Book Title: Antardvand
Author(s): Parmatmaprakash Bharilla
Publisher: Hukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्द्वन्द प्रथम संस्करण : ५ हजार (१ मई २००४) द्वितीय संस्करण : ३ हजार (१८ सितम्बर २००४) दशलक्षण महापर्व के अवसर पर (लक्ष्यहीन जीवन की विसंगतियों को रेखांकित करते हुए सार्थक जीवन जीने की कला प्रस्तुत करता हुआ सशक्त चिन्तन) मूल्य : छह रुपए लेखक : परमात्मप्रकाश भारिल्ल प्राप्ति स्थान : श्री टोडरमल स्मारक भवन ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५ प्रकाशक : डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल चैरिटेबल ट्रस्ट ___३०४, सनफ्लैश, रिषि काम्प्लैक्स, होलीक्रास रोड आई. सी. कॉलोनी, वोरीवली (वैस्ट) मुम्बई-४००१०३ मुद्रक प्रिन्ट 'ओ' लैण्ड बाईस गोदाम, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्रसिद्ध लेखक एवं दार्शनिक चिन्तक डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल के ज्येष्ठ पुत्र परमात्मप्रकाश भारिल्ल का जन्म ३० सितम्बर १९५९ को, अशोकनगर (म.प्र.) में हुआ था। बचपन से ही सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहकर धार्मिक पठनपाठन की गतिविधियों में सक्रिय रहे हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय से बीएस.सी. की शिक्षा प्राप्त कर वर्तमान में बम्बई में हीरों के आयात-निर्यात के व्यापार में संलग्न हैं। अपने व्यापार के संदर्भ में अनेकानेक देशों की अनेक यात्राओं के अतिरिक्त प्रवचनार्थ भी आपने अमेरिका सहित अनेक देशों की यात्रायें की हैं। आप अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन के राष्ट्रीय महामंत्री, पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर एवं श्री महावीर स्वामी कुन्दकुन्द कहान दि. जैन मुमुक्षु मण्डल बोरोबली, बम्बई के ट्रस्टी तथा डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल चैरिटेबल ट्रस्ट के महामंत्री हैं। अभिरुचियाँ : चिन्तन, मनन, लेखन, पठन-पाठन व काव्य रचना। प्रस्तुत कृति लेखक की प्रथम प्रकाशित रचना है। आगामी कृतियाँ : मृत्यु महोत्सव, जीवन का वैभव (निबन्ध), समकित Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत 'अन्तर्द्वन्द' कृति के माध्यम से लेखक ने एक पचहत्तर वर्षीय वृद्ध व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में होते स्वाभाविक अन्तर्द्वन्द का सशक्त चित्रण किया है। कथानक की 'चिन्तनधारायें एक ही व्यक्ति के विविध विचारों के आधार पर अनेक रूपों में सहज प्रवाहित हुई हैं। एक पात्रीय प्रस्तुत कथानक का नायक साठोत्तर अवस्था में स्वाध्याय करता प्रतीत होता है; क्योंकि उससे अपने यौवनावस्था में जो आपराधिक काम हुए हैं, उनका उसे पश्चाताप है। खान-पान में आचार-विचार में अपने हिताहित के प्रति अब सजग प्रतीत होता है। जब वह ७५ वर्षीय बृद्ध पुत्रों के सहयोग देने की भावना से दुकान जाता है, घर में नाती-पोतों को संस्कार देना चाहता है तो जनरेशन गेप (पीढ़ियों के अन्तर) के कारण वह उसमें भी सफल नहीं होता और परिवार से उपेक्षा का अनुभव करता है। वह सोचता है कि मैंने जिनके लिए ये सब पाप किए हैं; वे ही अब मुझे सठयाना समझते हैं। मात्र बडे होने से सम्मान और सविधायें जुटाकर श्रवणकुमार बनना चाहते हैं। जिस शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मैंने भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं रखा; अब वह भी जवाब देने लगा है; परन्तु ....। 'अब पछताये क्या होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत'। जब उसे अपने पूर्वकृत आर्त-रौद्रध्यान, स्वार्थी भावना और अनैतिक कार्यों का ध्यान आता है तो उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति वाले लोगों के लिए लेखक ने यह संकेत दिए हैं कि भूत को भूलो और वर्तमान को संभालो, भविष्य स्वतः संभल जायेगा, निराश होने की आवश्यकता नहीं। जिसतरह घास को जलाने के लिए एक चिन्गारी काफी है, उसीप्रकार पूर्व पापपुंज को भस्म करने के लिए सम्यग्ज्ञान की एक चिन्गारी पर्याप्त है। यह एक व्यक्ति की बात नहीं; अपितु सभी साठोत्तरों की समस्यायें हैं। इस कृति द्वारा लेखक ने बहुत ही सरल सुबोध शैली में दिशाबोध देने का सफल प्रयास किया है, एतदर्थ लेखक निश्चय ही प्रशंसा का पात्र है। प्रस्तुत कृति को प्रकाशित करके हमारा ट्रस्ट गौरवान्वित है। ट्रस्ट का संक्षिप्त परिचय कवर पृष्ठ ३ पर है। पुस्तक के आकर्षक कवर एवं मुद्रण व्यवस्था में अखिल बंसल, जयपुर के अथक परिश्रम और सूझ-बूझ के लिए धन्यवादार्ह हैं; एतदर्थ ट्रस्ट उनका आभारी है। - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्द्वन्द आज मैं ७५ साल का हो गया हैं। हालांकि सरकार तो ५५-६० में ही मान लेती है कि जीवन पूरा हो गया, पर तब तो मुझे लगता था कि - “अभी कहाँ ? अभी तो शुरूआत ही है, अभी तो मेरे लगाये हुए वृक्षों पर फल आने शुरू हुए हैं। जीवन तो मैं अब जिऊँगा; भरपूर!" और तब मैं जिजीविषा से भर उठा था। मेरी दृष्टि में सबसे ज्यादा महत्त्व फलते-फूलते व्यापार का था, जिसके कारण ही आज यह जीवन की सांझ खुशगवार बनी थी और मैंने सोचा था कि धम-धोकार चल रहे व्यापार की इस व्यस्तता में बच्चे सब तरफ अच्छी तरह ध्यान नहीं दे पाते हैं व बहुत से महत्त्वपूर्ण पक्ष अनदेखे ही रह जाते हैं। क्यों न मैं उनकी तरफ ही कुछ ध्यान दूँ। और मैंने कार्यालय जाना प्रारम्भ कर दिया। ____ कुछ दिन तो सभी को बड़ा अच्छा लगा, बच्चों ने भी सोचा कि इसमें हर्ज ही क्या है ? उनका मन भी लगा रहेगा व थोड़ी-बहुत देखरेख भी बनी रहेगी। परन्तु मैं निरा ज्ञाता-दृष्टा बने रहने के लिए तो वहाँ गया नहीं था, और ज्यों ही मैंने कर्ता-धर्ता बनने की कोशिश की तो मेरी यह घृष्टता कर्ता-धर्ताओं को अखरने लगी और एक दिन बड़े बेटे ने बड़ी ही विनय के साथ मुझसे निवेदन किया कि - “पिताजी आपने जीवन में क्या कुछ नहीं किया है ? आज जो कुछ भी है सो सब आपका ही किया हुआ तो है ? अब भी यदि हम लोगों के रहते हुए आपको ऑफिस आने की जरूरत पड़े तो फिर भला-----? नहीं! बस अब आप तो गौरव के साथ, आनन्दपूर्ण जीवन जियें और आपकी जो भी इच्छा और आवश्यकता हो, बेहिचक आदेश करें। आपके हर आदेश का पालन होगा।" अन्तर्द्वन्द/१ और इसप्रकार मैं ससम्मान घर बिठा दिया गया। इस परिस्थिति से मैं हर्षित तो हो ही नहीं सकता था और विलाप करने की स्थिति थी नहीं। कुछ दिनों के ऊहापोह के बाद मैंने घर पर ही अपने लिये अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी खोज ली। मैंने महसूस किया कि लड़के व्यापार में व्यस्त हैं व बहुएँ घरबार में, पर बच्चों की ओर ध्यान देने के लिए, उनमें उच्च संस्कारों के सिंचन के लिए किसी के पास अवकाश नहीं है, क्यों न यह कार्य मैं सम्भाल लूँ; पर यह भी इतना आसान कहाँ था? जब मैंने इस काम में हाथ डाला, तभी जान पाया कि समस्या मात्र यह नहीं कि बेटे-बहुओं के पास इन्हें सिखाने के लिए समय नहीं है, वरन् इन बच्चों के पास ही कौन-सा समय है, जब ये अपने माता-पिता या दादा-दादी के पास बैठ-बतिया सकें । एक तो स्कूल व उसके बाद विभिन्न विषयों की ट्यूशनों का एक निरन्तर सिलसिला ? वे कब खेलें व कब खायें, यही एक बड़ी समस्या थी। मैं इन्तजार ही करता रहता कि वे कब आयें और मैं उन पर अपने सद्विचारों का कलश ढोल दूँ, पर यह क्या ? वे तो एक ओर से आते और दूसरी ओर चले जाते । उनके पास तो जलपान के लिए ही अवकाश न था फिर भला वे मेरे पास कब बैठते व मेरी क्या सुनते; पर मुझे तो अपनी सुनानी ही थी, अन्यथा मुझे अजीर्ण होने लगता। जहाँ चाह-वहाँ राह मैंने भी अवसर ढूंढ ही लिया। मैंने फैसला किया कि वे जब भोजन-नाश्ता कर रहे हों तभी मैं अपने उद्गार भी परोस दूँ, 'एक पंथ दो काज'। हालांकि थोड़ी दिक्कत तो होनी ही थी; क्योंकि बच्चे मेरी बातों में गाफिल हो जाते तो वे न तो खाने-पीने में ध्यान दे पाते थे और न ही अपनी मम्मी की बातों पर ध्यान देते थे। फिर भी मेरा यह आइडिया काम कर ही गया; पर अमूमन होता यह कि जबतक उनका नाश्ता चलता, तब तक तो सब ठीक-ठाक चलता; पर नाश्ता खत्म होते ही उन्हें एक भी मिनिट का धैर्य नहीं रहता और तब वे किस्सा पूरा होने की तो बात ही - अन्तर्द्वन्द/२ - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या, वाक्य भी पूरा होने का इन्तजार न करते व भाग खड़े होते, अपनी अगली ट्यूशन के लिए; क्योंकि वे अबतक पहले ही लेट हो चुके होते थे। बच्चे तो दौड़ जाते थे, पर मैं क्या करता ? यदि कोई और वहाँ न होता तो शायद मैं मन मसोस कर चुप भी रह जाता; ठीक उस बालक की तरह, जो गिर पड़ता है तो उठकर चारों ओर देखता है कि किसी ने देखा तो नहीं और आश्वस्त होने पर चुपचाप धूल झाड़कर चल देता है, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैं तो इतना सौभाग्यशाली भी नहीं था; क्योंकि मेरी इस दशा का साक्षी बनने के लिए मेरी पत्नी व बहुएँ तो वहाँ मौजूद थीं ही और नौकर-चाकर भी। तब मैं झेंप मिटाने के प्रयास में अपनी पत्नी की ओर मुखातिब होकर बोलना प्रारम्भ ही करता कि 'फिर मालूम है क्या हुआ विमला!' और वह बोल पड़ती “हाँ ! हाँ !! सब पता है, मैं कोई पहली बार सुन रही हूँ क्या?" और इसप्रकार अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्यों में अपनी सार्थक भूमिका तलाशने के हर प्रयास में पूरी तरह असफल रहने के बाद आज मैं स्वयं भी इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बाध्य हूँ कि मेरा यह जीवन सम्पूर्ण रहा हो या न रहा हो, पर सम्पूर्ण जीवन बीत अवश्य गया है; जीवन बीत गया है और जीवन घट रीत गया है। अबतक तो जीवन का अर्थ भी न समझ सका और जीवन अर्थहीन हो गया। मेरे पास अब करने के लिए कुछ भी शेष नहीं, सिवाय दिन गिनने के। अब हर सुबह मुझे सिर्फ एक ही इन्तजार रहता है सांझ होने का, कि कब भोर होने के साथ ही घोंसला छोड़कर उड़ गए पंछी एक बार फिर घर पर लौटें, एक बार फिर आंगन जगमग हो, यौवन का सौरभ महके व शैशव का कलरव चहके। यानि कि सारे परिवारजन दीवान खाने में एकत्र हो एक-दूसरे के साथ अपनी खुशियाँ बांटे, खेलें-खायें, बैठे-बतियायें। लम्बे-लम्बे इंतजार के बाद कुछ क्षणों के लिए वह पल आते भी हैं अन्तर्द्वन्द/3 व इससे पहले कि मैं अवसाद की स्थिति से उबरकर उसमें सराबोर हो सकूँ कि एक बार फिर पतझड़ आ जाती है, दीवानखाने की महफिल बिखर जाती है। जीवन की रोशनी दीवानखाने से चलकर, शयनकक्ष के रास्ते अन्धकार में विलीन हो जाती है और मैं एक बार फिर करवटें बदलते हुए, रात काटता हुआ भोर का इन्तजार करने लगता हूँ, कोई नई व अनुपम नहीं, वरन् अनगिनत अन्य सुबहों जैसी ही एक और सुबह का, जब एक बार फिर, कुछ ही पलों के लिए ही सही, दीवानखाने में रोशनी आवेगी, कलरव बिखरेगा और फिर सबकुछ बिखर जावेगा कुछ ही पलों में एक और लम्बे से दिन भर के लिए, एक और शाम तक के लिए। ऐसी ही अन्य और अनगिनत सांझों की ही तरह, एक और शाम तक के लिए। सभी कहते हैं कि मैंने जीवन सम्पूर्ण जिया है; सम्पूर्ण जीवन ही नहीं, जीवन सम्पूर्णपने जिया है, सबकुछ ही तो भरा-पूरा है, भरा-पूरा घर परिवार, धम-धोकार चलता कारोबार, सत्ता व अधिकार, सब ओर से प्रेम व सम्मान भरा व्यवहार, स्वास्थ्य व परिवार की अनुकूलता, आखिर और क्या चाहिए? पर मुझे तो इस सम्पूर्णता में भी रिक्तता ही नजर आती है। रिक्तता ही रिक्तता। सब ओर ही तो रीतापन है, कहीं कुछ भी तो नहीं, जिसे जमापूंजी की तरह अगले जीवन में अपने साथ ले जाया जा सके। डेविट-क्रेडिट सब यहीं तो बराबर हो गया, कुछ भी तो नहीं बचा कैपीटल अकाउंट में ट्रान्सफर करने के लिए, तब फिर किसतरह इस जीवन को सम्पूर्ण कहा जा सकता है, परिपूर्ण कहा जा सकता है? पर नहीं ! मैं तो रीता भी कहाँ हूँ ? मैं तो बोझिल हूँ, अत्यन्त ही बोझिल; अनन्त अकृत्य-कृत्यों का बोझ तो लदा है मेरे ऊपर । कौन कहता है कुछ नहीं है कैपीटल अकाउंट में ट्रान्सफर करने के लिए? कर्जा तो है। मैं निर्भार कहाँ हूँ ? रीता व्यक्ति तो निर्धार होता है, निर्भारता तो आदर्श अवस्था है, पर मैं निर्भार कहाँ हूँ ? मैं तो अन्तर्द्वन्द/४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त बोझिल हूँ, अपने पापों से, अपने कर्मों से । कौन कहता है कि मेरे पास कुछ नहीं अपने साथ ले जाने के लिए ? हाँ ले जाने लायक कुछ नहीं, पर ले जाने के लिए तो है न ? जीवन भर किये गये पापों का बोझ । अब पूर्वकृत दुष्कृत्यों का स्मरण व उनके सम्भावित परिणामों की दुश्चिन्ता मेरा पीछा नहीं छोड़ती है। ज्यों-ज्यों मेरा ध्यान पिछले जीवन में घटित विभिन्न घटनाक्रमों पर जाता है, मेरा मन वितृष्णा से भर उठता है। हा! यह मैंने क्या किया ? छोटे क्षणिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए मैंने उन अनन्त कर्मबन्धनों की कितनी बड़ी कीमत चुका डाली ? सिर्फ इसीलिए न कि प्रकट तौर से मुझे वह कीमत तुरन्त नहीं चुकानी थी, शायद तात्कालिक तौर पर तो मुझे कुछ मिलनेवाला ही था; पर क्या कोई भी समझदार व्यक्ति कोई अनुपयोगी या मँहगी वस्तु क्रेडिट कार्ड से सिर्फ इसलिए खरीद लेता है कि अभी कहाँ पैसे देने हैं; अभी तो चीज यूँ ही घर में आ रही है। अरे; कभी तो क्रेडिट कार्ड का भी पैसा चुकाना होगा, वह भी भारी ब्याज के साथ ! ईमानदार व समझदार व्यक्ति के लिए तो क्रेडिट कार्ड के खर्च में व नकद खर्च में कोई फर्क नहीं है और वह तो हर कार्य लाभ-हानि का विचार करके करता है, तब मैंने भला बिना विचारे, वर्तमान के व्यर्थ से व्यवहारों के लिए गम्भीर कर्मबन्धनों का बोझ क्यों अपने सिर पर लाद लिया, क्या सिर्फ इसलिए कि आज मेरा कुछ नहीं बिगड़ता ? अरे आज नहीं तो कल, भोगना तो मुझे ही है न ? अरे कल ही क्यों? आज भी तो उसका फल मैं ही भोगता हूँ अनन्त आकुलित होकर ! क्या मात्र किसी वस्तु या धन का आय-व्यय ही लाभ-हानि है, सुख-दुख है ? परिणामों में व्याकुलता दुःख नहीं ? अरे वस्तुतः तो मात्र व्याकुलता ही दुख है। पर वस्तुओं का ग्रहण -त्याग तो पराधीन है, उसमें तो मेरा कुछ कर्तापना है ही नहीं। अन्तर्द्वन्द / ५ आखिर क्या महत्त्व रखती थी वह बचपन में मित्रों के बीच खेलखेल में होनेवाली जीत-हार ? खेल का उद्देश्य तो मात्र मनोरंजन ही था न? पर मैं खेल में भी ईमानदार न रह सका। हारना तो मुझे मंजूर ही न था, किसी भी कीमत पर ; ईमान की कीमत पर भी नहीं। धिक्कार है मेरी उस हीनवृत्ति को, जो अपने ही प्रिय मित्रों की विजय मुस्कान बर्दाश्त न कर सकती थी। क्या मैं उस समय दोहरा आनन्द नहीं ले सकता था ? एक ओर खेल का आनन्द व दूसरी ओर स्वयं की विजय से प्रसन्न मित्रों की प्रसन्नता का आनंद ? पर मेरा अहंकार तो हमेशा ही उन्हें मात्र पराजित ही देखना चाहता था। क्या इसी का नाम मित्रता है ? तब फिर शत्रुता किसे कहते हैं? क्या मैं मित्र बनकर अपने ही मित्रों से शत्रुवत व्यवहार नहीं करता रहा ? क्या यह जघन्य अपराध नहीं था ? क्या यह महापाप नहीं था और यह महापाप करके मैंने पाया क्या ? प्रतिपल जीत का षडयंत्र रचने की आकुलता ही न ? क्या अभक्ष्यों के भक्षण बिना मेरा यह जीवन नहीं चल सकता था? क्या कमी थी? एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व पौष्टिक पदार्थ उपलब्ध थे भोजन के लिए, पर मुझे तो वही चाहिए थी आलू की चाट । और वह भी अज्ञानवश नहीं, बल्कि यह जानते हुए भी कि इसमें अनन्त निगोदिया जीवों का घात निहित है ? आखिर क्या है भोजन की उपयोगिता और आवश्यकता ? किसे कहते हैं भोजन का आनन्द । भोजन की आवश्यकता मात्र शरीर को स्वस्थ व कार्यक्षम बनाये रखने के लिए ही तो है; व इस उद्देश्य की पूर्ति तो सर्वप्रकार से दोषरहित भोजन से भी भलीभांति की जा सकती है और रही बात स्वाद की, तो ऐसा तो है नहीं कि मात्र अमुक वस्तु ही स्वादिष्ट होती है और अमुक नहीं । यह तो अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम स्वयं अपने लिए कैसा स्वाद विकसित करते हैं । लोक में बहुतायत से देखा जा सकता है कि एक व्यक्ति अन्तर्द्वन्द / ६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को एक वस्तु अत्यन्त पसन्द है व वही वस्तु दूसरे को बिल्कुल नहीं सुहाती। अरे ! विभिन्न व्यक्तियों की तो बात ही क्या ? एक ही व्यक्ति को कभी वही वस्तु अत्यन्त प्रिय लगती है तो कभी अत्यन्त अप्रिय । यदि तेज भूख लगी हो तो रूखी-सूखी मोटी रोटियाँ भी स्वादिष्ट लगती हैं और यदि पेट भरा हुआ हो, तो अत्यन्त प्रिय पकवान देखकर भी हीक आती है, वमन होने लगता है। ___ वैसे भी स्वाद के आनन्द की उम्र ही कितनी है? जबतक भोजन थाली या हाथ में होता है, तबतक तो स्वाद का आनन्द आता ही नहीं एवं जब गले से नीचे उतर जाता है, तब भी स्वाद के आनन्द का तो सवाल ही नहीं; हाँ अधिक भोजन कर लेने पर वेदना ही होती है। अब सिर्फ बचा रहता है, कुछ ही क्षणों का वह काल जबकि भोजन जिव्हा से गुजरता है, सिर्फ इसी छोटे से काल में भोजन का तथाकथित आनन्द प्राप्त किया जा सकता है ? पर इस कुछ क्षणों के आनन्द के लिए अनन्त जीवों का घात? क्या यह सब जान लेने के बाद भी वह भोजन स्वादिष्ट लग सकता है, लगना चाहिए? और यदि फिर भी हमें वही चाहिए तो समझना चाहिए कि हममें गृद्धता कितनी अधिक है, कितना बड़ा पाप है यह ? ___ क्या हमारी यह स्वाद लिप्सा, अनन्त आकुलतारूप नहीं है ? जबतक इष्ट भोजन न पा सकूँ, तबतक विरह की व्याकुलता, फिर उसे जुटाने के प्रयत्नों की आकुलता और फिर अनन्त जीवों का घात करनेरूप परिणामों की क्रूरता भरी तड़प यह सब दुःखरूप है या आनन्दरूप ? फिर इसमें आनन्द कहाँ है ? वर्तमान में अनन्त आकुलतारूप दु:ख व कर्मबन्ध तथा भविष्य में कर्मोदय आने पर प्रतिपल संयोगों की प्राप्ति व तद्जनित आकुलता। यदि हमारे किसी इष्टजन का वियोग हो जावे तो हमें भोजन अच्छा नहीं लगता, सुस्वादु भोजन भी ! अरे चिरवियोग की तो बात ही क्या, यदि कुछ काल के लिए भी पुत्र दूर चला गया हो तो माँ को भोजन नहीं रुचता। अन्तर्वन्द/७ अनन्त जीवों के घात की कीमत पर भी अभक्ष्य भक्षण करना ही है, क्या यह उन अनन्त जीवों के प्रति हमारी अनन्त उपेक्षा नहीं है, अनन्त शत्रुता नहीं है ? वह भी मात्र तत्क्षण नहीं, बल्कि प्रतिपल; क्योंकि हम उन अनन्त जीवों के प्रति मात्र उसी पल अपराध नहीं करते हैं, जब हम उनका घात कर रहे होते हैं, बल्कि उनके प्रति शत्रुता तो हमारे हृदय में प्रतिपल पलती रहती है, जब-जब हमें आवश्यकता हो हम उनके घात के लिए कटिबद्ध रहते हैं और इसीलिए प्रतिपल भयभीत, शशंक व सतर्क बने रहना उनकी नियति है और इसलिए न तो यह अपराध कुछ क्षणों का है और न कर्मबन्ध कुछ ही पलों का, यह एक निरन्तर पाप है, सतत कर्मबन्ध का कारण है। सिंह जंगल में प्रतिपल शिकार में व्यस्त नहीं रहता, शिकार तो वह कभी-कभी ही करता है, मात्र भूख लगने पर, वह भी मात्र एक जानवर का; परन्तु एक नहीं सभी प्राणी भयभीत तो सदा ही बने रहते हैं। एक बार, एक प्राणी पर हमले की आशंका में सारे जानवर हमेशा ही भय का महादुख भोगते हैं, उन अनन्त प्राणियों को अनन्तकाल तक अनन्त भयभीत रखने वाला सिंह का वह क्रूर परिणाम क्या मात्र एक दिन में एक जानवर की हिंसा का साधारण पाप है ? नहीं, किसी भी वक्त कोई भी प्राणी उसके हाथ पड़कर अपना जीवन गंवा सकता है। इसप्रकार उसके रहते कभी भी किसी भी प्राणी की सुरक्षा असंदिग्ध नहीं है; इसीलिए वह सिंह प्रतिपल सम्पूर्ण प्राणीमण्डल का अपराधी है। उसीप्रकार अभक्ष्य का भक्षण करनेवाला मनुष्य (जीव) प्रतिपल ही जगत के समस्त प्राणियों के प्रति अपराधी है। ___ अरे सिंह तो फिर भी पेट भर जाने पर शिकार नहीं करता, पर यह मनुष्य ? स्वयं का पेट भरा होने पर पड़ौसी के लिए अथवा आज नहीं तो कल के लिए भी शिकार कर गुजरेगा ? इसकी अनन्त लालसा के सामने तो कोई भी, कभी भी सुरक्षित नहीं। कौन कह सकता है कि उन अनन्त जीवों में हमारे भूत व भावी अनन्त - अन्तर्द्वन्द/८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवों के अनन्त माता-पिता, पुत्र-पुत्री, बन्धु-बान्धव व मित्र-संबंधी नहीं होंगे। कौन कह सकता है उन अनन्त जीवों में भविष्य के अनन्त सिद्ध शामिल नहीं होंगे ? भूत व भविष्य की बात क्या करें। वे सभी हमारी ही तरह वर्तमान में भी तो अनन्त गुणों के स्वामी भगवान आत्मा ही हैं। उन अनन्त भगवान आत्माओं के प्रति हमारी यह घोर उपेक्षा, हमारा यह घोर प्रमाद; क्या कोई छोटा अपराध है ? वह भी मात्र एक क्षण के स्वाद के लिए। अरे ! यह उन अनन्त भगवान आत्माओं का ही घात नहीं था, यह तो निज भगवान आत्मा का घात था, इस अबंधस्वभावी भगवान आत्मा के लिए अनन्त कर्मबंध का निमित्त व अनन्तकाल तक भवभ्रमण का कारण था; पर मुझे इसकी खबर ही नहीं। क्या-क्या अन्याय व अनीति नहीं की मैंने ? न सही अपने पुत्र के लिए, मित्र के बेटे के लिए ही सही; पर रिश्वत देकर पीएमटी (Pre Medical Test) की परीक्षा में पास करा देना क्या छोटा अपराध था ? रिश्वत देकर समाज व शासनव्यवस्था को तो भ्रष्ट किया ही, पर जिस विद्यार्थी का हक छीनकर अपने मित्र के नाकाबिल पुत्र को दिलाया, उसके प्रति कितना बड़ा अपराध था वह? जिस योग्य छात्र का हक मैंने छीन लिया, उस पर क्या गुजरी होगी ? जाने क्या बन पाया होगा वह? न जाने कुछ बन भी पाया होगा या नहीं; या जीवन भर के लिए एक साधारण आदमी बनकर रह गया होगा, एक साधारण मजदूर; बेचारा मजबूर । न जाने किस अंधेरे घर का दीप प्रज्वलित होते-होते रह गया होगा ? कौन जाने उस घर का अंधेरा उसके बाद कभी मिट भी सका होगा या नहीं। यह मात्र उस छात्र के प्रति ही अपराध नहीं था, यह उसके विवश माता-पिता के प्रति भी कितना बड़ा अन्याय था, जिनकी आँखों का वह तारा होगा, उनकी आशाओं व अरमानों का एकमात्र केन्द्रबिन्दु । कौन अन्तर्द्वन्द/९ जाने उस एक घोड़े पर उन्होंने क्या-क्या दाव पर लगा रखा हो ? हो न हो शायद सर्वस्व ही। मात्र इस आशा में कि यदि एक बार यह डॉक्टर बन जावे, तो जन्म-जन्म के पाप कट जावें, दारिद्र्य मिट जावे ! जब मेरे इस दुष्कृत्य के कारण वह असफल घोषित कर दिया गया होगा, तब उनका क्या हुआ होगा, उन पर क्या गुजरी होगी ? अरे सिर्फ वही क्यों ? क्या उनकी आगामी अनगिनत पीढ़ियाँ जीवन के उजालों से वंचित नहीं कर दी गईं, अन्धकार के गर्त में नहीं धकेल दी गईं ? उद्गमस्थल पर विद्युत का तार काट दिये जाने पर सम्पूर्ण महानगर अंधकार में डूब जाता है। और वह दुष्कृत्य मैंने जिसके लिए किया था, उसने क्या किया? वह तो १० साल में जैसे-तैसे डॉक्टर बनने के बाद अंगरों के निर्यात के कारोबार में लग गया। ___ क्या यह देश व समाज के प्रति मेरी गद्दारी नहीं थी, क्या मैंने अनेकों मरीजों को एक योग्य डॉक्टर की सेवा से वंचित नहीं कर दिया ? जाने वह कितने लोगों की जीवनरक्षा का निमित्त बनता। प्रतिदिन अपने इसीप्रकार के अविचारी कृत्यों द्वारा हम देश व समाज का इतना बड़ा नुकसान कर डालते कि अपना सम्पूर्ण जीवन भी समाजसेवा में झोंककर हम इसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर सकते। कभी-कभी तो हम अपने इन्हीं कृत्यों को समाजसेवा मान बैठते हैं और इस सबके बदले समाज से अनेकों अभिनन्दन और न जाने क्या-क्या अपेक्षायें करने लगते हैं। क्या यह अनन्त बंध का कारण नहीं होगा? ___अरे कितने अज्ञ हैं हम! हम स्वयं अपने आपको नहीं जानते; हम स्वयं अपने मनोभावों का विश्लेषण नहीं कर पाते हैं। हम क्या हैं और अपने आपको क्या समझते हैं और स्वयं हमारी निगाहों से ओझल, हमारे अन्दर छुपी हुई हमारी अपनी हीन-वृत्तियाँ किसप्रकार समाज के वातावरण को विषाक्त किया करती हैं, इसकी हमें कल्पना ही नहीं रहती है। इसे कुल की मर्यादा के उल्लघंन का डर कहो या दुस्साहस की कमी; अन्तर्द्वन्द/१० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हम एक अपरिष्कृत समाज के बीच रहने के लिए अभिशप्त बने रहते हैं। कि उन कुकर्मों में मैं स्वयं लिप्त नहीं हुआ, परन्तु अपने ही कॉलेज के साथी मित्रों द्वारा अनेकों नवयौवनाओं के उज्ज्वल जीवन में अनंत अंधकार बिखेर देने के प्रयासों का मैं मूक साक्षी कैसे बनकर रह सका ? क्या सचमुच ही मैं अपने स्वयं के मित्रों को रोकने में अक्षम था ? मुझे उन कन्याओं में अपनी भगिनी (बहिन) के दर्शन क्यों नहीं हुए? कहीं मेरे अवचेतन के किसी कोने में छुपी वासना उनका मौन अनुमोदन तो नहीं किया करती थी ? क्यों नहीं मैंने उस दौर में अपने अन्तर को टटोलने का प्रयास किया ? क्या किसी की क्षणिक वासना की तृप्ति के लिए, किसी का संपूर्ण जीवन कलंकित कर डालने का प्रयास काविले माफ है? मैं तो अपने आपको चारित्रिक व मानसिक धरातल पर समाज के उच्चतम वर्ग का प्रतिनिधि समझता हूँ। अगर इस सर्वोच्च वर्ग का मानस ऐसा है तो अन्य किससे क्या अपेक्षा की जा सकती है ? और सारा समाज इसीप्रकार की वृत्तियों से आप्लावित है - यह जानकर आज अपने कोमलमति बालकों को रक्षणहीन, स्वतंत्ररूप से अपने इस समाज में विचरण करने के लिए अकेला छोड़ने की कल्पनामात्र आज मुझे कम्पायमान कर देती है। एक सभ्य समाज अपने सदस्यों से सभ्य, नैतिक, उदार एवं सच्चरित्रमय स्नेहिल व्यवहार की अपेक्षा करता है और लड़कपन का उद्दाम प्रवाह इसप्रकार की अपेक्षाओं को बन्धनों का नाम देकर रोंद डालना चाहता है; पर वक्त के साथ-साथ जब वह प्रवाह मन्द पड़ता है व हम शिकारी से मिटकर शिकार बनने की स्थिति में आने लगते हैं; तब हमें सभ्यता, नैतिकता, उदारता, सच्चरित्रता एवं स्नेह के सुरक्षा कवच की आवश्यकता गहराई से महसूस होने लगती है; पर उससमय कोई और लड़कपन की उन्हीं निर्लज्ज, निष्ठुर, उदण्ड, उद्दाम तरंगों पर सवार होकर समाज की उक्त अपेक्षाओं के विरुद्ध विद्रोह का विगुल बजाने लगता है अन्तर्वन्द/११ - ___क्या हम स्वयं अपनी वृत्तियों को परिमार्जित करके अपने स्वयं के लिए एक बेहतर समाज की रचना नहीं कर सकते; एक ऐसा समाज, जिसमें रहने से हम भयभीत व सशंकित न रहें; हम अपने आपको संरक्षित महसूस करें। अब वर्माजी वाले मामले की ही बात लीजिए। इस बात से कौन इन्कार करता है कि पड़ौस वाले वर्माजी का हमारे घर की भूमि का एक हिस्सा दबा लेना, एक अन्यायपूर्ण कदम था; तथापि क्या उस कुछ गज भूमि के टुकड़े के लिए अनेकों वर्षों तक कोर्ट में केस लड़ना व अपने उपयोग को उसमें उलझाये रखना मेरे लिए उचित था? मैंने कितनी रातें काली की हैं उन द्वेषपूर्ण विचारों में। आखिर मिला क्या ? भूमि का वह टुकड़ा तो पहले भी वहीं था, अब भी वहीं है; तब भी खाली पड़ा था, अब भी वैसा ही खाली पड़ा है। जीवन के वे कुछ वर्ष व वह महत्त्वपूर्ण समय जो किसी सार्थक चिन्तन में बीत सकता था, द्वेष के गन्दे नाले में बह गया। शायद वर्माजी द्वारा किया गया वह छोटा-सा अन्याय, मेरे स्वयं के द्वारा अपने स्वयं के प्रति किये गये अनन्त कर्मबन्धन के इस घोर अन्याय के सामने नगण्य ही ठहरता। __और फिर वर्माजी का प्रकरण तो मात्र एक उदाहरण मात्र है, पर इसतरह के अनेकों प्रसंग कदम-कदम पर मेरे जीवन में आते रहे और उन्हें निमित्त बनाकर मैं निरन्तर ही आर्त-रौद्र ध्यान में व्यस्त रहा, बड़े-बड़े सैद्धान्तिक जामे पहिनाकर अपनी इसी मलिन परिणति को विभूषित करता रहा। “अन्याय करना भी अपराध है व अन्याय सहना भी अपराध है।" उक्त उक्ति का सहारा लेकर अपने हर विद्वेषपूर्ण कर्म को अन्याय के विरुद्ध अपने संघर्ष का नाम देता रहा। यदि सचमुच हम उक्त सिद्धान्त का पालन करते हैं तो हर समय क्यों नहीं, हर घटना में क्यों नहीं, हर व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द/१२ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ क्यों नहीं; इसी सिद्धान्त को लागू करते ? सिर्फ कहीं-कहीं ही क्यों? पर हम तो सिद्धान्तवादी नहीं, सुविधाभोगी जीवन जीते हैं, जहाँ कोई तथाकथित सिद्धान्त हमारे क्षणिक स्वार्थ का पोषण करता है, वहाँ हम सिद्धान्तवादी बन जाते हैं और किसी क्षुद्र से स्वार्थ की पूर्ति में यदि बड़े बड़ा सिद्धान्त बाधक बनता है, तो हम उसकी भी परवाह नहीं करते हैं। जब किसी लंगड़े- लूले, अपंग-असमर्थ, बूढ़े- भिखारी को मात्र पेट भरने के लिए एक-दो रुपये भीख देने का सवाल खड़ा होता तो भिक्षावृत्ति को बढ़ावा न देने का मेरा सिद्धान्त आड़े आ जाता है और मेरी जेब में पड़े वे सिक्के वहीं अठखेलियाँ करते रह जाते हैं, मेरे हर कदम के साथ 'हरी कीर्तन' करते रहते हैं व उस भिखारी के पेट में चूहों की उछल-कूद जारी रहती है; पर ट्रेन में एक रात के लिए सीट पाने के लिए हम तुरन्त कुछ सौ रुपये निकाल कर टी.सी. को दे देते हैं एवं धन्यवाद बोलते हैं। तब हमें याद नहीं आता कि इसतरह रिश्वतखोरी को बढ़ावा देकर मैं सम्पूर्ण समाज को भ्रष्ट कर रहा हूँ और यह नासूर न जाने देश और समाज को किस गर्त में ले जावेगा। सचमुच यह संसार तो सम्पूर्णतः अन्यायपूर्ण ही है। अरे ! अन्यायपूर्ण क्या ? 