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________________ हैं। जिसे आत्मदृष्टि प्राप्त है, उनके ये असमीचीन हो ही नहीं । ही करूँगा। इसके बाहर होने वाले व्यापार आदि से या सकते, इसलिए इन्हें मोक्षमार्ग प्रयोजक जान इनका भी अहंकार नहीं करता । धर्म आत्मा का निज रूप है, यह वह जानता है, इसलिए अपनी खोयी हुई उस निधि को प्राप्त करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है। उसके निमित्त से होने वाले लाभ से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। समय-समय पर यथा नियम दूसरे व्रत को स्वीकार करते समय वह अपने इस क्षेत्र को और भी सीमित करता है। और इस प्रकार अपनी तृष्णा पर उत्तरोत्तर नियन्त्रण स्थापित करता जाता है। इतना ही नहीं, वह आजीविका में और अपने आचार-व्यवहार में उन्हीं साधनों का उपयोग करता है जिनसे दूसरे प्राणियों को किसी प्रकार की बाधा नहीं होने पाती। जिनसे दूसरों की हानि होने की सम्भावना होती है, उनका वह निर्माण भी नहीं करता और ऐसा करके वह स्वयं को अनर्थदण्ड से बचाता है। चार शिक्षाव्रत वह अपने जीवन में कुछ शिक्षाएँ भी स्वीकार करता है । प्रथम तो वह समता तत्त्व का अभ्यास कर अपने सामायिक शिक्षाव्रत को पुष्ट करता है। दूसरे, पर्व दिनों में एकाशन और उपवास आदि व्रतों को स्वीकार कर वह प्रोषधोपवास व्रत की रक्षा करता है। शरीर सुखशील न बने और आत्मशुद्धि की ओर गृहस्थ का चित्त जावे, इस अभिप्राय से वह इस व्रत को स्वीकार करता है। वह अपने आहार आदि में प्रयुक्त होनेवाली सामग्री का भी विचार करता है और मन तथा इन्द्रियों को मत्त करनाली तथा दूसरे जीवों को बाधा पहुँचाकर निष्पन्न की गयी सामग्री का उपयोग न कर उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत को स्वीकार करता है। अतिथि सबका आदरणीय होता है और उससे संयम के अनुरूप शिक्षा मिलती है, इसलिए वह अतिथिसंविभाग व्रत को स्वीकार कर सबकी यथोचित व्यवस्था करता है । ये गृहस्थ के द्वारा करने योग्य बारह व्रत हैं । इनके धारण करने से उसका गार्हस्थिक जीवन सफल माना जाता है। पाँच अणुव्रत इस प्रकार दृढ़ आस्था के साथ सम्यग्दर्शन को स्वीकार करके वह अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थधर्म के प्रयोजक बारह व्रतों को धारण करता है । बारह व्रत ये हैं- पाँच अणुव्रत, तीन और चार शिक्षाव्रत । हिंसा, असत्य, गुणवत चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का वह एक देश त्याग करता इसलिए उसके पाँच अणुव्रत होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह त्रस हिंसा से तो विरत रहता ही है, बिना प्रयोजन के एकेन्द्रिय जीवों का भी वध नहीं करता। ऐसा वचन नहीं बोलता जिससे दूसरों को हानि हो या बोलने से दूसरों के सामने अप्रमाणित बनना पड़े । अन्य की छोटी-बड़ी किसी वस्तु को उसकी आज्ञा के बिना स्वीकार नहीं करता । अपनी स्त्री के सिवा अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन या पुत्री के समान मानता है और आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं करता । तीन गुणवत इन पाँच व्रतों की वृद्धि के लिए वह दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत इन तीन गुणव्रतों को भी धारण करता है। दिग्व्रत में जीवन-भर के लिए और देशव्रत में कुछ काल के लिए क्षेत्र की मर्यादा की जाती है। गृहस्थ का पुत्र, स्त्री और धन-सम्पदा से निरन्तर सम्पर्क रहता है । इस कारण उसकी तृष्णा में वृद्धि होना सम्भव है । ये दोनों व्रत उसी तृष्णा को कम करने के लिए या सीमित रखने के लिए स्वीकार किये जाते हैं । प्रथम, व्रत को स्वीकार करते समय वह इस प्रकार की प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन-भर अपने व्यापार आदि प्रयोजन की सिद्धि इस क्षेत्र के भीतर रहकर क्रमश: 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' के 'प्रास्ताविक वक्तव्य' से साभार गिरनार में गुरुदत्तात्रेय - प्रवेश द्वार के निर्माण का तीव्र विरोध भारत के प्रसिद्ध तीर्थ गिरनार के प्रवेश स्थल पर 'गुरुदत्तात्रेय प्रवेश द्वार' बनाने का निर्णय लिया गया है, जिसका भूमिपूजन दिनांक १६ मई २००५ को जूनागढ़ के कलेक्टर द्वारा किया गया। इस प्रवेश द्वार के निर्माण का सम्पूर्ण भारत का जैन समाज तीव्र विरोध करता है और गुजरात प्रदेश के शासन से अनुरोध करता है कि वह साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित न कर धर्मनिरपेक्ष नीति से कार्य करने का प्रयास करे । 'गिरनार प्रवेश द्वार' के बजाय 'गुरुदत्तात्रेय प्रवेश द्वार' बनाकर जैनों के गिरनार तीर्थक्षेत्र पर कब्जा करने की बड़ी भारी साजिश की जा रही है, जिसका पूरी ताकत से विरोध करना आवश्यक है। 8 जुलाई 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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