________________
को एक वस्तु अत्यन्त पसन्द है व वही वस्तु दूसरे को बिल्कुल नहीं सुहाती। अरे ! विभिन्न व्यक्तियों की तो बात ही क्या ? एक ही व्यक्ति को कभी वही वस्तु अत्यन्त प्रिय लगती है तो कभी अत्यन्त अप्रिय । यदि तेज भूख लगी हो तो रूखी-सूखी मोटी रोटियाँ भी स्वादिष्ट लगती हैं और यदि पेट भरा हुआ हो, तो अत्यन्त प्रिय पकवान देखकर भी हीक आती है, वमन होने लगता है। ___ वैसे भी स्वाद के आनन्द की उम्र ही कितनी है? जबतक भोजन थाली या हाथ में होता है, तबतक तो स्वाद का आनन्द आता ही नहीं एवं जब गले से नीचे उतर जाता है, तब भी स्वाद के आनन्द का तो सवाल ही नहीं; हाँ अधिक भोजन कर लेने पर वेदना ही होती है। अब सिर्फ बचा रहता है, कुछ ही क्षणों का वह काल जबकि भोजन जिव्हा से गुजरता है, सिर्फ इसी छोटे से काल में भोजन का तथाकथित आनन्द प्राप्त किया जा सकता है ? पर इस कुछ क्षणों के आनन्द के लिए अनन्त जीवों का घात? क्या यह सब जान लेने के बाद भी वह भोजन स्वादिष्ट लग सकता है, लगना चाहिए? और यदि फिर भी हमें वही चाहिए तो समझना चाहिए कि हममें गृद्धता कितनी अधिक है, कितना बड़ा पाप है यह ? ___ क्या हमारी यह स्वाद लिप्सा, अनन्त आकुलतारूप नहीं है ? जबतक इष्ट भोजन न पा सकूँ, तबतक विरह की व्याकुलता, फिर उसे जुटाने के प्रयत्नों की आकुलता और फिर अनन्त जीवों का घात करनेरूप परिणामों की क्रूरता भरी तड़प यह सब दुःखरूप है या आनन्दरूप ? फिर इसमें आनन्द कहाँ है ?
वर्तमान में अनन्त आकुलतारूप दु:ख व कर्मबन्ध तथा भविष्य में कर्मोदय आने पर प्रतिपल संयोगों की प्राप्ति व तद्जनित आकुलता।
यदि हमारे किसी इष्टजन का वियोग हो जावे तो हमें भोजन अच्छा नहीं लगता, सुस्वादु भोजन भी ! अरे चिरवियोग की तो बात ही क्या, यदि कुछ काल के लिए भी पुत्र दूर चला गया हो तो माँ को भोजन नहीं रुचता।
अन्तर्वन्द/७
अनन्त जीवों के घात की कीमत पर भी अभक्ष्य भक्षण करना ही है, क्या यह उन अनन्त जीवों के प्रति हमारी अनन्त उपेक्षा नहीं है, अनन्त शत्रुता नहीं है ? वह भी मात्र तत्क्षण नहीं, बल्कि प्रतिपल; क्योंकि हम उन अनन्त जीवों के प्रति मात्र उसी पल अपराध नहीं करते हैं, जब हम उनका घात कर रहे होते हैं, बल्कि उनके प्रति शत्रुता तो हमारे हृदय में प्रतिपल पलती रहती है, जब-जब हमें आवश्यकता हो हम उनके घात के लिए कटिबद्ध रहते हैं और इसीलिए प्रतिपल भयभीत, शशंक व सतर्क बने रहना उनकी नियति है और इसलिए न तो यह अपराध कुछ क्षणों का है और न कर्मबन्ध कुछ ही पलों का, यह एक निरन्तर पाप है, सतत कर्मबन्ध का कारण है।
सिंह जंगल में प्रतिपल शिकार में व्यस्त नहीं रहता, शिकार तो वह कभी-कभी ही करता है, मात्र भूख लगने पर, वह भी मात्र एक जानवर का; परन्तु एक नहीं सभी प्राणी भयभीत तो सदा ही बने रहते हैं। एक बार, एक प्राणी पर हमले की आशंका में सारे जानवर हमेशा ही भय का महादुख भोगते हैं, उन अनन्त प्राणियों को अनन्तकाल तक अनन्त भयभीत रखने वाला सिंह का वह क्रूर परिणाम क्या मात्र एक दिन में एक जानवर की हिंसा का साधारण पाप है ? नहीं, किसी भी वक्त कोई भी प्राणी उसके हाथ पड़कर अपना जीवन गंवा सकता है। इसप्रकार उसके रहते कभी भी किसी भी प्राणी की सुरक्षा असंदिग्ध नहीं है; इसीलिए वह सिंह प्रतिपल सम्पूर्ण प्राणीमण्डल का अपराधी है। उसीप्रकार अभक्ष्य का भक्षण करनेवाला मनुष्य (जीव) प्रतिपल ही जगत के समस्त प्राणियों के प्रति अपराधी है। ___ अरे सिंह तो फिर भी पेट भर जाने पर शिकार नहीं करता, पर यह मनुष्य ? स्वयं का पेट भरा होने पर पड़ौसी के लिए अथवा आज नहीं तो कल के लिए भी शिकार कर गुजरेगा ? इसकी अनन्त लालसा के सामने तो कोई भी, कभी भी सुरक्षित नहीं। कौन कह सकता है कि उन अनन्त जीवों में हमारे भूत व भावी अनन्त
- अन्तर्द्वन्द/८