'अन्याय' ही संसार है व संसार मात्र 'अन्याय' ही है। अरे दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी बातों की तो बात ही क्या की जावे ? कौन फैसला करेगा कि ट्रेन में चढ़ते वक्त आपने मुझे जो धक्का दिया, वह इरादापूर्वक किया गया कृत्य था या अनायास, उचित या अनुचित, काबिलेमाफ था या नाकाबिले माफ ? अरे यहाँ तो अपने एक समय की उदरपूर्ति के लिए एक प्राणी दूसरे प्राणी को बिना अपराध, बिना पहिचान, बिना शत्रुता - मित्रता के, जीवित ही निगल जाता है और किसी को कोई मलाल नहीं रहता। ऐसे इस जगत में न्याय-अन्याय की बात करना बेमानी नहीं लगता ? क्या अब भी न्याय की कोई उम्मीद रह जाती अन्तर्द्वन्द / १३ है ? यदि हमें न्याय ही चाहिए तो “मात्र मुक्ति का विचार ही अन्याय का प्रतिकार हो सकता है।" समझाने को तो मैं अपने मन को समझा सकता था कि प्यार, युद्ध व व्यापार में सब जायज है; पर क्या मैं सचमुच अपने आपको उस मुनाफा खोरी के कृत्य के लिए माफ कर पाऊँगा, जिसके कारण हो न हो कितने लोगों को चार रोटियों की आवश्यकता होते हुए भी तीन रोटियों से ही संतुष्ट होना पड़ा होगा, या कि बच्चे का पेट अच्छी तरह से भरने के प्रयास माता को भूखा ही सो जाना पड़ा होगा। आखिर इसप्रकार उपार्जित वह धन आज मेरे किस काम आया ? आज तो मुझे न उसे गिनने का अवकाश है न सम्भालने की सामर्थ्य; इस निष्ठुर कृत्य से उपार्जित वह द्रव्य आज मेरी सम्पत्ति का एक नगण्य सा हिस्सा ही तो है। उन निर्दयी परिणामों के फलस्वरूप हुए कर्म बन्धनों का अनन्त बोझ तो आज मेरे सिर पर है; पर क्या इस राशि का कुछ भी हिस्सा मैं अपने साथ ले जा सकूँगा ? पैसा! पैसा!! पैसा !!! न जाने कैसी अद्भुत वस्तु है यह पैसा ! मानव सभ्यता का अनुपम अनुसंधान एक विस्मयकारी सर्जन । आचार्यों ने कहा है समयो सव्वत्थ सुन्दरो लोए अर्थात् आत्मा लोक में सबसे सुन्दर है; पर हमें तो लोक में पैसे से ज्यादा सुन्दर कुछ दिखाई ही नहीं देता; न जाने कैसा गजब का आकर्षण है इसमें । सारी दुनिया दीवानी हुई जा रही है इसके पीछे । क्या सचमुच यह ऐसी वस्तु है, जिसके पीछे सबकुछ समर्पित कर दिया जावे, कोई भी बलिदान किया जा सके । जिस पैसे के लिए हम अपना सारा जीवन झोंक डालते हैं, क्या वह सम्पूर्ण पैसा देकर भी हम पुनः जीवन का एक क्षण भी खरीद सकते हैं ? नहीं ! तब हम अपना यह जीवन धनोपार्जन में कैसे झोंक सकते हैं ? अन्तर्द्वन्द / १४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत में सोने का भी बड़ा आकर्षण है। पर वह जगत के परिप्रेक्ष्य में उचित ही कहा जावेगा; क्योंकि हम पैसा देकर सोना खरीद सकते हैं व जब चाहें सोना बेचकर फिर पैसा प्राप्त कर सकते हैं। दोनों के बीच बराबरी का व्यवहार है और इसलिए दोनों बराबरी की वस्तुएँ हैं, एक के पीछे दूसरे की कीमत चुकाई जा सकती है, पर जीवन और पैसे के बीच इसप्रकार का रिश्ता नहीं है, सारा जीवन झोंक डालें फिर भी पैसा मिले तो मिले, न मिले तो न भी मिले। यदि मिल भी जावे, विपुल दौलत मिल जावे; तब भी उस सारी दौलत को एक क्षण के जीवन में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उक्त तथ्य साबित करता है कि जीवन कोई बाजारु चीज नहीं है, क्योंकि यह बाजार के नियमों का पालन नहीं करता। ठीक यही फार्मूला चरित्र पर, भावनाओं पर व संवेदनाओं पर भी लागू होता है। अपने चरित्र का पतन कर व स्नेहीजनों व समाज की भावनाओं को आहत कर हम धन-दौलत तो जुटा सकते हैं, पर फिर धन-दौलत लुटाकर चरित्र व भावनायें पैदा नहीं की जा सकतीं; इसलिए मैं कहता हूँ कि ये वस्तुएँ भी बाजारु नहीं, क्योंकि ये भी बाजार के नियमों का पालन नहीं करतीं। यदि इस दृष्टिकोण से मैं विचार करता तो क्या सारा जीवन यूँ ही 'धन संग्रह' में ही नष्ट कर डालता ? अब रामू की ही बात लें। क्या रामू की गाथा हमारे जीवन का सबसे काला अध्याय नहीं है? आखिर क्या अन्तर था हम सभी में व उसमें ? उसने लगभग अपना सारा जीवन ही तो हमारे ही घर में हमारे साथ ही बिता दिया, हम सभी की सेवा करते हुए; अभी बमुश्किल १०-१२ साल का ही तो रहा होगा, जब उसकी माँ उसे हमारे घर पर छोड़ गई थी, यह कहते हुए कि 'यहीं किसी कोने में पड़ा रहेगा, बचा-खुचा बासी खाकर पलबढ़ जायेगा बाबूजी! और बदले में घर के कामों में हाथ बंटा दिया करेगा।' अन्तर्द्वन्द/१५ उस दिन छोड़कर क्या गई मानो मातृत्व के दायित्व से मुक्त हो गई, फिर तो उसने कभी मुड़कर उसकी खोज-खबर ही न ली। रामू यहीं इसी घर में, इन्हीं बच्चों 'समकित व सुरभित' के साथ ही तो खेलते-खाते बड़ा हो गया, फर्क था तो सिर्फ इतना कि जब वे साथ-साथ खेलते तो वे जीतते रहे वह हारता रहा, वे रूठते रहे वह मनाता रहा, वे फैलाते रहे वह समेटता रहा। लगभग साथ-साथ जन्मे, पले-बड़े व रहे; पर वे क्या बन गए और यह क्या बनकर रह गया? रसोईघर के कामों में हाथ बंटाते-बंटाते रामू एक सिद्धहस्त रसोईया बन गया था। यह तो उसकी काबिलियत थी कि रसोईघर पर वह एकछत्र काबिज हो गया था। उसके रहते कभी किसी को वहाँ जाने की जरूरत ही न पड़ती। शायद उसके सिवा कोई और जानता भी न था कि चाय में किसे कितनी चीनी चाहिए व सब्जी में किसे कितनी मिर्ची या कि किसका फुल्का कितना सिकना चाहिए? आलम तो ये हो चला था कि जब कभी यदा-कदा उसे अपने गाँव जाने का मन हो आता तो मानो घर-परिवार पर संकट के बादल से छा जाते। सबके कारण अपने-अपने थे, पर उसके जाने की खबर सुनकर सांप सभी को सूंघ जाता था। ___ अम्मा को लगता था कि दिन का अधिकांश समय अब रसोईघर में ही बीतेगा। मुझे चिन्ता होने लगती कि शायद दिन में दो-तीन कप चाय की कटौती तो हो ही जायेगी। समकित जानता था कि अब समय पर स्कूल पहुँचने के लिए उसे विशेष सावधानी रखनी होगी, तो सुरभित को चिन्ता थी अपनी पसन्द का भोजन न मिल पाने की; क्योंकि माँ का जोर स्वादिष्ट खाने की अपेक्षा पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर अधिक रहता था। वह साल में मुश्किल से १५-२० दिन के लिए गांव जाता था और एक खुली जेल के आजन्म कैदी की भांति पैरोल की अवधि खत्म होते ही अन्तर्द्वन्द/१६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर वापिस अपने उसी रसोई घर में आकर कैद हो जाता था, लगभग वर्ष भर के लिए। इसीतरह वर्षों बीत गए, कभी किसी ने गौर ही नहीं किया कि कब वह शादी कर आया व कब उसके बाल-बच्चे हो गये और माता-पिता मर-खप गये । उसका और सबकुछ हमारा अपना था, सिवाय उसकी उन व्यक्तिगत खुशियों और गमों के तथा उसकी पगार; लगभग १००० रुपये माहवार के। ____ मैं गवाह हूँ कि किसतरह उसका बचपन बड़ी तेजी से झटपट गायब हो गया था, पर एक सीजन तो बीच में छूट ही गया, मानो यौवन तो उसके आया ही नहीं और अभी जब समकित और सुरभित की जबानी सबाब पर थी, वह असमय ही बुढ़ाने लगा। बाल पक गये, चेहरा लटक गया व कमर झुकने लगी। न जाने ऐसे कौन से रोग ने आ घेरा कि यकायक वह बिखरने लगा। हालांकि न तो उसकी बीमारी के बारे में मालूम करना मुश्किल काम था और न ही बीमारी का इलाज करना; पर यह सब कौन करता? आखिर किसी के भी पास फालतू वक्त ही कहाँ था, कोई अपने जीवन की उपलब्धियों को भोगने में व्यस्त था तो किसी का कैरियर अपने सबाब पर था और कोई अपने जीवन की आधारशिला को मजबूत करने में जी-जान से जुटा हुआ था; ऐसे में उस बिखरते खण्डहर की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही किसे थी? हाँ एक चिन्ता कभी-कभी जरूर हो जाया करती थी कि कहीं उसे कोई चेपी रोग तो नहीं है? कहीं ऐसा न हो---- १५ मिनिट बचाने के लिए, लाइन में लगकर सिनेमा के टिकिट लेने की बजाय जिन्हें १०-२० टिकिट भी १०० रुपये प्रति टिकिट ब्लैक में लेना पोसाता हो, वे उसे लेकर कई दफा घण्टों तक म्यूनिसिपिल हॉस्पिटल आउट डोर की लाइन में खड़े रहते थे; क्योंकि आखिर उसका इलाज किसी प्राइवेट डॉक्टर से कैसे कराया जा सकता है ? उसकी फीस तो १०० अन्तर्द्वन्द/१७ . रुपये हैन ! __ और एक दिन जब पानी सिर से ऊपर बढ़ने लगा तो परिवार के सभी सदस्यों की एक आवश्यक मीटिंग हुई, जिसमें आवाल-गोपाल सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। उसके बिगड़ते स्वास्थ्य के प्रति अपनीअपनी चिन्ता व्यक्त की, तद्जनित दुष्प्रभावों का आकलन किया गया और फिर एक सर्वसम्मत निर्णय के तहत अगले ही दिन उसे उसके जीवन भर की सेवाओं के पुरस्कार स्वरूप बीस हजार रुपये नकद इनाम देकर बिना उसके गाँव का नाम व पता पूछे ही उसके गाँव जाने वाली बस में बिठा दिया गया। हाँ, इस बार उसके बैग की तलाशी भी नहीं ली गई थी। उस दिन रामू गया, सो गया। उसके बाद आज तक किसी को भी मालूम नहीं कि उसका क्या हुआ ? एक दिन वह था, जब रामू के बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था। घर में कोई भगवान का नाम ले या न ले पर रामू का नाम दिन में सैंकड़ों दफे लिया जाता था। यदि चार बार आदेश दिये जाते थे तो दश बार चिरौरियाँ भी की जाती थीं, पर आज उसे कोई याद भी नहीं करता है। मानो वह दुःस्वप्न जीवन में कभी आया ही न था। आज उसकी जगह गोपाल ने ले ली है। जब से रामू घर में आया था, तब से आज तक उसके साथ घटित होनेवाली हर घटना का मैं मूक, किन्तु जागरुक साक्षी बना रहा। मैं हर चीज के मायने बड़ी अच्छी तरह समझता था, पर मैंने यह सब बदलने की कोशिश कभी नहीं की। हाँ यह सत्य है कि मुझे स्वयं यह सब अच्छा नहीं लगता था और शायद यदि स्वयं मुझे ही इस व्यवहार का संचालन करना होता तो मैं कर भी नहीं पाता; तथापि सब कुछ मेरी मौन सहमति से चलता रहा। ____ हालांकि हर घटनाक्रम पर मेरी पैनी निगाह रहती थी और सबकुछ ठीक-ठाक चलता देख, मैं उस सबसे अनभिज्ञ दिखने का ही प्रयास - अन्तर्द्वन्द/१८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता । हाँ कभी-कभी किसी क्षणिक भावावेशवश कोई उसके प्रति अतिरिक्त संवेदनशील हो उठता, कृपावन्त हो जाता तो अति संक्षेप में ही, मोह तजने की प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा देकर मैं तत्काल ही उससे विमुख हो लेता, ताकि कोई मेरे इस योगदान का नोटिस भी न ले सके । मैं इसीप्रकार काजल की कोठरी में किसी तरह सावधानीपूर्वक बचतेबचाते एक शुभ्र व धवल जीवन जीता रहा। यूँ तो मेरे जीवन का अनुभव बोलता है कि किसी का मनोगत छुपता नहीं, प्रगट हो ही जाता है। किसी का कुछ जल्दी या किसी का कुछ देर से । यदि कोई समझता है। कि दुनिया मुझे सिर्फ उसीरूप में देख पाई है जैसा कि मैं दिखने की कोशिश करता रहा, तो यह उसकी भ्रान्ति है। होता तो यह है कि लोग यह तो भांप ही लेते हैं कि आप कैसे हैं, साथ ही साथ यह भी भांप जाते हैं कि आप क्या छुपाने का प्रयास कर रहे हैं व कैसे दिखना चाहते हैं? और फिर वे आपका भ्रम बनाये रखने में आपके सहयोगी बन जाते हैं और ऐसा ही प्रदर्शन करते हैं मानो वे कुछ समझे ही नहीं। इसे ही तो कहते हैं। सभ्यता का विकास । नंगे राजा को नंगा कहने का मूर्खतापूर्ण साहस तो हजारों लोगों के बीच मात्र एक नासमझ बालक ही कर सकता है न ! आज जब यह विचार मेरे मन में आता है कि कोई जान पाया या न जान पाया; पर क्या प्रकृति से मेरा यह विचार छुप सका होगा ? जाने कैसे-कैसे कर्मबन्ध हुए होंगे मेरे इन मायाचारी परिणामों के फलस्वरूप । क्या मुझे स्वयं ही इन एक-एक कृत्यों का फल नहीं भोगना पड़ेगा। मैं आज खुद अपने आपसे पूछता हूँ कि आखिर क्या फर्क था उसमें और हम सब में ? हम सभी तो भवसागर में भटकते-भटकते मात्र संयोगवश ही, मात्र कुछ ही समय के लिए यहाँ एक छत तले एकत्र हो गये हैं और चाहे अच्छी तरह रहें या एक-दूसरे से उलझते रहें, एक निश्चित समय अन्तर्द्वन्द / १९ 10 तो सभी को साथ-साथ गुजारना भी अपरिहार्य ही है व फिर एकएक कर बिखरने के क्रम को रोक पाना भी किसी के लिए सम्भव नहीं है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि सभी के आगमन के मार्ग अलग-अलग हैं। कोई जन्म लेकर इस कुनबे में शामिल हुआ तो कोई ब्याहता बनकर और कोई किसी अन्य मार्ग से अपने पूर्व जन्मों का कर्जा उतारने के लिए, अपना स्वयं का घर बार छोड़कर इस कुनबे में शामिल हो गया । यह तर्क बिल्कुल ही बेमानी है कि उसने हमारी माँ की कोख से जन्म नहीं लिया फिर आखिर वह हम जैसा कैसे हो सकता है, हमारा कैसे हो सकता है ? यदि अपनेपन का यही मापदण्ड है तो फिर यही फार्मूला अपनी ब्याहता स्त्रियों पर भी तो लागू होता है ? पर वे तो समय पाकर अपने सहोदर से बढ़कर हो जाती हैं, अरे ! बढ़कर क्या ? वे ही सबकुछ हो जाती हैं, सहोदर तो अन्य हो जाता है। मैं समझ नहीं पाता कि एक अन्य घर से आई स्त्री जब इस घर में इसतरह घुलमिल जाती है, इस मय हो जाती है, तो फिर यह सेवक क्यों नहीं ? यह भी तो उस कन्या की ही तरह अपना सबकुछ छोड़कर यहाँ आ गया है और जिसप्रकार वर्ष में कुछ दिन के लिए पत्नी मायके हो आती है; वह भी हो आता है। यदि पत्नी विषय-पोषण में निमित्त बनती है तो यह भी कहाँ पीछे है ? फर्क है तो सिर्फ इतना ही न, कि कोई एक इन्द्रिय के भोग में निमित्त बनता है व कोई अन्य इन्द्रिय के । यदि कोई फर्क है तो मात्र अपनेपन का, अपनापन महसूस करने का। पर रामू तो इस परिवार के साथ एकमेक ही हो चुका था। उसे तो हमेशा ही इसी परिवार की खुशियों के बीच चहकते देखा गया है व परिवार के गम में गमगीन होते देखा गया है। उसके अपने जीवन में भी कोई ईद या मुहर्रम आई या आया हो ऐसा हम सभी तो कभी महसूस नहीं कर सके। फिर क्यों, हम जैसा खाते-पीते, हमारे साथ ही रहते, इसी हवा में श्वासोच्छ्वास लेते हुए और सुख-दुःख का भागीदार बनते हुए सारा जीवन ही तो बीत अन्तर्द्वन्द / २० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, तब भी वह बेगाना ही बना रहा ? क्या उसके प्रति मेरा; मेरा ही क्या हम सभी का यह उपेक्षाभाव अनन्त क्रोध, अनन्त द्वेष की श्रेणी में नहीं आता ? यदि ऐसा है तो हमने कभी क्यों नहीं सोचा कि इन भावों का फल क्या होगा? अरे लोक में भी खून की सजा खून या आजीवन कारागार होती है। एक खून करो और जीवनभर कारागार में रहकर उसका कर्ज उतारो; फिर हर पल किये गये किसी की संवेदनाओं के खून का मुझे क्या प्रतिफल मिलेगा ? क्या कभी मुझे भी इसीतरह अपना पूरा जीवन झोंककर किसी का कर्ज उतारना होगा ? काश! यह आज वाली समझ मुझे पहिले ही आ जाती। जीवन तो जीना ही था, यदि विचारपूर्वक जिया होता तो यही जीवन, जीवनमरण का अन्त करनेवाला साबित होता, जो अब अनन्त भव-भ्रमण का निमित्त बनकर रह गया है। कितना आत्ममुग्ध था मैं अपने मनोभावों को प्रकट न होने देने वाली अपनी व्यवहार शैली पर इसे मैं जीवन जीने की कला मानता रहा और अपनी इस काबिलियत पर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता रहा। हालांकि मन मेरा भी थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा, मलिन ही था; पर लोग मुझे महन्त समझते रहे और मैं भी अपने व्यवहार से उन्हें यही आभास देता रहा । शायद यही कारण रहा कि मुझे सचमुच महन्त बनने की आवश्यकता ही महसूस न हुई; क्योंकि तत्कालिक तौर पर तो मुझे महन्तपने की मान्यता मिलती ही रही, पर मैंने कभी यह तो सोचा ही नहीं कि मेरा यह व्यवहार मायाचार की श्रेणी में आता है और मुझे अपने इस एक-एक पल के मायाचार के लिए युगों-युगों तक क्या कीमत चुकानी होगी ? क्या यही जीवन सीधे व सरल व्यवहार के साथ नहीं जिया जा सकता था ? तब भी क्या कसर रह जाती मेरे जीवन में ? यूं तो यह शाश्वत अन्तर्द्वन्द / २१ 11 सत्य है कि मान-प्रतिष्ठा, भोगसामग्री, अधिकार व अनुकूल-प्रतिकूल संयोग सब पूर्वकृत पुण्य-पापादि के उदयानुसार ही मिलते हैं और यदि मेरे तद्रूप पुण्य का उदय था तो इन सबसे मुझे कौन वंचित कर सकता था ? तब क्या मेरा यह छलकपट भरा व्यवहार व्यर्थ ही न रहा ? अरे व्यर्थ कैसे रहेगा, वह तो अनर्थ का सृजन करेगा, तब शायद मैं विचार करूँगा कि यह मुझे किन पापों की सजा मिल रही है, पर शायद मुझे तब अपने इन पापों की स्मृति ही नहीं रहे और स्मृति रहे भी तो क्या ? मैंने अपने इन क्रियाकलापों को, अपनी इन करतूतों को पाप माना ही कब है? मैं तो इन्हें जीवन जीने की कला मानता रहा और इस जगत में अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक मानता रहा। मैं मानता रहा कि यदि यह सब न किया जावे तो जीवन सफलता पूर्वक जिया ही नहीं जा सकता; पर आज मैं स्वयं ही यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर मेरी इस मान्यता का आधार ही क्या है ? मेरी यह मान्यता आखिर क्यों बनी कि छलकपट रहित सीधे-सादे व्यवहारपूर्वक, जीवन सफलता पूर्वक नहीं जिया जा सकता ? आज जब गम्भीरता पूर्वक विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि यह सब मेरा मौलिक चिन्तन नहीं है, मैंने इस बारे में सोचा ही कब है ? अरे मेरे इस जीवन में चिन्तन को अवकाश ही कहाँ था ? यह मान्यता व इसीतरह की अन्य अनेक धारणायें तो मात्र जगत के वातावरण में से जगत की प्रचलित सामान्य मान्यताओं व कार्य प्रणालियों में से अनजाने ही ग्रहण कर लीं और उनका अनुसरण करने लगा। पर क्या सचमुच यह जीवन इसीतरह जिये जाने के योग्य था ? क्या मुझे स्वयं चिन्तनपूर्वक अपने लिए, अपनी रुचियों व योग्यताओं के अनुरूप, जीवन-शैली का विकास नहीं करना चाहिए था? क्या अपने इस जीवन के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित नहीं करने चाहिए थे ? और फिर अन्तर्द्वन्द / २२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन लक्ष्यों की