SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहने देना चाहते, उसे अपनी आशा-आकांक्षा व आदर्शों के अनुरूप ढालना चाहते हैं तो हमें अपने उन आदर्शों को मात्र सरसरी तौर पर पढ़ लेना और पढ़कर छोड़ देना पर्याप्त नहीं है, हमें उन पर गहराई से विचार करना होगा, अपने चिन्तन को विस्तार देकर जीवन के हर पहलू पर, हर परिस्थिति पर घटित करना होगा और उपयुक्त पाये जाने पर उसे क्रियान्वित करने की कार्ययोजना तैयार करनी होगी और अन्ततः जुट जाना होगा, उसे साकार करने में, बिना थके, दिन-रात । जिसप्रकार वाहन निर्माता, जब किसी नए मॉडल का विकास करते हैं, तो वे उसे हर सम्भावित परिस्थिति में कार्यक्षम बनाने के लिए, कृत्रिम रूप से सभी परिस्थितियों का निर्माण करके, वाहन का परीक्षण करते हैं व उपयुक्त पाये जाने पर वाहन का निर्माण करते हैं। अपने विचारों के अनुरूप अपने जीवन को ढालना कोई एक दिन का कार्य नहीं है, वरन् यह एक सतत् प्रक्रिया है। जीवन को आकार देना तो बात ही और है, पर विचारों को भी आकार देना साधारण काम नहीं है। जिसप्रकार आधारहीन, भारहीन तिनके हवा से विचलित हो जाते हैं, बिखर जाते हैं; उसीप्रकार हमारे विचारों का प्रवाह भी, नित्यक्रम के अत्यन्त सामान्य से घटनाक्रमों से छिन्न-भिन्न हो जाता है। इसप्रकार तिनकों से बने घोंसले के समान हमारे विचार जीवन भर बदलते रहते हैं; 'विचारधारा' का आकार ग्रहण नहीं कर पाते। जब विचार ही आकार नहीं ले पायेंगे तो जीवन कैसे आकार लेगा। बिखरे-बिखरे, कमजोर विचार एक सुव्यवस्थित विचारधारा का रूप धारण कर सकें, इसके लिए आवश्यक है - निरन्तर चिन्तन, व्यवस्थित चिन्तन, प्रतिदिन, प्रतिपल । और हम हैं कि सोचने की हमें आदत ही नहीं। हमारे अपने न कोई विचार हैं और न कोई व्यवस्थित विचारधारा। इसे विडंबना नहीं तो क्या कहें कि मात्र विचार करने की प्रबल क्षमता और अत्यन्त विकसित विचाराधाराओं का संग्रह ही मानव को अन्य प्राणियों से पृथक् करता है; प्राणिसमूह में विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। आहार, निद्रा, भय व मैथुन जैसी अन्य वृत्तियाँ तो कमोवेश सभी प्राणियों में समानरूप से पाई ही जाती हैं; ऐसे में यदि मानव विचार करना ही छोड़ दे, विचारहीन हो जावे, उसकी कोई विचारधारा ही न रहे तो फिर वह पशुओं की अपेक्षा किसप्रकार विशिष्ट रह सकेगा। अन्तर्द्वन्द/vii मानव के रूप में जन्म ले लेना मात्र पर्याप्त नहीं है, हमें मानव बनना होगा। मानव देह पा लेने में, प्रत्यक्ष तौर पर हमारा अपना कोई पुरुषार्थ नहीं है, कोई योगदान नहीं है; पर मानव बनने का पुरुषार्थ हमें स्वयं ही करना होगा। मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तिका में प्रस्तुत किए गए सूत्रात्मक विचारों को विस्तार देकर, उन्हें अपनी वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आकार देकर प्रबुद्ध पाठक अपने जीवन में ढालने का कार्य स्वयं ही कर लेंगे; तथापि मैं जानता हैं कि यह सबकुछ इतना आसान भी नहीं है। अल्पकथन का विस्तार कर लेना व उसमें से अकथ्य की भी कल्पना करके एक सम्पूर्ण विचार का सृजन कर लेना मात्र तभी सम्भव है, जब विचारों का यह सम्प्रेषण, आदान-प्रदान समानान्तर विचारधाराओं व समकक्ष मानसिकताओं वाले दो व्यक्तियो के बीच हो रहा हो। ___ यदि नितान्त अपरिचित या विभिन्न मानसिकताओं वाले व्यक्तियों तक अपने विचार पहुँचाने हों तो, विस्तार पूर्वक, सरल भाषा में, प्रतिदिन के जीवन की घटनाओं के माध्यम से, सुरुचिपूर्ण ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। उक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपने इन्हीं विचारों की व्याख्या करते हुए प्रसंगों के माध्यम से, विभिन्न चरित्रों का सहारा लेते हुए, एक उपन्यास शीघ्र ही मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। प्रसंगवश अपना मनोगत आपके समक्ष व्यक्त कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने पाया कि मोक्षाभिलाषियों के परम सौभाग्य से जिनागम में द्रव्यानुयोग से संबंधित आध्यात्मिक ग्रन्थों की टीकाओं की एक समृद्ध व निर्बाध परम्परा आज तक चली आ रही है व आगम तथा अध्यात्म की जटिलतम चर्चाएँ, आज की सरलतम भाषा व सुबोधतम शैली में उपलब्ध हैं, पर प्रथमानुयोग के बारे में ऐसा नहीं है। प्रथमानुयोग का उद्देश्य होता है - विस्तार रुचिवाले, अपेक्षाकृत कम क्षयोपशमवाले मनुष्यों के लिए सरल भाषा में कथानकों व महापुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से, संसार व मोक्ष के स्वरूप का दिग्दर्शन करके, संसार मार्ग से निकालकर मोक्ष में लाने का प्रयास करना। उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु जिन प्रथमानुयोग ग्रंथों की रचना हुई, वे सब - अपनी बात/viii
SR No.008339
Book TitleAntardvand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size150 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy