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________________ है । पर हम तो पैसे में ही ऐसे खो गए कि भोग भोगना ही भूल गए और भोगने की बात तो दूर, बेशुमार दौलत पास होते हुए भी कष्ट उठाते हैं, मान-अपमान बर्दाश्त करते हैं, खतरे मोल लेते हैं, तनाव सहन करते हैं; यहाँ तक कि जान भी खतरे में डाल देते हैं। इतना भी तो विचार नहीं आता कि पहले ही जो दौलत हमारे पास है, उसी ने हमें क्या निहाल किया है, जो और दौलत की आवश्यकता पड़ी। • हमें पता ही नहीं चलता कि कभी भोगों की साधन रही यह दौलत कब भोगों की ही राह में बाधक बन बैठी है और हम दौलत की ओर चल रही अन्धी दौड़ के एक पुर्जा मात्र बनकर रह गए हैं। • यदि हम कोई चीज, कोई कीमत चुकाकर प्राप्त करते हैं, तब हम उसका उपयोग भी विचारपूर्वक करते हैं, पर इस मानव-जीवन के बारे में हमें मालूम ही नहीं कि कितने पुरुषार्थ के फलस्वरूप किस कीमत पर हमें यह जीवन मिला है और इसलिए हमें आजतक यह विचार ही नहीं आया कि अपने इस चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ मानव जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग किसप्रकार किया जावे। • अबतक कभी उसके जीवन में ऐसा अवसर नहीं आया था कि घर के किसी शांत-एकांत कोने में कुछ देर शांति से बैठकर अपने जीवन के लक्ष्यों का निर्धारण किया हो, क्योंकि चिन्तन तो अभी तक भी हम लोगों की दिनचर्या का आवश्यक अंग ही नहीं बन पाया ......... हमारे तो सम्पूर्ण जीवन में ही चिन्तन का कहीं कोई स्थान ही नहीं है, सभ्यता के विकास व स्वचालित जीवन शैली ने हर कदम से पूर्ण चिन्तन" की शैली को ही कुण्ठित कर दिया है। .. क्या मैं ऐसा ही बनना चाहता था ? क्या यही था मेरे जीवन का लक्ष्य ? क्या जीवन में इससे अधिक, इससे आगे कुछ भी नहीं ? नहीं अपने जीवन की यह परिणति मुझे स्वीकार नहीं । 25 ..उसके वर्तमान जीवन क्रम पर उसका स्वयं का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है, उसकी "जीवनधारा" काल के अविरल प्रवाह में स्वयं ही एक तिनके की भाँति किसी एक दिशा की ओर बह रही है, वह अपने जीवन का नियंता नहीं, प्रेक्षकमात्र बनकर रह गया है और काल क्रम उसके जीवन को जिस दिशा में मोड़ रहा है, वह उसका लक्ष्य नहीं । . व्यापार उसके जीवन का लक्ष्य नहीं था, वह तो मात्र परिवार को विपन्नता के अभिशाप से मुक्ति दिलाकर साधन सम्पन्न, गौरवमय, पर सात्त्विक जीवन प्रणाली में स्थापित करने की दिशा में एक साधनमात्र था। • अमरबेल की तरह व्यापार तो दिन-रात फलफूल रहा है, पर अविरत ही 'समकित' की सम्पूर्ण शक्तियों व क्षमताओं का शोषण कर रहा है, मानो सिवा व्यापार के इस जगत में कुछ है ही नहीं । • ऐसा नहीं था कि जीवन के प्रति स्वयं के दृष्टिकोण में वह सबको सहभागी न बनाना चाहता हो, परन्तु बलात् नहीं। वह अपने विचार किसी पर लादना नहीं चाहता था; उन्हें कायल करना चाहता था । • वह समूचे समाधान के साथ ही अपनी टीम के समक्ष समस्यायें प्रस्तुत करता आया है। समाधान विहीन मात्र समस्यायें प्रस्तुत कर अपने ही सहायकों को अनन्त सम्भावनाओं की अंधेरी गलियों में भटकने के लिए अकेला छोड़ देना कभी भी समकित की आदत नहीं रही। • वर्तमान जीवनक्रम भी बिना किसी गतिरोध व प्रतिरोध के यथावत् चलता रहे व मुझे अपने साध्य की सिद्धि के लिए भी अवकाश मिल सके यही है, उसके आज के चिन्तन का बिन्दु | • व्यर्थ ही रिक्तता के अहसास के साथ बोझिल जीवन जीने की अपेक्षा सम्पूर्णता के छद्म आभास के साथ जीना उन्हें ज्यादा अच्छा लगता था
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
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