पूर्ति करने वाली जीवनशैली नहीं अपनानी चाहिए थी? तब फिर हम सभी ऐसा क्यों नहीं करते ? क्यों नहीं स्वयं अपनी जीवन शैली का निर्माण करते ? क्यों नहीं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करते? क्यों छोड़ देते हैं अपने इस जीवनरूपी तिनके को संसाररूपी सागर में स्वच्छन्द (भाग्य भरोसे) विचरण के लिए, जिसका न कोई लक्ष्य है न अपने आप पर कोई नियंत्रण। यदि हम स्वयं अपने आपको इतना सक्षम नहीं मानते कि स्वयं विचारपूर्वक अपनी रीति-नीति और दिशा तय कर सकें व अनुसरण करना ही हमारी नियति हो, मजबूरी हो तो भी क्या अनुसरण भी विचार पूर्वक नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें सुपात्रों का अनुसरण नहीं करना चाहिए ? क्या हम कुछ आदर्श पात्रों का चुनाव नहीं कर सकते थे, जिन्होंने अपने जीवन के लक्ष्य निर्धारित किये थे और फिर उन्हीं लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपने जीवन की एक विशिष्ट शैली निर्धारित की थी, कुछ सिद्धान्तों का पालन किया था ? और अन्ततः हम भी उन पात्रों के समान अपने लक्ष्य को हासिल कर सकते थे। हमने अनुसरण भी किया तो वह भी भीड़ का। भारी भीड़ में खड़े एक जनसामान्य की मानसिकता का अनुसरण किया, उसकी ही विचारधारा अपना ली, उसके जैसा ही आचरण करने लगे, उसके जैसी ही क्रियायेंप्रतिक्रियायें व्यक्त करने लगे; पर क्या कभी विचार किया कि ऐसा करके हम क्या पा सकेंगे? ___ अरे और क्या पा सकेंगे भीड़ का अनुसरण करके तो हम मात्र भीड़ का ही हिस्सा बन सकते हैं, एक अदना-सा हिस्सा, लाखों लोगों जैसा; पर लाखों में मात्र एक, जिसकी शायद कोई अहमियत ही नहीं, कोई गिनती ही नहीं। अरे भीड़ में हजारों की तो कोई गिनती ही नहीं होती, हम कहते हैं न कि १०-१५ हजार लोग थे। मानों, जैसे १० हजार वैसे १५ हजार । ५ हजार कम या ज्यादा ! क्या फर्क पड़ता है ? जिन पाँच-दस अन्तर्द्वन्द/23 हजारों की कोई गिनती ही नहीं, हम उनमें से एक बनकर रह जायेंगे। ___ यदि हम भीड़ का अनुसरण करेंगे तो भीड़ जैसे ही बन पायेंगे, कुछ विशिष्ट नहीं बन सकते। यदि हमें अनुसरण ही करना है तो उस विशिष्ट व्यक्ति का अनुसरण क्यों नहीं करें, जिसके इर्द-गिर्द यह लाखों की भीड़ मंडरा रही है? __ यदि हम विशिष्ट का अनुसरण करें तो विशिष्ट बन सकते हैं; पर इस सबके लिए तो चिन्तन की आवश्यकता है न ! दरअसल मैंने अपने लिए विचारपूर्वक कोई मार्ग चुना ही नहीं, बस अन्जाने ही अपने इर्द-गिर्द जो पाया, उसका अनुसरण करता चला गया और इसी का परिणाम है कि आज मैं इस मुकाम पर खड़ा हूँ। सारा जीवन गुजार लेने के बाद आज मैं पाता हूँ कि जीवन की उपलब्धि के नाम पर आज मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका दो वाक्यों में भी बयान कर सक। यूँ कहने को तो लोग बहुत कुछ कहते हैं, मेरे जीवन की उपलब्धियों का बखान करते थकते ही नहीं और मैं भी अबतक उनकी बातों में आता रहा। वे बहलाते रहे और मैं बहलता रहा, गद्गद् होता रहा और अपनी उपलब्धियों को, अपने आपको महान समझता रहा । ठीक उन छोटे-छोटे बालकों की भांति जिनके क्रिया-कलाप न तो किसी भी मायने में विशिष्ट होते हैं और न ही किसी के लिए कोई खास मायने रखते हैं, फिर भी वे जो भी हरकतें करते हैं, हम बड़े लोग उनकी सराहना करते-करते थकते नहीं व उस सराहना से अभिभूत वे बालक अपनी उन बाल सुलभ क्रीड़ाओं को अपनी महान उपलब्धि समझते रहते हैं। चूँकि जगत उन्हें उपलब्धि मानता है। मात्र इसलिए यदि मेरे क्रियाकलापों को भी उपलब्धियाँ मान लिया जावे तो भी ये उपलब्धियाँ मात्र तात्कालिक ही तो थीं, उनका कोई दीर्घकालिक या त्रैकालिक महत्त्व तो था नहीं। जैसे कि कोई खिलाड़ी खेल खेलता है व जीत जाता है तो वह अन्तर्द्वन्द/२४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तबतक ही तो विजेता रहता है, जबतक कि अगली बार कोई अन्य खिलाड़ी न जीत जावे। उसकी वह विजय दीर्घकालिक महत्त्व नहीं रखती; पर यदि विजय प्राप्त करने के लिए कोई अनैतिक आचरण किया गया हो तो उसका प्रतिफल लम्बे समय तक भोगना होता है। यदि मैंने भी छल-कपट कर या उठा-पटक कर तात्कालिक तौर पर कुछ हासिल कर ही लिया तो वह तो तात्कालिक तौर पर अपना छोटा-मोटा प्रभाव उत्पन्न कर नष्ट हो गया, पर कर्मबन्धन की एक अनन्त श्रृंखला जो उत्पन्न हो गई, वह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती है। ___ अरे वह दिन तो निकल ही जाना था, न सही चिकना-चुपड़ा, रूखा-सूखा ही सही, खा-पीकर निकल जाता। सोने को मखमली शैय्या न मिलती तो क्या रातें ही न कटतीं ? वो तो कट ही जानी थीं, पर अब इन कर्मों को मैं कैसे काटूंगा? यदि वे दिन कुछ वैभवशाली रूप में व्यतीत हुए तो उनका मेरे आज के लिए क्या महत्त्व है, मेरे आगामी अनन्तकाल के लिए क्या महत्त्व है? और इसके विपरीत यदि अभावों में व्यतीत हो जाते, तब भी मेरे वर्तमान में क्या कसर रह जाती व आगामी अनन्तकाल पर क्या दुष्प्रभाव डालती? इन क्षणिक तात्कालिक महत्त्व की वस्तुओं के पीछे हम अपने आपको इसप्रकार समर्पित कर दें कि हमारे त्रैकालिक तत्त्व भगवान आत्मा का भावी अनन्तकाल ही संकट में पड़ जावे; मोक्षस्वभावी यह आत्मा अनन्त काल तक भवभ्रमण के लिए मजबूर हो जावे, यह कैसे उचित हो सकता है ? आखिर मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? कोई कह सकता है कि तुम्हारी उपलब्धियाँ नष्ट कहाँ हुईं, आज सभी कुछ तो सामने है। क्या नष्ट हुआ है? व आगामी कई पीढ़ियाँ तुम्हारी इन उपलब्धियों को भोगेंगी न! पर वे यह नहीं समझ पाते कि जिस आगामी पीढ़ी को वे मेरी पीढ़ी बतला रहे हैं, वह मेरी कहाँ है ? वह तो पुद्गल की पीढ़ी है, सचमुच तो जीवन के इस चौराहे पर जो कुनबा एकत्र हुआ है; अन्तर्द्वन्द/२५ उसमें न जाने कौन कहाँ से आया है तथा इस तात्कालिक सम्मेलन के बाद कौन कहाँ चला जायेगा, शायद फिर अनन्तकाल तक, कभी न मिलने के लिए। और हम हैं कि इन सभी से कितना गहरा लगाव महसूस करने लगते हैं। ___ त्रैकालिक दृष्टि रखने वाले संतों को हमारे यह क्रिया-कलाप वैसे ही बचकाने लगते हैं, जैसे हमें उन बालकों के क्रियाकलाप महसूस होते हैं, जो मात्र कुछ ही घण्टों की रेल यात्रा के दौरान मिले हुए अन्य बालकों के साथ इतना गहरा हार्दिक व मानसिक संबंध स्थापित कर बैठते हैं कि यात्रा की समाप्ति पर उनसे बिछुड़ने का प्रसंग आने पर किसी निकट संबंधी के मरण की सी छटपटाहट महसूस करने लगते हैं, विलाप करने लगते हैं। बड़े व समझदार लोगों के साथ ऐसा नहीं होता; क्योंकि वे तो पहले से ही जानते थे कि यह जो सम्पर्क स्थापित हुआ है, यह तो मात्र क्षणिक ही है, न तो इससे पहले हम उन्हें जानते थे और न इसके बाद कभी मिलेंगे; ये लोग जाने इतनी बड़ी दुनिया में कहाँ से आये हैं व कल कहाँ खो जावेंगे। हमारा जो दृष्टिकोण रेलयात्रा के क्षणिक साथियों के प्रति होता है, ज्ञानियों का वही दृष्टिकोण जीवन यात्रा के साथियों के प्रति भी होता है, क्योंकि अनादि-अनन्त इस आत्मा के जीवन में यह १००-५० वर्षों का एकाध भव एक दिन की रेलयात्रा से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता। यदि पीढ़ियों का ही विचार करना है तो मेरी पीढ़ियाँ तो मेरे आगामी भव हैं; जो अभी मुझे भोगने हैं। ___ अब यदि इस परिप्रेक्ष्य में मैं अपने क्रिया-कलापों को देखूगा तो स्वयं अपने आपको ठगा हुआ महसूस करूँगा। नैतिक-अनैतिक तरीकों से उपार्जित धन व जीवन की अन्य उपलब्धियाँ तो जहाँ की तहाँ रह जावेंगी व तद्जनित कर्मबन्धों की श्रृंखला अनन्त काल तक मुझे जकड़े रहेगी। क्या यह अपने स्वयं के साथ स्वयं का छलावा नहीं है? - अन्तर्द्वन्द/२६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि हम सचमुच चाहते हैं कि हमें अपने इस जीवन में अपनी कई पीढ़ियों का इन्तजाम करना है तो हमें अपनी आत्मा की आगामी पीढ़ियों का इन्तजाम करना होगा। हमें इन्तजाम करना होगा कि अनादिकाल से भवभ्रमण कर रहा यह आत्मा अब शीघ्र ही इस भव-भ्रमण से मुक्त हो । पर मैंने यह क्या किया? जो मनुष्य जीवन भव का अभाव करने का साधन बन सकता था; वह मनुष्य जीवन भव-भवान्तरों तक संसार में ही बने रहने का इन्तजाम करने में ही बिता दिया। ऐसा नहीं है कि आज से पहले मैं आत्मा और पुद्गल के स्वरूप को नहीं जानता था या कि आत्मा व शरीर के सर्वथा अन्यत्व को नहीं पहिचानता था। मैं बड़ी अच्छी तरह जानता था कि यह आत्मा भिन्न है व शरीर भिन्न । यह आत्मा मैं हूँ व शरीर है अन्य और मनुष्य जीवन तो आत्मा और शरीर की एक असमानजातीय पर्याय है। पर मेरा यह ज्ञान चर्चा-वार्ता के धरातल तक ही सीमित रहा, मैं इस ज्ञान को आत्मसात नहीं कर सका और यही कारण रहा कि जीवन भर मैं अपनी आजीविका के इन्तजाम में बावजूद मुझे इसके अमरत्व का भरोसा नहीं होता। कैसी विडंबना है कि जो जीवन इतना अनिश्चित है; उसके बारे में मैं कितना आश्वस्त हूँ व जो मृत्यु इतनी निश्चित है; उसकी मुझे कोई परवाह ही नहीं। हमारी दृष्टि इतनी स्थूल है कि आत्मा की अनादि-अनंतता हमारी दृष्टि में ही नहीं आती। हमारी परिकल्पना का दायरा भी इतना संकीर्ण है कि आत्मा की अनादि-अनंतता उसकी परिधि में ही नहीं समाती। हालांकि, चूँकि शास्त्रों में लिखा है व ज्ञानीजनों के मुखारबिन्द से सुना है; इसलिए जिस सीमा तक यह 'अनादि-अनंतता' का विचार हमारे आज के किसी क्षुद्र से क्षुद्र स्वार्थ की सिद्धि में आडे नहीं आता. हम उस पर भरोसा बनाये रखते हैं व यदि आज की जीवन शैली में सब जिम्मेदारियाँ निबाहने के बाद यदि कुछ थोड़ा-सा, उपेक्षित-सा खाली समय बचा रहा तो अगले भव को ध्यान में रखते हुए धर्म के नाम पर भी कुछ क्रियाकाण्ड कर लेते हैं, पर सचमुच हम आत्मा के भविष्य के बारे में बिल्कुल भी गम्भीर नहीं होते, जबकि वर्तमान जीवन में तनिक भी प्रतिकूलता हमें विचलित कर देती है व उसके इलाज के लिए हम कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। किसी से पूछने व प्रमाण मांगने की आवश्यकता ही क्या है ? हमारी यही वृत्ति दर्शाती है कि हमें आत्मा की अजर-अमरता का भरोसा नहीं है। न तो हमें अपनी (आत्मा की) अनादि-अनन्तता का भरोसा है और न ही पुण्य-पाप का। हमें इस बात का पक्का भरोसा है कि मेरे बाद मेरे पुत्र-पौत्रादिक भी रहेंगे व धन-धान्यादिक भी और इसलिए हम अपने पुत्र-पौत्र-प्रपौत्रादिक के लिए धन सम्पत्ति को जुटाने में अपना जीवन खपा देते हैं, नीतिअनीति की परवाह न करते हुए और पुण्य-पाप से बेखबर रहकर भी। ___ हालांकि अपनी संतति को धन-दौलत दे देना भी हमारी चाहत नहीं, हमारी मजबूरी है; क्योंकि हम उसे अपने साथ ले जा नहीं सकते हैं। यदि अन्तर्द्वन्द/२८ लगा रहा, इस मानवजीवन के इन्तजाम में तो लगा रहा, और इससे भी आगे बढ़कर इस शरीर की आगामी पीढ़ियों के इन्तजाम में भी डूबा रहा; पर मैं इस भगवान आत्मा के आने वाले कल की हमेशा ही अनदेखी करता रहा। यदि मैं अपने अन्तर को टटोलता हूँ तो पाता हूँ कि सचमुच जैसा भरोसा मुझे अपनी इस क्षणिक असमानजातीय पर्याय का है, वैसा भरोसा त्रैकालिक भगवान आत्मा का है ही नहीं। हालांकि इस मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं है, अगले दिन की तो बात ही क्या, अगले पल का भी भरोसा नहीं है, यह एक अनुभवसिद्ध तथ्य है; तथापि मैं इसके बारे में कितना आश्वस्त हूँ व निःशंक होकर पंचवर्षीय व पच्चीस वर्षीय योजनायें बनाता रहता हूँ, पर आत्मा की अनादि-अनंतता के बारे में जानने के अन्तर्द्वन्द/२७ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले जा सकते तो जरूर ले ही जाते, कुछ भी न छोड़ जाते। यूँ कहने मात्र से शायद हम यह तथ्य स्वीकार न करें, पर हमारी प्रवृत्ति उक्त तथ्य की स्वयं साक्षी है। हम जबतक जीवित रहते हैं, तबतक अपनी समस्त सम्पत्ति व व्यवसाय पर स्वयं काबिज रहना चाहते हैं व मरने के बाद के लिए वसीयत बनाते हैं। यदि सचमुच हम उनके लिए ही सबकुछ करते तो क्या स्वेच्छा से अपने जीवनकाल में ही सबकुछ उन्हें न सौंप देते? धन-दौलत तो हमारे साथ नहीं जाती, पर पुण्य-पाप जाते हैं; पर न तो हमें मृत्यु के बाद अपने अस्तित्व का भरोसा है और न ही पुण्य-पाप का ही। यदि होता तो हम वर्तमान की लाभ-हानि का विचार नहीं करते व पुण्य-पापादिक के बन्ध का विचार करके वर्तमान क्रियाकलाप करते और इसप्रकार हमारी जीवन प्रणाली वर्तमान जीवन प्रणाली से बिल्कुल भिन्न होती; बिल्कुल विपरीत, निश्छल, निष्कपट, पाप रहित पवित्र, शुद्ध एवं सात्त्विक। ___ कभी-कभी तो हम अपने अविचारीपने की समस्त सीमायें लांघ जाते हैं। जगत में ऐसे भी अनेकों लोग हैं, जिनके पास कहने को भी कोई अपने नहीं हैं, जिनके पुत्र-पौत्रादिक नहीं हैं। फिर भी वे जीवनभर प्रपंच में ही पड़े रहते हैं। उनसे कोई पूछे कि यह सब किसलिए? तो सम्भवतः जवाब मिले - समाज के लिए, परोपकार के लिए; पर क्या यह अपने आपसे छलावा नहीं है ? क्या सचमुच आप यह सब समाजसेवा के लिए इसका मतलब स्पष्ट है कि बात सिर्फ यही नहीं है कि आत्मा की अमरता का तो पता नहीं और पुत्रादिक प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं; इसलिए हम आत्मा की चिन्ता छोड़कर पुत्रादिक पर मर मिटते हैं; बल्कि यथार्थ तो यह है कि पुत्रादिक हों या न हों; पर आत्मा की तो हमें परवाह ही नहीं। मैं नहीं जानता अपने इस अविचारीपने को क्या नाम दिया जावे? ___ हमारी आज की जीवन शैली में इहभव की सर्वोपरि प्राथमिकता है व आगामी भव अत्यन्त उपेक्षित है; यदि आत्मा की अनादि-अनंतता का भाव दृढ़ हो जावे तो यह जीवन अत्यन्त उपेक्षित क्रम पर आ जावेगा व आत्मा के भविष्य का इन्तजाम सर्वोपरि प्राथमिकता पर आ जावेगा और तब स्वयमेव ही जीवन में साधुता आ जावेगी। इसप्रकार के ये युक्तिसंगत विचार मैंने जीवन में ज्ञानियों के श्रीमुख से कई बार सुने हैं। अधिक विचार करने का अवसर तो न पा सका, पर प्रथमदृष्टया इनमें कोई विरोधाभास भी दिखाई नहीं पड़ा; फिर भी मेरी वृत्ति नहीं बदली। तब तो युवावस्था थी व गारंटी न सही, मात्र सम्भावना ही सही, पर आगे तो सारा जीवन पड़ा था और उसके लिए मुझे बहुत कुछ करना था, उस दिन की आर्थिक परिस्थितियों पर विजय पाकर आगामी दिनों की भी पुख्ता व्यवस्था करनी थी, पर आज क्या है ? आज तो मैं इस जीवन की भी समस्त जिम्मेदारियों से बलात् मुक्त कर दिया गया हूँ और अब स्वयं मेरी अपनी ही निगाह में अपने इस वर्तमान जीवन का कोई भी भविष्य नहीं है, यदि भविष्य कुछ हो सकता है तो मात्र पुनर्जन्म में ही सम्भव है, वह आत्मा की अनादि-अनंतता के स्वरूप में ही छुपा है और अब भी अगर मैं अपने भविष्य के प्रति उतना ही सतर्क हूँ तो मुझे आत्मा की अजर-अमरता का नि:शंक निर्धारण कर आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना चाहिए, पर मैं स्वयं ही नहीं जानता कि आज की इस गफलत को क्या नाम दूँ, बुरी होनहार के अतिरिक्त और क्या हो सकता है, जो मुझे उक्त मार्ग पर चलने से रोकता है। • अन्तर्द्वन्द/30 - रहे हैं? यदि ऐसा है तो अपने जीवनकाल में स्वयं क्यों नहीं करते समाजसेवा? मरने के बाद चैरिटेबल ट्रस्ट बना जाना चाहते हैं। अरे ! जीतेजी तो स्वयं के उपभोग पर भी व्यय नहीं कर पाते हैं, समाजसेवा की तो बात ही क्या? पर मरने पर तो मजबूरी है न, साथ ले जा नहीं सकते और पुण्य-पाप का भरोसा नहीं। अन्तर्द्वन्द/२९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा दिन तो धूल-माटी में अटका रहता हूँ, कहीं किसी फूल-पत्ती