इसके सिवा उनके लिए जो अन्य नियम बतलाये * गये हैं, उनका भी वे आचरण करती हैं। वे अन्य नियम ये २१. उष्णता का वारण करने के लिए पंखे आदि का उपयोग नहीं करता । २२. अपने साथ नौकर आदि नहीं रखता । २३. किसी के साथ विसंवाद नहीं करता । १२. आचार्य से पाँच हाथ, उपाध्याय से छह हाथ और अन्य साधुओं से सात हाथ दूर रहकर गो-आसन में २४. तीर्थादि की यात्रा के लिए अर्थ का संग्रह नहीं बैठकर उनकी वन्दना करती हैं। जो साधु आर्यिकाएँ इस करता और न इसकी पूर्ति के लिए उपदेश देता है। आचार का पालन करते हैं, वे जगत् में पूजा और कीर्ति को प्राप्त करते हुए अन्त में यथानियम मोक्ष-सुख के भागी होते हैं। १. वे परस्पर में एक-दूसरे के अनुकूल होकर एकदूसरे की रक्षा करती हुई रहती हैं। २. रोष, वैरभाव और मायाभाव से रहित होकर लज्जा और मर्यादा का ध्यान रखती हुई उचित आचार का पालन करती हैं। ३. सूत्र का अध्ययन, सूत्रपाठ, सूत्र का श्रवण, उपदेश देना, बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन, तप, विनय और संयम में सदा सावधान रहती हैं। ४. शरीर का संस्कार नहीं करतीं । ५. सादा बिना रंगा हुआ वस्त्र पहनती हैं। ६. जहाँ गृहस्थ निवास करते हैं, उस मकान आदि में नहीं ठहरतीं । ७. कभी अकेली नहीं रहतीं। कम-से-कम दो-तीन मिलकर रहती हैं। ८. बिना प्रयोजन के किसी के घर नहीं जातीं। यदि प्रयोजनवश जाना ही पड़े, तो गणिनी से अनुज्ञा लेकर ही जाती हैं। ९. रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन बनाना, दाई का कार्य और कृषि आदि छह प्रकार का आरम्भ कर्म नहीं करतीं 1 Jain Education International १०. साधुओं का पाद- प्रक्षालन व उनका परिमार्जन नहीं करतीं। ११. वृद्धा आर्यिका को मध्य में करके तीन, पाँच या सात आर्यिकाएँ मिलकर एक-दूसरे की रक्षा करती हुई आहार को जाती हैं। I ३. गृहस्थ-धर्म मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् मार्ग मुनिधर्म ही है । किन्तु जो व्यक्ति मुनिधर्म को स्वीकार करने में असमर्थ होते हुए भी उसे जीवनव्रत बनाने में अनुराग रखते हैं, वे गृहस्थधर्म के अधिकारी माने गये हैं । मुनिधर्म उत्सर्गमार्ग है और गृहस्थधर्म अपवादमार्ग है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थधर्म से आंशिक आत्मशुद्धि और स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है, इसलिए यह भी मोक्ष का मार्ग माना गया है। समीचीन श्रद्धा और उसका फल I जो मुनिधर्म या गृहस्थधर्म को स्वीकार करता है, उसकी पाँच परमेष्ठी और जिनदेव द्वारा प्रतिपादित शास्त्र में अवश्य श्रद्धा होती है। वह अन्य किसी को मोक्ष-प्राप्ति में साधक नहीं मानता, इसलिए आत्मशुद्धि की दृष्टि से इनके सिवा अन्य किसी की वन्दना और स्तुति आदि नहीं करता । तथा उन स्थानों को आयतन भी नहीं मानता जहाँ न तो मोक्षमार्ग की शिक्षा मिलती है और न मोक्षमार्ग के उपयुक्त साधन ही उपलब्ध होते हैं। लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरे का आदर-सत्कार करना अन्य बात है । वह जानता है कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिए शरीर, उसकी सुन्दरता और बल का अहंकार नहीं करता। धन, ऐश्वर्य, कुल और जाति ये या तो माता-पिता के निमित्त से प्राप्त होते हैं या प्रयत्न से प्राप्त होते हैं। ये आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकते, इसलिए इनका भी अहंकार नहीं करता। ज्ञान और तप ये समीचीन भी होते हैं और असमीचीन भी होते जुलाई 2005 जिनभाषित 7 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy