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________________ यह मंत्र-तंत्र-विज्ञान हमें कहाँ ले जा रहा है ? प्रा. सौ. लीलावती जैन आ. गुणधरनंदी जी लिखित मंत्र-तंत्र विज्ञान का | सुविधा चाहता है और चमत्कार भी!...परंतु पाखंडियों ने छल (द्वितीय भाग-पृष्ठ ११०) किसी ने पढ़ने के लिए दिया। और प्रपंच का जाल फैलाया और इस महान विद्या के प्रति हमने सोचा जैन मंत्रशास्त्र की विज्ञाननिष्ठ भूमिका से मेल | घृणा और अविश्वास प्राप्त करा दिया।" ...तो क्या मिथ्या बिठानेवाली भूमिका के तहत यह ग्रंथ लिखा गया होगा। मंत्र-तंत्र का विरोध करने वाले आ.कंदकंद पाखंडी छलकपट अतः उत्सुकतापूर्वक पढ़ना आरंभ किया और पाया कि यह करनेवाले थे? 'लघविद्यानवाद की छोटी बहन' के रूप में है। इसे पढकर आइए! इस पर अधिक विचार न करते हुए हम विचार आया कि इस प्रकार का मंत्रविज्ञान हमें कहाँ ले जा पाठकों को उन मंत्रों का परिचय कराते हैं जिससे वे स्वयं रहा है? जान लें कि ये मंत्र हमें कहाँ ले जा रहे हैं? और मंत्रविज्ञान आ. गुणधरनंदजी ने ऐसी और कुछ (२८ तक) के नाम पर हमारी श्रद्धा में कौन सा विज्ञान झोंका जा रहा है? अन्य किताबों का संकलन, संपादन, लेखन किया है। उनमें इस पुस्तक में प्रस्तुत मंत्रों की भाषा अधिक स्थान कुछ ये नाम हैं- विद्यानुशासन, जैन वास्तुविज्ञान, मुहूर्त विज्ञान, । | पर राजस्थानी-हुँढारी से मिलती जुलती है। और कई मंत्र यात्राशकुन, अंकज्योतिष, यंत्र-मंत्र-आराधन, सरस्वती-कल्प, संस्कृत में हैं। हमने आ. कुंथुसागर द्वारा प्रकाशित लघुविद्यानुज्वालामालिनी-कल्प, स्वर-विज्ञान, ईंट का जवाब पत्थर से ईंट का जवाबपाशा से वाद के मूल ताडपत्रीय ग्रंथ का संशोधन किया। परंतु वह आदि हैं। सबके नाम पढ़कर हम जान गए हैं कि आ. ग्रंथ जैन पूर्वाचार्य (के नाम से) लिखित प्रमाणित नहीं महावीरकीर्ति जी से पनपी यह मंत्र-तंत्र-विज्ञान की धारा होता। न हि लघुविद्यानुवाद में समाविष्ट हिंसक मंत्रतंत्र जैन जाली विद्यानुवाद के इर्द गिर्द ही घूम रही है, जिसमें जारण, आचार्यों के लिखे लगते हैं। मारण, तारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण २०वीं सदी के प्रथमाचार्य पू. शांतिसागरजी महाराज तथा निमित्त, शकुन आदि विद्याओं का समावेश है। इनमें ने इस प्रकार की मंत्र-तंत्रवादी प्रवृत्तियों को कभी प्रश्रय नहीं दिया। उनकी शिष्यपरंपरा में भी वह दिखायी नहीं देती। परंतु रोग मंत्र, रक्षा-मंत्र, विद्या-मंत्र, प्रेत-मंत्र, कार्यसिद्धि-मंत्र प्र.आ. महावीरकीर्तिजी से यह मंत्रतंत्र की धारा पनपी है जो आदि अनेकों मंत्रों का भी समावेश है। उनकी शिष्यपरंपरा में दिखायी देती है। हम आ.कुंथसागर ___ हमने १९८४-८५ के दरमियान 'लघुविद्यानुवाद के विरोध में' और 'पू.आ. विमलसागरजी को खुला आवाहन' तथा उनके सभी शिष्यों से विनयपूर्वक कहना चाहते हैं कि यह विद्यानुशासन या विद्यानुवाद जहाँ कहीं से भी भोजपत्रशीर्षक से जो २ परचे देश भर बँटवाये थे, उसमें हमने इस | ताड़पत्र में लिखित प्राप्त हुआ हो, जैन संशोधक-अभ्यासकों मंत्र-तंत्रवादी धारा की अप्रवृत्तियों को खुला किया था। परंतु को उपलब्ध करायें, जिससे कि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध सच्चे देव-शास्त्र-गुरु-स्वरूप के सही अध्ययन के अभाव में, स्वाध्याय से वंचित अज्ञ समाज, भौतिक सुखों की की जा सके। उपलब्ध मंत्र तो अन्य-अजैन नाथपंथीय, शाक्तपंथी, हठवादी आदि विचारधारा से आये प्रतीत होते अभिलाषा से, राग-द्वेष के मोह जाल में फँसता इन विषयों हैं। जैनत्व का स्पर्श बताने के लिए मात्र बीच में णमोकार में अपना समाधान ढूँढ रहा है। प्रस्तावना के दो शब्द में आ. मंत्र का समावेश गलत उद्देश्यपूर्ण तथा अस्थायी लगता है। गुणधरनंदी जी के अनुसार, 'मंत्र विज्ञान अनादि निधन है।' हम उनसे पूछना चाहते हैं कि कौन सा मंत्र-विज्ञान अनादि कुछ नमूने 'जैन मंत्र विज्ञान' से उद्धृत कर रही हूँनिधन है? उपादेय या हेय? शुभ या अशुभ? आपने जो मंत्र (१) रक्षा मंत्र - ६ (पृष्ठ १४) आगे नरसिंह, पीछे नरसिंह, ....मरमरठा में फिरूँ, मणिया मांस खाऊँ.....मैं हनुमंत विज्ञान प्रकाशित किया है वह हेय है या उपादेय? क्या वह का बालक.....आदि। इस मंत्र की भाषा राजस्थानी से मिलती वीतरागता को बढ़ावा देता है? या संसारसुखों की अभिलाषाएँ है। इसमें नरसिंह, हणमंत, नाहरसिंह, भैरूजी, गोरखनाथ पूर्ण करता है? आदि नाम आये हैं। डाकिनी, शाकिनी, डंकनी, शंखनी, ___ आप लिखते हैं "मंत्रसाधन द्वारा देवी देवता अपने वश में हो जाते हैं...मंत्र-सिद्धि-प्राप्त साधक को संसार का समस्त सालिनी, बीजासनी, कालका आदि के भी नाम आये हैं। वैभव सुलभ हो जाता है।...इस भौतिकताप्रधान युग में मानव प्रश्न - क्या इन डाकिनी, शाकिनी आदि से होनेवाले - जुलाई 2005 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524298
Book TitleJinabhashita 2005 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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