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गया, तब भी वह बेगाना ही बना रहा ?
क्या उसके प्रति मेरा; मेरा ही क्या हम सभी का यह उपेक्षाभाव अनन्त क्रोध, अनन्त द्वेष की श्रेणी में नहीं आता ? यदि ऐसा है तो हमने कभी क्यों नहीं सोचा कि इन भावों का फल क्या होगा?
अरे लोक में भी खून की सजा खून या आजीवन कारागार होती है। एक खून करो और जीवनभर कारागार में रहकर उसका कर्ज उतारो; फिर हर पल किये गये किसी की संवेदनाओं के खून का मुझे क्या प्रतिफल मिलेगा ? क्या कभी मुझे भी इसीतरह अपना पूरा जीवन झोंककर किसी का कर्ज उतारना होगा ?
काश! यह आज वाली समझ मुझे पहिले ही आ जाती। जीवन तो जीना ही था, यदि विचारपूर्वक जिया होता तो यही जीवन, जीवनमरण का अन्त करनेवाला साबित होता, जो अब अनन्त भव-भ्रमण का निमित्त बनकर रह गया है।
कितना आत्ममुग्ध था मैं अपने मनोभावों को प्रकट न होने देने वाली अपनी व्यवहार शैली पर इसे मैं जीवन जीने की कला मानता रहा और अपनी इस काबिलियत पर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाता रहा। हालांकि मन मेरा भी थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा, मलिन ही था; पर लोग मुझे महन्त समझते रहे और मैं भी अपने व्यवहार से उन्हें यही आभास देता रहा । शायद यही कारण रहा कि मुझे सचमुच महन्त बनने की आवश्यकता ही महसूस न हुई; क्योंकि तत्कालिक तौर पर तो मुझे महन्तपने की मान्यता मिलती ही रही, पर मैंने कभी यह तो सोचा ही नहीं कि मेरा यह व्यवहार मायाचार की श्रेणी में आता है और मुझे अपने इस एक-एक पल के मायाचार के लिए युगों-युगों तक क्या कीमत चुकानी होगी ?
क्या यही जीवन सीधे व सरल व्यवहार के साथ नहीं जिया जा सकता था ? तब भी क्या कसर रह जाती मेरे जीवन में ? यूं तो यह शाश्वत अन्तर्द्वन्द / २१
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सत्य है कि मान-प्रतिष्ठा, भोगसामग्री, अधिकार व अनुकूल-प्रतिकूल संयोग सब पूर्वकृत पुण्य-पापादि के उदयानुसार ही मिलते हैं और यदि मेरे तद्रूप पुण्य का उदय था तो इन सबसे मुझे कौन वंचित कर सकता था ? तब क्या मेरा यह छलकपट भरा व्यवहार व्यर्थ ही न रहा ?
अरे व्यर्थ कैसे रहेगा, वह तो अनर्थ का सृजन करेगा, तब शायद मैं विचार करूँगा कि यह मुझे किन पापों की सजा मिल रही है, पर शायद मुझे तब अपने इन पापों की स्मृति ही नहीं रहे और स्मृति रहे भी तो क्या ?
मैंने अपने इन क्रियाकलापों को, अपनी इन करतूतों को पाप माना ही कब है? मैं तो इन्हें जीवन जीने की कला मानता रहा और इस जगत में अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक मानता रहा। मैं मानता रहा कि यदि यह सब न किया जावे तो जीवन सफलता पूर्वक जिया ही नहीं जा सकता; पर आज मैं स्वयं ही यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आखिर मेरी इस मान्यता का आधार ही क्या है ?
मेरी यह मान्यता आखिर क्यों बनी कि छलकपट रहित सीधे-सादे व्यवहारपूर्वक, जीवन सफलता पूर्वक नहीं जिया जा सकता ?
आज जब गम्भीरता पूर्वक विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि यह सब मेरा मौलिक चिन्तन नहीं है, मैंने इस बारे में सोचा ही कब है ? अरे मेरे इस जीवन में चिन्तन को अवकाश ही कहाँ था ? यह मान्यता व इसीतरह की अन्य अनेक धारणायें तो मात्र जगत के वातावरण में से जगत की प्रचलित सामान्य मान्यताओं व कार्य प्रणालियों में से अनजाने ही ग्रहण कर लीं और उनका अनुसरण करने लगा। पर क्या सचमुच यह जीवन इसीतरह जिये जाने के योग्य था ?
क्या मुझे स्वयं चिन्तनपूर्वक अपने लिए, अपनी रुचियों व योग्यताओं के अनुरूप, जीवन-शैली का विकास नहीं करना चाहिए था? क्या अपने इस जीवन के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित नहीं करने चाहिए थे ? और फिर अन्तर्द्वन्द / २२