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________________ जिज्ञासा : वर्तमान में जम्बूदीप के भरतक्षेत्र में | समाधान : आपके प्रश्नों का उत्तर तिलोयपण्णत्ति द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या बतायें? के अनुसार इसप्रकार है, भवनवासी शब्द ही यह बता रहा है समाधान : द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन उपशम श्रेणी | कि ये देव भवनों में अर्थात् महलों में निवास करते हैं, चढ़ने में प्रवृत्त मुनिराजों के ही उत्पन्न होता है। वर्तमान विमानों में नहीं। इनके निवास स्थान तीन प्रकार के होते हैं । पंचमकाल में भरतक्षेत्र में उपशम श्रेणी आरोहण की योग्यता १. भवन : रत्नप्रभा पृथ्वी के खर एवं पंक भाग में . जो भवन बने हैं, वे भवन कहलाते हैं। प्रथम तीन उत्तम संहननों के होने पर ही संभव है,जबकि २. भवनपुर : मध्यलोक में द्वीपसमुद्रों के ऊपर जो पंचमकाल में तीन हीन संहनन ही पाये जाते हैं। अतः जब | भवन बने हैं, वे भवनपुर कहलाते हैं। किसी भी मनुष्य में या मुनिराज में उपशमश्रेणी आरोहण ३. आवास : तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर की योग्यता ही नहीं है,तब द्वितीयोपशम सम्यक्त्व किसी | जो भवन बोके आवास कहलाते हैं। असरकमार देवों के भी जीव को कैसे हो सकता है। श्री लब्धिसार २/४२ में | तो केवल भवनरुप ही निवास स्थान होते हैं,भवनपुर और इसप्रकार कहा है, 'उपशम श्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्व आवास नहीं होते। अन्य नौ भवनवासी देवों के किन्हीं के तें जो उपशम सम्यक्त्व होय ताका नाम द्वितीयोपशम है।' | तीनों में से कोई भी आवास होते हैं। अत: उपशमश्रेणी आरोहण की योग्यता किसी भी जीव में __ इन भवनों की लम्बाई-चौड़ाई जघन्य से संख्यात संभव न होने के कारण, वर्तमान पंचम काल में जम्बूदीप योजन और उत्कृष्ट से असंख्यात योजन होती है। वे समस्त के भरतक्षेत्र में द्वितीयोपशम सम्यक्त्वीयों की संख्या भवन चौकोर होते हैं, उनकी ऊँचाई ३०० योजन होती है। शून्य माननी चाहिए। प्रत्येक भवन में १०० योजन ऊँचा एक पर्वत होता है जिस प्रश्नकर्ता : सौ. स्मिता जवाहरलाल दोशी, बारामती पर एक चैत्यालय होता है। समस्त भवनों की भूमि और जिज्ञासा : उदयावली, प्रत्यावली, अचलावली तथा | दीवारें रत्नमयी होती हैं। ये भवन अत्यन्त रमणीय, सतत् बन्धावली की परिभाषा बताईये ? प्रकाशमान रहने वाले तथा इन्द्रियों को सुख देने वाली चन्दन समाधान : आपकी करणानुयोग में विशेष रुचि आदि बस्तुओं से सिक्त होते हैं। भवनवासियों के कुल भवनों प्रशंसनीय है। आप यदि करणानयोग दीपक भाग १.२ व ३ | की संख्या ७ करोड ७२ लाख है। इसीलिए उनसे संबंधित । (पं0 पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा विरचित)का स्वाध्याय चैत्यालयों की संख्या इतनी ही कही जाती है। कर लें तो आपके ऐसे सभी प्रश्नों का समाधान हो जायेगा। जिज्ञासा : आबाधाकाल किसे कहते हैं और किस सभी प्रश्न गोम्मटसार कर्मकाण्ड पर आधारित हैं और | कर्म का कितना आवाधाकाल होता है ? करणानुयोग दीपक में इनकी परिभाषा इसप्रकार दी है : समाधान : बन्ध को प्राप्त कर्मवर्गणायें जब तक उदयावली : आबाधाकाल के अनन्तर प्रथम आवली उदय एवं उदीरणा रुप होने के योग्य नहीं होती हैं तब तक में स्थित निषेकों की आवली को उदयावली कहते हैं। के काल को आवाधाकाल कहते हैं। जैसे कोई कर्म एक प्रत्यावली : उपरोक्त प्रथम आवली के उपरान्त कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का बांधा गया । वह कर्म १०० आगे की आवली को द्वितीयावली या प्रत्यावली कहते हैं। वर्ष तक उदय एवं उदीरणा के अयोग्य होता है। तो यह अचलावली : प्रकृतिबंध होने के पश्चात् एक १०० वर्ष का काल आवाधाकाल होगा। आवली काल तक उन बांधे गये कमों की किस कर्म की कितनी आवाधा होती है इसका विचार उदय,उदीरणा,अपकर्षण,उत्कर्षण या संक्रमण नहीं होता | उदय और उदीरणा की अपेक्षा से दो प्रकार से करेंगे। उदय है। इस आवली को अचलावली अथवा आवाधावली अथवा की अपेक्षा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की आवाधा, बंधावली भी कहते हैं। एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति पर १०० वर्ष के अनुपात जिज्ञासा : भवनवासी देवों के क्या विमान नहीं से लगानी चाहिये। अर्थात् यदि कोई कर्म १० कोड़ाकोड़ी . होते, वे भवनों में ही रहते हैं, उनके भवन किसप्रकार के सागर स्थिति का बंधा है तो वह १००० वर्ष तक उदय में होते हैं? नहीं आएगा, यह उसका आवाधाकाल हआ। जिन कर्मों की 24 जुलाई 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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