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________________ उसमें हिस्सा बाँटने के लिए इसप्रकार कई प्रबल दावेदार खड़े हो गए थे और कुछ दिन तक तो इन सभी तत्त्वों ने मिलकर स्वाध्याय कक्ष की सीमा पर दस्तकें जारी रखीं, पर समकित के विनम्र किन्तु दृढ़ इन्कार के आगे वे सब अधिक समय तक टिक न सके और इस प्रकार अब उसके पास स्वयं के लिए थोड़ा-सा समय उपलब्ध था। बुद्धिजीवियों के साथ यह त्रासदी हमेशा से रही है कि किसी वस्तु का निरपेक्ष आनन्द उनके नसीब में होता ही नहीं। अक्सर वे किसी घटनाक्रम के तटस्थ प्रेक्षक नहीं बन पाते............व इन कसौटियों पर कसतेकसते वह मूलवस्तु या घटना जाने कहाँ तिरोहित हो जाती है। .......वह जिसके तर्क सुनती उसकी कायल हो जाती, पर तुरन्त ही उसका विरोधी तर्क सुनकर फिर विचलित हो उठती और इससे पहले कि वह अपनी कोई धारणा बना पाती, चर्चा का प्रवाह काफी आगे बढ़ चुका होता। .........रुचि के दो विभिन्न स्तरों के कारण लगभग रोज की यह रस्सा कसी चला करती थी और अपने-अपने आग्रहों के बावजूद सब लोगों के बीच एक अलिखित समझौता-सा हो गया था.......... .........किसी प्रकार का अभाव तो है नहीं कि आवश्यकताओं में समझौते की क्या आवश्यकता है ? दरअसल समय की अत्यधिक सुलभता व जीव में किसी लक्ष्य के अभाव ने उनके जीवन में एक विचित्र-सी स्थिति उत्पन्न कर दी थी। उन्हें अपनी स्वयं की नियति भी अपने इस प्रिय साथी “अखबार" की नियति से कुछ ज्यादा बेहतर नजर नहीं आती। वे अपने आपको भी उसीप्रकार "चुका हुआ” महसूस करते जैसे दिन के अन्त में “दैनिक समाचार-पत्र।" • दरअसल कचरा बीनते-बीनते उम्र गुजर गई पर कचरा है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। • काश कोई इतनी ही सतर्कता से अपने अवगुण को बीना करता। यामिनी सुरभित के ऑफिस को फाइलों के सौतिया डाह भरी निगाहों से एकटक निहारती, खोई-खोई-सी मानों अपनी हार्दिक समृद्धी का अभिशाप भुगत रही। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है ? जबतक व्यापार चलता नहीं, तबतक व्यक्ति इसलिए पूरी तरह व्यापार के प्रति समर्पित रहता है कि किसी तरह चल निकलें, बस! और जब चल निकलता है तो व्यापार व्यक्ति को अपने साथ दौड़ाने लगता है और जब कोई व्यापार की गति से स्वयं न दौड़ सके, तब तो स्वयं घिसटने की नौबत आ जाती है। एक जालंधर पैदा हो जाता है। .....हालांकि उनकी कृतियाँ बड़ी बदसूरत व बेडौल थीं, पर वे सभी अपनी-अपनी कृतियों से पूर्ण संतुष्ट........ । • जैसे मद्धिम-सी आवाज में भी अपना नाम सुनकर लोग गहरी निद्रा से भी जाग जाते हैं, उसीप्रकार सभी के अन्दर ही अन्दर जो विचार घुमड़ रहे थे, उन्हीं को अविभक्त करता हुआ कथन सुनकर सभी लोग एक सजग हो गए। ......पर जब से यह स्वाध्याय का चक्कर चला है, सारा माहौल ही बदल गया है...........। .........कोई भी बात कर लो; बस एक ही कसौटी पर कसना प्रारम्भ कर देता है कि आखिर वह विषय या वस्तु “सार" है या "निस्सार"... | • हाँ पिताजी! थक तो गया हूँ। भव-भ्रमण से। .....न तो यह विषय उनकी रुचि के अनुकूल ही है और न ही कोई इस विषय पर किसीप्रकार की चर्चा को बढ़ावा देना चाहता था। सभी को डर था कि कहीं यह छूत का रोग किसी और को न लग जावे... ।
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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