में प्रकृति का सच्चा सौन्दर्य नजर आता है व उसकी सम्भाल में लग जाता हूँ, उसकी एक-एक शाख को सम्भालता हूँ, एक-एक पत्ती को सहेजता हूँ और कभी घर के साधारण से सामान पर चढ़ी धूल की महीन-सी पर्त भी मुझे विचलित कर देती है और मानो मैं समर्पित ही हो जाना चाहता हूँ, अपने घर में से धूल के उन्मूलन के लिए; परन्तु परमशुद्ध, अबंधस्वभावी आत्मा पर अनादि से चढ़ रही कर्मरज का मुझे विचार ही नहीं आता, वह कभी मेरी चिन्ता व चिन्तन का विषय ही नहीं बनती। जिसप्रकार हम अवकाश के दिनों में परिवार सहित घूमने के लिए बम्बई जाते हैं, तब जाने से पूर्व ही इन्तजाम कर लेते हैं कि बम्बई में जाकर कहाँ ठहरेंगे, क्या खायेंगे, कहाँ-कहाँ घूमेंगे, किस-किससे मिलेंगे इत्यादि व इन सब कामों के लिए आवश्यक सामग्री का इन्तजाम करके चलते हैं। महीनों पूर्व ट्रेन का आरक्षण करवाते हैं व इच्छित तारीख को आरक्षण न मिलने पर अपना कार्यक्रम कुछ दिन आगे-पीछे भी कर लेते हैं। फिर सुनिश्चित समय पर तैयारियों के साथ बम्बई के लिए प्रस्थान करते हैं व वहाँ पहुँचने पर भी सर्वप्रथम जीवन-जरूरत की सभी आवश्यक सामग्री के इन्तजाम में जुट जाते हैं, जैसे खाना-पीना, नहाना-धोना, खेलना-कूदना इत्यादि। सुविधापूर्वक निराकुल रहकर सभी आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होकर घूमने-फिरने निकलते हैं, एक-एक स्थान पर जाना चाहते हैं व हर क्षण हर पल का भरपूर आनंद लेना चाहते हैं; क्योंकि हम आखिर निकले ही प्लेजर ट्रिप पर हैं, आनन्द मनाने की यात्रा पर। पर यदि हमें अचानक पता लगे कि मुझे केन्सर हो गया है व इलाज के लिए बम्बई जाना होगा, तब भी क्या हम यही सब कुछ करेंगे, तब भी रिजर्वेशन न मिलने पर कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए टाल देंगे? नहीं ! यात्रा में चाहे कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े, कितना ही कष्ट क्यों अन्तर्द्वन्द/३१ न उठाना पड़े, तुरंत ही बम्बई जाने का उपक्रम करेंगे । घर पर चाहे कितने ही महत्त्वपूर्ण कार्य लम्बित पड़े हों, पर उनके पूरे होने का इन्तजार नहीं करेंगे? यह विचार भी नहीं करेंगे कि साथ कौन जावेगा ? भाई के चले बिना तो काम चल नहीं सकता और वह तो कुछ दिन अत्यन्त व्यस्त है; क्योंकि सीजन चल रहा है या पत्नी तो अभी निकल ही नहीं सकती; क्योंकि बच्चे की एस.एस.सी. की परीक्षायें हैं। ये नहीं तो वह सही, वह नहीं तो कोई और सही; यदि कोई भी नहीं तो हम ही सही, पर हम तुरन्त ही बम्बई के लिए चल पड़ते हैं। निकलने से पहले यह भी नहीं सोचते कि ठहरेंगे कहाँ ? जो होगा सो देखा जावेगा। बम्बई पहुँच जाने पर भी ठहरने का इन्तजाम करने से पहले, स्टेशन से ही डॉक्टर को फोन करके अपाइन्टमेंट ले लेना चाहते हैं कि कहीं देर न हो जावे । यदि डॉक्टर तुरंत ही बुला लेवे तो हम यह नहीं कहते कि अभी तो कैसे आ सकता हूँ, अभी तो ठहरने का इन्तजाम करना है, खाने-पीने का इन्तजाम करना है और फिर मैं कोई अकेला थोड़े ही हूँ, अन्य लोग भी तो मेरे साथ आये हैं, वे भी सिर्फ मेरे लिए ही, अपने-अपने महत्त्वपूर्ण काम छोड़कर । उन सबकी जिम्मेदारी भी तो मेरे ऊपर ही है; अत: उन सबकी, सब आवश्यकताओं का इन्तजाम करके फिर आऊँगा समय मिलने पर । बल्कि तुरन्त सभी को स्टेशन पर ही छोड़कर हम डॉक्टर के पास पहुँचते हैं और यदि डॉक्टर कहे तो तुरंत ही अस्पताल में भर्ती भी हो जाते हैं, सभी साथ आनेवालों को उनके हाल पर छोड़कर; और तो और स्वयं अपने आपको को, उनकी जिम्मेदारी पर छोड़कर । तब हमें विचार भी नहीं आता कि मैं भर्ती हो जाऊँगा तो उन सबका क्या होगा ? अब इतनी दूर आये हैं तो बम्बई भी घुमानी ही होगी, नहीं तो वे क्या सोचेंगे? हम स्वयं तो किसी का विचार करते ही नहीं, साथ आये अन्य लोग भी उसका बुरा नहीं मानते; क्योंकि वे सभी जानते हैं कि वे बम्बई क्यों अन्तर्द्वन्द/३१ - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये हैं ? सभी का एकमात्र लक्ष्य है मरीज के मर्ज का इलाज, वह भी हर कीमत पर । ठहरने का ठीक से पर्याप्त इन्तजाम हो या न हो, खाना समय पर मिले या न मिले, कपड़े धुलें या न धुलें, उन पर प्रेस हो या न हो; पर इलाज होना चाहिए, उसमें कोई कमी नहीं होनी चाहिए। गाँव में सर्वसुविधासम्पन्न घर खाली पड़ा रहता है, पर घर का मालिक अत्यन्त विपन्नता में बम्बई में पड़ा रहता है; पर इस विपन्नता से घबराकर स्वप्न में भी वह सुविधा सम्पन्न घर पर लौटने का विचार नहीं करता; क्योंकि गाँव की आज की वह सुविधा उसे मौत के मार्ग पर ले जा सकती है व बम्बई की यह असुविधा जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। न तो मरीज स्वयं और न ही उसके सहचारी, कोई नहीं सोचता कि मैं बम्बई में रहने वाले अपने उस पुराने मित्र या संबंधी से तो मिला ही नहीं, जाने वह क्या सोचेगा, कितना बुरा मानेगा ? नहीं ! कुछ भी सोचे, कुछ भी माने, चाहे तो यहाँ मिलने आ जावें, न चाहे तो न आवें। आ भी जावे तो कौन उनसे चाय-पानी की पूँछे? हो न हो आँख खोलकर उनकी ओर देखने का भी विकल्प आवे या न आवे? क्योंकि हमारी यह बम्बई यात्रा मौज-शौक के लिए नहीं, जगत का व्यवहार निभाने के लिए नहीं, वरन् जीवन रक्षा के लिए है। वही हमारा एक मात्र प्रयोजन है, अन्य कुछ भी नहीं; जगत की व जीवन की अन्य सभी क्रियायें, जब व जैसी स्वयमेव संचालित हों तो हों, न हों तो न हों; हम उनसे सदा निरपेक्ष ही रहते हैं। यदि हम बम्बई आकर भी पहले अपने इलाज पर तो ध्यान न दें व इन समस्त व्यवहारों व व्यावहारिकताओं में ही उलझ जायें तो क्या होगा ? सब व्यवहार भी यहीं छूट जावेगा व देह भी छूट जावेगी; सब कुछ छूट जावेगा, नष्ट हो जावेगा। और यदि व्यवहार में न पड़कर अपना इलाज करलें तो फिर सारा जीवन तो पड़ा है व्यवहार निभाने के लिए, घूमने फिरने के लिए व सुविधाओं का उपभोग करने के लिए। ___ इसलिए मरीज के लिए तो मात्र स्वयं ही स्वयं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है, डॉक्टर ही उसका आराध्य है व अस्पताल ही महानतम तीर्थ और सम्पूर्ण स्वस्थ होना ही उसका एक मात्र लक्ष्य है; बाकी जगत का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य उसके लिए कुछ भी नहीं व बम्बई नगर का सारा मनोहर-सौन्दर्य उसके लिए कुछ भी नहीं। अनादिकाल से भवभ्रमण के आत्मघाती महारोग से पीड़ित यह आत्मा संयोग से यह मानव पर्याय पा गया है, जिसमें इस दुष्चक्र से छूटने का पुरुषार्थ सम्भव है। यही नहीं, हम अपने इस महारोग को पहिचान भी गए हैं व दूर करने का उपाय भी उपलब्ध है, तब भी यदि हम मात्र अपने इसी जीवन की सुविधाओं का इन्तजाम करने में ही व्यस्त रहें, तत्संबंधी व्यवहारों को निभाने में ही लगे रहें; तब क्या हमारी स्थिति वैसी ही नहीं होगी, जैसी कि कैंसर का इलाज करवाने के लिए बम्बई आया मरीज, सिर्फ रहने, खाने और व्यवहार निभाने के इन्तजामों में ही व्यस्त हो जावे व डॉक्टर से सम्पर्क करने का उसे अवकाश ही न मिले। जिसने अपने रोग को पहिचाना है व उस रोग के परिणामों को जाना है; उसकी इसप्रकार की प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। पर यदि ऐसा अवसर पाकर भी यदि हम इस भवभ्रमण से छूटने मात्र के उपाय में इस जीवन को समर्पित नहीं कर देते तो इसका मतलब है कि भवभ्रमण के दु:खों की भयानकता से हम परिचित ही नहीं हैं, हमें भवों के दु:खों की न तो स्मृति ही है और न ही परिकल्पना व तत्संबंधी आचार्यों व मनीषियों के वचनों का भी हमें भरोसा नहीं है। प्राणघातक केन्सर से प्राणों की रक्षा के लिए समर्पित हो गया मरीज अब बनाव श्रृंगारादिक में रत नहीं रहता। शृंगारादिक में रत रहने की तो बात ही क्या, उस ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता । श्रृंगारादिक तो दूर - अन्तर्द्वन्द/3४ - अन्तर्द्वन्द/33 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्रादिक से भी अलिप्त हो जाता है। बाजार जाकर नवीनतम चलन के वस्त्रों के चुनाव की तो बात क्या; पर स्वयं के पास उपलब्ध वस्त्रों को भी ठीकप्रकार से पहिनने की रुचि नहीं रहती, सामान्यजनों को प्रथम निगाह में ऊंटपटांग से लगने वाले ढीले-ढाले बेडौल से वस्त्र बस यूं ही शरीर पर डाल भर लेता है; डाल भी क्या लेता है, यदि साथी-सहचर बलात् ही न डाल दें तो शायद.... वस्त्र तो वस्त्र भोजनादिक की भी रुचि कहाँ रहती है ? रुचि न रहना एक बात है व अरुचि हो जाना दूसरी । उसे तो भोजन ग्रहण के प्रति अरुचि हो जाती है। स्वयं भोजन ग्रहण का तो भाव ही नहीं आता है, अन्य सामान्य लोगों के मनाने पर भी भोजन स्वीकार नहीं करता है। अत्यन्त निकट के प्रियजन जब भांति-भांति समझाते हैं, मान-मनुहार करते हैं तो अनन्त उपेक्षा पूर्ण ढंग से अपनी शर्तों पर थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लेता है, उसमें भी यदि भोजन करते हुए बीच में कुछ भी व्यवधान आ जाये तो फिर अलिप्त हो जाता है। उसका ध्यान तो बस अपने जीवन की रक्षा के उपायों पर ही केन्द्रित बना रहता है, यदि कुछ काल के लिए उस ध्यान से च्युत भी हो जाता है तो फिर तुरन्त ही उपयोग वहाँ पहुँच जाता है। इस बीच यदि कोई मित्र, परिजन, मिलने आ पहुँचें तो यदि उधर लक्ष्य जावे तो थोड़ी बात कर ले, यदि न जावे तो न करे; वह व्यावहारिकता से परे हो जाता है, जगत के व्यवहार की उसे चिन्ता नहीं रहती। यदि शरीर की रक्षा के लिए सम्पूर्णत: समर्पित व्यक्ति शरीर की सम्भाल की ओर से इतना निस्पृह और निरीह हो जाता है तो आत्मकल्याण की तीव्र भावना वाले आत्मज्ञानी, आत्मार्थी की दशा (मुनिदशा) के बारे में संदेह कैसा ? क्या आश्चर्य है कि उसके तन के वस्त्र छूट ही जायें, उसे स्नान व दंतधोवन का विकल्प भी न आवे, निद्रा नाममात्र रह जावे, सामान्य रूप से तो भोजन का विकल्प ही न आवे व कदाचित् विकल्प अन्तर्द्वन्द/३५ आने पर श्रावक द्वारा नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहने पर व प्रतिज्ञाबद्धरूप से शुद्धि की घोषणा करने पर अत्यन्त अरुचिपूर्वक थोड़ा आहारग्रहण हो, उसमें भी मामूली-सी घटना अन्तराय का निमित्त बन जावे । या तो उपयोग आत्मस्थ ही बना रहे या यदि कुछ पलों के लिए आत्मा से च्युत भी हो तो खटक बनी ही रहे । पूजा करने वालों को आशीर्वाद देने का भाव भी आवे तो आवे या न भी आवे। ऐसी यह धन्य मुनिदशा संसार की निःसारता की स्वीकृति की पराकाष्ठा है। यह धन्य मुनिदशा यदि इस जीवन में स्थापित हो जाती तो यह जीवन सार्थक हो जाता, पर अभी जीवन में आने की तो बात ही कहाँ, अभी तो यह मुनिदशा मेरी कल्पना में भी नहीं आती है ? इस जीव की ऐसी दशा भी हो सकती है, इतनी वीतरागी, इतनी अलिप्त, इतनी निरीह, इतनी निष्काम? यह बात मेरी कल्पना को भी स्वीकार नहीं हो पाती है, आधे मन से गर्दन तो हिलती रहती है; पर एक शंका व हिचक बनी ही रहती है। पर यह हिचक व झिझक कबतक चलेगी? आखिर कबतक ? न जाने कितने लोक लुभावन बहाने बनाकर मैं जीवन भर यह अन्तिम निर्णय लेने से बचता रहा; इसे एक और कल तक के लिए टालता रहा। पहले तो फिर भी आशा बनी ही रहती थी, कि एक और कल मेरे जीवन में आवेगा, एक सुहानी सुबह आवेगी ताजगी व स्फूर्ति से भरपूर । एक नया सूरज उगेगा। पर अब आज जैसे-जैसे एक-एक दिन व्यतीत होता जा रहा है, यह सम्भावना ही प्रबल होती जा रही है कि हो न हो यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन ही हो। हर दिन जब मैं ढलता हुआ सूरज देखता हूँ तो वितृष्णा से भर उठता हूँ, उसमें झलकता हुआ अपना बिम्ब दिखाई देता है, प्रतिपल क्षीण होता उसका तेज, अब मुझे स्वीकार नहीं होता; क्योंकि मैं भी तो प्रतिपल इसीतरह ढलता जा रहा हूँ। उस तेजहीन ढलते हुए सूरज को भी भरपूर निरख लेने की मेरी तृष्णा अब - अन्तर्द्वन्द/3६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त बलवती हो गई है, हो न हो फिर कभी मेरे इस जीवन में तेजस्वी सूरज उगे या न उगे । जब मैं युवा था, तब तो एक बड़ी दुविधा मेरा रास्ता रोक लेती थी। एक ओर मेरा यह जीवन, घर-परिवार व उसकी ज्वलंत समस्यायें, जो स्पष्ट व प्रत्यक्ष थीं और दूसरी ओर अदृश्य आत्मा और उसका तथाकथित काल्पनिक भावी अनन्तकाल । तब मैं किसे सम्भालता व किसकी उपेक्षा करता। यदि मैं आत्मा को महत्त्व देने का मन बनाता, तो मेरा ही अन्तर्मन पुकार उठता कि काल्पनिक भविष्य के लिए अपने साक्षात् वर्तमान को दाव पर लगा देना चाहते हो तुम और मैं तत्क्षण ही रुक जाता, भला मुझसे बेहतर यह कौन जान सकता है कि आत्मा के प्रति, स्वयं अपने प्रति मेरा यह सोच व व्यवहार मेरे मायाचार की पराकाष्ठा हैं। मैं स्वयं स्वयं पर ही प्रश्नचिह्न लगाता रहा, स्वयं के होने से, स्वयं के भविष्य से ही इन्कार करता रहा। पर मेरी यह दुविधा तो बीते कल की बात है, तब तो मेरी वर्तमान मनुष्य पर्याय का 'विस्तृत वर्तमान' भी था व 'सपनों का भविष्य' भी और उसके लिए तो मैं क्या क्या कर सकता था, क्या-क्या करना चाहिए था और क्या-क्या कर पाया, क्या न कर पाया; उसके समस्त परिणाम तो सामने हैं, पर आज की तो बात ही कुछ और है। आज ७५ वर्ष की इस उम्र में न तो मैं वर्तमान में ही प्रासंगिक रह गया हूँ और न ही मेरा कोई भविष्य है। अब यदि करने को कुछ रह जाता है तो वह है मात्र इस अनादि अनंत आत्मा के भविष्य का इन्तजाम; पर यह कोई साधारण काम तो है नहीं। यह तो अत्यन्त पुरुषार्थ और सावधानी कार्य है। सच्चे मार्ग की समझ, सच्चे गुरु की खोज, निरन्तर तत्त्व अभ्यास, स्वाध्याय व सत्संग। इन सभी गतिविधियों के लिए तो भरपूर उर्जा की आवश्यकता है; अब आज मैं यह सब करना भी चाहूँ तो कैसे कर पाऊँगा । आज तो मैं अपनी दैनिक जीवन की आवश्यक क्रियायें भी स्वतंत्र पने कर पाने में सक्षम नहीं हूँ, तब आत्मा के अनन्तकाल के परिभ्रमण को नाश अन्तर्द्वन्द / 3७ 19 करने का पुरुषार्थ कैसे कर पाऊँगा ? यही बात यदि दश-बीस वर्ष पहले समझ में आ जाती, यदि मैं तब समझ पाता कि इस मानव पर्याय का १०-२० वर्ष का भविष्य कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण दौर नहीं है, जिसकी सम्भाल में यह जीवन झोंक दिया जाय । इस जीवन का प्रत्येक पल तो अपने भावी अनन्तकाल का इन्तजाम करने के लिए है, तो क्या आज मैं उस मुकाम पर खड़ा नहीं होता; जहाँ से मुक्ति का मार्ग, मुझसे अत्यन्त समीप ही होता । सारा जीवन तो गोरखधंधे में बीत ही गया व वर्तमान बीता जा रहा है। उसके लेखे-जोखे में, अवसाद में; मेरा भविष्य भी क्या होगा ? यदि अब भी सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो क्या मेरा अनन्त भविष्य भी, अनन्त अन्धकार में खो नहीं जावेगा ? तब मैं क्या करूँ ? अबतक विगत के लिए बिलखा, क्या अब आगत के लिए क्रन्दन करूँ ? क्या क्रन्दन ही मेरी नियति है ? नहीं! नहीं!! कदापि नहीं !!! आज जब मैंने आत्मा की अथाह अनन्तता को स्वीकार कर ही लिया है; तब १०० - ५० वर्षों के लिए अफसोस कैसा ? सिर्फ यही १००-५० वर्ष तो बर्बाद नहीं हुए हैं, अनादिकाल से आज तक सभी कुछ तो इसीतरह बीता है तो क्या अनन्तकाल तक रोता ही रहूँगा ? जिसतरह अनादि से कल तक 'अनन्तकाल' बीता था, वैसे ही एक और 'आज' बीत गया; उस अनन्तकाल के सामने इस एक दिन या १००५० वर्षों की क्या अहमियत है कि अब उसके चिन्तन में मैं अपने आगामी अनन्तकाल को और अन्धकारमय बना डालूँ। और फिर लुट क्या गया है? यह मानवदेह भले ही कुछ दिनों की सही, पर मेरा तो अनन्तकाल पड़ा है न, आत्मा तो अनन्तकाल तक रहेगा