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________________ और इसीलिए वे दस्तक देते उस अधूरेपन के अहसास को प्रयत्न पूर्वक दूर धकेल दिया करते थे, उससे मुँह मोड़ लेते थे, मानो उनके आँखे बन्द कर लेने से सच्चाई का लोप हो गया हो...। • पिताजी को तो शेष जीवन का लक्ष्य मिल गया था - "जीवन के लक्ष्य की खोज करना।” • लौकिक दृष्टि से भले ही उनका जीवन कितना ही सफल, उपलब्धिपूर्ण, स्वच्छ व निष्कलंक माना जाता हो, परन्तु पारमार्थिक जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं था, जोकि विरासत के रूप में अगले जीवन में साथ जो जाने लायक हो। • हा ! मैंने यह क्या किया ? इस छोटे से क्षणिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए मैंने इन अनन्त कर्मबन्धनों की कितनी बड़ी कीमत चुका डाली। जीवनयापन की वर्तमान प्रणाली अर्थहीन है, यदि इस जीवन ने त्रैकालिक महत्त्व की कोई उपलब्धि हासिल न कर ली जावे, यदि इस आत्मा के (अपने) अनन्तकाल तक के लिए अनन्त-आनन्द की प्राप्ति का उपक्रम न किया जावे। अरे ! अबतक के जीवन की ही क्या बात करें ? अनादिकाल से आजतक समय यूँ ही नष्ट हो गया है। भूतकाल गफलत में बीत गया व वर्तमान अवसाद में बीता जा रहा है और भविष्य अनिश्चित है या हूँ कहिए कि यह निश्चित है कि अब भविष्य लम्बा नहीं है, तब तुरन्त ही चल पड़ने के सिवाय कोई उपाय है ही नहीं। रोचक वाक्य अनन्त गुणों के वैभव का स्वामी यह भगवान आत्मा अपने निजवैभव को भूलकर, अनादिकाल से भोगों का भिखारी बनकर, दर-दर भटक रहा है। दुर्लभ यह मानवजीवन, लक्ष्मीपूजन व पेटपूजन के यज्ञ में आहूत हो जाता है। हर आनेवाली सुबह उसके जीवन में एक स्वर्णिम प्रकाश बिखेर देती है। घोर काली रातों में भी अब यह क्षमता नहीं कि उसके जीवन के उजालों को हर लें। आजतक जिस पथ पर चला, वह मार्ग नहीं भटकाव था। कहीं कुछ भी नहीं बदला था, सबकुछ वैसा ही चल रहा था। वही धंधा-व्यापार, वहीं बंगले-कार, वही फैक्ट्री-बाजार यदि कुछ बदला था तो वह उनके प्रति उसका दृष्टिकोण, उसकी आसक्ति। जिस पर अबतक चल रहा है, वह मार्ग नहीं है, यह ज्ञान तो हो गया था; पर मार्ग क्या है ? उसका निर्धारण अभी शेष था। • मार्ग समझे बिना आगे बढ़ना अनुचित था और ठहर पाना कर्मण्य के लिए सम्भव नहीं होता, इसलिए रुके बिना चलते रहना व चलते हुए भी रुकने-ठहरने का एकमात्र उपाय था “कदमताल"। और यही उहापोह भरी कदमताल आज उसका जीवन क्रम है। • आखिर यह संघर्ष है किसके विरुद्ध ? • हम स्वयं ही अपने सबसे बड़े शत्रु हैं। • नाहक ही लोग कहते हैं कि यह जगत बड़ा स्वार्थी है, सच पूछो तो मुझे अबतक कोई सच्चा स्वार्थी नजर ही नहीं आया। • हर व्यक्ति निरन्तर पर के चिन्तन में ही व्यस्त रहता है। • उसने जो थोड़ा-सा समय अपने लिए, सिर्फ अपने लिए निकाला था,
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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