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गंतव्य तक पहुँचने से पूर्व जिसप्रकार गति निरन्तर हमें अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर करती है, वही गति लक्ष्य पर पहुँचने के बाद भी कायम रहे तो हमें निरंतर लक्ष्य से दूर ले जाने का कारण बन जाती है; इसलिए जितना महत्त्वपूर्ण दौड़ना है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है - सही समय व स्थान पर ठहर जाना।
हम हैं कि ठहरना ही नहीं चाहते। हम गंतव्य को तो भूल ही गए। हमारी निष्ठा गंतव्य के प्रति न रही, वरन् अनजाने ही बस गतिशीलता ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन गई, हमारा आदर्श बन गई बिना रुके, बिना थके, बस दौड़ते रहना। किसलिए ? यह कोई नहीं जानता ।
जगत में गतिशीलता को ही आदर्श माना जाता है व तीव्रता से गतिशील व्यक्ति हमें सफल-सा दिखाई देता है और इसीलिए जगत के सभी लोग लक्ष्यहीन बस भागते ही रहते हैं, यहाँ से वहाँ दिन-रात । पर गतिशीलता तो अपूर्णता की प्रतीक है, गतिशीलता तो हर हालत में अपूर्णता की ही अवस्था है।
गति या तो यह इंगित करती है कि हम लक्ष्य से दूर हैं और यदि लक्ष्य पर पहुँच चुके हैं तो अब तो गति हमें लक्ष्य से दूर ही ले जायेगी न ?
हरहाल में गतिशीलता की अवस्था, पूर्णता की अवस्था हो ही नहीं सकती।
• दरअसल न तो चलना महत्त्वपूर्ण है और न ही रुक जाना । महत्त्वपूर्ण है साध्य की सिद्धि । साध्य भी अचिन्त्य व अदृश्य नहीं, वरन् सुविचारित
व स्पष्ट ।
•... ऐश्वर्य की हमें आवश्यकता ही क्या है ? क्या ऐश्वर्य के बिना जीवन नहीं रहेगा ?
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... महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति मात्र "आज" के लिए काम नहीं करता । • साधक अपने इस मानव जीवन में अपने अनादि-अनन्त आत्मा के आगामी अनन्तकाल के सुखों का इन्तजाम करने के लक्ष्य को लेकर जीवन जीता है।
• अनुबंध तब होता है, जब आवश्यकता दोनों ओर होती है। जहाँ ओर अनुबंध से हमारी किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है, वहीं दूसरी ओर अपर पक्ष की आवश्यकता पूर्ति हेतु हमें कहीं समझौता करना पड़ता है, कुछ खोना होता है।
• यह जगत दूर रहकर वैरागी की पूजा तो कर सकता है, पर अपने आसपास भी वैराग्य को फटकने नहीं देना चाहता है, यदि यदाकदा अपना कोई प्रिय संबंधी वैराग्य की बातें करता पाया जावे तो सब लोग इसतरह चौकन्ने हो जाते हैं, मानों अपने आसपास किसी महामारी के फैलने के संकेत मिलने लगे हों और अपनी सारी क्षमताएँ इसप्रकार के प्रयत्नों में झोंक दी जाती हैं कि यह महामारी जहाँ है, वहीं इसका शमन हो जावे...... ।
• अब तो वह निर्बन्ध होना चाहता है, फिर स्वयं ही अनुबंधों का सृजन क्यों कर करे ?
• दीर्घकालिक नीति के अनुरूप निर्णय लेने का मतलब है कि दीर्घकाल तक अपने आपको उलझाये रखने का इन्तजाम स्वयं करना ।
• वृद्धावस्था की यह विडम्बना ही है कि वृद्धों के पास मात्र दो ही काल हैं, एक लम्बा अतीत और क्षणिक वर्तमान । उनका कोई भविष्य नहीं है ।
• सच्चे मार्ग की खोज, सच्चे गुरु की खोज कोई आसान बात नहीं। सच पूछा जावे तो सबसे मुश्किल काम ही यही है।
• भोजन जीवन के लिए है, जीवन भोजन के लिए नहीं। जो अभावों से