न; और अनादि के अन्धकार को मिटाने के लिए अनन्तकाल की आवश्यकता ही कहाँ है ? अन्तर्मुहूर्त में ज्ञान सूर्य उदित हो जावे तो अनादि का अन्धकार भाग जाता है, विलीन हो जाता है। ... जिसकी अन्तर्मुहर्त की आग अनादि की विराधना को निष्फल अन्तर्द्वन्द / 3८ कर देती है; ऐसा एक, अखण्ड - अनन्त, अनादि-अनन्त भगवान आत्मा मैं स्वयं ही तो हूँ और यूँ तो अनन्तकाल पड़ा है, उसकी उपासना के लिए; Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात बीते हुए जीवन के अनेकानेक पहलुओं को जान लेने, देख लेने व जी लेने के बाद; आज ये विचार मुझे अक्सर परेशान किए रहते हैं कि काश! जीवन की इन सच्चाइयों को मैं पहले ही जान सका होता तो मैंने अपना बीता जीवन इसतरह नहीं जिया होता, मेरी जीवन प्रणाली कुछ और ही होती। कभी-कभी सोचता हूँ कि - काश ! जीवन दो बार जीने को मिलता; एक बार सीखने के लिए, अनुभव लेने के लिए, ट्रायल करने के लिए व फिर दूसरी बार पूरी तरह जीने के लिए; पर यह तो कल्पनालोक की उड़ान है, यथार्थ जीवन में तो यह सम्भव नहीं है। जो हो चुका है, उसमें तो परिवर्तन सम्भव नहीं है; पर अब क्यों न बाकी बचे भावी जीवन के बारे में यह प्रयोग किया जावे? औरों के जीवन को पढ़कर, उसे आत्मसात कर, विभिन्न अवस्थाओं व परिस्थितियों को, उनके अहसासों को कल्पना के धरातल पर ही स्वयं जीकर, क्यों न अपनी परिस्थितियों के अनुकूल, अपनी रुचि के अनुकूल, अपनी आवश्यकता के अनुकूल, अपनी भावी जीवन शैली की योजना तैयार की जावे; ताकि फिर कभी यह सदमा न भोगना पड़े कि - काश ! पहले मालूम होता, मैं पहले ही यह सच्चाई समझ पाया होता ! ___ अपनी इस योजना के अनुरूप जब मैंने निष्कर्ष निकालने के लिए चिन्तन के स्तर पर जीवन का विश्लेषण प्रारम्भ किया तो कुछ ही दिनों में बुरी तरह भ्रमित (कन्फ्यूज्ड) हो गया; क्योंकि अनेकों अहसास व अनेकों विकल्प (Alternatives) आपस में ही टकराने लगे और चिन्तन व्यवस्थित नहीं हो पाया। तब मैंने अपने चिन्तन को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए लेखनी का सहारा लेने का निश्चय कर लिया। इसतरह इस लेखन का प्रारम्भ आप सभी के लिए व किसी अन्य के लिए नहीं, वरन् स्वान्तःसुखाय ही हो गया था; पर आज आप सभी के समक्ष यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि जब मैं लिखने बैठा तो अपने नग्न अहसासों व चिन्तन के प्रति ईमानदार न रह सका; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता अन्तर्द्वन्द/iii - हूँ कि लिखित विषयवस्तु अनन्तकाल तक मात्र व्यक्तिगत सम्पत्ति बनकर नहीं रह सकती, एक न एक दिन तो वह सार्वजनिक हो ही जावेगी और तब मैं मात्र वही लिख पाया जिन मनोभावों के प्रकट हो जाने में मुझे कोई संकोच न था। इसी के साथ मेरे अन्दर प्रसुप्त साहित्यिकता के कीटाणु सक्रिय हो गये और इसतरह मेरा चिन्तन एक कृति का रूप लेने लगा। जब मात्र स्वयं के लिए, सिर्फ सोचता ही था, तब चिन्तन आधा-अधूरा बना रहता था, न जाने विचारों की श्रृंखला चिन्तन के किस बिन्द से प्रारम्भ होती व कहाँ टूट जाती, उसका न कोई ओर था न छोर; पर जब लिखना प्रारम्भ किया तो आवश्यकता महसूस हुई कि चिन्तन व्यवस्थित व सम्पूर्ण होना आवश्यक है। ___ उधर दूसरी ओर एक समानान्तर चिन्तन मेरे मस्तिष्क में चला करता था कि सामान्य श्रावक से साधकदशा का विकास एक प्राकृतिक व स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो अन्तरंग वृत्तियों व परिणामों की विशुद्धि के समानान्तर बाह्य जीवन में भी स्वयमेव ही आकार ले लेता है, ऊपर से कुछ भी ओढ़ने की आवश्यकता नहीं होती, ऊपर से ओढ़ा हुआ आचरण तो बाह्य परिधान (वस्त्रादि) की भांति बोझिल ही होता है। इस स्वाभाविक विकास को रेखांकित करते हुए एक चरित्र की रचना करना मेरी चिरसंचित अभिलाषा थी ही, सो मैंने अपने इन दोनों विचारों को एकमेक करके प्रस्तुत करने का निश्चय किया व 'समकित' शीर्षक से एक कथानक की रचना प्रारम्भ कर दी। उक्त रचना कुछ समय तक क्रमिक रूप से 'जैनपथप्रदर्शक' पाक्षिक में प्रकाशित भी होती रही, पर उस कथानक के विकास से मैं स्वयं संतुष्ट नहीं था; अतः उसे बीच में ही रोक देना पड़ा। उसी रचना को पुनः नये रूप में कुछ परिवर्तन-परिवर्धन के साथ लिखना प्रारम्भ किया। अभी, ३०-४० पेज ही लिख पाया था कि प्रसंगवश दादा का बम्बई आगमन हुआ और मैंने यह रचना पढ़कर उन्हें सुनाई । अबतक ऐसे अवसरों पर प्रतिक्रिया विहीन चुप्पी साधे रहनेवाले दादा (मेरे पूज्य पिताश्री डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल) इस बार यूँ तो चुप ही रहे; पर मेरी डायरी के प्रथम पृष्ठ पर निम्नांकित संस्कृत श्लोक अर्थ सहित लिख दिया - अपनी बात/iv Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भते न खलु विघ्नभयेण नीचैः । प्रारम्भ विघ्नविहिता विरमन्ति मध्या ।। विघ्नः पुनपुनरपि प्रतिहन्यमाना। प्रारम्भमुत्तमजना: न परित्यन्ति ।। निम्न श्रेणी के लोग विघ्नों के भय से महान कार्य आरम्भ ही नहीं करते और मध्यम श्रेणी के लोग महान कार्य आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्नों के आने पर उन्हें बीच में ही छोड़ देते हैं; परन्तु उत्तम श्रेणी के लोग महान कार्य न केवल आरम्भ करते हैं, अपितु बार-बार विघ्नों के आने पर भी, उन्हें छोड़ते नहीं हैं। उन्हें पूर्ण करके ही मानते हैं। - हस्ताक्षर २.५.२००० यद्यपि दादा ने मुख से तो कुछ कहा नहीं था, पर यह लिखकर क्या-क्या नहीं कह दिया था ? इसे मैंने आशीर्वाद, प्रेरणा व आदेश के रूप में स्वीकार किया। कुछ चिन्तन का आधा-अधूरापन कहें व कुछ व्यावसायिक व्यस्तता, यह लेखन कार्य कुछ काल तो चला, पर बहुत आगे बढ़ न सका; तब मेरे मन में विचार आया कि क्यों न इस रचना के कथ्य को, मूल विषयवस्तु को अत्यन्त संक्षेप में, एक रूपरेखा के रूप में ही प्रकाशित करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जावे, शायद उनकी प्रतिक्रियायें, सुझाव, प्रेरणा व आग्रह शेष कार्य स्वयं ही मुझसे करा लेवें। ___इसे त्रुटिहीन व परिपूर्ण बनाने का विकल्प कहीं इस कार्य को एक बार पुन: लम्बित न कर दे, इस भय से अपने स्वभाव के सर्वथा विपरीत जल्दबाजी में यह कृति अपने इस वर्तमान रूप में “जहाँ है, जैसा है" (As it is, where it is) के आधार पर आपके समक्ष प्रस्तुत है। अपने इस जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए, उक्त विषय में मात्र कुछ ही पहलुओं पर कुछ सूत्रात्मक, संक्षिप्त विचार इस पुस्तिका में प्रस्तुत किए गए हैं। उक्त विचारों को मात्र पढ़ लेना व जान लेना पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता है इन पर हर दृष्टिकोण से दूरगामी विचार करके इन्हें अपने जीवन में अपनाने की, अपने जीवन को उक्त विचारों के अनुरूप ढालने की; अपने जीवन का शिल्पी - अन्तर्द्वन्द/v - स्वयं बनने की। हमारा जीवन मात्र एक अनगढ़े पत्थर की तरह वेडोल न रह जावे, बल्कि एक आदर्श शिल्प बन सके - इसके लिए आवश्यकता है एक अत्यन्त ही कुशल शिल्पी की और अपने स्वयं के लिए वह 'शिल्पी' कोई अन्य नहीं हो सकता; क्योंकि शिल्प में जो कुछ भी अभिव्यक्त होता है. वह शिल्पी का अपना दृष्टिकोण होता है, उसकी अपनी परिकल्पना होती है। हमें अपने आपको जिस रूप में ढालना है, वह किसी अन्य की परिकल्पना नहीं, वरन् हमारा अपना स्वप्न है, हमारा अपना स्वप्न होना चाहिए और इसलिए हमें अपना शिल्पी स्वयं ही बनना होगा। यदि अपने आपको गढ़ने के लिए हम किसी अन्य पर निर्भर रहें तो उसका परिणाम क्या आ सकता है ? इसकी कल्पना इस तथ्य से भलीभाँति की जा सकती है कि इस पृथ्वी पर अनन्त पत्थर विद्यमान हैं, वे आज तक अनगढ़े ही पड़े हैं। यदि उनमें से एक अत्यन्त नगण्य-सा भाग किसी ने गढ़ भी दिया है तो उनका क्या रूप बन पड़ा है, वह हमारे आपके सामने है। क्या वह सब हमारी आशा-आकांक्षा के अनुरूप है ? क्या हम उन सभी को पसन्द कर पाते हैं ? क्या हमें उन सभी में कुछ न कुछ कमियाँ दिखाई नहीं देती ? यदि हम किसी अन्य के द्वारा निर्मित किसी भी कृति को पसन्द नहीं करते तो फिर भला हम अपने आपको गढ़े जाने के लिए किसके हवाले कर दें? इसलिए यदि हम अपने जीवन को अपनी स्वयं की परिकल्पना के अनुरूप एक आदर्श शिल्प बनाना चाहते हैं तो हमें अपना शिल्पी स्वयं ही बनना होगा। जिसप्रकार एक शिल्प के निर्माण के लिए, एक मूर्ति के निर्माण के लिए किसी आदर्श प्रतिकृति का सरसरी तौर पर मात्र अवलोकन (देखना) पर्याप्त नहीं है; उसका सूक्ष्म निरीक्षण करना होता है। प्रत्येक अंग-उपांग की संरचना व आकार-प्रकार के बारे में सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करनी होती है, उनकी मापजोख करनी होती है। फिर पत्थर को गढ़ने का गहरा अभ्यास करना होता है। इन सब विधियों में पारंगत होने के बाद सब कुछ छोड़कर जुट जाना होता है, अपने कार्य में अहिर्निश (दिन-रात); तब कार्य सफल होता है। उसीप्रकार यदि हम अपने इस जीवन को मात्र एक अनगढ़ पत्थर नहीं बने - अपनी बात/vi Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहने देना चाहते, उसे अपनी आशा-आकांक्षा व आदर्शों के अनुरूप ढालना चाहते हैं तो हमें अपने उन आदर्शों को मात्र सरसरी तौर पर पढ़ लेना और पढ़कर छोड़ देना पर्याप्त नहीं है, हमें उन पर गहराई से विचार करना होगा, अपने चिन्तन को विस्तार देकर जीवन के हर पहलू पर, हर परिस्थिति पर घटित करना होगा और उपयुक्त पाये जाने पर उसे क्रियान्वित करने की कार्ययोजना तैयार करनी होगी और अन्ततः जुट जाना होगा, उसे साकार करने में, बिना थके, दिन-रात । जिसप्रकार वाहन निर्माता, जब किसी नए मॉडल का विकास करते हैं, तो वे उसे हर सम्भावित परिस्थिति में कार्यक्षम बनाने के लिए, कृत्रिम रूप से सभी परिस्थितियों का निर्माण करके, वाहन का परीक्षण करते हैं व उपयुक्त पाये जाने पर वाहन का निर्माण करते हैं। अपने विचारों के अनुरूप अपने जीवन को ढालना कोई एक दिन का कार्य नहीं है, वरन् यह एक सतत् प्रक्रिया है। जीवन को आकार देना तो बात ही और है, पर विचारों को भी आकार देना साधारण काम नहीं है। जिसप्रकार आधारहीन, भारहीन तिनके हवा से विचलित हो जाते हैं, बिखर जाते हैं; उसीप्रकार हमारे विचारों का प्रवाह भी, नित्यक्रम के अत्यन्त सामान्य से घटनाक्रमों से छिन्न-भिन्न हो जाता है। इसप्रकार तिनकों से बने घोंसले के समान हमारे विचार जीवन भर बदलते रहते हैं; 'विचारधारा' का आकार ग्रहण नहीं कर पाते। जब विचार ही आकार नहीं ले पायेंगे तो जीवन कैसे आकार लेगा। बिखरे-बिखरे, कमजोर विचार एक सुव्यवस्थित विचारधारा का रूप धारण कर सकें, इसके लिए आवश्यक है - निरन्तर चिन्तन, व्यवस्थित चिन्तन, प्रतिदिन, प्रतिपल । और हम हैं कि सोचने की हमें आदत ही नहीं। हमारे अपने न कोई विचार हैं और न कोई व्यवस्थित विचारधारा। इसे विडंबना नहीं तो क्या कहें कि मात्र विचार करने की प्रबल क्षमता और अत्यन्त विकसित विचाराधाराओं का संग्रह ही मानव को अन्य प्राणियों से पृथक् करता है; प्राणिसमूह में विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। आहार, निद्रा, भय व मैथुन जैसी अन्य वृत्तियाँ तो कमोवेश सभी प्राणियों में समानरूप से पाई ही जाती हैं; ऐसे में यदि मानव विचार करना ही छोड़ दे, विचारहीन हो जावे, उसकी कोई विचारधारा ही न रहे तो फिर वह पशुओं की अपेक्षा किसप्रकार विशिष्ट रह सकेगा। अन्तर्द्वन्द/vii मानव के रूप में जन्म ले लेना मात्र पर्याप्त नहीं है, हमें मानव बनना होगा। मानव देह पा लेने में, प्रत्यक्ष तौर पर हमारा अपना कोई पुरुषार्थ नहीं है, कोई योगदान नहीं है; पर मानव बनने का पुरुषार्थ हमें स्वयं ही करना होगा। मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तिका में प्रस्तुत किए गए सूत्रात्मक विचारों को विस्तार देकर, उन्हें अपनी वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आकार देकर प्रबुद्ध पाठक अपने जीवन में ढालने का कार्य स्वयं ही कर लेंगे; तथापि मैं जानता हैं कि यह सबकुछ इतना आसान भी नहीं है। अल्पकथन का विस्तार कर लेना व उसमें से अकथ्य की भी कल्पना करके एक सम्पूर्ण विचार का सृजन कर लेना मात्र तभी सम्भव है, जब विचारों का यह सम्प्रेषण, आदान-प्रदान समानान्तर विचारधाराओं व समकक्ष मानसिकताओं वाले दो व्यक्तियो के बीच हो रहा हो। ___ यदि नितान्त अपरिचित या विभिन्न मानसिकताओं वाले व्यक्तियों तक अपने विचार पहुँचाने हों तो, विस्तार पूर्वक, सरल भाषा में, प्रतिदिन के जीवन की घटनाओं के माध्यम से, सुरुचिपूर्ण ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। उक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपने इन्हीं विचारों की व्याख्या करते हुए प्रसंगों के माध्यम से, विभिन्न चरित्रों का सहारा लेते हुए, एक उपन्यास शीघ्र ही मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। प्रसंगवश अपना मनोगत आपके समक्ष व्यक्त कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने पाया कि मोक्षाभिलाषियों के परम सौभाग्य से जिनागम में द्रव्यानुयोग से संबंधित आध्यात्मिक ग्रन्थों की टीकाओं की एक समृद्ध व निर्बाध परम्परा आज तक चली आ रही है व आगम तथा अध्यात्म की जटिलतम चर्चाएँ, आज की सरलतम भाषा व सुबोधतम शैली में उपलब्ध हैं, पर प्रथमानुयोग के बारे में ऐसा नहीं है। प्रथमानुयोग का उद्देश्य होता है - विस्तार रुचिवाले, अपेक्षाकृत कम क्षयोपशमवाले मनुष्यों के लिए सरल भाषा में कथानकों व महापुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से, संसार व मोक्ष के स्वरूप का दिग्दर्शन करके, संसार मार्ग से निकालकर मोक्ष में लाने का प्रयास करना। उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु जिन प्रथमानुयोग ग्रंथों की रचना हुई, वे सब - अपनी बात/viii Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन पाठकों के लिए अवश्य ही अत्यन्त सरल व मनोरंजक रहे होंगे; पर उनकी भाषा व कथन शैली आज के पाठकों के लिए अत्यन्त दुरूह बन चली है; परन्तु मनीषियों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि सरलतम समझा व कहा जानेवाला प्रथमानुयोग अब जनसामान्य की पहुँच से परे हो चला है व अब एक बार फिर इसे सरलतम बनाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में कथाक्रम के बीच-बीच में सूत्रात्मक रूप में पिरो दिए गये सिद्धान्त-रत्नों की विस्तार पूर्वक सरल व्याख्या आज युग की आवश्यकता बन चली है। आज जब आत्मकल्याण के अभिलाषी साधर्मी भाइयों को सदा ही अध्यात्म की सूक्ष्म चर्चाओं, स्वाध्याय व चिन्तन-मनन में रत पाता हूँ तो उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा, सम्मान, वात्सल्य के भाव हृदय में हिलोरें लेने लगते हैं व उनके प्रति अत्यन्त ही विनम्रता पूर्वक एक बात उनसे कहने को मन हो जाता है कि - अध्यात्म वह विज्ञान है, वह वीतराग-विज्ञान है; जो भेदविज्ञान कराता है स्व व पर का, बंध व मोक्ष का, जीव और अजीव का तथा प्रथमानुयोग व चरणानुयोग वह कला है, जो संसारी प्राणी को काजल की कालिख से बचाते हुए, संसाररूपी काजल की कोठरी से बेदाग निकालकर धवल मोक्षमार्ग में स्थापित कर देती है। प्रथमानुयोग में वर्णित शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से संसार के स्वरूप को जानकर, संसार की असारता को पहिचानकर, भक्ति की सार्थकता का अनुभव