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________________ अत्यन्त बोझिल हूँ, अपने पापों से, अपने कर्मों से । कौन कहता है कि मेरे पास कुछ नहीं अपने साथ ले जाने के लिए ? हाँ ले जाने लायक कुछ नहीं, पर ले जाने के लिए तो है न ? जीवन भर किये गये पापों का बोझ । अब पूर्वकृत दुष्कृत्यों का स्मरण व उनके सम्भावित परिणामों की दुश्चिन्ता मेरा पीछा नहीं छोड़ती है। ज्यों-ज्यों मेरा ध्यान पिछले जीवन में घटित विभिन्न घटनाक्रमों पर जाता है, मेरा मन वितृष्णा से भर उठता है। हा! यह मैंने क्या किया ? छोटे क्षणिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए मैंने उन अनन्त कर्मबन्धनों की कितनी बड़ी कीमत चुका डाली ? सिर्फ इसीलिए न कि प्रकट तौर से मुझे वह कीमत तुरन्त नहीं चुकानी थी, शायद तात्कालिक तौर पर तो मुझे कुछ मिलनेवाला ही था; पर क्या कोई भी समझदार व्यक्ति कोई अनुपयोगी या मँहगी वस्तु क्रेडिट कार्ड से सिर्फ इसलिए खरीद लेता है कि अभी कहाँ पैसे देने हैं; अभी तो चीज यूँ ही घर में आ रही है। अरे; कभी तो क्रेडिट कार्ड का भी पैसा चुकाना होगा, वह भी भारी ब्याज के साथ ! ईमानदार व समझदार व्यक्ति के लिए तो क्रेडिट कार्ड के खर्च में व नकद खर्च में कोई फर्क नहीं है और वह तो हर कार्य लाभ-हानि का विचार करके करता है, तब मैंने भला बिना विचारे, वर्तमान के व्यर्थ से व्यवहारों के लिए गम्भीर कर्मबन्धनों का बोझ क्यों अपने सिर पर लाद लिया, क्या सिर्फ इसलिए कि आज मेरा कुछ नहीं बिगड़ता ? अरे आज नहीं तो कल, भोगना तो मुझे ही है न ? अरे कल ही क्यों? आज भी तो उसका फल मैं ही भोगता हूँ अनन्त आकुलित होकर ! क्या मात्र किसी वस्तु या धन का आय-व्यय ही लाभ-हानि है, सुख-दुख है ? परिणामों में व्याकुलता दुःख नहीं ? अरे वस्तुतः तो मात्र व्याकुलता ही दुख है। पर वस्तुओं का ग्रहण -त्याग तो पराधीन है, उसमें तो मेरा कुछ कर्तापना है ही नहीं। अन्तर्द्वन्द / ५ आखिर क्या महत्त्व रखती थी वह बचपन में मित्रों के बीच खेलखेल में होनेवाली जीत-हार ? खेल का उद्देश्य तो मात्र मनोरंजन ही था न? पर मैं खेल में भी ईमानदार न रह सका। हारना तो मुझे मंजूर ही न था, किसी भी कीमत पर ; ईमान की कीमत पर भी नहीं। धिक्कार है मेरी उस हीनवृत्ति को, जो अपने ही प्रिय मित्रों की विजय मुस्कान बर्दाश्त न कर सकती थी। क्या मैं उस समय दोहरा आनन्द नहीं ले सकता था ? एक ओर खेल का आनन्द व दूसरी ओर स्वयं की विजय से प्रसन्न मित्रों की प्रसन्नता का आनंद ? पर मेरा अहंकार तो हमेशा ही उन्हें मात्र पराजित ही देखना चाहता था। क्या इसी का नाम मित्रता है ? तब फिर शत्रुता किसे कहते हैं? क्या मैं मित्र बनकर अपने ही मित्रों से शत्रुवत व्यवहार नहीं करता रहा ? क्या यह जघन्य अपराध नहीं था ? क्या यह महापाप नहीं था और यह महापाप करके मैंने पाया क्या ? प्रतिपल जीत का षडयंत्र रचने की आकुलता ही न ? क्या अभक्ष्यों के भक्षण बिना मेरा यह जीवन नहीं चल सकता था? क्या कमी थी? एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व पौष्टिक पदार्थ उपलब्ध थे भोजन के लिए, पर मुझे तो वही चाहिए थी आलू की चाट । और वह भी अज्ञानवश नहीं, बल्कि यह जानते हुए भी कि इसमें अनन्त निगोदिया जीवों का घात निहित है ? आखिर क्या है भोजन की उपयोगिता और आवश्यकता ? किसे कहते हैं भोजन का आनन्द । भोजन की आवश्यकता मात्र शरीर को स्वस्थ व कार्यक्षम बनाये रखने के लिए ही तो है; व इस उद्देश्य की पूर्ति तो सर्वप्रकार से दोषरहित भोजन से भी भलीभांति की जा सकती है और रही बात स्वाद की, तो ऐसा तो है नहीं कि मात्र अमुक वस्तु ही स्वादिष्ट होती है और अमुक नहीं । यह तो अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम स्वयं अपने लिए कैसा स्वाद विकसित करते हैं । लोक में बहुतायत से देखा जा सकता है कि एक व्यक्ति अन्तर्द्वन्द / ६
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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