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• ऐसे कोमल क्षण तो जीवन में यदाकदा ही आते हैं, जबकि अपने
व्यक्तित्व से हटकर कोई अन्य विचार या शैली किसी के समक्ष प्रस्तुत हो व वह अन्तर की गहराइयों को छू ले, वहाँ स्थापित हो जावे व पनपने लगे।
जब कोई ऐसी प्रवृत्ति पनपने लगती है तो व्यक्ति का अपना स्वयं का पूर्व व्यक्तित्व व परिकर (आसपास या वातावरण व लोग) उसका प्रतिरोध करते हैं। यदि प्रतिरोध बलवान हुआ तो परिवर्तन रुक जाता है। और यदि परिवर्तन बलवान हुआ तो व्यक्तित्व बदलने लगता है। जनसामान्य किसी भी प्रकार के परिवर्तन को हमेशा ही संशय की निगाह से ही देखते हैं, उनकी कल्पनाशीलता किसी भी प्रकार के परिवर्तन के प्रभावों का सांगोपांग विवेचन नहीं कर पाती और ऐसी अवस्था में वे किसी अज्ञात अनहोनी के भय से ही भयभीत रहते हैं। सारा जीवन एकसाथ, एक-दूसरे के लिए जीनेवाले लोग, एक अन्जान, अजनबी की तरह एक-दूसरे के गिरेबान में झांकने का प्रयास कर रहे हैं। चंचलता का आश्रय लेनेवालों की इसके अलावा और क्या गति हो सकती है ? क्षणिक परिणति बदली और सबकुछ बदल जाता है। धर्म का पंथ योगियों के लिए भले ही एकल चलो का पन्थ क्यों न हो; परन्तु गृहस्थों के लिए तो यही उचित भी है कि जिस पथ को उन्होंने स्वयं के लिए कल्याणकारी समझा है, उसी पथ पर अपने परिजनों को भी प्रवृत्त करें और यही निष्कटंक भी है।
यदि परिजन ही सहचारी न हुए तो जो पुरुषार्थ अज्ञान से लड़ने में प्रयुक्त होना चाहिए, वह प्रतिरोधों से जूझने में ही नष्ट हो जावेगा। धर्मभावना या धर्ममय आचरण ऐसी वस्तु नहीं, जो मात्र आदेशों के
द्वारा किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रत्यारोपित की जा सके।
अन्य के अनुभव को पढ़कर व सुनकर जाना तो जा सकता है, पर अंगीकार करने के लिए तो स्वयं चिन्तन और अनुभव की यात्रा तय करनी आवश्यक है। जब इसप्रकार के महत्त्वपूर्ण, दूरगामी निर्णय लेने की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो आज्ञाप्रधानी बन कर नहीं जा सकता है, वरन् प्रत्येक निर्णय के फलस्वरूप उत्पन्न परिस्थिति को स्वयं ही जीना होता है और इसप्रकार लिया गया निर्णय ही सक्षम होता है। • व्यापारिक क्षेत्र में संघर्ष अन्यों के साथ होता है, तब चिन्ता मात्र स्वयं
के हित साधन की करनी होती है, प्रतिपक्ष का क्या होगा, वह हमारी चिन्ता का विषय नहीं हुआ करता, पर संघर्ष यदि स्वजनों के बीच हो
तो जीत, हार से भी बदतर होती है। •मान मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। अकेला मनुष्य अभिमान को
तो जी सकता है, पर सम्मान किससे पायेगा ? समाज मनुष्य को उचित सम्मान प्रदान करता है। • अकेला मनुष्य अपने आत्मचिंतन के द्वारा चाहे कितने ही अच्छे निष्कर्षों पर क्यों न पहुँच जावे, उसके अन्दर यह भय बना रहता है कि - मेरा यह निष्कर्ष गलत तो नहीं है, कोई अन्य पहलू मेरे चिन्तन का विषय बनने से छूट तो नहीं गए न ? एक बार एक समूह द्वारा उसके चिन्तन पर स्वीकृति की मोहर लग जाने पर, उसके विचारों में दृढ़ता आ जाती है। • शायद ही कोई व्यक्ति आजतक स्वयं अपने रंग-रूप से संतुष्ट हुआ हो
और शायद ही किसी ने अपने प्रकटरूप को बिना मीन-मेख के स्वीकार कर लिया हो। जिसप्रकार गंतव्य तक पहुँचने के लिए गति आवश्यक है, उसीप्रकार गंतव्य पर पहुँचने पर तुरन्त ठहर जाना भी अत्यन्त आवश्यक है।