कर, बारह भावनाओं के चिन्तनपूर्वक अपने आपको संसार से निकालकर मोक्ष में स्थापित कर लेने की उत्कट भावना की उर्वराभूमि में अध्यात्म का बीजारोप मोक्षफल पाने का उपाय है। ___संसार की निस्सारता का स्पष्ट व निःशंक निर्णय हुए बिना तथा मुक्ति के सम्पूर्ण/अखण्ड आनन्द के स्वरूप का नि:शंक निर्णय हुए बिना संसार से छूटने व मोक्ष पाने का पुरुषार्थ संभव ही नहीं है। संसार की समस्त परिस्थितियों व अनुभूतियों को एक ही भव में जिया ही नहीं जा सकता है और इसीलिए भुक्त दशाओं की निस्सारता के अहसास के बावजूद अभुक्त काल्पनिक परिस्थितियों में सुख की सुखद परिकल्पना इस जीव को संसार में सुख की मृग-मरीचिका जैसी अनुभूति से विमुख ही नहीं होने देती। - अन्तर्द्वन्द/ix - तब कोई कैसे संसार से विमुख हो सकता है। उक्त परिस्थितियों में प्रथमानुयोग में वर्णित, निगोद से लेकर मोक्ष तक की, रंक से लेकर चक्रवर्ती तक की, कुरूप से लेकर कामदेव की स्थितियों में जीव की दशा व अहसासों को पढ़कर, जानकर व विचारों में जीकर संसार की निस्सारता व मोक्ष की सार्थकता का निर्णय अल्पकाल में ही किया जा सकता है और तब उक्त पृष्ठभूमि में अध्यात्म का विज्ञान कार्यकारी हो जाता है। यदि सूत्रात्मक रूप से कहा जाये तो - "प्रथमानुयोग का कथ्य संसार की निस्सारता का सार है।" इस तथ्य को जानने व इसकी अहमियत को पहिचानने के बाद प्रथमानुयोग के ग्रन्थों की टीका व सरल, सुबोध एवं रुचिकर व्याख्या करना मेरी चिर संचित अभिलाषा है। आशा है इस अभिलाषा की पूर्ति शीघ्र ही होगी। जब मैं प्रस्तुत कृति को एक विस्तृत उपन्यास का रूप देने की दिशा में अग्रसर था, तब मेरी योजना थी कि समाज के विभिन्न आयुवर्ग, आय व बौद्धिकस्तर वर्ग को ध्यान में रखकर उनके जीवन में आनेवाली जटिल परिस्थितियों को प्रस्तुत कर उनका समाधान प्रस्तुत किया जावे व उन परिस्थितियों से उबरकर, किसप्रकार आत्मकल्याण के मार्ग पर लगा जा सकता है, वह मार्ग प्रस्तुत किया जा सके; परन्तु यह कोई आसान कार्य नहीं है व अनुभव की कमी के कारण मात्र विचारों के धरातल पर विभिन्न परिस्थितियों का सृजन करना मेरे लिए सम्भव नहीं हो सका; तथापि मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम किसी भी परिस्थिति से क्यों न गुजर रहे हों, कितनी ही विषमताओं का सामना क्यों न कर रहे हों; उनसे उबरने का उपाय विद्यमान अवश्य है, योग्य चिन्तन के जरिये वह उपाय आसानी से खोजा भी जा सकता है। मेरे इस कार्य में पाठक मेरे सहयोगी भी बन सकते हैं, यदि वे ऐसी विभिन्न परिस्थितियों का शब्दचित्र मेरे समक्ष उपस्थित करें तो मैं महसूस करता हूँ कि मैं उनका समाधान, उन परिस्थितियों से उबरने का उपाय प्रस्तुत कर सकूँगा। प्रस्तुत विषयवस्तु के सन्दर्भ में सुधी व प्रबुद्ध पाठकों की प्रतिक्रियायें व रचनात्मक सुझावों का हमेशा अपनी बात/ - परमात्मप्रकाश भारिल्ल Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक वाक्य • जिसप्रकार भौतिक मलिनता व गर्मी के शमन हेतु हम अपने घर में स्नानागार बनाते हैं, उसीप्रकार मानसिक मलिनता व मनस्ताप के शमन हेतु एक स्वाध्याय कक्ष भी अपने भवन में अवश्य होना चाहिए। हम सारे जगत को जानते हैं व जानना चाहते हैं, पर स्वयं को पहिचान नहीं पाते, हम सबके लिए कुछ करना चाहते हैं, पर स्वयं के लिए कुछ करने का हमें विचार भी नहीं आता। हमें सब पर करुणा आती है, पर स्वयं पर करुणा नहीं आती कि हमने ‘भगवान आत्मा' की यह क्या दुर्दशा कर रखी है ? उसके पास वह सबकुछ है, जो जगत के अधिकतम लोगों के अन्तिम लक्ष्य से भी काफी कुछ अधिक है और तब भी वह बैचेन या यूँ कहिए कि यही उसकी बेचैनी का कारण है कि “यदि इतना सब कुछ होते हुए भी चैन नहीं है तो इस मार्ग का लाभ ही क्या है ? यदि इस दौड़ में पुरजोर शामिल रहकर कुछ दूरी और भी तय कर ली तब भी क्या अपने अन्तिम लक्ष्य से अनन्त दूरी कायम न रहेगी? तो क्या यही है मेरी चरम परिणति ? यदि नहीं तो इसी पल विराम क्यों नहीं ? घोर अभावों की अवस्था में यदि कोई गलत मार्ग पर चल भी पड़ा तो सही समय आने पर उसे सही मार्ग का चुनाव कर ही लेना चाहिए न ? अरे भाई! कोई गमी के मौसम में भी सर्दी के कपड़े थोड़े ही पहने रहता है, सिर्फ इसलिए कि बुरे समय में इन कपड़ों ने मेरा साथ दिया था। यदि अब भी कपड़े न बदले गए तो एक बार फिर बुरा वक्त आते देर न लगेगी। पैसा! पैसा!! पैसा!!! जाने क्या आकर्षण है इस पैसे में ? सारी दुनिया पागल हुई जा रही है इसके पीछे । माना कि पैसे से भोग सामग्री मिलती Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । पर हम तो पैसे में ही ऐसे खो गए कि भोग भोगना ही भूल गए और भोगने की बात तो दूर, बेशुमार दौलत पास होते हुए भी कष्ट उठाते हैं, मान-अपमान बर्दाश्त करते हैं, खतरे मोल लेते हैं, तनाव सहन करते हैं; यहाँ तक कि जान भी खतरे में डाल देते हैं। इतना भी तो विचार नहीं आता कि पहले ही जो दौलत हमारे पास है, उसी ने हमें क्या निहाल किया है, जो और दौलत की आवश्यकता पड़ी। • हमें पता ही नहीं चलता कि कभी भोगों की साधन रही यह दौलत कब भोगों की ही राह में बाधक बन बैठी है और हम दौलत की ओर चल रही अन्धी दौड़ के एक पुर्जा मात्र बनकर रह गए हैं। • यदि हम कोई चीज, कोई कीमत चुकाकर प्राप्त करते हैं, तब हम उसका उपयोग भी विचारपूर्वक करते हैं, पर इस मानव-जीवन के बारे में हमें मालूम ही नहीं कि कितने पुरुषार्थ के फलस्वरूप किस कीमत पर हमें यह जीवन मिला है और इसलिए हमें आजतक यह विचार ही नहीं आया कि अपने इस चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ मानव जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग किसप्रकार किया जावे। • अबतक कभी उसके जीवन में ऐसा अवसर नहीं आया था कि घर के किसी शांत-एकांत कोने में कुछ देर शांति से बैठकर अपने जीवन के लक्ष्यों का निर्धारण किया हो, क्योंकि चिन्तन तो अभी तक भी हम लोगों की दिनचर्या का आवश्यक अंग ही नहीं बन पाया ......... हमारे तो सम्पूर्ण जीवन में ही चिन्तन का कहीं कोई स्थान ही नहीं है, सभ्यता के विकास व स्वचालित जीवन शैली ने हर कदम से पूर्ण चिन्तन" की शैली को ही कुण्ठित कर दिया है। .. क्या मैं ऐसा ही बनना चाहता था ? क्या यही था मेरे जीवन का लक्ष्य ? क्या जीवन में इससे अधिक, इससे आगे कुछ भी नहीं ? नहीं अपने जीवन की यह परिणति मुझे स्वीकार नहीं । 25 ..उसके वर्तमान जीवन क्रम पर उसका स्वयं का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है, उसकी "जीवनधारा" काल के अविरल प्रवाह में स्वयं ही एक तिनके की भाँति किसी एक दिशा की ओर बह रही है, वह अपने जीवन का नियंता नहीं, प्रेक्षकमात्र बनकर रह गया है और काल क्रम उसके जीवन को जिस दिशा में मोड़ रहा है, वह उसका लक्ष्य नहीं । . व्यापार उसके जीवन का लक्ष्य नहीं था, वह तो मात्र परिवार को विपन्नता के अभिशाप से मुक्ति दिलाकर साधन सम्पन्न, गौरवमय, पर सात्त्विक जीवन प्रणाली में स्थापित करने की दिशा में एक साधनमात्र था। • अमरबेल की तरह व्यापार तो दिन-रात फलफूल रहा है, पर अविरत ही 'समकित' की सम्पूर्ण शक्तियों व क्षमताओं का शोषण कर रहा है, मानो सिवा व्यापार के इस जगत में कुछ है ही नहीं । • ऐसा नहीं था कि जीवन के प्रति स्वयं के दृष्टिकोण में वह सबको सहभागी न बनाना चाहता हो, परन्तु बलात् नहीं। वह अपने विचार किसी पर लादना नहीं चाहता था; उन्हें कायल करना चाहता था । • वह समूचे समाधान के साथ ही अपनी टीम के समक्ष समस्यायें प्रस्तुत करता आया है। समाधान विहीन मात्र समस्यायें प्रस्तुत कर अपने ही सहायकों को अनन्त सम्भावनाओं की अंधेरी गलियों में भटकने के लिए अकेला छोड़ देना कभी भी समकित की आदत नहीं रही। • वर्तमान जीवनक्रम भी बिना किसी गतिरोध व प्रतिरोध के यथावत् चलता रहे व मुझे अपने साध्य की सिद्धि के लिए भी अवकाश मिल सके यही है, उसके आज के चिन्तन का बिन्दु | • व्यर्थ ही रिक्तता के अहसास के साथ बोझिल जीवन जीने की अपेक्षा सम्पूर्णता के छद्म आभास के साथ जीना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता था Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इसीलिए वे दस्तक देते उस अधूरेपन के अहसास को प्रयत्न पूर्वक दूर धकेल दिया करते थे, उससे मुँह मोड़ लेते थे, मानो उनके आँखे बन्द कर लेने से सच्चाई का लोप हो गया हो...। • पिताजी को तो शेष जीवन का लक्ष्य मिल गया था - "जीवन के लक्ष्य की खोज करना।” • लौकिक दृष्टि से भले ही उनका जीवन कितना ही सफल, उपलब्धिपूर्ण, स्वच्छ व निष्कलंक माना जाता हो, परन्तु पारमार्थिक जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं था, जोकि विरासत के रूप में अगले जीवन में साथ जो जाने लायक हो। • हा ! मैंने यह क्या किया ? इस छोटे से क्षणिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए मैंने इन अनन्त कर्मबन्धनों की कितनी बड़ी कीमत चुका डाली। जीवनयापन की वर्तमान प्रणाली अर्थहीन है, यदि इस जीवन ने त्रैकालिक महत्त्व की कोई उपलब्धि हासिल न कर ली जावे, यदि इस आत्मा के (अपने) अनन्तकाल तक के लिए अनन्त-आनन्द की प्राप्ति का उपक्रम न किया जावे। अरे ! अबतक के जीवन की ही क्या बात करें ? अनादिकाल से आजतक समय यूँ ही नष्ट हो गया है। भूतकाल गफलत में बीत गया व वर्तमान अवसाद में बीता जा रहा है और भविष्य अनिश्चित है या हूँ कहिए कि यह निश्चित है कि अब भविष्य लम्बा नहीं है, तब तुरन्त ही चल पड़ने के सिवाय कोई उपाय है ही नहीं। रोचक वाक्य अनन्त गुणों के वैभव का स्वामी यह भगवान आत्मा अपने निजवैभव को भूलकर, अनादिकाल से भोगों का भिखारी बनकर, दर-दर भटक रहा है। दुर्लभ यह मानवजीवन, लक्ष्मीपूजन व पेटपूजन के यज्ञ में आहूत हो जाता है। हर आनेवाली सुबह उसके जीवन में एक स्वर्णिम प्रकाश बिखेर देती है। घोर काली रातों में भी अब यह क्षमता नहीं कि उसके जीवन के उजालों को हर लें। आजतक जिस पथ पर चला, वह मार्ग नहीं भटकाव था। कहीं कुछ भी नहीं बदला था, सबकुछ वैसा ही चल रहा था। वही धंधा-व्यापार, वहीं बंगले-कार, वही फैक्ट्री-बाजार यदि कुछ बदला था तो वह उनके प्रति उसका दृष्टिकोण, उसकी आसक्ति। जिस पर अबतक चल रहा है, वह मार्ग नहीं है, यह ज्ञान तो हो गया था; पर मार्ग क्या है ? उसका निर्धारण अभी शेष था। • मार्ग समझे बिना आगे बढ़ना अनुचित था और ठहर पाना कर्मण्य के लिए सम्भव नहीं होता, इसलिए रुके बिना चलते रहना व चलते हुए भी रुकने-ठहरने का एकमात्र उपाय था “कदमताल"। और यही उहापोह भरी कदमताल आज उसका जीवन क्रम है। • आखिर यह संघर्ष है किसके विरुद्ध ? • हम स्वयं ही अपने सबसे बड़े शत्रु हैं। • नाहक ही लोग कहते हैं कि यह जगत बड़ा स्वार्थी है, सच पूछो तो मुझे अबतक कोई सच्चा स्वार्थी नजर ही नहीं आया। • हर व्यक्ति निरन्तर पर के चिन्तन में ही व्यस्त रहता है। • उसने जो थोड़ा-सा समय अपने लिए, सिर्फ अपने लिए निकाला था, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें हिस्सा बाँटने के लिए इसप्रकार कई प्रबल दावेदार खड़े हो गए थे और कुछ दिन तक तो इन सभी तत्त्वों ने मिलकर स्वाध्याय कक्ष की सीमा पर दस्तकें जारी रखीं, पर समकित के विनम्र किन्तु दृढ़ इन्कार के आगे वे सब अधिक समय तक टिक न सके और इस प्रकार अब उसके पास स्वयं के लिए थोड़ा-सा समय उपलब्ध था। बुद्धिजीवियों के साथ यह त्रासदी हमेशा से रही है कि किसी वस्तु का निरपेक्ष आनन्द उनके नसीब में होता ही नहीं। अक्सर वे किसी घटनाक्रम के तटस्थ प्रेक्षक नहीं बन पाते............व इन कसौटियों पर कसतेकसते वह मूलवस्तु या घटना जाने कहाँ तिरोहित हो जाती है। .......वह जिसके तर्क सुनती उसकी कायल हो जाती, पर तुरन्त ही उसका विरोधी तर्क सुनकर फिर विचलित हो उठती और इससे पहले कि वह अपनी कोई धारणा बना पाती, चर्चा का प्रवाह काफी आगे बढ़ चुका होता। .........रुचि के दो विभिन्न स्तरों के कारण लगभग रोज की यह रस्सा कसी चला करती थी और अपने-अपने आग्रहों के बावजूद सब लोगों के बीच एक अलिखित समझौता-सा हो गया था.......... .........किसी प्रकार का अभाव तो है नहीं कि आवश्यकताओं में समझौते की क्या आवश्यकता है ? दरअसल समय की अत्यधिक सुलभता व जीव में किसी लक्ष्य के अभाव ने उनके जीवन में एक विचित्र-सी स्थिति उत्पन्न कर दी थी। उन्हें अपनी स्वयं की नियति भी अपने इस प्रिय साथी “अखबार" की नियति से कुछ ज्यादा बेहतर नजर नहीं आती। वे अपने आपको भी उसीप्रकार "चुका हुआ” महसूस करते जैसे दिन के अन्त में “दैनिक समाचार-पत्र।" • दरअसल कचरा बीनते-बीनते उम्र गुजर गई पर कचरा है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। • काश कोई इतनी ही सतर्कता से अपने अवगुण को बीना करता। यामिनी सुरभित के ऑफिस को फाइलों के सौतिया डाह भरी निगाहों से एकटक निहारती, खोई-खोई-सी मानों अपनी हार्दिक समृद्धी का अभिशाप भुगत रही। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है ? जबतक व्यापार चलता नहीं, तबतक व्यक्ति इसलिए पूरी तरह व्यापार के प्रति समर्पित रहता है कि किसी तरह चल निकलें, बस! और जब चल निकलता है तो व्यापार व्यक्ति को अपने साथ दौड़ाने लगता है और जब कोई व्यापार की गति से स्वयं न दौड़ सके, तब तो स्वयं घिसटने की नौबत आ जाती है। एक जालंधर पैदा हो जाता है। .....हालांकि उनकी कृतियाँ बड़ी बदसूरत व बेडौल थीं, पर वे सभी अपनी-अपनी कृतियों से पूर्ण संतुष्ट........ । • जैसे मद्धिम-सी आवाज में भी अपना नाम सुनकर लोग गहरी निद्रा से भी जाग जाते हैं, उसीप्रकार सभी के अन्दर ही अन्दर जो विचार घुमड़ रहे थे, उन्हीं को अविभक्त करता हुआ कथन सुनकर सभी लोग एक सजग हो गए। ......पर जब से यह स्वाध्याय का चक्कर चला है, सारा माहौल ही बदल गया है...........। .........कोई भी बात कर लो; बस एक ही कसौटी पर कसना प्रारम्भ कर देता है कि आखिर वह विषय या वस्तु “सार" है या "निस्सार"... | • हाँ पिताजी! थक तो गया हूँ। भव-भ्रमण से। .....न तो यह विषय उनकी रुचि के अनुकूल ही है और न ही कोई इस विषय पर किसीप्रकार की चर्चा को बढ़ावा देना चाहता था। सभी को डर था कि कहीं यह छूत का रोग किसी और को न लग जावे... । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबतक उसने जो साधन, लोग व वातावरण अपने इर्दगिर्द जुटाए थे, वे सर्वथा उसके अनुकूल थे, पर जब वह स्वयं ही बदल गया तो सबकुछ मिसफिट हो गया। .....सामंजस्य बिगड़ने के फलस्वरूप उत्पन्न विपरीत पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके लक्ष्य की पूर्ति में बाधक ही होती। अन्त समय में उसकी सारी दौलत मिलकर भी उसके लिए जीवन के कुछ क्षण भी न जुटा सकी। ......दौलत बटोरने में वह इतना व्यस्त था कि उस दौलत के उपभोग के लिए भी उसके पास समय न था। ....चटोरी जीभ के लिए दुनिया भर के भक्ष्य-अभक्ष्य खायेंगे और पेट के मथ्थे मड़ देंगे। “पापी पेट के लिए"......दुनिया भर को झूठ-सा कहेंगे व कह देंगे, पापी पेट के लिए.....। .....यदि सभी अपने हाथ में धर्मकांटा लिए घूमते तो दुनिया की ये हालत न होती। .....और उद्देश्यहीन होने से यह दौड़ अन्तहीन है। उसके वक्तव्य में ऐसा गलत कुछ भी नहीं था, जो किसी को न जंचे। संगत था, सरल था, तर्कपूर्ण यथार्थ था, पर उससे सहमत होने का मतलब था; अबतक जो चल रहा है, उसे रोक देना, कल से दूसरा मार्ग अपनाना........और यह सब अनन्त पुरुषार्थियों के लिए ही सम्भव है, वह भी गम्भीर चिन्तन व मनन के बाद.... । ......न सही अपने लिए पर देश, समाज व परिवार के प्रति भी तो हमारी कोई जबावदारी है ? जिस देश के हम नागरिक हैं व जिस देश का पैदा किया अनाज खाते हैं, उस देश के लिए क्या हमारा कोई उत्तरदायित्व ही नहीं है ? यदि सभी लोग इनकी ही तरह विचार करने लगें तो देश का क्या होगा? ...पर आज जब लक्ष्मी स्वयं चांदला करने आई है, तब उसे ठुकराने जैसे दुर्भाग्यपूर्ण विचारों का मन में आना उन्हें किसी आगत विपत्तियों का संकेत दिखा देता था। • उनके मन में विनाश करते विपरीत वृद्धी जैसी अनेक उक्तियाँ कौंध उठती थीं। अभी तो इन विचारों का क्रियान्वयन कब होगा कभी होगा भी या नहीं? यह भी कोई नहीं जानता था; क्योंकि ऐसे क्षणिक विकारी परिणाम तो कई बार लोगों के दिलोदिमाग में आये और चले गये, पर हम शूरमाओं का आजतक क्या बिगाड़ सके, परन्तु पिताजी को ऐसे विचारों की उत्पत्ति मात्र से ही सख्त ऐतराज था...... । • इस मामले में माताजी ज्यादा प्रेक्टीकल थीं । जहाँ उनका बस न चलता जो-जो देखी वीतरागने का सहारा लेकर वे सचमुच सारी चिन्ताओं का पिटारा वीतराग की ओर धकेलकर निश्चिन्त हो जातीं और आज भी यही हुआ। • पिताजी करवटें ही बदलते रहे और वे वीतराग प्रभु की नींद हराम कर स्वयं गहरी नींद के सुपुर्द हो गई थीं। ....कितने निष्ठुर हो तुम । इतनी मेहनत व लगन से यह व्यापार स्थापित किया है और जब वह फल देने लगता है तो उस फलते-फूलते वृक्ष को काट डालना चाहते हो ? ये भी नहीं सोचा कि तुम अकेले नहीं हो...। • आज की इस स्थिति में पहुँचने में मेरा भी योगदान कम नहीं है और मैं यह सब इसतरह उजड़ नहीं जाने दूँगी.......कम से कम अपने बच्चों का तो ख्याल किया होता............तुम्हारा क्या है ? तुम तो वैसे ही संन्यासी हो। जब कुछ भी नहीं था तब भी तुम्हें कोई तकलीफ नहीं थी, जब सबकुछ है, तब भी तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, फिर कुछ न कुछ रहेगा तो तुम्हें क्या ? पर हम सब तो वैरागी नहीं हो गये हैं 28 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न? क्या हमारी ओर तुम्हारी कोई जबावदारी नहीं ? अभी तो सामने पहाड़-सी जिन्दगी पड़ी है......और अब मैं जीवन जीना चाहती हूँ......हे मेरे नाथ! मुझ पर रहम कीजिए। कामिनी की नारी सुलभ निर्बलता समकित का यह वार झेल न सकी और अपनी पत्नी सुलभ धृष्टता का प्रदर्शन करते हुए वह विफर पड़ी...। • आगत स्वर्णिम भोर की आशा और इन्तजार में अभावों की घोर काली रातें भी बिना पीड़ा पहुँचाए देखते ही देखते व्यतीत हो गईं। और इसप्रकार अपने जीवन में परिवर्तन के इस दूसरे मोड़ पर आज वह अकेला ही खड़ा है। ....कोई भी असामान्य हालात् उत्पन्न कर, अपने जीवन के सरल क्रम में कठिनाइयाँ पैदा नहीं करना चाहता था। अभी वह स्थिति तो आई नहीं कि घर व समाज को छोड़कर जंगल चला जावे, तब एक ऐसे समाज की ही रचना करनी होगी, जहाँ उसके विचारों को स्वीकृति मिले, उसके समान विचार वाले कई लोग हों और तब परिजनों को भी ऐसा नहीं लगेगा कि “इन्हें कहीं कुछ हो तो नहीं गया न । उसके सभी परिजन भी उसके साथ उसी समुदाय मोहल्ला बन जायेंगे और इस बात में गौरव का अनुभव करेंगे तो सभी समाज के अन्दर एक विशिष्ट वर्ग के अंश हैं। विचित्रता तो यह है कि अकेला व्यक्ति उत्कृष्ट से उत्कृष्ट कार्य करने में भी लज्जा का अनुभव करता है व समूह के साथ घृणित कार्य भी गौरव के साथ कर डालता है। ....अरे! अकेले तो इसे जीना भी गवाँरा नहीं और यदि सौ-पचास लोग एकसाथ मरने को तैयार हों तो इसे मरने में भी डर नहीं लगता। • न जाने ऐसी कौन-सी महत्त्वपूर्ण व सुन्दरतम वस्तु है यह दर्पण कि दुनियाँ का हर व्यक्ति, चाहे वह कितना ही व्यस्त क्यों न हो व उसका समय कितना भी कीमती क्यों न हो, अपने जीवन का,अपने दिन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय दर्पण के सामने बिताता है। • प्रतिदिन तो वह दर्पण के सामने खड़ा हो, उभरती हुई उम्र की सच्चाइयों को नकारने का प्रयास करता था, उन्हें छुपाने के प्रयासों में लगा रहता था; परन्तु आज उन हकीकतों को कुरेद-कुरेद कर पढ़ने की कोशिश कर रहा था, आज वह वास्तविकताओं से रुबरु होना चाहता था। • अब व्यापार से उसे नया कुछ भी नहीं मिलता क्योंकि वह सब तो अब उसके पास पहले से ही है, जो व्यापार से जुटाया जा सकता है। हाँ हर सांझ कुछ नई-नई परेशानियाँ जरूर उसकी समस्याओं की लम्बी लिस्ट मे जुड़ जाया करती हैं। अब वह अपने व्यापार का मालिक नहीं मात्र ट्रस्टी रह गया है, जो सतर्कता पूर्वक आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता है। बजाय इसके कि वे सभी मृग की भाँति जीवन भर मात्र दूर से ही मरीचिका की उपासना करते रहें, समकित चाहता था कि वे सभी सरोवर के किनारे पहुँचकर उसकी निरर्थकता को जियें। • जब आप नाव पर सवार होते हैं व जब एक बार मंझधार में पहुँच जाती है, तब आप और कुछ भी नहीं रहते, सर्वप्रथम आप एक नाविक बन जाते हैं। • आप कोई भी हों, कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों ? व आपकी अन्य प्राथमिकताएँ कुछ भी क्यों न हों ? यदि नैया डगमगाती है तो अपनी समस्त प्राथमिकताओं को तिलांजलि देकर सर्वप्रथम उसे सम्भालने का उपक्रम तो करना ही पड़ता है। ....लोग कहते हैं खोया-खोया-सा पर कौन जाने “खोया-खोया सा” या “पाया-पाया-सा", खोया हुआ तो अबतक था, अब तो वह पा लेना चाहता है, अपने आपको। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रसवकाल पूर्ण हो जाने पर भी प्रसूति न होने से अब सभी का ध्यान इस ओर आकर्षित होने लगा था। • कर्तव्य तो सूझता न था और पूर्वकृत दुष्कृत्यों का स्मरण व उनके सम्भावित परिणामों की दुश्चिन्ता उनका पीछा न छोड़ती थी। • सच्चाई तो यह है कि आत्मकल्याण के लिए तो कुछ किया ही नहीं, बल्कि अनाचार के द्वारा आगे अनन्तकाल तक भवभ्रमण का इन्तजाम और कर लिया......कुछ कैसे नहीं किया ? हाँ, कमाई नहीं की पर माथे पर कर्जा तो कर लिया न ! • कुछ भी तो न बदला था। कल तक अपने अतीत की तथाकथित उपलब्धियों को याद कर मन ही मन गौरवान्वित हुआ करते थे और आज अपने अतीत की भूलों को याद कर मलाल करते रहते हैं ....... । 30 सूत्रात्मक वाक्य • किसी प्रतिमा के सामने खड़े होकर, एक थाली के चावल दूसरी थाली में ट्रांसफर कर देने मात्र का नाम तो पूजन नहीं है। सच्ची आराधना तो सम्पूर्ण समर्पण का भाव है और क्या आज हम धनार्जन के लिए पूर्णत: समर्पित नहीं हैं ? फिर यह लक्ष्मी पूजन नहीं तो और क्या कहा जाए इसे ? • जीवनयापन के साधन जुटाने मात्र में जीवन बीत जाये, खप जावे तो फिर जीवन का अर्थ ही क्या है ? उस जीवन का देश व समाज के लिए क्या योगदान हुआ, स्वयं अपने लिए; सिवाय इसके कि अनन्त कर्मबन्ध करे अनन्तकाल के लिए भवभ्रमण का पुख्ता इन्तजाम हो जावे । • मैं स्वयं भी एक चिन्तनीय विषय व वस्तु हूँ । • क्या दौलत व सुख एक-दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। • आवश्यकताएँ मानव को पराश्रित बनाती हैं। जितनी जितनी आवश्यकताएँ बढ़ती जायेंगी, आदमी की विभिन्न साधनों के प्रति आधीनता बढ़ती जायेगी । • हर समय हर साधन की उपलब्धि तो सम्भव नहीं है, तब उस वस्तु के अभावरूप आकुलता व त्रास को टालना असम्भव ही है और इसीलिए आवश्यकताओं की पूर्ति सुखी होने का उपाय नहीं, वरन् सीमित आवश्यकता ही आकुलता रहित जीवन की कुंजी है। • यदि हर व्यक्ति का क्षणिक वैराग्य इसी तरह परवान चढ़ने लगता है तो शायद जगत में वैरागी ही वैरागी दिखाई देते । • अनेकों बार प्रत्येक के मन में स्वयं की रुचि, स्वभाव व विचारधारा से हटकर अनेक तरह के विचार आते हैं व चले जाते हैं; वे अपनी जड़ें नहीं जमा पाते और इसतरह व्यक्ति अपरिवर्तित ही रहता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ऐसे कोमल क्षण तो जीवन में यदाकदा ही आते हैं, जबकि अपने व्यक्तित्व से हटकर कोई अन्य विचार या शैली किसी के समक्ष प्रस्तुत हो व वह अन्तर की गहराइयों को छू ले, वहाँ स्थापित हो जावे व पनपने लगे। जब कोई ऐसी प्रवृत्ति पनपने लगती है तो व्यक्ति का अपना स्वयं का पूर्व व्यक्तित्व व परिकर (आसपास या वातावरण व लोग) उसका प्रतिरोध करते हैं। यदि प्रतिरोध बलवान हुआ तो परिवर्तन रुक जाता है। और यदि परिवर्तन बलवान हुआ तो व्यक्तित्व बदलने लगता है। जनसामान्य किसी भी प्रकार के परिवर्तन को हमेशा ही संशय की निगाह से ही देखते हैं, उनकी कल्पनाशीलता किसी भी प्रकार के परिवर्तन के प्रभावों का सांगोपांग विवेचन नहीं कर पाती और ऐसी अवस्था में वे किसी अज्ञात अनहोनी के भय से ही भयभीत रहते हैं। सारा जीवन एकसाथ, एक-दूसरे के लिए जीनेवाले लोग, एक अन्जान, अजनबी की तरह एक-दूसरे के गिरेबान में झांकने का प्रयास कर रहे हैं। चंचलता का आश्रय लेनेवालों की इसके अलावा और क्या गति हो सकती है ? क्षणिक परिणति बदली और सबकुछ बदल जाता है। धर्म का पंथ योगियों के लिए भले ही एकल चलो का पन्थ क्यों न हो; परन्तु गृहस्थों के लिए तो यही उचित भी है कि जिस पथ को उन्होंने स्वयं के लिए कल्याणकारी समझा है, उसी पथ पर अपने परिजनों को भी प्रवृत्त करें और यही निष्कटंक भी है। यदि परिजन ही सहचारी न हुए तो जो पुरुषार्थ अज्ञान से लड़ने में प्रयुक्त होना चाहिए, वह प्रतिरोधों से जूझने में ही नष्ट हो जावेगा। धर्मभावना या धर्ममय आचरण ऐसी वस्तु नहीं, जो मात्र आदेशों के द्वारा किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रत्यारोपित की जा सके। अन्य के अनुभव को पढ़कर व सुनकर जाना तो जा सकता है, पर अंगीकार करने के लिए तो स्वयं चिन्तन और अनुभव की यात्रा तय करनी आवश्यक है। जब इसप्रकार के महत्त्वपूर्ण, दूरगामी निर्णय लेने की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो आज्ञाप्रधानी बन कर नहीं जा सकता है, वरन् प्रत्येक निर्णय के फलस्वरूप उत्पन्न परिस्थिति को स्वयं ही जीना होता है और इसप्रकार लिया गया निर्णय ही सक्षम होता है। • व्यापारिक क्षेत्र में संघर्ष अन्यों के साथ होता है, तब चिन्ता मात्र स्वयं के हित साधन की करनी होती है, प्रतिपक्ष का क्या होगा, वह हमारी चिन्ता का विषय नहीं हुआ करता, पर संघर्ष यदि स्वजनों के बीच हो तो जीत, हार से भी बदतर होती है। •मान मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। अकेला मनुष्य अभिमान को तो जी सकता है, पर सम्मान किससे पायेगा ? समाज मनुष्य को उचित सम्मान प्रदान करता है। • अकेला मनुष्य अपने आत्मचिंतन के द्वारा चाहे कितने ही अच्छे निष्कर्षों पर क्यों न पहुँच जावे, उसके अन्दर यह भय बना रहता है कि - मेरा यह निष्कर्ष गलत तो नहीं है, कोई अन्य पहलू मेरे चिन्तन का विषय बनने से छूट तो नहीं गए न ? एक बार एक समूह द्वारा उसके चिन्तन पर स्वीकृति की मोहर लग जाने पर, उसके विचारों में दृढ़ता आ जाती है। • शायद ही कोई व्यक्ति आजतक स्वयं अपने रंग-रूप से संतुष्ट हुआ हो और शायद ही किसी ने अपने प्रकटरूप को बिना मीन-मेख के स्वीकार कर लिया हो। जिसप्रकार गंतव्य तक पहुँचने के लिए गति आवश्यक है, उसीप्रकार गंतव्य पर पहुँचने पर तुरन्त ठहर जाना भी अत्यन्त आवश्यक है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंतव्य तक पहुँचने से पूर्व जिसप्रकार गति निरन्तर हमें अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर करती है, वही गति लक्ष्य पर पहुँचने के बाद भी कायम रहे तो हमें निरंतर लक्ष्य से दूर ले जाने का कारण बन जाती है; इसलिए जितना महत्त्वपूर्ण दौड़ना है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है - सही समय व स्थान पर ठहर जाना। हम हैं कि ठहरना ही नहीं चाहते। हम गंतव्य को तो भूल ही गए। हमारी निष्ठा गंतव्य के प्रति न रही, वरन् अनजाने ही बस गतिशीलता ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन गई, हमारा आदर्श बन गई बिना रुके, बिना थके, बस दौड़ते रहना। किसलिए ? यह कोई नहीं जानता । जगत में गतिशीलता को ही आदर्श माना जाता है व तीव्रता से गतिशील व्यक्ति हमें सफल-सा दिखाई देता है और इसीलिए जगत के सभी लोग लक्ष्यहीन बस भागते ही रहते हैं, यहाँ से वहाँ दिन-रात । पर गतिशीलता तो अपूर्णता की प्रतीक है, गतिशीलता तो हर हालत में अपूर्णता की ही अवस्था है। गति या तो यह इंगित करती है कि हम लक्ष्य से दूर हैं और यदि लक्ष्य पर पहुँच चुके हैं तो अब तो गति हमें लक्ष्य से दूर ही ले जायेगी न ? हरहाल में गतिशीलता की अवस्था, पूर्णता की अवस्था हो ही नहीं सकती। • दरअसल न तो चलना महत्त्वपूर्ण है और न ही रुक जाना । महत्त्वपूर्ण है साध्य की सिद्धि । साध्य भी अचिन्त्य व अदृश्य नहीं, वरन् सुविचारित व स्पष्ट । •... ऐश्वर्य की हमें आवश्यकता ही क्या है ? क्या ऐश्वर्य के बिना जीवन नहीं रहेगा ? 32 ... महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति मात्र "आज" के लिए काम नहीं करता । • साधक अपने इस मानव जीवन में अपने अनादि-अनन्त आत्मा के आगामी अनन्तकाल के सुखों का इन्तजाम करने के लक्ष्य को लेकर जीवन जीता है। • अनुबंध तब होता है, जब आवश्यकता दोनों ओर होती है। जहाँ ओर अनुबंध से हमारी किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है, वहीं दूसरी ओर अपर पक्ष की आवश्यकता पूर्ति हेतु हमें कहीं समझौता करना पड़ता है, कुछ खोना होता है। • यह जगत दूर रहकर वैरागी की पूजा तो कर सकता है, पर अपने आसपास भी वैराग्य को फटकने नहीं देना चाहता है, यदि यदाकदा अपना कोई प्रिय संबंधी वैराग्य की बातें करता पाया जावे तो सब लोग इसतरह चौकन्ने हो जाते हैं, मानों अपने आसपास किसी महामारी के फैलने के संकेत मिलने लगे हों और अपनी सारी क्षमताएँ इसप्रकार के प्रयत्नों में झोंक दी जाती हैं कि यह महामारी जहाँ है, वहीं इसका शमन हो जावे...... । • अब तो वह निर्बन्ध होना चाहता है, फिर स्वयं ही अनुबंधों का सृजन क्यों कर करे ? • दीर्घकालिक नीति के अनुरूप निर्णय लेने का मतलब है कि दीर्घकाल तक अपने आपको उलझाये रखने का इन्तजाम स्वयं करना । • वृद्धावस्था की यह विडम्बना ही है कि वृद्धों के पास मात्र दो ही काल हैं, एक लम्बा अतीत और क्षणिक वर्तमान । उनका कोई भविष्य नहीं है । • सच्चे मार्ग की खोज, सच्चे गुरु की खोज कोई आसान बात नहीं। सच पूछा जावे तो सबसे मुश्किल काम ही यही है। • भोजन जीवन के लिए है, जीवन भोजन के लिए नहीं। जो अभावों से Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रस्त हैं, उनकी तो मजबूरी है, सारा समय व शक्ति भोजन जुटाने मात्र में खपाने की, पर साधन-सम्पन्न लोग यदि भोजन बनाने, सजाने व ग्रहण करने में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत कर दें तो फिर दोनों में फर्क ही क्या रहा? दोनों ही प्रकार के लोग रहे तो भोजन के इर्द-गिर्द ही न! भोजन तो जीवन का साधन है, साध्य लक्ष्य नहीं। * सिर्फ क्षणिक तौर पर थोड़ा अच्छा दिखने के लिए अपने जीवन का बहुतायत-बहुमूल्य समय बर्बाद करने का आखिर क्या औचित्य है? * बाहरी सजावट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है-भोजन की शुद्धता। सीमित मात्रा में दौलत भोगसामग्री उपलब्ध करने में सहायक होती है, पर दौलत की अधिकता फिर उसी भोग सामग्री से विमुखता का निमित्त बन जाती है। * मार्ग मिलना ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। यही सबसे बड़े पुरुषार्थ का काम